रविवार, 9 नवंबर 2014

14 : अर्द्ध विराम

                                                                   अर्द्ध विराम
                                                                   =======

          विलियम बटलर यीट्स की कविता का एक अंश :

          'But I, being poor, have only my dreams 
          I have spread my dreams under your feet,
          Tread softly,
          For, you tread on my dreams.'
            
          'गरीब होने के कारण मेरे पास केवल मेरे सपने हैं,
          उन सपनों को मैंने तुम्हारे कदमों तले बिछा दिए हैं,
          संभल के चलो
          क्योंकि तुम मेरे सपनों को रौंद रहे हो॰'

          जीवन में जब भी मैंने कोई निर्णय लिया- सोच-विचार कर लिया, जो भी किया- जो उचित लगा वह किया फिर उन्हें गलत या सही घोषित करने की गुंजाइश कहाँ है ? सच पूछिए तो हमारे निर्णय न तो सही होते और न ही गलत, वे मात्र निर्णय होते हैं। मनुष्य की भूमिका में केवल निर्णय लेना हमारे हाथ में है लेकिन परिणाम कभी-कभार मनमाफ़िक आते हैं तो कई बार मन को संताप देने वाले। ऐसा होता तो वैसा हो जाता, वैसा होता तो ऐसा हो जाता- इस तरह सोचने से क्या मिलेगा ? जो हुआ, वही तो होना था।
          जीवनयापन करना कोई कठिन बात नहीं है, पेट है- तो भरेगा ही लेकिन कोई भी मनुष्य हो, जीवन को यूं ही नहीं जीना चाहता। सबके सपने होते हैं, लक्ष्य होते हैं, अभिलाषाएँ होती हैं जिन्हें हासिल करने के लिए वह कोशिश करता है- चाहे हासिल हो, या, न हो ! मैं अपने संयुक्त परिवार से मिल-जुल कर जीना चाहता था, जिसमें मेरी खुशियाँ भी उनके साथ रहना चाहती थी लेकिन दोनों का तालमेल नहीं बैठा। मेरी समझ में यह आया कि यदि कोई अपने सलीके से जीना चाहता है तो संयुक्त परिवार उसके लिए सही 'प्लेटफार्म' नहीं है; उसे उस बाधा से सही समय पर दूर हो जाना चाहिए।
          संयुक्त परिवार की व्यवस्था मेरे लिए न उपयोगी सिद्ध हुई और न ही सुखदायक। वह समय परिवार से जुड़कर रहने का समय था। उन दिनों शिक्षा का महत्व कम था, खास तौर से व्यापारियों के परिवारों में पढ़ाई-लिखाई को समय की बर्बादी माना जाता था। मैंने तो स्वयं को अपने परिवार की गैर-जानकारी में किसी सिद्ध चोट्टे की तरह पढ़ाई से जोड़े रखा, बिलकुल उसी तरह, जिस तरह हम लोग छुप-छुप कर सिनेमा जाया करते थे।
          अपना बचपन सिसक-सिसक कर बिताया, जवानी जी-जान लगाकर काम करते, व्यापार करते बिताई लेकिन हाथ में आया- शून्य बटा अंडा ! जिस घर में मैं पैदा हुआ, जहां बड़ा हुआ, शादी हुई, बच्चे हुए, सुख-दुख देखे, अनुमान यह भी था कि इसी घर से मेरी मिट्टी उठेगी - उस घर को अत्यंत पीड़ादायक परिस्थितियों में छोड़ना पड़ा, क्यों ?
          मेरे जो सपने थे उन्हें मैंने अपने परिवार के ताने-बाने में बुना था। एक धागे की मानिन्द मेरा अस्तित्व अलग से नहीं था, पता नहीं उस वस्त्र में मैं कहाँ विलीन था लेकिन वह दिन भी आया जब मैं उस वस्त्र का हिस्सा नहीं रह गया, खींचकर निकाल दिया गया एक उपेक्षित धागे मात्र की तरह। जिनके कदमों तले मैंने अपने सपने बिछाए थे वे मुझे कुचलते हुए कहीं दूर खड़े हो गए और चुपचाप मेरा तमाशा देखते रहे।
       
          'हद-ए-शहर से निकली तो गाँव-गाँव चली
          कुछ यादें मेरे संग पाँव-पाँव चली, 
          सफ़र जो धूप का किया तो तज़ुर्बा हुआ
          वो जिन्दगी ही क्या जो छाँव-छाँव चली.'

        मेरी कहानी अभी भी खत्म नहीं हुई है, जिन्दगी ज़ारी है, जद्द-ओ-जहद जारी है। जिंदगी का क्या है, जब तक सांस है तब तक मजबूरी है। इन पथरीले रास्तों पर चलना अगर ज़िंदगी है तो यह रास्ता बहुत बचा है। आपसे बहुत कुछ बतियाने का मन कर रहा है लेकिन अभी इतना ही। इसके आगे की कहानी में और भी 'ट्विस्ट' हैं जो थमने का नाम ही नहीं ले रहे हैं। इसके बाद की ज़िन्दगी के किस्से आपको और बताऊंगा, जरा सांस ले लूँ।
==========
                                                    ( समाप्त : पल पल ये पल )

शुक्रवार, 26 सितंबर 2014

12 : ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है


          'लौट के बुद्धू घर को आए'- घर क्या आए, घर बदल न पाए। वैसे भी, समस्या से समाधान की डगर बहुत लंबी होती है, बहुत दूर ! दरअसल, समस्या को समझना बहुत बड़ी समस्या है। जो व्यक्ति समस्याओं से घिरा रहता है वह अपनी परेशानियों में इस तरह फंसा रहता है कि उसका दिमाग ठीक से काम नहीं करता और करता भी है तो नकारात्मक विचार उसके रास्ते में कांटे बिछाते रहते हैं। 'समय खराब चल रहा है'- की सोच उसे प्रत्येक उपलब्ध विकल्प पर आगे बढ़ने से रोकती है। असफल व्यक्ति के आसपास जुड़े लोग भी उसके द्वारा लिए गए निर्णयों से भयभीत रहते हैं।
          तीन दशक चले वे कठिन दिन मेरी पत्नी और बच्चों के सहयोग से कट पाए। कई बार मुझे लगता था कि उनके असुविधापूर्ण जीवन के लिए मैं जिम्मेदार हूँ, उनके साथ बहुत अन्याय हुआ। माधुरी को पहले संयुक्त परिवार की बहू होने के अपार कष्ट रहे। कष्ट का अर्थ 'घर का काम करने का कष्ट' न समझ लीजिएगा, पारिवारिक पृष्ठभूमि पर बनी पुरानी हिन्दी फिल्मों को देख लीजिएगा- वैसे सभी तमाशे ! संयुक्त परिवार से मुक्ति मिली तो भुक्कड़ पति का संग। कोई इस युग की आधुनिका होती तो निश्चय ही मुझ जैसे पति को त्याग देती। 
          मेरा अनुमान था कि शहर बदलने के निर्णय में भी वे मेरा साथ देंगी लेकिन न जाने क्यों, वे अपना मन नहीं बना पाई। उन्होंने पुणे में बसने से साफ़ मना कर दिया, मैं चुप रह गया। मेरे जीवन की यह तीसरी बड़ी भूल थी। तीसरी ? हाँ, तीसरी, पहली भूल- किशोरावस्था में जब मुझे पारिवारिक व्यापार से हटकर कुछ अलग करने का अवसर मिला, मैं उसे चूक गया; दूसरी भूल- मैंने अपनी मूर्खतावश 'पेंड्रावाला' की दूकान अपने छोटे भाई को सौंप दी, साथ में वहाँ की देनदारी अपने सिर पर ले ली; तीसरी भूल- पुणे जाने के निर्णय को मैं अमली जामा न पहना पाया। काश, मनुष्य अपने भविष्य का पूर्वानुमान लगा पाता और उसके अनुसार निर्णय लेकर आगे बढ़ता !
          भविष्य की बात चली तो एक बात बताना तो मैं आपको भूल ही गया- माधुरी की हस्तरेखा विज्ञान में बहुत रुचि थी। 'कीरो' से लेकर अनेक देसी-विदेशी भविष्यवक्ताओं की किताबों का अध्ययन उन्होंने दस-पंद्रह वर्षों तक किया और उस विज्ञान को जानने-समझने की कोशिश की। वे अपने परिचितों के हाथ देखती लेकिन किसी को कुछ बताने में संकोच करती और कहती- 'जब तक इस शास्त्र को गहराई से न जाना जाए, कोई भी भविष्यवाणी करना न्यायोचित नहीं है।' सबसे ज़्यादा वे मेरा 'पाम' झाँकती क्योंकि मेरे उनमें असंख्य रेखाओं का जाल है। पर्वत, त्रिशूल, 'क्रॉस', चतुर्भुज, त्रिभुज, शंख, जुड़ी रेखाएँ, अधूरी रेखाएँ, उलझी रेखाएँ, टूटी रेखाएँ- मतलब यह- कि जो देखना हो, सब हाज़िर है। आम तौर पर रात को सोने के पूर्व उनका अध्ययन चलता था और साथ-साथ मेरे हाथ की रेखाओं का अवलोकन भी। एक बार की बात है, मैंने उनसे कहा- 'तुम अक्सर मेरा हाथ देखती हो लेकिन कुछ बताती नहीं हो।'
'चलो, आज पूछ लो, क्या पूछना है ?' माधुरी ने कहा।
'मेरी कितनी शादियाँ होंगी ?'
'तीन।'
'पर, मेरी तो एक ही हुई है !'
'देखो, तुम्हारी रेखाएँ बता रही हैं कि शादी तुम्हारी एक ही होगी लेकिन जो बीवी आएगी वह तीन के बराबर होगी।' उन्होंने मेरा ज्ञानान्धकार दूर किया।
          पुणे प्रवास के बारे में बताने के चक्कर में कथा भटक गई और हमारे पुत्र कुन्तल की पढ़ाई के बारे में आपको बताना रह गया ! उन्होंने हमसे एक साल का दीर्घकालीन अवकाश लिया था, वह एक वर्ष उनकी निष्ठा और लगन के परीक्षण का काल था. उन्हें जैसे कोई धुन सवार हो गई थी. उन्होने बारहवीं की परीक्षा में अँग्रेजी तथा गणित में 'विशेषयोग्यता' के साथ प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए। कुछ समय बाद मध्यप्रदेश व्यावसायिक मण्डल भोपाल द्वारा आयोजित 'प्री इंजीनियरिंग टेस्ट' के परिणाम आ गए। उस वर्ष 50 हजार से अधिक प्रतियोगियों ने उस प्रतिस्पर्धा में भाग लिया था, कुंतल को 80% अंकों के साथ 72वीं 'रेंक' मिली। हमारा अनुमान था कि देश के किसी प्रतिष्ठित अभियांत्रकी महाविद्यालय में उन्हें प्रवेश मिल जाएगा, जबकि कुन्तल तमिलनाडु के 'त्रिची रीजनल इंजीनियरिंग कालेज' (अब, आई॰आई॰टी॰) में प्रवेश की आस लगाए बैठे थे। 'काउंसिलिंग' के लिए भोपाल बुलाया गया था, यह तय हुआ कि साथ में मैं भी जाऊंगा लेकिन मेरे पास ठीक-ठाक कपड़े नहीं थे। माधुरी ने कहा- 'बाज़ार से दो 'रेडीमेड पेन्ट' ले आओ, वहाँ देश भर के लोग आएंगे, तुम्हें देखेंगे, पुराने कपड़े में अच्छा लगेगा क्या ?'
          अपनी जेब तंग थी लेकिन पत्नी के आदेश के तहत मैंने दो फुलपेंट खरीदे, 'अटैची' लगाई और निर्धारित तिथि को कुन्तल के साथ भोपाल पहुँच गया।

          भोपाल प्रवास के लिए जो फुलपेंट खरीदे थे, उसमें से एक की सिलाई मेरे पहनते ही उधड़ गई। डर के मारे मैंने दूसरे को पहना ही नहीं ताकि उन दोनों को दूकानदार से बदल सकूँ। अपना पुराना 'पेंट' पहनकर ही वहाँ के 'रीजनल इंजीनियरिंग कालेज' में 'काउंसिलिंग' के लिए पहुँच गए। पूरे दिन वहाँ की दौड़-धूप और बदइंतज़ामी से जी हलाकान हो गया। वहाँ पदस्थ सब लोग निहायत बद-तमीज़ थे,  काम न करने या उसे टालने के उस्ताद थे। अगर कुन्तल के प्रवेश का दबाव न होता तो मैं वहाँ 'भिड़' जाता और बात बिगड़ जाती लेकिन अपने देश में रहते-रहते चुप रहने और सहने का अभ्यास वहाँ काम आया। अजीब है हमारी व्यवस्था- घर हो या बाहर, चुप रहो !
          कुन्तल का काम बन गया, उनका मनपसंद कालेज 'त्रिची आर॰ई॰सी॰' उनको मिल गया। हम दोनों ख़ुशी-ख़ुशी बिलासपुर वापस लौट आए। मैं दोनों फुलपेंट लेकर दूकानदार के पास गया और उसका फटा-हाल दिखाया। उसने कहा- 'सिलवा देता हूँ।'
'मैं इस 'ब्रांड' का पेंट नहीं लूँगा, इसकी सिलाई इतनी कमजोर है कि यह पहनते ही खुल गई। मुझे कोई दूसरा ब्रांड दीजिए।' मैंने कहा।
'नहीं, पेन्ट बदले नहीं जाएगे, 'रिपेयरिंग' करवा देता हूँ।'
'बदलेंगे क्यों नहीं ?'
'आपकी साइज़ के हिसाब से इसकी लंबाई कम की गई है, अब इसे किसी को कैसे बेचूंगा ?'
'मेरी ऊंचाई 5'11" है, मैं लंबा हूँ, मुझसे कम ऊंचाई के ग्राहक आपको मिल जाएंगे। दूसरी बात, आप इसे उत्पादक को वापस भेजिए ताकि उसे भी मालूम पड़े कि उसने बाज़ार में कितना घटिया सामान 'सप्लाई' किया है।'
'वे वापस नहीं लेते, न ही शिकायत सुनते, मैं इसे सुधरवा देता हूँ।'
'क्या सुधारवाओगे आप ? उधड़ी हुई सिलाई या पूरा फुलपेन्ट ?'
'उधड़ी हुई सिलाई।'
'जब इसकी सिलाई कमजोर है तो यह फिर उधड़ेगा, मैं आपके पास कितनी बार इसे रिपेयरिंग के लिए लाऊँगा और आप कितनी बार सुधरवाओगे ? मुझे आपने खरीदते वक्त इसकी 'क्वालिटी' अच्छे होने का भरोसा दिलाया था, मैंने आपकी बात पर भरोसा करके इसे लिया था, अब मेरा इस 'प्रॉडक्ट' पर भरोसा नहीं, आप किसी दूसरी 'कंपनी' का दे दीजिए।'
'नहीं, वैसा नहीं हो पाएगा।'
'क्यों ?'
'ऐसा नहीं हो सकता।'
'तो फिर, इन दोनों को आप ही रख लीजिए, नमस्ते।' मैंने कहा और उस दूकान से बाहर निकल गया। बहुत मुश्किल के दिनों में तेरह सौ रुपए की वह खरीदी मुझे अखर गई। इस घटना को बीते पंद्रह वर्ष हो चुके हैं, मैं जब भी इसे याद करता हूँ, मेरा दिल कचोट जाता है।

          कुन्तल का कॉलेज में प्रवेश कराना था. प्रवेश शुल्क पंद्रह हजार रूपए, हास्टल का दो हजार, हाथ खर्च के दो हजार, त्रिची रुकने, खाने-पीने और राह खर्च के एक हजार, कुल मिलाकर बीस हजार रूपए का इंतज़ाम हो तो काम बने लेकिन प्रश्न यह था कि कैसे ? मैं अपने परिचितों में से किसी ऐसे व्यक्ति की तलाश में था जो इतनी बड़ी रकम की व्यवस्था बना दें लेकिन कुछ समझ में नहीं आ रहा था. त्रिची जाने और वापस लौटने का आरक्षण करवा लिया था लेकिन कॉलेज वाले बिना फीस लिए मानने वाले नहीं थे. जिस शाम हमें त्रिची के लिए निकलना था, धीरे-धीरे वह दिन आ पहुंचा. सुबह की चाय पीते-पीते माधुरी ने पूछा- 'तुम लोग आज शाम को निकलनेवाले हो ?'
'हाँ.'
'पैसे का इंतज़ाम हो गया ?'
'नहीं.'
'नहीं ! फिर ?'
'देखता हूँ, आज दिनभर का समय है.'
'मेरी चूड़ियाँ ले जाओ, बेच दो, देखो शायद इससे काम बन जाए.'
'नहीं, तुम्हारे गहने में हाथ नहीं लगाऊँगा, इतना बुरा समय गुजार लिया, तुमसे मैंने कभी इसके लिए नहीं कहा. इन्हें सुरक्षित रहने दो, तीनों बच्चों के विवाह में काम आएगा, कम से कम ये तो बचे रहें.' मैंने समझाया.  
          हमारे शहर में एक मोहल्ला है- गोंड़पारा, जहाँ एक मंदिर है- सीताराम मंदिर, वहाँ के 'आल-इन-वन' हैं- पं.लक्ष्मणशरण मिश्र, रविशंकर विश्वविद्यालय रायपुर में दर्शनशास्त्र के 'प्रोफेसर' थे, सेवानिवृत होने के बाद वे 'सीता-राम' की सेवा में लीन रहते हैं। उनके पास बैठना, धार्मिक-सामाजिक-राजनैतिक विषयों पर चर्चा करना, सुखद अनुभव होता है। उस दिन मन विचलित था इसलिए मैं उनके पास चला गया ताकि उनके साथ चर्चा करके मन को स्थिर कर सकूँ। नाश्ते में बिना प्याज का पोहा आया, चाय आई और लगभग एक घण्टे विविध विषयों पर बातचीत होती रही। अचानक पंडितजी ने मुझसे कहा- 'क्या बात है द्वारिका भइया, आपका मन खिन्न जैसा लग रहा है, आज आपका ध्यान कहीं और है क्या ?'
'जी, पंडित जी।'
'क्या बात है ?'
'कुन्तल का 'एडमीशन' कराने आज त्रिची के लिए निकलना है, घनघोर अर्थसंकट है, कैसे जुगाड़ करूँ- मेरी बुद्धि काम नहीं कर रही है।'
'क्या बात कर रहे हैं आप ? आपको अर्थसंकट ? सच बोल रहे हैं !'
'जी, उसी उधेड़बुन में लगा हूँ।' मैंने उनको बताया। वे सोफ़े से उठे, आलमारी खोली, चेकबुक निकाली और मुझसे पूछा- 'कितने रुपए की आवश्यकता है ?'
'बीस हजार।' मैंने कहा। उन्होंने चेक तैयार किया और मुझे दे दिया। वे बोले- 'लीजिए बीस हजार का चेक, 'सेल्फ' है, पंजाब बैंक से निकाल लीजिएगा।'
'आप मेरी इतनी मदद कर रहे हैं लेकिन एक समस्या है, मैं इसे कब वापस कर पाऊँगा, मुझे मालूम नहीं।'
'कोई बात नहीं, जब सुविधा हो, दे देंगे, ये मंदिर ट्रस्ट का पैसा है, आपसे कोई तगादा नहीं होगा।' उन्होंने बड़े प्यार से कहा। मैंने उनके चरणस्पर्श किए और दूकान आकर माधुरी को रुपए की व्यवस्था के बारे में बताया।
          उस दिन कृष्ण जन्माष्टमी का पर्व था, रात की ट्रेन से कुन्तल अपने घर से पढ़ाई के लिए निकले, सो निकल गए, आज तक वापस नहीं आए। जी हाँ, वे बाहर के ही रह गए। आप सोच रहे होंगे- 'आखिर ऐसा क्या हुआ जो वापस नहीं आए ?' बताऊंगा, ज़रूर बताऊंगा, उन्हें इंजीनियरिंग करने में चार वर्ष लगेंगे, अभी उन्हें पढ़ाई तो करने दीजिए !  

          काश, हम सब की ज़िन्दगी रोचक होती ! हम सब मज़े से जीना चाहते हैं लेकिन आस-पास के हालात हमारी चमड़ी उधेड़ते रहते हैं और हम अपने बदन को छिला हुआ देखकर भी यह नहीं तय कर पाते कि इस बार हंसें या रोएँ ! पुरानी कहावत है कि एक हाथ से ताली नहीं बजती लेकिन आपको आश्चर्य होगा कि मैंने अपने जीवन में अक्सर एक हाथ से ताली बजाई ! एक मेरा हाथ और दूसरा मेरा गाल ! घर से अलग होने के बाद भी मैं अपने परिवार से कभी अलग नहीं हुआ, अपने माँ-बाप और भाइयों से अलग नहीं हुआ। उनके दुख-सुख को अपना माना, कहा-सुनी-अपमान को दुर्लक्ष्य किया और हर मोड़ पर अपनी औकात से बाहर जाकर उनसे जुडने तथा रिश्तों को सहेजने की कोशिश की लेकिन आप तो जानते हैं कि जब परिवार में समझदारी और तालमेल इकतरफ़ा हो जाते है तो फिर आपस में शोषक और शोषित के रिश्ते बन जाते हैं, 'परिवार' की अवधारणा ध्वस्त हो जाती है।
          सिगमंड फ्रायड ने कहा है- 'आदमी असाध्य है। ज़्यादा से ज़्यादा हम इतनी उम्मीद कर सकते हैं कि वह एक समायोजित व्यक्ति की तरह जी ले, इससे ज़्यादा की कोई आशा नहीं। आदमी सुखी नहीं हो सकता। हम केवल इतना इंतज़ाम कर सकते हैं कि वह बहुत अधिक दुखी न हो।'
          घर-परिवार में कान भरने वाले अपना काम बखूबी अंजाम दे देते हैं, वे तो अपनी दुर्बुद्धि दे जाते हैं, इधर परिवार की आंतरिक व्यवस्था लड़खड़ा जाती है। हमारे घर में भी ऐसा ही हुआ। मैंने आपको बताया था कि छोटे भाई के घर छोडने के बाद दद्दा जी और अम्मा जी के लिए भोजन का 'टिफिन' हमारे घर से जाता था, अनवरत तीन वर्ष तक जाता रहा, वे दोनों भोजन और हमारी देखरेख से संतुष्ट थे, जो कुछ और खाने का मन होता तो वे माधुरी को कह देते तो वह भी बना कर उन्हें अवश्य भेजा जाता। यद्यपि हम लोग अलग घर में रहते थे लेकिन उन्हें अकेला नहीं छोड़ा जा सकता था इसलिए माधुरी अक्सर शाम के वक्त उनके पास पहुँच जाती, उनसे बातें कर लेती, स्वास्थ्य का हाल-चाल पता करके डाक्टर और दवा-दारू का इंतज़ाम करती या उसके लिए मुझसे कहती। इस 'अधिक आने-जाने' के कुछ 'अधिक' अर्थ निकाल लिए गए और कुछ परिवारजनों के पेट में दर्द होने लगा। दद्दा जी के कान सफलतापूर्वक भर दिए गए और वे उनके कहने में आ गए, संभवतया उन्हें भी हमारी भूमिका संदेहास्पद लगने लगी हो, किसी एक छुट्टी में संगीता बिलासपुर आई हुई थी, दद्दा जी को प्रणाम करने गई। बातचीत के दौरान दद्दा जी ने कुछ अज़ीब-ओ-गरीब बातें उनसे कहीं और साथ में यह भी कहा- 'तुम्हारी मम्मी टिफिन भेजती है तो कोई अहसान करती है क्या ? बाजार से दस रुपए में खाना मँगवा सकता हूँ।'
          मैं कहीं बाहर गया हुआ था, जब घर लौटा तब मुझे यह सब मालूम हुआ। मैंने माधुरी को वहाँ टिफिन  भेजने के लिए मना कर दिया। माधुरी मुझसे असहमत थी, बोली- 'दद्दा तो कहते रहते हैं, बोल दिए होंगे, उन दोनों को कौन खाना देगा ?'
'बाज़ार से मंगवाएंगे, उनके पास बहुत पैसे हैं, मैं उनको आज मना कर देता हूँ।' मैंने कहा।
'इस तरह नाराज़ मत हो, उनको बहुत अड़चन हो जाएगी।' उस रात हम दोनों ने निष्कर्ष पर पहुँचने की कोशिश करते रहे लेकिन अनिर्णय की स्थिति बनी रही। अगली सुबह माधुरी बोली- 'तुम इतनी तकलीफ़ में हो, सब मज़े में हैं, किसी को तुम्हारी तकलीफ़ समझ में नहीं आती। सारा बोझ तुम पर डालकर बाकी लोग बे-फिक्र हैं, चलो ठीक है, अब उनको सेवा का अवसर दिया जाए। ठीक है, आज से टिफिन नहीं भेजूँगी।'
          दूकान आकर मैंने दद्दाजी को फोन किया- 'कल का खाना आपको कैसा लगा ?'
'अच्छा था, क्यों ?' दद्दाजी ने पूछा.
'वह मेरे घर से आपके लिए भेजा गया आखिरी खाना था.' मैंने उन्हें बताया और अपने निर्णय की जानकारी दे दी। दद्दाजी ने मुझसे कारण पूछा तो मैंने बताया- 'आपने संगीता से ऐसा कहा है ?' दद्दाजी बोले- 'मैंने ऐसा नहीं कहा।'
'तो फिर ये बात कहाँ से आई ?'
'मुझे नहीं मालूम।'
'हो सकता है आपने ऐसा न कहा हो, संगीता ने मुझे गलत बताया हो लेकिन अब खाना नहीं आएगा। अब उन्हीं से भोजन के लिए कहिए जो लोग आपको हमारे खिलाफ भड़का रहे हैं, वे आपकी व्यवस्था करेंगे। अलग रहने और इतनी तकलीफ में होने के बावजूद हम इतना कर रहे थे फिर भी इस ढंग की बात हमें सुननी पड़ेगी, ऐसा कभी सोचा न था। मैं आपसे बहुत दुखी हो गया हूँ दद्दा जी।' इतना कहकर मैं रो पड़ा, मैंने फोन रख दिया और बहुत देर तक अपनी दूकान में बैठा रोता रहा।
         वह १० मार्च १९९९ का दिन था. उस दिन के बाद मेरी और दद्दा जी के बीच बातचीत बंद हो गई। उस दिन के बाद मैं बहुत दुखी हो गया। उस दिन के बाद दद्दाजी और अम्मा जी की दशा बिगड़ने लगी। उस दिन के बाद दद्दाजी बुरी तरह बीमार पड़ गए, सूखकर हड्डी का ढांचा रह गए। उस दिन के कुछ दिनों बाद हमारे माता-पिता को अपने घर से बेघर होना पड़ा। ये सब मेरे कारण हुआ, जी, मेरे कारण हुआ। मैं दोषी हूँ। मैं ऐसा निर्मम पुत्र हूँ जिसने अहंकार के वशीभूत होकर अपने वृद्ध माता-पिता को असमय भीषण कष्ट की ओर धकेल दिया। धिक्कारिए मुझे। मुझ जैसे दुष्ट के लिए ही गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा था :

"मो सम कौन कुटिल खल कामी,
जेहि तन दियो ताहि बिसरायो,
ऐसो नमकहरामी." 

          हमारा घर पहले एक मंदिर था- व्यंकटेश मंदिर, जो सेठ सीताराम राधाकिशन गाड़ोदिया का था। उस मंदिर की मूर्तियों को सन 1943 में सदरबाज़ार में एक नया मंदिर बनाकर स्थानांतरित कर दिया गया और उस खाली जगह को उन्होंने अपने व्यापारिक गोदाम के रूप में परिवर्तित कर दिया। दद्दाजी के वे संघर्ष के दिन थे, किराए के मकान में रहते थे। व्यापार चला, कुछ बचत हुई तो उन्होंने इस जगह को खरीदने का मन बनाया। सेठजी से मिले, उन्होंने इसकी कीमत दस हजार बताई, दद्दाजी के पास उतने नहीं थे इसलिए उस समय नहीं खरीद पाए। एक साल बाद जब दस हजार इकट्ठा हो गए तो उस जगह की कीमत हो गई बारह हजार ! द्वारिका प्रसाद दुबे ने दो हजार उधार दिए तब इसे सन 1945 में खरीदा गया। हल्की-फुल्की मरम्मत करवा कर हमारा परिवार 'अपने घर' में रहने आया। मेरा जन्म इसी घर में सन 1947 में हुआ था।
          इस घर की लंबी दास्तान है, यह घर एक साधारण रिहायशी घर नहीं था. इसमें इतनी रोचक और हृदय -विदारक घटनाएं हुई कि बांग्ला कथाकार शंकर जैसा लेखक 'चौरंगी' जैसा वृहत् उपन्यास लिख सकता है। बब्बाजी (मेरे दादाजी) के जीवनकाल में यह घर भी था और आस-पास के निवासियों के लिए एक धर्मशाला भी, यहां लोग अपने काम-काज के लिए जब बिलासपुर आते तो हमारे घर आकर रुकते, नहाना-धोना करते। उन सबको दोनों समय हमारी अम्मा लकड़ी के धुंआ देते चूल्हे में खाना बनाकर घूँघट डाले सबको परोसती-खिलाती लेकिन चेहरे पर कोई शिकन नहीं। रात को गद्दी पर सोने के पहले सब आगंतुकों को पीतल के गिलास में गरम दूध मिलता। मेहमान बदलते रहते लेकिन सिलसिला कभी न बदलता था। 
          उस युग में 'टेंट हाउस' न थे। परिचितों के घर में होने वाले कार्यक्रमों के लिए हमारे घर के एक कमरे में कई लोहे के कढ़ाव, पीतल के बड़े-छोटे गंज, थालियाँ, गिलास, कटोरे, चौघड़ा, टेनिया, करछुल और तांबे के टोंटी वाले गंगासागर (जग) आदि भोजन बनाने-परोसने के सामान, चांदनी, दरी, पातिया, खुशबू का छिड़काव करने के लिए गुलाब-पाश आदि सामान भरे पड़े थे जो सबके दुःख-सुख के कार्यक्रमों के लिए निःशुल्क उपलब्ध थे. बरात को राजसी 'लुक' देने के लिए दूल्हे को छाया देने वाले सोने की पालिश वाली चांदी से जड़ा हुआ छत्र-चंवर और उसके साथ अन्य शोभायमान वस्तुएँ लोग आकर ले जाते, काम हो जाने के बाद वापस कर जाते और हमारे परिवार को आशीषते थे.
          बब्बाजी के निधन के बाद व्यवस्था में कुछ परिवर्तन हुए, बब्बाजी 'बड़े दिल' वाले थे, वहीं पर दद्दाजी 'बड़े आदमी' थे। दद्दाजी की शहर के धनिकों में गिनती होती थी और सब लोग उन्हें आदरपूर्वक 'सेठजी' कहते थे। वे राजनीति के चतुर खिलाड़ी थे, सफल व्यापारी थे, साफ़गोई से बातें करने वाले दुस्साहसी व्यक्ति थे। सवा छः फुट के दद्दाजी जब धोती-कुर्ता और सफ़ेद टोपी धारण करके किसी समूह में पहुँचते तो सबकी आँखें उनकी ओर टिक जाती। उनसे सब डरते थे, पता नहीं किस बात पर वे किसकी 'परेड' ले लें ! वे कहा करते थे- 'चुप रहना और गम खाना मुझे पसंद नहीं।'
           राजनीति पर चर्चा करने के लिए प्रत्येक शाम घर में बैठक सजती जो रात को ग्यारह-बारह बजे तक चलती। मंत्री हो या पूर्व मंत्री, सांसद हो या विधायक- सब दद्दाजी से बात करने, उनकी राय लेने या डांट खाने आते और खुशी-खुशी लाभान्वित होकर जाते। हमारे शहर में कान्यकुब्ज ब्राह्मणों की बहुतायत है, दद्दाजी बनिया होने के बावजूद उन सभी परिवारों के अघोषित मुखिया थे, सबके काज उनकी सहमति और अनुमति से होते थे। शहर की कोई राजनीतिक उलझन, परिवारिक समस्या, रिश्तेदारी की समस्या, हिस्से-बटवारे की समस्या, लेन-देन की समस्या, स्कूल-कालेज की समस्या यदि उत्पन्न हो जाती तो लोग उनकी शरण में आते और 'दूसरी कक्षा पास' दद्दाजी ऐसे समाधान बताते कि वे संतुष्ट होकर उनकी बैठक से निकलते और उन्हें हृदय से धन्यवाद देकर जाते।
          मुझे याद है, सन 1960 में 'छत्तीसगढ़ राइस मिल एसोसिएशन' का गठन किया गया था, दद्दाजी उसके प्रथम अध्यक्ष मनोनीत किए गए थे। घर में बैठकें होती, गहमागहमी रहती, बड़े-बड़े प्रभावशाली लोग जमीन पर बिछी दरी में बैठे-बैठे मंत्रमुग्ध होकर उनकी बातें सुनते। वे मध्यप्रदेश शासन के खाद्यमंत्रालय की सलाहकार समिति के विशेष आमंत्रित सदस्य भी थे। 
          एक बार की बात है, नई दिल्ली में केंद्र सरकार के तात्कालीन खाद्य मंत्री सदोबा के॰ पाटील ने देश के समस्त राइस मिल एसोसिएशन की बैठक आमंत्रित की जिसमें दद्दाजी छत्तीसगढ़ का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। जब उनकी बोलने की बारी आई तो उन्होंने कहा- 'अभी तक आप लोग अंग्रेजी में जो बातें कर रहे थे, वह तो मुझे समझ में नहीं आई लेकिन एक बात समझ में आई कि जिन्हें अंग्रेजी समझ में आती है उन्हें देश की 'राइस पालिसी' समझ में नहीं आती।' उसके बाद उन्होंने केंद्र सरकार की 'एक राज्य से दूसरे राज्य में चावल भेजने पर पाबंदी' की नीति की जबर्दस्त धुलाई की। खाद्यमंत्री ने अगली सुबह उन्हें अपने घर बुलाया और विस्तार से बात की। दद्दाजी ने उन्हें समझाया- 'छत्तीसगढ़ चावल का कटोरा है जो पूरे देश की जरूरत को पूरा कर सकता है, आप हमें चावल अन्य प्रान्तों में भेजने की अनुमति दीजिए, हम पूरे देश को चावल से भर देंगे।' खाद्य मंत्री को उनकी बात जमी और केंद्र सरकार ने एक से दूसरे राज्य में चावल की आवाजाही पर लगे प्रतिबन्ध को वापस ले लिया परिणामस्वरूप देश में चावल की किल्लत दूर हो गई और साथ ही साथ छत्तीसगढ़ के चावल मिल मालिकों को चावल की अच्छी कीमत मिलने से उनकी तिजोरियाँ भर गई।   
          समय गुजरता गया, भरा-पूरा घर धीरे-धीरे खाली होता गया। छः लड़कियां ब्याह कर चली गई, बड़े भैया सन 1975 में रायपुर चले गए, मुझे 1984 में घर छोड़ना पड़ा और छोटे भाई राजकुमार 1996 में घर से चले गए। अब उस घर में दो लोग बचे, 83 वर्षीय दद्दाजी और 81 वर्षीय अम्माजी। उनको हो रही असुविधा को देखते हुए 2 जुलाई 1999 को दद्दाजी और अम्माजी को बड़े भैया अपने साथ रायपुर ले गए। गोलबाजार का वह चौदह कमरों वाला तीन मंज़िला घर उन्हें सदा के लिए छोड़कर जाना पड़ा. वहां 'गोदरेज' का ताला लटक गया। गहमागहमी से भरपूर उस घर में सन्नाटा पसर गया।  

          रायपुर में दद्दाजी की तबीयत और बिगड़ गई, जांच में मालूम हुआ कि किडनी सही ढंग से काम नहीं कर रही है, उन्हें एक किडनी विशेषज्ञ के अस्पताल में भरती किया गया. मैं उन्हें देखने गया, बहुत देर मैं उनके पास खड़ा रहा, उन्होंने बर्फ़ीली निगाह से एक बार मुझे देखा और दूसरी ओर देखने लगे. कुछ दिनों बाद मुझे खबर लगी कि उन्हें एक प्राकृतिक चिकित्सालय में भर्ती किया गया है, मैं फ़िर उन्हें देखने गया. उनका शरीर सूख कर कांटा हो गया था और आखें दयनीय हो गई थी. उस दिन भी उन्होंने मुझसे बात नहीं की. मेरी उनसे बात करने की हिम्मत नहीं हो रही थी लेकिन उनकी दशा मुझसे देखी भी नहीं जा रही थी. वे अपने जीवन की अंतिम पारी को किसी प्रकार खेलने की कोशिश कर रहे थे.
          कुछ दिनों बाद, मैं अपनी दूकान मधु छाया केन्द्र में बैठा था, फ़ोन की घंटी बजी, आवाज़ दद्दाजी की थी. उनकी आवाज़ भर्राई हुई थी- ‘हम बोल रहे हैं.’
‘जी, प्रणाम दद्दाजी.’ मैंने कहा.
‘तुम नाराज़ हो?’
‘नहीं, ऐसी बात नहीं.’
‘तुमको समझने में हमसे बड़ी भूल हुई, हमको माफ़ करो.’
‘आप कैसी बात कर रहे हैं दद्दाजी ! आप ऐसा मत बोलिए, गलती मेरी है, आप मुझे माफ कर दीजिए.’
‘नहीं तुम्हारी गलती नहीं है, जो हो गया सो हो गया.’
‘लेकिन दद्दाजी एक बात है, आपने मुझे समझने में बहुत देर लगा दी, आपको पता है कि मैं अब बावन वर्ष का हो गया हूं.’ मैं रो पड़ा. कुछ देर वे चुप रहे फ़िर उन्होंने कहा- ‘तुम कल ही रायपुर आ जाओ, तुमसे कुछ ज़रूरी बात करनी है.’
‘जी, आ जाऊंगा.’ मैंने कहा.
          अगले दिन, 15 अक्तूबर 1999 को मैं उनके पास पहुंचा। उनके दोनों घुटने मुड़ गए थे जिसे वे सीधे नहीं कर पा रहे थे, शरीर अशक्त हो गया था, आँखें धंस गई थी। मुझसे धीमी आवाज में बोले- 'आओ छोटे भइया, बैठो।'
'जी।' मैंने उनके चरण स्पर्श किए और उनके बगल में बैठ गया।
'तुमसे सलाह लेनी है।'
'जी।'
'मैं बटवारा करना चाहता हूँ, तुम्हारी क्या राय है ? कैसा किया जाए ?'
'भला मैं क्या सलाह दूँ आपको, जैसा आप उचित समझें, वैसा करें।'
'देखो मैं सिर्फ तुमसे सलाह ले रहा हूँ, और किसी से तो पूछा नहीं।'
'आप तो सबकी समस्या का समाधान करते थे, अब मैं आपको क्या बताऊँ ?'
'अच्छा यह बताओ कि तुम क्या चाहते हो?'
'दूकान, 'पेन्ड्रावाला'।'
'क्यों? उस दूकान के लिए मुन्ना (छोटा भाई ) ज़िद कर रहा है।'
'हमारे परिवार की इज्ज़त उस दूकान से जुड़ी हुई है, वहाँ की दुर्दशा मुझसे देखी नहीं जाती।'
'छोड़ो उसको, तुम लाज ले लो, उसे चलाओ। लाज़ अच्छी चलेगी तो परिवार की इज्ज़त अपने आप बढ़ जाएगी और तुम्हारे सब काम अच्छे से हो जाएंगे, हमारी बात मानो।'
'जैसा आप कहें।'
'कल जाकर लाज़ का ताला खोलो, दो साल से बंद है, साफ-सफाई करवाओ और शुभ मुहूर्त देखकर उसे चालू करो।'
'जी।' मैंने कहा।
          अगली सुबह साफ-सफाई का काम शुरू किया गया। उस दौरान मेरी नज़र पड़ी कि कमरों में लगे उन्नीस 'सीलिंग फेन' गायब हैं तब समझ में आया कि किसी चोर ने मेरे लाज में घुसने के पहले से ही सफाई-अभियान चालू कर रखा था ! यदि मेरे आने में एक-दो दिन की भी देर हो जाती तो वहाँ लगे सभी 45 पंखे चोरित हो जाते। मैं चोरी की इत्तला देने 'सिटी कोतवाली' गया तो उन्होंने 'रिपोर्ट' नहीं लिखी और मुझे आश्वासन दिया- 'आप जाओ, हम पता करते हैं।'
'रिपोर्ट तो लिख लीजिए।' मैंने आग्रह किया।
'आपको रिपोर्ट लिखवाना है या पंखे चाहिए ?'
'पंखे चाहिए।'
'तो अपना काम कीजिए, हम चोर का पता लगाते हैं।' थाना प्रभारी ने कहा। बाद में उनको कई बार याद दिलाता रहा, वे चोर का पता लगाते रहे।  पंद्रह वर्ष बीत चुके हैं, वे अभी तक पता नहीं कर पाएँ हैं। पुलिस के पास काम का बहुत अधिक दबाव रहता है, बेचारे फुर्सत पाएं तो पंखा-चोर खोजें। मैं सोचता हूँ कि उन्नीस पंखों को ढूँढने में उन्हें उन्नीस वर्ष का समय अवश्य दिया जाना चाहिए ! चार वर्ष और प्रतीक्षा करूंगा फिर यदि जीवित रहा तब विचार करूंगा कि आगे क्या किया जाए ?
          31 अक्तूबर 1999 को सर्वार्थ सिद्धि योग का मुहूर्त था, लाज़ में विधि-विधान से पूजन हुआ और मेरे बब्बाजी श्री जगदीश नारायण की याद में 'श्री जगदीश लाज़' का प्रारम्भ हुआ। पूजन के कार्यक्रम में परिवार के अन्य सभी सदस्य उपस्थित रहे लेकिन अत्यंत कमजोर स्वास्थ्य के कारण दद्दाजी नहीं आ पाए। जिस लाज़ को दद्दाजी ने अपनी वृद्धावस्था को दरकिनार कर अपने सामने खड़े होकर बनवाया, पच्चीस वर्ष तक उसके निर्माण में सतत लगे रहे, उस प्रकल्प को आरंभ होते वे अपनी आँखों से नहीं देख पाए। वे कभी नहीं देख पाए।

           शहर के बीच स्थित सदरबाज़ार में लाज़ खुल गया लेकिन इक्का-दुक्का ग्राहक आते और हम लोग दिन-रात खाली बैठे रहते। एक दिन माधुरी ने मुझसे पूछा- 'क्या लोगों को अपना लाज़ दिखाई नहीं पड़ता ?'
'दिखाई पड़ने से कुछ नहीं होता, जब लोगों को मालूम पड़ेगा तब चलेगा और उसमें बहुत समय लगेगा।' मैंने बताया। हमारे आर्थिक कष्ट प्रबल थे, ऐसा लगता था कि कब व्यापार चले, कब हालात सुधरें !
          एक माह बाद दद्दाजी ने हमें रायपुर बुलाया। तीनों भाई उनके साथ बैठे। आपसी चर्चा के बाद दद्दाजी ने अपनी समस्त चल-अचल संपत्ति हम तीनों भाइयों में वितरित कर दी। दद्दाजी ने अम्माजी के भविष्य के लिए कोई आर्थिक प्रावधान नहीं किया जो मेरी समझ में उनकी बड़ी भूल थी। इस पारिवारिक बैठक में एक रोचक तथ्य भी उभर कर आया- जिसे कुछ नहीं चाहिए था, उसे सब कुछ चाहिए था।
          उस बैठक के अन्त में दद्दाजी ने मुझसे कहा- 'मुझे तुमसे एक बड़ी शिकायत है।'
'मुझसे शिकायत ? बताइए।' मैंने उनसे पूछा।
'तुमने गाँव के लोगों से उधार मांगा, तुमने हमारी इज्ज़त का ख्याल नहीं किया ?'
'यह सही है कि मैंने उधार लिया लेकिन क्या मेरे उधार का तगादा करने आपके पास कोई आया ?'
'नहीं।'
'क्या किसी से आपने यह सुना कि मैंने किसी की रकम दबा दी, उसे ब्याज नहीं दिया या किसी का रुपया वापस करने से इंकार कर दिया ?'
'नहीं।'
'तो फिर आपकी इज्ज़त कैसे चली गई ?'
'तुम बात तो ठीक कह रहे हो।'
'आज बात निकली तो एक सवाल मैं आपसे पूछना चाहता हूँ.'
'हाँ, पूछो.'
'आपके रहते मुझे गाँव से उधार क्यों मांगना पड़ा ?'
'हाँ, ये हमारी गलती थी।' वे तुरंत बोले और उनके चेहरे पर अफसोस जैसा भाव उभरा।
          27 फरवरी 2000 को रायपुर से मुझे खबर मिली कि दद्दाजी की स्थिति गंभीर है। घर जाने के रास्ते में बस स्टेंड के पास मुझे रायपुर जाती बस दिखी, मैं स्कूटर को रास्ते की एक दूकान के सामने खड़ा करके उस बस में बैठ गया। शाम को छः बजे रायपुर पहुँच गया, बड़े भैया के घर गया, वहाँ से अपने भतीजे तेजप्रकाश के साथ हास्पिटल पहुंचा। दद्दाजी ने मुझे देखा, मैंने अपने दोनों हाथ से उनके दोनों हाथ थामे, हम दोनों के मध्य मौन संभाषण हुआ। अचानक उनकी साँस बहुत तेजी से चलने लगी और हमारे देखते-देखते उखड़ गई, उनकी आंखें पथरा गई। अजातशत्रु जैसा तेजस्वी व्यक्ति मृत्यु से पराजित होकर निस्तेज हो गया।
          उनकी पार्थिव देह को रात में ही बिलासपुर ले आए और उसी घर में लिटा दिया जहां उन्होंने अपने जीवन के स्वर्णिम वर्ष बिताए थे। उस दिन उनका शान्त पड़े रहना बहुत अजीब लग रहा था। ऐसा लगे, ये अभी उठ बैठेंगे और हमें डाँटेंगे- 'तुम लोग क्या मेरी अंतिम विदाई का इंतज़ाम ठीक से नहीं कर सकते ?'
         28 फरवरी को उनकी अंतिम यात्रा निकलने के पूर्व सबने श्रद्धासुमन अर्पित किए, मैंने भी पुष्प चढ़ाए और चरण स्पर्श करते समय बीती शाम से रुके मेरे आँसू फूट पड़े। उस समय मैं अपने पिता को प्रणाम नहीं कर रहा था, मैं अपने गुरु को विदा कर रहा था जिसने मेरा व्यक्तित्व गढ़ा, व्यापार सिखाया, बात करना सिखाया, बोलना सिखाया, समय की कीमत करना सिखाया, अनुशासन, ईमानदारी और स्पष्टवादिता सिखाई।
          उनके अंतिम संस्कार में सम्मिलित नागरिकों ने उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए शोक सभा की जिसमें दद्दाजी के मित्र (अब दिवंगत) श्री रोहिणी कुमार बाजपेई ने कहा- 'शहर का शेर आज चला गया।'

==========                                               

सोमवार, 1 सितंबर 2014

11 : ऐ मेरे दिल कहीं और चल

       
        जब भी मैं एन.टी.पी.सी.जमनीपाली में प्रशिक्षण देने जाता था तब मुझे वहां के ‘गेस्टहाउस’ से ‘ट्रेनिंग सेन्टर’ जाने की राह में सड़क के किनारे लगे हुए ‘बोर्ड’ पर एक सुभाषित लिखा हुआ पढ़ने को मिलता था- ‘रहिमन चुप व्है बैठिए देख दिनन के फ़ेर, नीकै दिन जब आएंगे बहुरि न लगिहैं देर.’ पढ़कर अच्छा लगता, कुछ ढाढ़स बंध जाता लेकिन अच्छे दिनों की प्रतीक्षा करते-करते मेरी अंखियां थक गई थी. मेरी आर्थिक दशा दिन-ब-दिन दुर्दशा में बदलती जा रही थी. मुझमें कोई बुरी आदत नहीं थी, जुआ नहीं, पान-सिगरेट नहीं, शराब के स्वाद का अता-पता नहीं, फ़िज़ूल खर्च नहीं; लेकिन कर्ज़ पर चढ़ते ब्याज और अनिवार्य घरेलू खर्च का जोड़ मेरे व्यापार की आमदनी से बहुत अधिक था, लिहाज़ा बदहाली बनी रहती. प्रशिक्षण कार्यक्रम भी अधिकतर धन्यवाद-ज्ञापन वाले हुआ करते थे, यदकदा पारिश्रमिक वाले भी परन्तु वे हाथी के मुंह में आइसक्रीम जैसे थे.
          पुरानी कहावतें सचेत करती हैं कि मनुष्य भूखा रह ले लेकिन कर्ज़ न ले; लेकिन ‘जाके पांव न फ़टी बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई ?’ मनुष्य खुद तो भूखा रह लेगा लेकिन अपने परिवार को भूखा कैसे देख सकेगा, घर आए अतिथि को भूखा कैसे वापस करेगा ? एक पढ़ा-लिखा इन्सान अपने बच्चों को पढ़ाने से कैसे इन्कार कर सकेगा ? लोगों ने मेरी भरपूर मदद की लेकिन मदद करने वाले भी आखिर कितनी और कितने बार करते ?
          मेरा घर बनते समय श्वसुरजी और बड़े भैया ने बहुत आर्थिक सहयोग दिया था जो वस्तुतः कर्ज़ था पर वह मदद के रूप में में बदलते जा रहा था क्योंकि कर्ज की वापसी नहीं हो पा रही थी. अकस्मात एक दिन श्वसुरजी हृदयाघात में दिवंगत हो गए और मुझे एक ‘डिफ़ाल्टर’ दामाद की भूमिका में उनके अंतिम संस्कार में सम्मिलित होना पड़ा. उस समय मैं खुद से कितना शर्मिन्दा था, मैं आपको किन शब्दों में बताऊं ? मुझे इस बात का जीवन भर अफ़सोस रहेगा कि मैं उनके जीते-जी मैं उनका उधार उन्हें वापस न कर सका. उन्होंने, बड़े भैया ने और मेरे मित्र रामकिशन खंडेलवाल ने मुझसे कभी रकम का तगादा नहीं किया न किसी को उसके बारे में बताया या मुझे जताया- दस-बीस साल तक भी नहीं !
          आप इसे पढ़कर सोचते होंगे कि आखिर ऐसी परिस्थिति क्यों बनी ? दरअसल स्थिति धीरे-धीरे ऐसी बनती गई कि वैसी परिस्थिति बन गई. मुझे स्वयं आश्चर्य होता है कि मुझमें व्यापार करने के स्वाभाविक गुण थे, प्रबन्धन का छॊटा-मोटा जानकार भी था- फ़िर भी स्थिति पर नियन्त्रण क्यों न कर सका ? भाग्यवादी भाग्य को दोष दे सकते हैं तो कर्मवादी कौशल को लेकिन सच तो यह है कि किसी को मना न कर पाने के संकोची स्वभाव और पारिवारिक जिम्मेदारियों को अपनी औकात से बाहर जाकर निभाने के संस्कार ने मुझे ऐसे संकट में डाल दिया.
          नौकरी-पेशा और व्यापारियों का मनोविज्ञान अलग-अलग होता है॰ घरेलू जिम्मेदारियों के परिप्रेक्ष्य में दोनों की प्रतिक्रिया भिन्न होती हैं॰  जैसे रिश्तेदारी में किसी शादी-ब्याह या गमी में जाना हो तो नौकरी-पेशा व्यक्ति कह सकता है- 'क्या करूँ, छुट्टी नहीं है' या 'महीने का आखिरी चल रहा है' लेकिन व्यापारी ऐसा नहीं कह  सकता॰ खास तौर से संयुक्त परिवार में जो सामने रहता है उसे पारिवारिक कार्यों में बहुत खर्च करना पड़ता है, यह खर्च किसी को दिखाई नहीं पड़ता, कोई यश नहीं मिलता, बस, नेकी कर दरिया में डाल॰
         कर्ज़ लेकर जीवन की गाड़ी चलाने के लिए हुनरमन्द और बेशर्म होना अनिवार्य तत्व है. वैसे तो किसी को रकम उधार देने के लिए कई पैसेवाले उधार बैठे रहते हैं लेकिन वे सुरक्षित कर्ज़ देना पसन्द करते हैं यानी रकम ब्याज सहित समय पर वापस आ जाए. साहूकारी की दुनियां का रिवाज़ यह है कि सुरक्षित कर्ज़ पर ब्याज की दर कम होती है लेकिन सुरक्षा कम समझ आने पर ब्याज की दर उसी अनुपात में बढ़ती जाती है. मुझे अपनी साख बनाए रखने के लिए इधर की टोपी उधर करने का निरन्तर प्रयास करते रहना पड़ता था इसलिए जब किसी भुगतान तिथि का समय-संकट आता- मेरा दिमागी ‘एन्टीना’ किसी नए साहूकार की तलाश में भिड़ जाता. कुछ मेरे स्थाई साहूकार थे, कुछ नियमित, तो कुछ एकबारगी. जिनसे मैंने उधार मांगा उनमें से अधिकतर ने मेरी मदद की लेकिन कुछ ऐसे भी 'अभिन्न मित्र' थे जिन्होंने अपने पुट्ठे पर मुझे हाथ तक नहीं रखने दिया. वे अनुभव सच में बेहद खट्टे-मीठे थे और ‘आई-ओपनर’ भी. कर्ज़ इतना बढ़ गया था कि उससे मुक्त होने के उपाय ही समझ में न आते थे. पत्नी के गहने और घर से लगी जमीन बेचकर कुछ बोझ कम किया जा सकता था लेकिन वैसा करना दिल को गवारा न था॰ आखिर बकरे की मां कब तक खैर मनाती, वह दिन तो किसी दिन आना ही था सो आ गया.
           हुआ यह कि अपने एक मित्र अक्षय से मैंने एक लाख रुपए कर्ज़ में लिए थे जिसका मैं हर महीने ब्याज अदा कर दिया करता था. लगभग दो वर्ष बाद उन्होंने रकम वापस करने के लिए कहा. मेरी स्थिति दयनीय थी, दिमाग काम नहीं कर रहा था कि कहां से जुगाड़ करूं ? मैंने उनसे कहा- ‘कुछ समय दे दो’ लेकिन वे बोले- ‘मुझे अभी रकम की जरूरत है.’ मैंने सोचा- इस मित्र ने मेरी ज़रूरत पर मुझे रकम दी थी, आज इसे ज़रूरत है तो मुझे किसी भी उपाय
 से रकम वापस करनी चाहिए- ऐसा सोचकर मैंने उनके समक्ष अपने घर से जुड़ी खाली जमीन को बेचने का प्रस्ताव रखा जिसे वे प्रचलित बाजार भाव पर लेने के लिए सहमत हो गए. उन्होंने अपनी रकम काटकर शेष राशि मुझे दे दी. जमीन की ‘रजिस्ट्री’ के समय अक्षय ने मुझे एक बात बताई- ‘द्वारिका भाई, इस जमीन की खरीदी के बारे में जब मैंने अपने पिताजी को बताया तो वे मुझ पर बहुत बिगड़े ?’
‘क्यों ?’ मैंने पूछा.
‘वे इस बात से नाराज़ थे कि मैंने अपनी रकम की वसूली के लिए आपके घर से जुड़ी जमीन खरीद ली.’
‘पर जमीन तो मैंने अपनी मर्जी से बेची है, आपके दबाव पर नहीं.’
'पिताजी का कहना था कि क़र्ज़ पटाने के लिए कोई भी अपने घर से जुड़ी जमीन नहीं बेचता. जब मैंने उन्हें सारी बात समझाई तब वे शांत हुए और मुझसे पूछा कि मैं इस जमीन का क्या करूंगा ?’
‘क्या बताया आपने ?’
‘मैंने बताया कि ‘इनवेस्टमेन्ट’ है तब उन्होंने मुझे आदेश दिया कि इस जमीन को मैं कभी भी किसी दूसरे व्यक्ति को न बेचूं, केवल आपको को ही दूँ.’
‘ऐसा क्या ? लेकिन क्या पता, मैं इसे कब खरीद पाऊंगा ?’
‘चाहे जब आपकी व्यवस्था बने, आपकी यह जमीन मेरे पास अमानत जैसी है, मैंने अपने पिता को वचन दिया है.’ अक्षय ने कहा.
           माधुरी को मेरी दयनीय स्थिति मालूम थी लेकिन मुझपर कितना कर्ज़ है, यह मैंने उन्हें कभी नहीं बताया. मैं सोचता था कि कर्ज़ की ज़िन्दगी जीते-जीते मैं तो अभ्यस्त हो चला हूं, रात को बेशर्मी ओढ़कर आराम से सो भी लेता हूं, उन्हें बताऊंगा तो उनकी नींद उड़ जाएगी. उस बेहया तकलीफ़ को मैंने अकेले झेला क्योंकि वह मेरी अतीत की भूलों का, संयुक्त परिवार की अवधारणा पर भरोसा करने का दुष्परिणाम था.
          वैसे भी माधुरी और मेरे तीनों बच्चों ने मुझसे कभी गैरवाज़िब मांगें नहीं की, चारों मितव्ययी थे. संगीता इन्दौर के डेन्टल कालेज में पढ़ती थी तब उसकी फ़ीस का इंतज़ाम करना मेरे लिए दुर्धर्ष कार्य था. जब पूरे साल फ़ीस नहीं जा पाती तब उसका परीक्षा का प्रवेशपत्र अटक जाता तो मुझसे फोन पर कहती- ‘पापा, चौदह हज़ार फ़ीस और बारह सौ ‘लेट फ़ी’, कुल मिलाकर पन्द्रह हज़ार दो सौ रुपए भेजिए तब परीक्षा दे पाऊंगी.’ मैं फ़िर किसी नए सुहृद मित्र की तलाश में निकल पड़ता ताकि उससे उधार मिल सके और संगीता परीक्षा दे सके. बहुत कष्टमय समय था वह. कई बार राशन और साग-सब्ज़ी खरीदने के पैसे भी जेब में न होते पर कोई-न-कोई मुझे खुशी-खुशी उधार दे देता क्योंकि मैं ‘पेन्ड्रावाला’ परिवार का लड़का था, उसे क्या पता कि सेठों के घर के किसी पचास वर्षीय सदस्य की ऐसी दुर्दशा है !
          मेरी तकदीर एकदम खराब भी नहीं थी, हमारे शहर में ‘एल एम एल वेस्पा’ की नई ‘डीलरशिप’ खुली तो उन्होंने ग्राहकों के समूह से बारह माह तक दो हज़ार रुपए प्रति माह जमा करवाने की योजना शुरू की जिसमें प्रत्येक माह एक ‘लक्की ड्रा’ निकाला जाता था. जिसका नाम निकलता उसे स्कूटर मिल जाती और अगली किश्तें माफ़ हो जाती. मेरा नाम पहले ‘ड्रा’ में आ गया, तेईस हज़ार की स्कूटर दो हज़ार में आ गई. उस स्कूटर में हम पाँचों यानी मैं, मेरे आगे संज्ञा, पीछे संगीता, उनके पीछे माधुरी और माधुरी की गोद में कुन्तल, जब ठस्समठस्सा बैठकर सड़कों पर निकलते तो लोग हमें देखकर मुस्कुराते, हम उन्हें देखकर.
            आर्थिक असुविधा का दौर तीस वर्षों तक चला, ध्रुपद गायन के विलम्बित लय की तरह उबाऊ, लेकिन सच मानिए हम लोग मस्ती से जीते थे. तंगी का दबाव हर समय बना रहता था लेकिन तनाव अस्थाई रहता था. जब किसी भुगतान की समस्या सामने होती तो तात्कालिक तनाव उपजता और जैसे ही व्यवस्था बन जाती, तनाव छूमन्तर. तनाव प्रबन्धन की किसी पुस्तक में इसके लिए तीन उपाय सुझाए गए थे जिसका नाम था- AAA ‘फ़ार्मूला’. A=Alter, A=Avoid, A=Accept.
#तनाव हो तो उसके मूल कारण की तलाश कर उसे दूर करने के उपाय किए जाएं : Try to alter the situation; #यदि उपाय सफ़ल न हों तो उन्हें टाला जाए या उनसे बचा जाए : If alteration is not possible, avoid it;
#जब दोनों उपाय सम्भव न हो तो परिस्थिति को स्वीकार कर लिया जाए : If it's no way, accept it.
मैं इन तीनों तरीकों का प्रयोग करता और मज़े में रहता था. इस विधि से मेरी आयु भी बढ़ रही थी क्योंकि जिन्हें मुझसे वसूली करनी थी वे मेरे दीर्घायु होने के लिए अपने ईश्वर से सतत प्रार्थना करते रहते थे.
         असुविधाओं के पहाड़ के नीचे दबे-दबे मेरा दम घुटने लगा था. दूर-दूर तक उम्मीद की कोई किरण नज़र नहीं आती थी फिर भी साहिर लुधियानवी की इस ग़ज़ल को सुनकर अँधेरे के पार देखने की कोशिश मैं किया करता था :

"रात भर का है मेहमां अंधेरा
किस के रोके रूका है सवेरा.

रात जितनी भी संगीन होगी
सुबह उतनी ही रंगीन होगी,
ग़म ना कर ग़र है बादल घनेरा
किसके रोके रूका है सवेरा.

लब पे शिकवा न ला अश्क पी ले
जिस तरह भी हो कुछ देर जी ले,
अब उखड़ने को है ग़म का डेरा
किसके रोके रूका है सवेरा.

आ कोई मिल के तदबीर सोचे
सुख के सपनों की तासीर सोचे,
जो तेरा है वो ही ग़म है मेरा
किसके रोके रूका है सवेरा.
रात भर का है मेहमान अंधेरा
किसके रोके रूका है सवेरा."

==========

          जब मैं अपनी दूकान में बैठता तो तगादे वालों को सम्हाल लेता था लेकिन जब मेरे घर के ‘लेंडलाइन’ फ़ोन पर तगादा आता तो बड़ी मुसीबत हो जाती. छोटा सा दो कमरे का घर है, फ़ोन पर हो रही बात सबको सुनाई पड़ती इसलिए मेरे अर्थसंकट के रहस्य उघड़ जाने का भय था. किसी को मालूम न पड़े इसलिए मैं ‘रिसीवर’ को उठाकर बाहर रख देता ताकि फ़ोन ‘हेल्ड’ हो जाए और मैं निश्चिन्त सो सकूं. माधुरी का ध्यान मेरी इस हरकत पर चला गया और जब उन्हॊंने कई बार वैसा होते देखा तो उनका माथा ठनका. उन्होंने मुझसे पूछताछ की तो मैंने स्वीकार किया कि वैसा साहूकारों के तगादे के डर से करता पड़ता है. वे चल रही कमजोर आर्थिक स्थिति को जानती तो थी लेकिन मेरी इस गंभीर लड़ाई से अपरिचित थी. उन्होंने पूछा- ‘ऐसे कैसे चलेगा, कोई उपाय है तुम्हारे पास?’
‘मुझे समझ में नहीं आ रहा है कि क्या करूं ! भरपूर परिश्रम करता हूं, दूकान में भी और प्रशिक्षण में भी लेकिन देनदारी और उसका ब्याज इतना चढ़ा हुआ है कि उससे पार पाना मेरे लिए असम्भव दिखता है.’ मैंने बताया.
‘फ़िर ?’
‘मेरे मन में एक विचार आया है कि अपन यह शहर छोड़ दें.’
‘अरे, तुम हमेशा कुछ बेढब ही सोचते हो॰ जाओगे कहाँ ?’
‘पुणे, पुणे ठीक रहेगा॰'
‘पुणे ही क्यों ?’
‘प्रशिक्षण कार्यक्रम वहां से अच्छा चलेगा और बच्चों की पढाई भी बेहतर हो सकेगी.’ मैंने कहा.
          अपना घर-शहर छोड़कर जाना बहुत कठिन निर्णय था. हमने आपस में बहुत सोच-विचार किया और निर्णय लिया कि पहले पुणे जाकर सर्वेक्षण किया जाए और वहां की संभावनाओं की टोह ली जाए फिर अंतिम निर्णय लिया जाए. मैंने पुणे जाने के लिए रेल आरक्षण करवा लिया, संगीता को खबर की कि वह इन्दौर से सीधे पुणे पहुंच जाए.
          पुणे के लिए निकलने के पहले मैंने बड़े भैया को एक पत्र लिखा था, उन्होंने अवश्य पढ़ा होगा, कुछ अंश आप भी पढिए :

बिलासपुर
6 जून 1998

आदरणीय भैया,
   
          आज यह पत्र लिखना मुझे कितना अजीब लग रहा है, मैं क्या बताऊँ ? यद्यपि मुझे जन्म आपने नहीं दिया है लेकिन सदा से आपको अभिभावक मानता रहा हूँ- शायद पिता से ज़्यादा, इसलिए मन में आया कि अपने विचार, अपना हृदय और अपनी भावनाएं आपके सामने व्यक्त करूँ. ऐसा भी लगता है कि मुझे अपने जीवन का शेष भविष्य कैसा बनाना है, आपसे कुछ बता-समझ लूँ , तो शायद निर्णय बेहतर हो सकेगा. इस पत्र को लिखते समय यद्यपि मैं भावुक हूँ, तथापि मेरी सोच का आधार व्यवहारिक है. मैंने पचास साल का जीवन यथासंभव पवित्रता और ईमानदारी से जिया है इसलिए मुझमें पर्याप्त साहस है, मुझे किसी का डर नहीं है क्योंकि मनुष्य सबसे ज़्यादा खुद से डरता है जबकि मैंने कुछ ऐसा किया नहीं जिसे मेरी अन्तरात्मा गलत मानती हो.
          मुझे याद आता है जब मेरे 'ग्रेजुएशन' के बाद आपने मेरी 'आइ.ए.एस. कोचिंग' के लिए दिल्ली भेजने की व्यवस्था की थी. दद्दाजी के द्वारा पारिवारिक दायित्वों के प्रवचन से प्रभावित होकर जब मैंने दिल्ली नहीं जाने का निर्णय लिया था तब आपने मुझे बुरी तरह झिड़का था और समझाया था- 'इस घर को छोड़कर जा और अपनी ज़िन्दगी जी अन्यथा पछताएगा.' और भी बहुत सी बातें याद आ रही हैं लेकिन क्या बताऊँ, मुझसे गलत निर्णय हो गया. संभवतः हीन भावना से ग्रस्त होकर मैं साहस न कर पाया और सच में मैं ऐसी अंधेरी गुफा में फंस गया जहां न तो प्रकाश है और न ही पर्याप्त हवा.
          जीवन का एक लंबा समय बीत गया. पचास साल बीत गए, अब जीवन की संध्या-बेला निकट आ गई है, मन बेचैन हो उठा है. शेष जीवन को मैं साहस और स्वाभिमान के साथ जीना चाहता हूँ. आप ये न समझें कि मेरा बीता समय दुखपूर्ण था. मैंने उपलब्ध परिस्थितियों को समझा, स्वयं को उसके अनुरूप बनाया और टुकड़ों में ही सही- सुख को चुन-चुन कर इकट्ठा किया और आनंदित होता रहा लेकिन जबसे होश सम्हाला तब से आज तक आर्थिक विषमताओं और तनाव के पहाड़ ढोते-ढोते अब मैं थक गया. मृत्यु के लिए सामान जोड़ते-जोड़ते मेरी हिम्मत हार गई है, अब मैं जीना चाहता हूँ. यह पत्र मैं आपको इसीलिए लिख रहा हूँ.
          .....मैंने अपने और दूसरों के जीवन का बहुत अध्ययन किया है, दो-चार किताबें भी पढ़ी हैं इसलिए मुझे अपनी असलियत समझना ज़्यादा कठिन नहीं लगा. मुझे आपको यह बताते हुए कोई हिचकिचाहट नहीं है कि मैं पर्याप्त क्षमतावान, योग्य और व्यवहारकुशल व्यक्ति हूँ लेकिन अपने दोषों के प्रति भी सजग हूँ जैसे- आज के व्यवारिक जगत के अनुकूल न होना, सहज ही दूसरों पर भरोसा कर लेना, अपने मन को मार लेना, अपनी तकलीफें सामान्यतया न कहना.
          मैं पचास वर्ष बाद आज जो कुछ हूँ वह मेरा स्वयं का निर्माण है जिससे मैं संतुष्ट हूँ. मुझे स्वयं से या किसी दूसरे से कुछ शिकायत भी नहीं है, परन्तु अब मुझे अपना शेष जीवन शांति से व्यतीत करना है, बच्चे बड़े हो गए हैं- उनको व्यवस्थित करना है ताकि उनके भविष्य पर मेरे अपने जीवन के हास्यास्पद पारिवारिक प्रयोगों की काली छाया न पड़े.
          मैं बिलासपुर छोड़ना चाहता हूँ. यह भावुकता से लिया गया निर्णय नहीं है, मैंने शुरू में ही लिखा कि इस पत्र का व्यवहारिक आधार भी है. यह न समझें कि मैं भगोड़ा हूँ क्योंकि मैंने इस वीभत्स पारिवारिक वातावरण को लंबे समय तक भोगा है, अब हार गया हूँ. हिम्मत जवाब दे गई. जिनके आस-पास मैं हूँ- उनको मेरी आँखें देखें- मेरा मन यह भी नहीं चाहता इसलिए दूर जाना चाहता हूँ. यदि कुछ समय यहां और रह गया तो संभव है कि आपको मुझे किसी मानसिक रोग के चिकित्सालय में ले जाने का कष्ट उठाना पड़े. आप सोच रहे होंगे कि ऐसी क्या बात है ? मुझसे कुछ न पूछें क्योंकि किसी की मैं क्या शिकायत करूँ, क्यों स्वयं को छोटा बनाऊँ ?
          .....मुझे समझ में आ गया की आशाएँ नदी की रेत में कुछ लिखने जैसा भ्रम है, सब छलावा है. मैं अपने सारे प्रयासों के बाद भी संयुक्त कुटुम्ब के प्रति अपने उत्तरदायित्व को नहीं निभा पाया.
          एक धन्यवाद आपको दे दूँ, छोटे-मोटे तो बहुत से हैं लेकिन एक बड़ा उपकार आपने मुझपर किया जो आपने मेरी पत्नी के रूप में माधुरी का चयन किया. अपनी यूनिट में हम लोग अत्यंत प्रसन्न और संतुष्ट हैं. इसका पूरा श्रेय आपको है.
          एक उपकार और करें, आप पहल करके मुझे इस शहर से विदा करने में मेरी सहायता करें. मित्रविहार का घर यदि बाजार में बेचूंगा तो परिवार की बदनामी होगी, बेहतर है इसे आप ले लें. देनदारी चुकाने के बाद जो कुछ बचेगा उससे मैं अपना भविष्य बना लूंगा, चला लूँगा. बस, मुझे मुक्ति दिलवा दीजिए. तीनों बच्चों में अच्छी सम्भावनाएँ हैं, आपके आशीर्वाद से वहाँ सब व्यवस्थित हो जाएगा, कहीं कोई तकलीफ़ महसूस हुई तो मैं आपका पुत्र जैसा हूँ- आपको याद कर लूंगा.
          प्लीज़, मुझे इस अन्धी गुफ़ा से मुक्त करवाइए.

आपका,
द्वारिका

==========

          कोई मनुष्य जब सफलता के आसमान में उड़ते रहता है तो उसे हर असफल व्यक्ति मूर्ख और कामचोर समझ में आता है॰ उसे लगता है- 'बताओ, सफलता कितनी आसान बात है, कोई भला असफल क्यों है ? यह ज़रूर कमअक्ल या आलसी है.' पंजाब की एक कहावत है- 'ज़िंदे घर दाणें, वे कमले बी स्याणें' अर्थात जिनके घर में दाणे यानी धन है वहाँ के कम अक्ल भी सयाने (समझदार) हैं॰ मैंने अनेक मूर्खों को सफलता के पायदान में चढ़ते देखा है॰ लोग उन्हें हुनरमंद और होशियार मानते हैं. आप गौर करिएगा, किसी भी सफल व्यक्ति में आत्ममुग्धता भरपूर रहती है, उसका आत्मविश्वास हर समय शिखर पर रहता है, आवाज़ में दम रहता है, उसके बीवी-बच्चों की लोग बड़ी इज्ज़त करते हैं वहीं पर असफल व्यक्ति आत्महीनता का शिकार रहता है, आवाज कमजोर रहती है, उसकी बीवी 'सबकी भौजाई' होती है, उसके बच्चों के साथ लोग घटिया हरकतें करते हैं. समर्थ लोग असमर्थों का बहुमुखी शोषण करना अपना स्वयंसिद्ध अधिकार समझते हैं. यह सुनी-सुनाई नहीं, आपको आपबीती बता रहा हूँ.
          जो धनवान है, बलवान है या पद-वान है, परिवार में उसी का दबदबा रहता है. उसकी पसंद या नापसंद का ध्यान रखा जाता है, 'किसी बात पर वे नाराज़ न हो जाएं, कहीं बुरा न मान जाएं'- ऐसी सतर्कता बरती जाती है. मुद्दा अधिक महत्व का हो या कम महत्व का- उसकी राय ली जाती है और निर्णय लेते समय उसकी राय को प्राथमिकता भी दी जाती है जबकि धनहीन, बलहीन और पदहीन व्यक्ति 'दो कौड़ी का आदमी' माना जाता है. कुछ पूछना दूर की बात है, उसे बताना भी ज़रूरी नहीं समझा जाता. यदि परिवार की किसी चर्चा में वह चुपचाप सुनते रहता है तो उससे कहा जाता है- 'यहाँ क्यों खड़े हो !'
          मैंने 'सफलता के सूत्र' विषय पर अनेक प्रशिक्षण कार्यक्रम किए हैं, उन सूत्रों को मैं जानता हूँ, सबको बताता-समझाता भी हूँ लेकिन अपने और अन्य परिचितों के जीवन का अध्ययन करने पर मैंने यह पाया कि किसी को भी चौतरफ़ा सफलता नहीं मिलती॰ मनुष्य जब किसी एक क्षेत्र में सफल होता है तो अन्य क्षेत्र उसकी पकड़ से फिसल जाते हैं॰ अड़चन यह है कि सबको सब कुछ चाहिए लेकिन ऐसा नहीं होता है॰ आप ध्यान दीजिए, पैसे और राजनीति के पीछे दौड़ने वाला व्यक्ति पारिवारिक सुख से वंचित हो जाता है, परिवार का ध्यान रखने वाला व्यक्ति सांसारिक विफलताओं का शिकार बन जाता है॰ जिसकी रुचि साहित्य और कला की ओर विकसित हो जाती है वह अपनी काल्पनिक दुनिया से भटककर यश और प्रसिद्धि की जंजीरों में कैद हो जाता है, वहीं पर जिसकी रुचि आध्यात्म या भक्तिभाव से जुड़ जाती है वह स्वयं की या भगवान की खोज में अपना जीवन समर्पित कर देता है॰ हाँ, कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो सभी क्षेत्रों में हाथ आजमाते हैं- वे कहीं के नहीं रह जाते॰ मैं इसी आखिरी 'डिजाइन' का इन्सान हूँ॰ यह भी कर लूँ, वह भी कर लूँ- के चक्कर में मुझे न खुदा मिला न विसाल-ए-यार॰
         'असुविधा' कम समय का कष्ट होता है; जब असुविधा लंबे समय तक चलती है तो उस स्थिति को बोल-चाल में कहते हैं- 'तकलीफ चल रही है'; उससे भी अधिक समय लगने पर वह स्थिति 'संकट' कहलाती है और जब संकट की गंभीरता बढ़ जाती है तो उसे 'विपत्ति' कहते हैं॰ विपत्ति भी जब व्यापक रूप धारण कर लेती है तो वह 'आपदा' हो जाती है॰ मेरी पारिवारिक इकाई में आपदा तब आती जब मैं अनुपस्थित हो जाता यानी मेरी स्वाभाविक मृत्यु हो जाती या मैं आत्महत्या करके चुपचाप निकल लेता लेकिन मृत्यु आई नहीं और आत्महत्या करने वालों में से मैं था नहीं ! उस समय मेरी उम्र 52 वर्ष की हो चुकी थी लेकिन हौसले जवान थे॰
          बिलासपुर में चल रहे टीवी और फर्नीचर के व्यापार से हो रही आय मेरे तालाब को चुल्लू भर पानी से भर देने जैसा उपक्रम था॰ उस विपत्ति से निकलने का उपाय यही था कि घर बेचकर कर्ज़ पटाया जाए और प्रशिक्षण के क्षेत्र में आगे बढ़ा जाए क्योंकि उस व्यवसाय में मुझे अच्छी संभावनाएं समझ में आ रही थी॰ प्रशिक्षण का व्यवसाय हमारे भविष्य को सँवार देता और महानगर में बच्चों को पढ़ाई के लिए बेहतर माहौल मिलता॰ इसके लिए ज़रूरी था कि राष्ट्रीय स्तर पर काम करने के लिए किसी प्रसिद्ध नगर में ठिकाना बनाया जाए ताकि 'कारपोरेट सेक्टर' में 'बड़े शहर' के नाम का प्रभाव डाला जा सके॰ इन बड़े शहर के अनेक नामी प्रशिक्षकों का काम मैं इधर-उधर देखते रहता था, उन्हें सिर्फ़ उनके शहर के नाम के कारण दाम मिलता था॰ उनमें से लखनऊ के सत्तर वर्षीय राजेंद्र प्रसाद ने अपनी प्रशिक्षण शैली से मुझे बहुत प्रभावित किया, उनका समझने का तरीका और विषयवस्तु सच में मोहक थी लेकिन उनके अतिरिक्त मैंने कई नामी शहर के प्रशिक्षकों के प्रस्तुतीकरण देखे-सुने, वे मुझे प्रशिक्षण का व्यापार करते समझ आए॰ 'पावर पाइंट' पर लिखे गए शब्दों को अंधेरे में पढ़ना और उसे दो-चार वाक्यों में बढ़ाकर बता देना- प्रशिक्षण देना नहीं, सामने वाले को मूर्ख समझना है॰ प्रशिक्षण का अभिप्राय मात्र जानकारी बढ़ाना नहीं वरन प्रशिक्षु को प्रभावित करना होता है ताकि उसमें अपेक्षित परिवर्तन आ सके॰
          मेरी इस बात को 'अपने मुंह मियाँ मिट्ठू' मत समझिएगा, मैं उन लोगों के काम से काफी आगे था॰ किसी नई जगह बसने के हिसाब से पुणे हर कोण से मुझे सर्वाधिक सही समझ आया इसलिए एक दिन हम दोनों सात-आठ सौ रुपए का जुगाड़ करके पुणे का चक्कर लगाने पहुँच गए॰
 ==========


         हम दोनों पुणे पहुँच गए। स्टेशन के सामने बनी धर्मशाला में रुक गए जो केवल इलाज़ करवाने आए मरीजों के लिए थी। किराया ६५/- प्रतिदिन था। यह अच्छा हुआ कि प्रबन्धक ने हमसे बीमारी का नाम नहीं पूछा और हम झूठ बोलने से बच गए। छः-सात घण्टे बाद हमारी बेटी संगीता भी इंदौर से बस द्वारा पुणे पहुँच गई। वहाँ हमारी पूर्व परिचित श्रीमति सुमन रवीन्द्रनाथ ने हमें पुणे के अनेक व्यापारिक और आवासीय स्थल दिखाए और भरपूर साथ दिया। मुझे वह शहर भा गया। खुला-खुला माहौल, मनमोहक मौसम, नियमित सांस्कृतिक- साहित्यिक गतिविधियां और पढ़ाई-लिखाई की उत्कृष्ट व्यवस्था देखकर दिल हो रहा था कि तुरन्त बोरिया-बिस्तर ले आऊँ और यहीं बस जाऊँ। माधुरी हिचक रही थी, नई जगह, मराठी भाषा न समझ पाने की परेशानी और 'इतने बड़े शहर में अपने पैर कैसे जमाओगे !'- का डर। मुझे कोई डर न था। यह संभव था कि प्रशिक्षण का व्यवसाय जमने में साल-दो-साल लगता, तब तक वहाँ किसी ठेले में पकौड़े-चाय बेच लेते और समय बिता लेते। पुणे में मुझे कौन जानता है कि यह ठेलेवाला द्वारिकाप्रसाद अग्रवाल 'सर्टिफाइड ट्रेनर जे॰सी॰आई॰' है जो देश के कारपोरेट सेक्टर में प्रबन्धकों को प्रबंधन सिखाता है या; यहाँ मेरे पिता सेठ रामप्रसाद को कौन जानता है जो इस बात का डर हो कि कोई क्या कहेगा, इतने बड़े आदमी का बेटा चाय-पकौड़े बेच रहा है ? मेरा अनुमान था कि 'पुणे' का नाम अपना असर दिखाएगा और प्रशिक्षण का काम जल्द ही जम जाएगा फिर ठेले से मुक्ति मिल जाएगी।
           मेरे भीतर से आवाज आ रही थी कि शहर बदलने में ही कल्याण है लेकिन माधुरी 'फिफ़्टी-फिफ़्टी' चल रही थी। संगीता ने कोई प्रतिक्रिया नहीं की, वह घूमती-फिरती चुपचाप सब देखती रही। तीन दिन के प्रवास के पश्चात हम लोग बिलासपुर के लिए आज़ाद-हिन्द एक्स्प्रेस से शाम को रवाना हो गए। रास्ते में एक स्टेशन आया, दौड़, जहाँ से लोगों की भीड़ का एक रेला चढ़ा। उन्होने हमें धक्का दिया, बेअदबी की और हमारी बर्थ में बलात घुस गए। उन्होंने हम सबको सिकुड़कर कोने में बैठने और रात भर जागने के लिए के लिए मजबूर कर दिया। ये लोग हमारे ही देशवासी थे, बिना टिकट थे, बाबासाहब अंबेडकर के अनुयायी थे जो नागपुर में आयोजित होनेवाले भगवान बुद्ध की स्मृति में होने वाले किसी कार्यक्रम में भाग लेने जा रहे थे। वे सब 'कोच' में इतनी बड़ी संख्या में आकर घुस गए कि 'बर्थ' के मायने बदल गए, नीचे पैर रखने की जगह न रही और अगले दिन १२ बजे दोपहर तक, जब तक नागपुर न आया, 'तालाबंदी' की दशा में बैठे-बैठे हम इस अराजक देश में जन्म लेने को मन-ही मन कोसते रहे। चाय और पानी तक न पी सके क्योंकि सुबह का नित्यकर्म ही न हो पाया था, चाय-पानी लेने से संकट और प्रगाढ़ हो जाता।
         नागपुर आया, हम सब 'टायलेट' भागे तब  जान-पे-जान आई। टायलेट से वापस आकर 'टावेल' से चेहरा पोछते हुए माधुरी ने अपना निर्णय सुनाया- 'नहीं आना हमें इधर, अपना बिलासपुर ही अच्छा है।' इस प्रकार डेरा बदलने का अर्धविकसित प्रयास निष्फल हो गया और हम लोग बिलासपुर में ही चिपके रह गए। हमारा घर भी नहीं बिक पाया क्योंकि बड़े भैया ने मेरे पत्र का कोई उत्तर ही नहीं दिया, मैंने उनसे कभी पूछा भी नहीं। श्रीकांत वर्मा की इस कविता को पढिए :

"मैं तो तक्षशिला जा रहा हूँ
तुम कहाँ जा रहे हो ?
नालन्दा। 
नहीं,
यह रास्ता नालन्दा नहीं जाता
कभी जाता था नालन्दा,
अब नहीं।

नालन्दा ने अपना रास्ता बदल दिया
अब इस रास्ते से नालन्दा नहीं
तक्षशिला पहुंचोगे तुम
चलना है तक्षशिला ?

नालन्दा जानेवाले मित्रों,
प्रायः
यही होता है,
बताए गए रास्ते
वहाँ नहीं जाते
जहाँ
हम पहुँचना चाहते हैं -
जैसे
नालन्दा। "
==========                                 

रविवार, 27 जुलाई 2014

10 : ये कल की बात है

                                                           ये कल की बात है :
                                                         ============

          सन १९९५ में छोटा भाई राजकुमार भी घर से बेदखल हो गया, इस प्रकार दद्दाजी के तीन मंजिला विशालकाय ‘घर’ में केवल दो प्राणी बच गए; एक उनकी पत्नी याने अम्माजी और दूसरे वे स्वयं. अस्सी 'प्लस’ के दो वृद्ध, नौ जीवित बच्चों के जनक, बिना किसी देखरेख के अपने घरौंदे में सिमट कर अपने जीवन की अंतिम सांसों को लेने और छोड़ने के लिए बच गए. समस्या यह थी कि अब कौन खाना बनाए ? माधुरी ने निर्णय लिया कि उनका दोनों समय का भोजन वे अपनी रसोई में तैयार करके प्रतिदिन भेजेंगी. 
          उन्हीं दिनों मुझे कोरबा जेसीज़ में प्रशिक्षण देने का निमन्त्रण मिला. कार्यक्रम के मुख्य अतिथि श्री आर॰के॰जायसवाल थे जो एन.टी.पी.सी. जमनीपाली (कोरबा) में मानव संसाधन और 'सिमुलेटर' विभाग के उपमहाप्रबन्धक थे. दो घंटे तक चले उस प्रशिक्षण कार्यक्रम का विषय था ‘मना करने की कला’ जिसे उन्होंने पूरे समय बड़े ध्यान से देखा-सुना और मुझसे पूछा- ‘हमारे यहां प्रशिक्षण देंगे?’
‘अवश्य.’ मैंने कहा.
‘किन-किन विषयों में करते हैं?’
‘व्यवहार विज्ञान, प्रबन्धन और व्यक्तित्व विकास पर.’
‘हूँ!’
‘जी.’
‘क्या लेंगे?’
‘एक दिन के कार्यक्रम का दो हजार, ’
‘आपको छः दिन तक लगातार प्रशिक्षण देना होगा, प्रतिदिन सात घंटे.’
‘ठीक है, मंजूर.’
‘एक 'प्रपोजल' मुझे भेज दीजिए, मैं आपको ‘शिड्यूल’ भेजता हूं.’
‘जी.’ मैंने अपनी प्रसन्नता छुपाते हुए गंभीर मुद्रा में कहा. यह छोटा सा वार्तालाप कालान्तर में बहुत उपयोगी सिद्ध हुआ. मुझे उस संस्थान में तेरह वर्षों तक प्रशिक्षण देने का अवसर मिलता रहा. प्रशिक्षण शुल्क दो हजार से अढ़ाई हुआ फ़िर तीन और फ़िर पांच हजार. 'लिखा न पढ़ी- जो मैं कहूं वह सही'- मैंने वहां लगभग दो सौ दिनों तक कार्यक्रम किए होंगे, कोई पचास-साठ विषयों पर प्रशिक्षण दिया और मज़े की बात- मैं वहीं एक नए विषय में पारंगत प्रशिक्षक बन गया- स्वास्थ्य प्रबन्धन!
          वैसे तो, हर प्रशिक्षण कार्यक्रम में कोई-न-कोई ऐसी घटना ज़रूर होती है जिसे बताया जा सकता है॰ उन्हें बताना शुरू करूंगा तो यह कथा प्रशिक्षणकथा बन जाएगी इसलिए एक-दो ऐसी घटनाएं बताऊंगा जिन्होंने मुझे संकट में डाला. अभी, एन.टी.पी.सी. के एक कार्यक्रम का विवरण पढ़िए: स्वास्थ्य प्रबन्धन के विषय पर चर्चा करते समय 'आहार संतुलन' के बारे में समूह को बताया जा रहा था. एक सज्जन ‘ओव्हर-वेट’ दिख रहे थे. मैंने उनसे पूछा- ‘क्या आप मानते हैं कि आपके शरीर का वजन ज़रूरत से अधिक है ?’
‘जी सर.’ उन्होंने उत्तर दिया.
‘उसे कम करने के लिए कुछ किया ?’
‘बहुत कोशिश की पर कम नहीं हुआ.’
‘अच्छा क्या-क्या किया आपने ?’
‘रोज घूमने जाता हूं, तला-भुंजा नहीं खाता, मैंने मांस-मटन तक खाना छोड़ दिया सर, पर मेरा वजन कम नहीं होता.’
‘मेरे पास एक ‘आइडिया’ है.’
‘सर, बताइये सर.’
‘शक्कर और मीठा खाना छोड़ दीजिए, वजन धीरे-धीरे कम हो जाएगा.’
‘सच में !’
‘हां, सच में.’
‘पर सर, शक्कर छोड़ना आसान है क्या ?’ उसने पूछा. मैं जवाब न दे सका और चुप रह गया.
         मिठाई की दूकान में मैंने लगभग तीस वर्षों तक काम किया. वहां मुझे प्रतिदिन स्वाद की जांच करने के लिए बदल-बदल कर मीठा खाना पड़ता था इसलिए चखने के चक्कर में मैं मीठाखोर हो गया. जब मिठाई दूकान हाथ से निकल गई तब भी मीठा खाने की ललक बनी रहती थी. मैं बाज़ार से मीठा खरीदकर ले जाता था और दोनों समय भोजन के बाद उसका प्रेमपूर्वक सेवन करता था. दूसरी दूकान से मिठाई खरीदता देख कई लोग मुझसे पूछते थे- ‘अरे, आप यहां से ले रहे हैं, 'पेन्ड्रावाला’ का मालिक दूसरी दूकान से मीठा खरीद रहा है?’ अब, मैं उन्हें क्या बताऊं कि मैं वहां का मालिक नहीं रहा इसलिए वहां से मीठा प्राप्त करने का अधिकार छिन गया. ठीक है कि छोटा भाई है लेकिन रोज-रोज मांगना याने किसी दिन अपनी बे-इज़्ज़ती करवाना था इसलिए 'बच के रहो रे बाबा, बच के रहो रे !'
          उस प्रशिक्षण कार्यक्रम में मुझसे पूछा गया सवाल- ‘शक्कर छोड़ना आसान है क्या ?’- मेरे पीछे लग गया. उस शाम जब कार्यक्रम खत्म करके मैं 'गेस्टहाउस’ पहुंचा, कई घंटों तक बेचैन रहा और इस अपराधबोध से ग्रस्त रहा कि जो मुझसे नहीं सधता, वैसी सलाह दूसरे को क्यों दी ? शक्कर छोड़ने वाला 'आइडिया' मुझे मोहनदास करमचंद गांधी की पुस्तक ‘Key To Health' से मिला था, मैंने उसे आगे बढ़ा दिया, अब मैं फँस गया था. 
          उसके बाद कई दिनों तक मेरी यह बेचैनी कायम रही. एक दिन मन ही मन मैंने गांधीजी से बात की- 'अच्छा फँसाए बापू, मुझे चैन नहीं, अब क्या करूँ ?' मुझे जैसे गांधीजी की आवाज़ सुनाई पड़ी- 'बच्चू, जब तुम खुद शक्कर खाना बंद करोगे तब ही तुमको चैन आएगा; वैसे भी, तुम्हारा वजन बढ़ा हुआ है, कुछ कम कर लो.' मुझे उपाय मिल गया, मैंने शक्कर छोड़ दी, एकदम बंद. यहाँ तक कि भगवान को चढ़ाया प्रसाद तक नहीं खाया लेकिन मेरी छोटी बेटी संज्ञा के विवाह कार्यक्रम संपन्न होने के बाद जब हम लोग विवाह-भवन से बिलासपुर वापस जाने के लिए निकल रहे थे, तब मेरे समधीजी ने मुझसे कहा- 'मुझे मालूम है कि आप मीठा नहीं खाते लेकिन यह शगुन का मीठा है, इसे ले लीजिए.' मैं धर्मसंकट में पड़ गया, उनका मान रखना ज़रूरी था, उनकी बात कैसे काटूँ ? मैं मान गया, उन्होंने काजू की बर्फी का आधा टुकडा मेरे मुंह में रख दिया. हम सब ने उनसे विदा ली, कार में बैठे और उनसे ओझल होते ही उस मिठाई को मैंने मुंह से बाहर निकाल कर एक छोटे से कागज़ में लपेटकर जेब में रख लिया और पानी से कुल्ला कर लिया ताकि मीठापन मेरे हलक नीचे के उतर न कर सके.
          मेरा यह व्रत तीन वर्षों तक चला, उसके बाद मैं फिर मीठा खाने लगा. आप पूछेंगे- 'अरे ! क्या हुआ ?' यह बताने का समय अभी नहीं आया है, समय आने दीजिए, ज़रूर बताउंगा.

            प्रशिक्षण का काम बढ़ाने में बिलासपुर शहर का नाम मददगार और असरदार नहीं था. उन दिनों, कार्पोरेट सेक्टर में प्रशिक्षण करवाने का चलन बढ़ रहा था लेकिन उन्हें मुंबई, दिल्ली, कोलकाता, चेन्नई, बंगलौर और पुणे जैसे महानगरों के प्रशिक्षक अधिक आकर्षित किया करते थे. एक तो मैं 'मार्केटिंग' में आलसी था और संकोची भी, ऊपर से जब 'बिलासपुर जैसे अन्जान शहर के प्रशिक्षक द्वारिका प्रसाद अग्रवाल' ने कई संयंत्रों को कार्यक्रम के लिए पत्र भेजा तब किसी ने उस पत्र का उत्तर देने का कष्ट भी नहीं किया, लेकिन अपवादस्वरूप हिंदुस्तान एयरोनाटिक्स लिमिटेड नासिक ने उत्तर भी दिया और दो बार बुलवाया भी.
           मुझे अधिक काम न मिलने की एक और वज़ह थी, मेरी प्रशिक्षण-भाषा. मैं हिन्दी में प्रशिक्षण देता था और उन्हें अपने 'एक्ज़ीक्यूटिव' के लिए अंग्रेजी बोलने वाला प्रशिक्षक चाहिए था. अंग्रेजी से मेरी अच्छी दोस्ती हो गई थी क्योंकि सारी पठनीय सामग्री अंग्रेजी में ही उपलब्ध थी. मैं अंग्रेजी भाषा में प्रशिक्षण दे सकता था लेकिन उस पर मेरी पकड़ मजबूत नहीं थी. प्रशिक्षणार्थियों पर जो प्रभाव  मैं हिन्दी में पैदा कर सकता था, वैसा अंग्रेजी में नहीं कर पाता. कामचलाऊ, टरकाऊ या पैसा-बनाऊ काम करना मेरे स्वभाव में नहीं रहा इसलिए जितना भी काम मिला, मैं अपनी मातृभाषा से ही जुड़ा रहा. प्रशिक्षण देने का उद्देश्य केवल प्रशिक्षण देना ही नहीं होता, विषय का प्रभाव स्थापित करना होता है. प्रशिक्षण केवल 'कहना-सुनना' नहीं है, वरन, बड़े जतन से प्रशिक्षु के 'माइंड-सेट' को अपेक्षित दिशा में मोड़ना होता है. 
        बिलासपुर के आशुतोष मिश्र उन दिनों 'लार्सन एन्ड ट्युब्रो सीमेंट्स' (अब अल्ट्रा-टेक सीमेंट) में मानव संसाधन विभाग में प्रशिक्षण के संयोजन अधिकारी थे. उन्होंने मुझे चंद्रपुर (महाराष्ट्र), हिरमी (अब छत्तीसगढ़) और झारसुगुडा (ओडिसा) के संयंत्रों में प्रशिक्षण देने के अनेक अवसर दिए. हिरमी संयंत्र में प्रशिक्षण के दौरान एक प्रतिभागी ने मुझसे बेहद कठिन प्रश्न पूछा- 'सर, क्या आप भगवान को मानते हैं ?'
'इसका उत्तर मैं क्या दूँ ?' मैंने उन्हीं से पूछ लिया.
'मानते हो तो हाँ बोलिए, न मानते हो ना बोलिए.' मैं चुप रहा। मैं कोई जवाब न दे सका तो उन्होंने एक नया प्रश्न मुझ पर फेंका- 'अच्छा यह बताइये, आप अपने घर में भगवान की पूजा करते हैं या नहीं?'  
'हाँ, करता हूँ.' मैंने कहा.
'इसका मतलब साफ़ है कि आप भगवान को मानते हैं.'
'न, न, पूजा करना और भगवान को मानना अलग-अलग बात है.'
'क्या मतलब ?'
'मेरे पूजा करने की वज़ह कुछ और है.'
'क्या है सर ?'
'हुआ यह, जब मेरे माता-पिता बिलासपुर वाला अपना घर छोड़कर रायपुर अपने बड़े बेटे के घर 'शिफ्ट' हो रहे थे तब उनके घर में स्थापित भगवान की मूर्तियाँ उन्होंने हमें दे दी ताकि उनकी नियमित पूजा होती रहे. उन मूर्तियों को हमारे घर में स्थापित कर दिया गया और मेरी पत्नी माधुरी उनकी पूजा किया करती थी. एक दिन माधुरी ने मुझसे कहा- "घर में भगवान विराजे हैं, तुम अगर सिर झुकाकर प्रणाम कर लोगे तो क्या तुम्हारी इज्ज़त चली जाएगी ?"
"ऐसा नहीं है, पर तुम जानती हो मेरा पूजा-पाठ पर से विश्वास उठ चुका है, यह सब अब मुझसे नहीं होता."
"ठीक है, लेकिन यह तो सोचो, हमारे घर में भगवान प्रतिदिन पूजे जाने के लिए भेजे गए हैं लेकिन हर माह के चार दिन बिना पूजे रह जाते हैं ! क्या यह ठीक है ?" माधुरी ने मुझसे पूछा. मैं सोच-विचार में पड़ गया. उनकी बात में दम था. अगले दिन से प्रतिदिन मैं स्नान के बाद ज्ञात-विधि-विधान से भगवान की दिल लगाकर पूजा करने लगा. अन्त में शंख बजाता ताकि माधुरी घर में जहां कहीं हों, उन्हें मालूम पड़ जाए कि मैंने पूजा की !'
'आपने सही किया, सर.' प्रतिभागी ने कहा. 'आखिर आपको आपकी पत्नी ने भगवान से जोड़ दिया, वे कितनी समझदार हैं.'
'आप सही कह रहे हैं लेकिन वह पूजा मैं भगवान को प्रसन्न करने के लिए नहीं, अपनी पत्नी को खुश रखने के लिए करता हूँ.' मैंने उनको बताया.
          यह घटना १९९६-९७ की रही होगी, अब मैं आपको सन २०१० की एक घटना बताता हूँ, इन दोनों घटनाओं को जोड़ेंगे तो बात अधिक पकड़ में आएगी. बिलासपुर के ज्येष्ठ नागरिक संघ के एक कार्यक्रम में मुझे वरिष्ठजनों के (शेष) जीवन को सार्थक दिशा देने हेतु व्याख्यान के लिए बुलाया गया था. उन्हें मैंने कुछ 'टिप्स' दिए लेकिन आप तो जानते हैं कि सूखे पौधे पर पानी देने से कोई खास लाभ नहीं होता बल्कि पानी व्यर्थ चला जाता है किन्तु कुछ अपवाद भी होते हैं.  
          अगले दिन एक सज्जन जिनकी उम्र अस्सी से अधिक रही होगी, लड़खड़ाकर चलते हुए मेरी होटल में मुझसे मिलने पधारे. कार्यक्रम की बातों से प्रभावित होकर वे अपनी पारिवारिक समस्या पर मुझसे सलाह लेने आए थे. वार्तालाप इस तरह था, पढिए :
'मुझे जानते हो, आपके पिताजी जब राईस मिल चलाते थे तब मेरे पास आफिस आया करते थे.' उन्होंने मुस्कुराते हुए बात शुरू की. 
'जी, मैं आपको पहचानता हूँ.' मैंने विनयपूर्वक कहा.
'कल आपने बहुत अच्छा बोला इसलिए मुझे ऐसा लगा कि मैं अपनी एक व्यक्तिगत समस्या पर आपकी राय लूँ.'
'आप मुझसे इतने सीनियर हैं, मैं आपको भला क्या राय दे सकता हूँ !'
'ऐसा मत कहिये.'
'चलिए, बताइए.'
'मेरी पत्नी को स्वर्गवासी हुए बहुत समय बीत गया, मेरे साथ बेटा-बहू रहते हैं. बेटा वकालत करता है और बहू तीस किलोमीटर दूर एक सरकारी स्कूल में 'टीचर' है.'
'जी.'
'बहू रोज सुबह साढ़े नौ बजे हमारे लिए खाना बनाकर नौकरी पर निकल जाती है, बेटा ग्यारह बजे कचहरी चला जाता है. दोपहर एक बजे जब मुझे भूख लगती है तो मैं अपने हाथ से खाना परोसकर खाता हूँ पर ठंडा हो जाने के कारण मुझसे खाया नहीं जाता.'
'तो, गरम कर लिया करें.'
'दाल-सब्जी हो जाती है पर रोटी और चावल दोबारा गरम करने में भाता नहीं.' 
'जी, आप ठीक कह रहे हैं,'
'मैं बहू को समझाता हूँ कि नौकरी छोड़ दे, मेरी पेंशन और बेटे की वकालत से घर चल जाता है परन्तु वह मानती नहीं. बेटा भी अपनी घरवाली की तरफदारी करता है. मैं बहुत दुखी हूँ. असल में मैं शुरू से ही गुस्सैल रहा हूँ, कोई कहना नहीं मानता तो मुझे आग सी लग जाती है.'
'मेरी राय है कि सबसे पहले आप यह बात समझें कि आपकी पत्नी की तरह कोई दूसरा आपकी देखभाल और सेवा नहीं कर सकता.'
'सही है.'
'अब मैं आपसे एक प्रश्न करता हूँ,  घर में आप देवी-देवताओं की पूजा करते हैं या नहीं ?'
'हाँ, प्रतिदिन करता हूँ.'
'लक्ष्मीजी और दुर्गाजी की ?
'हाँ,'
'तो उनके चित्रों के समीप अपनी बहू का भी चित्र रख लीजिए॰'
'क्यों ?'
'क्योंकि वे आपके घर में विराजमान साक्षात देवी अन्नपूर्णा हैं. सुबह-सुबह नौकरी पर निकलने के पहले आपके लिए भोजन तैयार करके जाती हैं, सोचिए, वे आपकी कितनी फ़िक्र करती हैं !'
'अरे, इस बात में मेरा कभी ध्यान नहीं गया लेकिन अब मेरी समझ में आ रहा है; लेकिन मैं क्या करूँ, मुझे गुस्सा बहुत आता है.'
'अब गुस्सा करोगे तो किस पर, अंकल जी ? आपका गुस्सा सहने वाली आपकी पत्नी तो आपको छोड़ कर जा चुकी !' मैंने कहा. 
          सहसा उनके चेहरे की रंगत बदलने लगी, वे उठ खड़े हुए. मैंने उनको प्रणाम किया, उन्होंने मुझे आशीर्वाद दिया. जब वे मेरी होटल से बाहर निकल रहे थे तो उनकी चाल में अज़ब सी मजबूती झलक रही थी। 

          मुझे जब हिन्दुस्तान एयरोनाटिक्स, नाशिक के वरिष्ठ प्रबन्धकों को नेतृत्व कला विकास और संप्रेषण पर प्रशिक्षण देने का निमन्त्रण मिला तो मन प्रसन्न हो गया. प्रथम- इतने महत्वपूर्ण संस्थान में प्रशिक्षण देने का अवसर और द्वितीय- आयुध विमान का निर्माण करने वाले संयंत्र को देखने का सुअवसर. नाशिक से ग्यारह किलोमीटर दूर ओझर में स्थित सुरम्य वादियों के मध्य बसा यह संयंत्र सच में मनमोहक है. प्रथम प्रवास में मेरे सहयोगी प्रशिक्षक डा. भरत शाह (इंदौर) थे और उसके अगले वर्ष के प्रशिक्षण कार्यक्रम में विवेक जोगलेकर (बिलासपुर) मेरे साथ थे. इन दोनों प्रशिक्षकों की प्रशिक्षण शैली का मैं दीवाना रहा हूं. ये दोनों जब प्रशिक्षण देने के लिए खड़े होते हैं तो मुझ पर सम्मोहन सा छा जाता है क्योंकि इन दोनों की विषयवस्तु पर पकड़ और प्रस्तुतीकरण की शैली नायाब है. मैंने अपने जीवन में ऐसे अनेक अद्भुत प्रशिक्षकों को देखा-सुना है जिनके ज्ञान और असरदार शब्दों के प्रयोग के समक्ष मैं सदैव नतमस्तक रहा और उन सबको मैंने मन-ही-मन अपना ‘गुरु’ मान लिया. वे गुरुजन जानते भी नहीं कि कोई शिष्य अदृश्य भाव से उनमें प्रविष्ट हो चुका है. मुझे प्रशिक्षण देते अब पैंतीस वर्ष हो चुके हैं, इस अवधि में उत्तर और मध्यभारत के अनेक राज्यों में हज़ारों प्रशिक्षुओं को शताधिक विषयों पर प्रशिक्षण दे चुका हूं लेकिन अब भी इन प्रशिक्षकों की दक्षता के समक्ष मैं स्वयं को बौना मानता हूं. उनको मेरा प्रणाम.
          हिन्दुस्तान एयरोनाटिक्स का ज़िक्र इसलिए निकला क्योंकि वहां प्रथम दिवस का कार्यक्रम समाप्त होने के पूर्व एक निमन्त्रण पत्र हमें मिला जिसमें संयंत्र के महाप्रबन्धक ने ‘डिनर’ पर सम्मिलित होने का हमसे अनुरोध किया. समय रात्रि ९ बजे, ड्रेस- ‘इन्फ़ार्मल’, स्थान- ‘एच.ए.एल. गेस्टहाउस’. नियत समय पर हम दोनों वहां पहुंच गए. महाप्रबन्धक और सह-महाप्रबन्धक ने हमारा स्वागत किया और हमें ‘गेस्टहाउस’ के बरामदे पर बिछी बेंत से बनी आरामदेह कुर्सियों पर बैठाया. हमारा अनुमान था कि कोई वृहद आयोजन होगा लेकिन ‘डिनर’ में हम चार लोग ही रहे तब समझ में आया कि वह हम लोगों के सम्मान में आयोजित था.
          बाहर की बैठक में ‘सर्विस’ आरम्भ हुई. कांच के खूबसूरत गिलास, दमकती-चमकती शराब की बोतल, साथ में एक के बाद एक परोसा जा रहा ‘चबैना’!  चबैना समझ गए न आप ? शराब की 'सिप' के साथ खाने वाला सहयोगी खाद्य जैसे छिली हुई मूंगफ़ली, मसालेदार मूंगफली, सादा चना, भुना हुआ नमकीन चना, बिस्किट आदि बारह-तेरह किस्म का सामान जिसे थोड़ी-थोड़ी देर के अन्तराल में हमें परोसा गया ! हम दोनों को शराब से परहेज था इसलिए ‘कोक’ से उनका साथ देते रहे और चबैना का लुत्फ़ भी उठाते रहे. लगभग एक घंटे बाद वहां से उठकर ‘डायनिंग टेबल’ तक गए, साथ बैठे, इस बीच ‘डिनर सर्व’ हो गया. हम दोनों को ‘मिले-जुले’ भोजन का पूर्वानुमान था लेकिन संकोचवश पूछताछ नहीं की. मुझे पालक की साग बहुत पसन्द है इसलिए अन्य वस्तुओं के मुकाबले उसे अधिक मात्रा में ले लिया. 
          भोजन भरपूर था, स्वादिष्ट था. अचानक पालक का पनीर मेरे दांतों से टकराया, मैंने सोचा कि पनीर इतना कड़ा तो नहीं होता लेकिन उसे मैं उगल कर देख भी नहीं सकता था क्योंकि वह ‘मेनर्स’ के अनुकूल न होता इसलिए उसे किसी प्रकार चबाकर खा गया और डा. भरत शाह से मैंने फ़ुसफ़ुसाकर पूछा- ‘भरत भाई, पालक का पनीर बहुत कड़क है, आपने खाया क्या?’
‘अरे, आपने पालक खा लिया क्या ? वह ‘नान-वेज’ है, उसमें पनीर नहीं, मटन है.’ वे धीरे से बोले.
‘मर गए.’
‘क्या हुआ?’
‘मैं तो उसे चबा कर निगल गया.’ मैंने अपनी भूल उन्हें बताई. 'मटन' का नाम सुनकर मुझे उबकाई सी आने लगी. ऐसा लगा कि टेबल पर ही उल्टी हो जाएगी लेकिन मैं पानी लगातार तब तक पीता रहा जब तक उबकाई शान्त नहीं हो गई. पेट पानी से ही भर गया और अच्छे-खासे ‘डिनर’ का सत्यानाश हो गया. अचानक महाप्रबन्धक का ध्यान मुझ पर गया, उन्होंने पूछा- ‘आप कुछ खा नहीं रहे हैं अग्रवाल साहब ?’
‘आपने बाहर ही इतना खिला दिया था कि अब जगह नहीं बची॰’ मैंने अपने चेहरे में छद्म संतुष्टि भाव लाकर कहा.
          दूसरे दिन का कार्यक्रम सम्पन्न होने के बाद हमें उच्चाधिकारियों से मिली विशेष अनुमति से संयंत्र दिखाया गया. चूंकि वहां ‘फ़ाइटर प्लेन’ बनते थे, इसलिए सब कुछ वृहद आकार का था. उस संयंत्र को देखना और समझना वाकई बहुत रोचक था. हवाईपट्टी संयंत्र के अन्दर ही थी इसलिए परीक्षण-उड़ान की वज़ह से हर समय शोर होते रहता था. एक बात और, इन विमानों के निर्माण की प्रक्रिया अत्यन्त धीमी होती है, साल भर में उंगलियों में गिनने लायक ही बन पाते हैं, विमान निर्माण अत्यंत धैर्य और तकनीकी तालमेल वाला काम है. गोपनीयता की वज़ह से आपको अधिक नहीं बता सकता लेकिन हाँ, उनका निर्माण अपने देश में होता देख गर्व की जो अनुभूति हुई वह अवर्णनीय है.

          ‘नान-वेज’ की बात चली तो एक और घटना याद हो आई- हमारे पुत्र  कुन्तल उन दिनों बारहवीं कक्षा के छात्र थे, एक रात को लगभग नौ बजे मैं अपनी दूकान से वापस लौटकर आया, मुंह-हाथ धोकर भोजन की टेबल पर बैठा, मेरे साथ कुन्तल भी बैठे थे, मुझसे बोले- ‘पापा, मेरा दोस्त कह रहा था कि ‘चिकन’ बहुत स्वादिष्ट होता है, मेरा खाने का बहुत दिल है.’
‘ठीक है, खा लो.’ मैंने कहा.
‘खा लूँ ?’
‘हां, हां, दिल कर रहा है तो ज़रूर ‘टेस्ट’ करना चाहिए.’
‘पैसे दीजिए न.’ उन्होंने कहा. मैंने ‘पर्स’ से एक सौ रुपए का नोट निकालकर दिया और पूछा- ‘अपने 'उस' दोस्त को भी साथ लेते जाना, तुम दोनों खाना और देखो, जिस दूकान में सबसे अच्छा बनता हो, वहीं जाना.’
          आपको आश्चर्य हो रहा होगा कि एक सौ रुपए में दो लोगों का ‘नान-वेज डिनर’ कैसे होगा ! आज से बीस वर्ष पूर्व एक सौ रुपए की शक्ति आज के मुकाबले बहुत अच्छी थी. फ़िलहाल, कुन्तल बड़ी तेजी से खड़े हुए और मुदित-भाव से चल पड़े. इधर घर में बवन्डर उठ खड़ा हुआ, सब मुझसे नाराज- ‘उसने कहा कि ‘चिकन’ खाऊंगा तो मना करने की जगह जेब से रुपए निकालकर दे दिए- ‘जाओ बेटा खा आओ.’ दोनों लड़कियों ने समवेत स्वर में मुझसे पूछा- ‘आप कैसे पापा हो ?’
‘मैं मना कर सकता था लेकिन जब उसका ‘चिकन’ खाने का दिल हो रहा है तो वह खाएगा अवश्य. मैं मना करता तो वह बाद में मेरी गैर-जानकारी में खाता. यह अच्छा है कि उसने अपने दिल की बात मुझसे ‘शेयर’ की. उसे जाने दो, खा लेने दो. मैंने सबको समझाया.’ सबने मुझे घूरकर देखा, सबके चेहरों पर किस्म-किस्म के नाराज़गी वाले भाव उभरने लगे.
          रात को करीब ग्यारह बजे श्रीमानजी घर लौटे और चटखारे लेकर ‘चिकन’ के स्वाद के बारे में सबको बताया. दोनों बहनें चिढ़ गई और बोली- ‘हट यहां से, तेरे मुंह से बदबू आ रही है, जाकर ‘ब्रश-पेस्ट’ करके आ, घिनहा कहीं का.’ खैर, कुछ देर बाद सब अपने बिस्तरों पर सोने चले गए. 
          रात को कोई दो बजे का समय रहा होगा. मेरे कमरे के दरवाजे पर खटखटाहट हुई, मैंने दरवाजा खोलकर देखा, कुन्तल मेरे सामने थे. मैंने पूछा- ‘क्या हुआ बेटा?’
‘बहुत खराब लग रहा है, पापा. अजीब बेचैनी हो रही है. मुझे नींद भी नहीं आ रही है.’ कुन्तल ने बताया.
‘क्यों ?’ मैंने पूछा॰ 
‘ऐसा लगता है कि मुझे 'चिकन’ नहीं खाना था॰ आज खाया तो उसमें कोई खास स्वाद भी नहीं था, मुझे समझ नहीं आता कि लोग क्यों खाते हैं ?’
‘अब मैं क्या बताऊं, मैंने तो कभी खाया नहीं लेकिन दुनियां की अधिकांश आबादी इसे खाती है तो ज़रूर कुछ-न-कुछ बात होगी. स्वाद खाते-खाते बनता है.’
‘आप यह बताइए कि अभी मैं क्या करूं?’
‘मुंह में उंगली डालकर उल्टी करो, पेट खाली हो जाएगा तो अच्छा लगेगा.’ मैंने सुझाव दिया. ‘बेसिन’ में जाकर उन्होंने उल्टी की, पानी पिया और तनिक शांत होकर बोले- ‘कान पकड़ता हूं, अब कभी नहीं खाऊंगा.’ फ़िर वे आराम से सो गए॰ 

          आपको पहले ही बता चुका हूँ कि कुन्तल का पढ़ाई-लिखाई में दिल नहीं लगता था॰ स्कूल जाकर वे देवी-सरस्वती पर कृपा करते थे॰ घरवालों के दबाव डालने पर उन्होंने 'पी॰ई॰टी॰' का 'फार्म' भर दिया लेकिन जब उसकी परीक्षा का दिन आया तो वे चादर ओढ़कर घर में सो रहे थे ! मम्मी ने डपट कर जगाया और कहा- 'जाओ 'टेस्ट' देने, दो सौ रुपए लगे हैं उसमें॰'  
'पर मेरी तैयारी नहीं है, मैं वहाँ जाकर क्या करूंगा ?' उन्होंने ऊँघते हुए उत्तर दिया॰
'जो बने करो, पर जाओ यहाँ से॰' माँ की डांट पड़ी तो बड़ी अनिच्छा से उठे, कुल्ला किया और मुँह लटकाए चले गए॰ परिणाम आया तो उसमें अत्यन्त निराशाजनक वरीयताक्रम मिला॰ हम सब समझ गए- 'गई भैंस पानी में !'
          उनके कुछ सहपाठियों ने बहुत अच्छा प्रदर्शन किया परिणामस्वरूप देश के नामीगिरामी संस्थानों में उन्हें प्रवेश मिल गया, किसी को आई.आई.टी. तो किसी को आर.ई.सी., आपस में ‘पार्टियों’ के दौर चलने लगे. चयनित साथियों को बधाइयां मिलने लगी और शाबासी भी. बधाई के उस दौर का उनके ऊपर कुछ अजब सा असर हुआ, संभवतः उनके मष्तिस्क में आत्मविश्लेषण की प्रक्रिया आरंभ हुई.
          एक दिन हम सब साथ में भोजन कर रहे थे, कुन्तल सोच-विचार में थे. अनायास बोले- ‘पापा, मेरे ये जो चार दोस्त देश के शानदार संस्थानों में 'सिलेक्ट' होकर जा रहे हैं, इन सबसे मैं ज़्यादा होशियार हूं. ये ‘हीरो’ बन  गए, मैं उनके लिए बैठकर तालियां बजा रहा हूं !’
‘हूं, तो फ़िर ?’ मैंने उसे घूरते हुए पूछा.
‘मुझे आप लोग एक साल की छुट्टी देंगे क्या ? समझ लीजिए कम्मू ( उनका घरेलू नाम ) घर में नहीं है.’
‘क्या करोगे ?’
‘अगले साल पी.ई.टी. दूंगा, उसकी तैयारी करूंगा.’
‘एक साल की छुट्टी ‘ग्रान्टेड’.’ हम सबने एक साथ कहा. उस समय उनके चेहरे पर अपूर्व आत्मविश्वास दमक रहा था और हमारा घर अवर्णनीय ऊर्जा से ओतप्रोत हो गया. वह वाक्य- ‘मुझे आप लोग एक साल की छुट्टी देंगे क्या?’- ने उनका ऐसा भविष्य निर्मित किया जिसकी हमें कल्पना भी न थी.

==========

                                                                                

गुरुवार, 19 जून 2014

9 : कभी धूप कभी छाँव

         
                                                         कहीं धूप कहीं छांव :
                                                         =============


         Stephen R. Covey की एक पुस्तक है: 'The Seven Habits Of Highly Effective People' जिसमें जीवन प्रबंधन के सात अद्भुत सूत्र हैं. इसमें बहुत कुछ ऐसा है जो हमारे दिमाग की नई खिड़कियाँ खोल सकता है. जैसे, इस पुस्तक में प्रभावी सम्प्रेषण के बारे में एक आनुभूतिक चर्चा है. हम लोग 'Sympathy' शब्द से भलीभाँति परिचित हैं जिसका हिन्दी अर्थ है सहानुभूति. अँग्रेजी का एक और शब्द है- 'Empathy' जिसका अर्थ है समानुभूति. स्टीफन का मानना है- सहानुभूति और समानुभूति में फ़र्क है. सहानुभूति, किसी स्थिति से एक समझौता होता है जिसमें मनुष्य की भावुक प्रतिक्रिया होती है. सहानुभूतिवश की गई ऐसी मदद सामने वाले को पराश्रित बनाती है जबकि समानुभूति में यह जरूरी नहीं कि सुनी गई बात से आपकी सहमति हो, बल्कि यह सामनेवाले व्यक्ति को पूरी गहराई से समझने का भावुकतापूर्ण  बौद्धिक प्रयास है. जब हम किसी को सुनते हैं तो इन चार तरीकों से प्रतिक्रिया करते हैं :
# हमारा आकलन > सुनी गई बात से हम सहमत हैं या असहमत ?
# हमारी जांच-पड़ताल > फिर, हम अपनी निश्चित धारणाओं के अनुसार सामने वाले से प्रश्न करते हैं.
# हमारी सलाह > उसके बाद, अपने पुराने अनुभव के आधार पर उसे अपनी राय देते हैं.
# हमारा निष्कर्ष > अंत में, अपनी सोच की कसौटी के आधार पर सामने वाले के व्यवहार और इरादे को समझते की कोशिश करते हैं. 
          स्टीफ़न  के अनुसार- 'जो कुछ कहा जाता है उसका 10% शब्दों के माध्यम से, 30% आवाज के माध्यम से और शेष 60% हमारे शरीर की भाषा से संप्रेषित होता है. समानुभूति में आप केवल कान से नहीं सुनते बल्कि आप अपनी आंखों और दिल से भी सुनते  हैं. आप महसूस करने के लिए सुनते हैं, अर्थ समझने के लिए सुनते हैं, अर्थात 'मैं सामने वाले को समझने के लिए उसे सुन रहा हूँ.'  
          एक घटना आपको बताता हूँ- गर्मी के दिन थे, मैं अपने एक मित्र के घर उनके 'लंच-टाइम' में पहुँच गया. उनका छोटा बच्चा 'डायनिंग चेयर' पर अनमना सा बैठा था, वह भोजन करने का इच्छुक न था लेकिन उसकी माँ उसे भोजन कराने के लिए दृढ़संकल्पित थी. उन्होंने मुझसे भी भोजन करने का अनुरोध किया, मैंने मना किया लेकिन 'कोल्ड-ड्रिंक' के लिए राजी हो गया. फ्रिज से निकलते कोल्डड्रिंक को देख बच्चा मचल गया- 'मैं कोल्डड्रिंक लूँगा.' उसकी सुई कोल्डड्रिंक में अटक गई थी. मामला पेचीदा हो गया. माँ ने बच्चे से वादा किया- 'भोजन कर लो, उसके बाद तुम्हें कोल्डड्रिंक दूँगी, पक्का.'
'नईं, मैं पहले कोल्डड्रिंक लूँगा.' बच्चे ने रोते हुए कहा. माँ ने बहुत समझाया पर बच्चा अपनी बात पर अड़ गया.
'एक काम करो, मैं तुमको कोल्डड्रिंक देती हूँ लेकिन खाने के पहले तुम नहीं पियोगे, हाँ, खाना और कोल्डड्रिंक साथ-साथ ले सकते हो.' दोनों में समझौता हो गया, बच्चा अपने काम में लग गया और बच्चे की माँ हम लोगों की बातचीत में शामिल होने के लिए आ गई. मैंने उनसे कहा- 'भाभी जी, बच्चे की ज़िद इस तरह पूरी करके आप उसे बिगाड़ रही हैं.'
'सच तो यह है भाई साहब, ये सब आपके कारण हुआ.' वे बोली.
'मेरे कारण?'
'हाँ, आपके कारण. आप उसके खाने के समय में आए, उसके नज़र के सामने फ्रिज से कोल्डड्रिंक निकला, ज़ाहिर है, बच्चा उसे देखेगा तो मचलेगा.'
'ओ, सॉरी, पर मैंने देखा कि आपने उसकी बात मानी लेकिन उसने तो आपकी बात नहीं मानी ?'   
'मानी, बराबर मानी, आप देखिए, वह कोल्डड्रिंक पी रहा है, साथ ही खाना भी खा रहा है.'
'उसने आपको झुकाया, फिर खाना खाया.'
'यह झुकने-झुकाने की बात नहीं है. हम दोनों ने एक दूसरे की भावना को समझा.' बच्चे की माँ ने मुझे समझाया. 
            स्टीफ़न की पुस्तक 'द सेवन हैबिट्स ऑफ़ हाइली इफेक्टिव पीपल' का ज़िक्र मैंने इसलिए किया क्योंकि आपको धनवान बनने के गुर बताने वाली अनेक पुस्तकें बाज़ार में बहुत मिल जाएंगी लेकिन इस रहस्यमयी दुनियाँ में खुद का प्रबंधन कर स्वयं को प्रभावी मनुष्य कैसे बना जाए- यह समझाने वाली पुस्तकें कम मिलती हैं. जब मुझे व्यवहार विज्ञान विषय पर प्रशिक्षण देने के मौके मिलने लगे तब प्रबंधन की अनेक पुस्तकों को पढ़ने का अवसर मिला उनमें से सबसे अधिक प्रभावित करने वाली पुस्तक यही रही. इसे मैंने कई बार पढ़ा, हर बार कुछ नई बात समझ में आती.
          एक कहावत है- 'सिखाने का प्रतिफल सीखना है॰' प्रशिक्षक पहले विषय को पढ़ता है, समझता है फिर उसके बाद समझाता है और समझाते-समझाते ऐसा समझता है जिसे वह केवल पढ़कर नहीं समझ सकता॰ यह ज़रूर हुआ कि इन प्रशिक्षण कार्यक्रमों के चलते इसके कई सूत्र अपने आप मेरे जीवन में जुड़ते गए॰ मुझे मेरी भूलें और कमियां समझ में आने लगी, फिर मेरे जीने का अंदाज़ भी बदलने लगा. 
          सद्गुरु जग्गी वासुदेव कहते हैं- 'पुस्तक में क्या लिखा है वह मायने नहीं रखता, उसे पढ़कर जो आपके दिल में धड़कता है- वह मायने रखता है.'

==========

          एक दिन माधुरी (जी हां, मेरी पत्नी) के साथ मैं अपने मित्र विवेक जोगलेकर के घर गया. उनकी पत्नी शुभदा उन दिनों गर्भवती थी, प्रसव समय अधिक दूर न था. शुभदा के सामान्य स्वास्थ्य की कुशलक्षेम के पश्चात मैंने विवेक से पूछा- ‘शुभदा का ठीक से ध्यान रखते हो?’
‘हां-हां, बराबर ध्यान रखता हूं.’ विवेक ने बताया.
‘मिठाई वगैरह खिलाते हो?’
‘कभी कभी.’
‘चाट-पकौड़ी?’
‘अक्सर.’
‘कोई ‘डायरी मेन्टेन’ करते हो?’
‘क्या मतलब?’
‘तुम्हारी पत्नी आज से बीस-पच्चीस साल बाद तुमसे शिकायत कर सकती है- ‘मैं जब ‘प्रेग्नेन्ट’ थी तब तुमने मेरा बिल्कुल ख्याल नहीं रखा, एक टुकड़ा मिठाई नहीं खिलाई और न ही कभी चाट.'
‘अरे, खिला-पिला रहा हूँ, ऐसे कैसे भूल जाएगी ?’
‘भूल जाएगी मित्र, देख लेना, जैसा बता रहा हूं, वैसा ही होगा॰ इसीलिए हर समय जेब में डायरी रखा करो, जो भी खिलाओ, उसका पूरा विवरण और तारीख लिखने के बाद उसमें शुभदा के दस्तखत करवा लिया करो.’
‘ऐसा क्या?’
‘हां, अगर अभी चूके तो फिर बाद में बेबुनियाद आरोप सुनने और सहने के लिए तैयार रहना.’
          माधुरी और शुभदा दोनों मुझ पर नाराज़ हो गई और तुरन्त मुझे स्त्री विरोधी घोषित कर दिया- ‘क्या हम लोग झूठ बोलती हैं?’
‘नहीं, ऐसा मैंने ऐसा कब कहा?’
‘तुम्हारे कहने का मतलब तो यही है, तुमने तो, सच में, मुझे कुछ नहीं खिलाया. देखो शुभदा, इनकी इतनी बड़ी मिठाई की दूकान, पूरे शहर में ‘पेन्ड्रावाला’ का नाम, क्या मज़ाल कि कभी मिठाई का एक टुकड़ा लाकर खिलाया हो!’ माधुरी ने शिकायती लहज़े में कहा.
‘अब आज मेरे पास कोई प्रमाण नहीं है कि मैंने तुमको क्या-क्या खिलाया इसीलिए विवेक को यह सावधानी समझा रहा था.’ मैंने कहा.
          ऐसा नहीं है कि पत्नियाँ झूठ बोलती हैं, या भूल जाती हैं. असल में, यह मानवीय सम्प्रेषण की समस्या है. एक मनुष्य दूसरे के हृदय की अनकही बात को सुन नहीं पाता, समझ नहीं पाता. पति-पत्नी एक घर में साथ रहते हैं लेकिन किसी अपरिचित की तरह! दोनों के लिए एक दूसरे को बूझ पाना असम्भव है, असम्भव क्यों? असम्भव इसलिए कि असम्भव को सम्भव करना असम्भव है.
          विवाह करके दो व्यक्ति एक साथ रहने के लिए सहमत होते हैं लेकिन वे दो ही रहते हैं, वे एक कभी नहीं हो पाते. विवाह के शुरुआती मौसम की नज़दीकी कब ऊब में बदल जाती है, पता नहीं चलता. मधुमास या मधुवर्ष में आंखों में आंखे डाले बड़े प्यार से एक दूसरे को भोजन के कौर खिलाते युगल बाद के वर्षों में आंखें नीची कर अपना-अपना पेट भरा करते हैं. तब तक वे दोनों एक दूसरे के बल और छल से परिचित हो जाते हैं और मौन अपेक्षाओं की सीढ़ियां चढ़ते हुए परस्पर व्यवहार को परखते हैं. यदि पत्नी कहे- ‘चाट खिलाओ’, तो पति को खिलाने में क्या असुविधा है- चाहे जितनी खाओ किन्तु पेंच यह है कि पत्नी सोचती है कि- ‘गर्भधारण का असहनीय कष्ट सहकर मैंने तुम्हारी संतान को जन्म दिया और तुम्हें मेरे कहे बिना चाट खिलाने की याद तक नहीं आई?’ उलाहना इस बात का है,  क्या यह अनुचित है ?
          मेरा अनुमान है कि स्त्रियां सबसे अधिक नाखुश अपने पति से रहती हैं. उनकी नाखुशी की वज़ह वज़नदार है- नाराजगी का सबसे बड़ा कारण दोनों में लिंग का अन्तर है जिसके कारण उसे अपना घर छोड़कर दूसरे के घर आना पड़ा. उसके लिए पति नामक व्यक्ति किसी खलनायक की तरह है जिसने उसे उसके मां-बाप के घर से बेदखल कर अपने घर ले आया. वैसे तो समाज लड़कियों को उनके बचपन से सिखाता-समझाता है- ‘एक दिन सपनों का एक राजकुमार आएगा, तुझे डोली में बिठाकर ले जाएगा, बहुत सारी खुशियां देगा, प्यार करेगा, तू वहाँ जाकर राज करेगी’ लेकिन विवाह के बाद स्त्री को समझ में आता है- ‘मैंने तो चांद सितारों की तमन्ना की थी, मुझको रातों की स्याही के सिवाय कुछ न मिला.’
          एक लड़की जिसके सामने खुला आसमान था, अनेक संभावनाएं थी, वह कुछ अपरिचितों के हाथ की मुट्ठियों के अंधेरे में कैद हो गई. विवाह के पश्चात हर गतिविधि के लिए वह ससुरालवालों की इजाज़त की  मोहताज़ हो गई. यहां तक कि उससे यह उम्मीद भी की जाती है कि वह अपने जीवन के स्वर्णिम अतीत के पन्ने फ़ाड़कर फेक दे और मायके वालों को भूल जाए और उनका नाम तक अपने मुंह से न निकाले !
         धीरे-धीरे वह उस जेलखाने की अभ्यस्त हो जाती है, उसी छोटी सी दुनिया में वह अपनी नई दुनियाँ बसाती है, घर के काम में खुद को व्यस्त करके वह इस यातना से अपना ध्यान बँटाने की प्रतिदिन कोशिश करती है. रोज, आँच के सामने खड़े होकर सबके लिए खाना बनाना, जूठे बर्तन उठाना और साफ़ करना, गंदे कपड़े धोना और 'प्रेस' करना और हर रात में वही बेरहम बिस्तर ! कौन है ज़िम्मेदार ?
         फ़्रैंच लेखिका Simone de Beauvoir ने स्त्री-पुरुष संबन्धों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करते हुए अपनी पुस्तक The Second Sex में लिखा है- ‘पति सोचता है कि उसने एक अच्छी पत्नी से विवाह किया है. वह स्वभाव से गुणवती, श्रद्धालु, वफ़ादार, संतुष्ट और पवित्र है. वह भी वही सोचती है जो उसके लिए सोचना उचित है. पुरुष एक लम्बी बीमारी के बाद स्वस्थ होने पर अपने मित्रों, रिश्तेदारों और नर्सों को देखभाल के लिए धन्यवाद देता है पर जो पत्नी छः महीनों तक उसके बिस्तर के पास बैठी रहती है, उससे वह कहता है- ‘मैं तुम्हें धन्यवाद नहीं देता, तुमने तो अपना कर्तव्य निभाया है.’ पति पत्नी की अच्छाइयों को कभी भी विशेष महत्व नहीं देता. समाज भी पत्नी में इस गुण का होना अनिवार्य समझता है. विवाह संस्कार भी यह ज्ञान कराता है कि पत्नी में सद्गुणों का होना अनिवार्य है. पुरुष भूल जाता है कि उसकी पत्नी किसी परम्परा से चली आ रही एक पवित्र रचना मात्र नहीं बल्कि एक जीता-जागता इन्सान भी है.’
           सीमोन द बोउवार के अनुसार- 'स्त्री पैदा नहीं होती, बल्कि उसे बना दिया जाता है.'

 ==========

          हमारी बड़ी बिटिया संगीता ‘पीएमटी’की प्रतियोगिता में दूसरी बार असफल हो गई. बहुत समझाने-बुझाने पर बामुश्किल उसने तीसरी बार कोशिश की, उसे ८२.४ % अंक अर्जित किए फिर भी सफल न हो सकी क्योंकि उस वर्ष की परीक्षा में भिंड-मोरेना के परीक्षा केन्द्रों में खुली नक़ल चली जिसका दुष्परिणाम सम्पूर्ण प्रदेश के अन्य प्रतियोगियों को भुगतना पड़ा. पूर्वनियोजित आरक्षण, फिर नक़ल और 'सेटिंग' ने पूरी प्रक्रिया को ऐसे चक्रव्यूह में बदल दिया जिसे भेद पाना सामान्य वर्ग के प्रतियोगियों के लिए बेहद कठिन हो गया. इस असफलता ने संगीता को अन्दर तक आहत और निराश कर दिया. उसने मुझे 'नोटिस' दी- 'पापा, अब मुझसे पीएमटी में बैठने के लिए कभी नहीं कहना और घर में उसका कोई नाम भी नहीं लेगा.' सब चुप हो गए, लेकिन मैं चुप बैठा नहीं. मैं उसकी योग्यता, कर्मठता और लगन को पुरस्कृत होते हुए देखना चाहता था लेकिन आप तो जानते हैं कि किसी की भी तंगहाली उसके बहुत से सपनों को उजाड़कर दूर खड़े होकर चिढ़ाती है और अंगूठा दिखाकर कहती है- ‘ लेल्ले !’
          आपसे अपने एक अज़ीज़ का ज़िक्र अब तक नहीं कर पाया- वे हैं बीके सर. पूरा नाम बृजेन्द्र कुमार श्रीवास्तव, मूल निवासी- कानपुर, शिक्षा- इलाहाबाद, नौकरी- बिलासपुर, हाल मुकाम- मुम्बई. सन १९६२ में वे बिलासपुर के सीएमडी कालेज में अंग्रेजी के प्राध्यापक बन कर आए और लगभग ५५ वर्ष तक यहां रहे फ़िर अपने पुत्र के साथ रहने के लिए मुम्बई चले गए. १९६३ से ६५ तक मैंने अपने ‘ग्रेजुएशन’ के दौरान उनसे अंग्रेजी पढ़ी और उनसे बहुत दुखी रहा क्योंकि वे अंग्रेजी को अंग्रेजी भाषा में पढ़ाते थे. वे जो कुछ पढ़ाते-समझाते थे वह मेरे पल्ले नहीं पड़ता था क्योंकि अपनी अंग्रेजी माशाअल्लाह बर्बाद थी.
          शहर के अन्य गणमान्य नागरिकों की तरह वे भी मेरी मिठाई दूकान के नियमित ग्राहक थे, धीरे-धीरे मन मिल गया तो अंतरंगता बढ़ गई और वे मेरे गुरु-मार्गदर्शक-मित्र बन गए. उनसे नियमित मिलना-जुलना था. उनके घर कोई मेहमान या मित्र आते तो वे मुझसे अवश्य मिलवाते. उनके इलाहाबाद वाले एक मित्र रविन्द्रनाथ गोयल बिलासपुर आए तो वे उन्हें साथ लेकर मेरी दूकान में आए. स्वागत-सत्कार के पश्चात घरेलू चर्चा चल निकली. जब संगीता का पीएमटी प्रकरण मैंने उन्हें बताया, गोयलजी बोले- ‘ये क्या बात हुई, इतना अच्छा ‘स्कोर’ लाने के बाद उसे एक बार और ‘ट्राई’ करना चाहिए.’
‘पर उसे तो पीएमटी के नाम से नफ़रत हो गई है.’ मैंने कहा.
‘मेरी उससे बात करवाइए.’
‘पर जब वह इस विषय पर बात ही नहीं करना चाहती, तो?’
‘मुझसे मिलवाओ, मैं उससे किसी अन्जान की तरह बात करूंगा और फ़िर अपनी तरफ़ से कोशिश करता हूं.’  उन्होंने आग्रहपूर्वक कहा.
          अगले दिन मैं संगीता के साथ बीके सर के घर पहुंचा. गप-शप शुरू हुई. कुछ देर बाद गोयलजी ने संगीता से पूछा- ‘तुम क्या कर रही हो?’
‘बीएससी फ़ायनल में हूं.’ वह धीरे से बोली.
‘आगे क्या इरादा है?’
‘क्या बताऊं?’
‘मतलब?’
‘कुछ सोचा नहीं, अब तक पीएमटी के चक्कर में फ़ंसी रही, उसमें हुआ नहीं.’
‘क्यों नहीं हुआ?’
‘मैंने तीन बार कोशिश की, हर बार आगे बढ़कर भी पिछड़ गई, अंकल.’
‘तुम्हारा आखिरी ‘पर्सेन्टेज’ क्या था?’
‘८२.४.’
‘कट आफ़' क्या था?’
‘८४.२.’
‘फ़िर तो तुम्हारा एक बार और ‘ट्राई’ करना बनता है.’
‘मेरी अब हिम्मत नहीं.’
‘अब जब तुम ‘सिलेक्ट’ होने के एकदम करीब खड़ी हो तो हिम्मत हार गई. यह बात ठीक नहीं. कल से तुम्हारी पढ़ाई फ़िर से शुरू होनी चाहिए. मुझे ऐसा लग रहा है कि इस बार तुम्हारा सफल होना पक्का है.’ गोयल अंकल ने उसका हौसला बढ़ाया. बीके सर के घर से लौटते समय संगीता एकदम चुप रही. अगली सुबह संगीता अपनी ‘मोपेड’ में ‘कोचिंग’ जाने के लिए जब घर से निकल पड़ी तो मुझे उसके निर्णय का पता अपने-आप चल गया और उसके आने वाले कल का पूर्वाभास भी हो गया. वह आभास निराधार नहीं था. चौथी कोशिश में वह ‘सिलेक्ट’ हो गई और उसकी उदासी और नैराश्य का स्थान खुशी और आशा ने ले लिया. हमारे घर में सालों के बाद खुशी की कोई खबर आई. हम हंस भी रहे थे, रो भी रहे थे.
          उसी दिन वह अपने दादाजी और दादीजी को प्रणाम करने गई और उनका आशीर्वाद लिया. दद्दाजी ने पूछताछ की और मुझे बुलवाया. उन्होंने मुझसे पूछा- ‘संगीता ‘डाक्टरी’ पढ़ने इन्दौर जाएगी?’
‘जी’ मैंने मुस्कुराते हुए जवाब दिया.
‘तुम कैसे बाप हो, मेरी समझ में नहीं आता!’   
'क्या हुआ ?'
'संगीता कितने साल की हो गई?'
'बीस की होने वाली है.'
'तुमको उसके शादी-ब्याह की फिकर नहीं है !'
'पढ़-लिख लेगी तब शादी करेंगे.'
'कब तक पढ़ेगी, कब उसकी शादी करोगे ?'
'डाक्टर बन जाएगी तब करेंगे.'
'वह अकेले इंदौर में रहेगी, चार साल तक, लड़की जात, तुमको डर नहीं लगता ?'
'डरने की कोई बात नहीं है, जो बच्चे बाहर पढ़ने जाते हैं वे अकेले ही जाते हैं.'
'अब मैं तुमको कैसे समझाऊं?'
'आप मेरी बात समझने की कोशिश करिए दद्दाजी. हमारे पूरे खानदान में आज तक कोई डॉक्टर नहीं बना, संगीता बन रही है, आपकी पोती संगीता. उसे जाने दीजिए, सब ठीक रहेगा, आप चिंता न करें.' मैंने उन्हें समझाया, 'शायद' वे मान गए और इस प्रकार संगीता के इन्दौर जाकर आगे पढ़ने का मार्ग प्रशस्त हो गया.
          तमिलनाडु के प्रसिद्ध कवि तिरुवल्लुवर ने लिखा था : 'नदी या झील या तालाब की गहराई कितनी ही क्यों न हो और उसका पानी कैसा भी क्यों न हो, कमलिनी खिले बिना नहीं रह सकती.'

          संगीता को इन्दौर के ‘डेन्टल कॉलेज’ में प्रवेश लेना था, मैं उसके साथ गया. इन्दौर में हम दोनों, मेरी भतीजी ममता अग्रवाल की ससुराल साउथ तुकोगंज में रुके थे. प्रवेश की औपचारिकताएं पूरी होने के पश्चात ‘हॉस्टल’ देखने गए. हॉस्टल क्या था- किसी घुड़साल जैसा था. अंग्रेजों के जमाने में बने एक बहुत बड़े बंगले को ईटों की दीवार के खंड बनाकर छोटे-छोटे कई कमरों में तब्दील करके मेडिकल कालेज की लड़कियों का हॉस्टल घोषित कर दिया गया था. उस युग की निर्माण शैली के अनुरूप बंगले की छत काफ़ी ऊंची थी इसलिए  आठ फ़ीट की दीवारें उठा दी गई थी, आधुनिक ‘आफ़िसों’ के ‘पार्टीशन’ की तरह, लिहाज़ा, किसी भी पार्टीशन में आपस में हो रही बातचीत, या मच रहा शोर, या बज रहा टेपरेकार्डर सबको एक साथ सुनाई पड़ता था. हर एक कमरे में आठ-आठ लोहे के पलंग लगे थे जिसमें कुछ पलंग बीच से जमीन की तरफ़ घूम गए थे अर्थात जो उस पर सोए उसे नवजात शिशु के झूले का परमानन्द मिल जाए और रात भर सोने के पश्चात कमर भी टेढ़ी हो जाए. साथ में, 'कॉमन बाथरूम', 'किचन' और ‘बोनस’ में `सीनियर्स' का आतंक. किचन में बजबजाती नाली के पास पकाया जा रहा भोजन, वहां की गंदगी और बदबू ने स्वास्थ्य के समस्त मानकों की धज्जियां उड़ा रखी थी. मुझे वह हॉस्टल तनिक भी न जमा लेकिन मेरी जेब में इतने पैसे न थे कि मैं उसका किसी ‘प्राइवेट हॉस्टल’ में दाखिला करवा सकता, मज़बूरन संगीता को वहीं रोकने का निर्णय लेना पड़ा.
          कॉलेज से लौटकर जब हम ममता के घर वापस आए तो ममता के श्वसुर राधारमण जी ने हमारी दिन भर की गतिविधियों की जानकारी ली. जब मैंने उनसे संगीता के लिए हॉस्टल में रहने के बारे में बताया तो वे मुझ पर नाराज़ हो गए- ‘आपने यह ठीक नहीं किया, हमारा इतना बड़ा घर है, यहां कोई तकलीफ़ नहीं, संगीता यहां रहेगी.’
‘शाहजी साहब, उसको यहां कम से कम पांच साल रहना है, कोई दो-चार दिन की बात तो है नहीं!’ मैंने समझाया.
‘तो क्या हुआ, पांच साल रहे तो भी हमें कोई अड़चन नहीं, सब व्यवस्था हो जाएगी.’
‘यह तो आपकी कृपा है लेकिन बात कुछ और है.’
‘क्या है?’
‘हॉस्टल में सब ‘स्टूडेंट्स’ का साथ रहेगा, पढ़ाई का माहौल रहता है. बस, इसीलिए, और कोई बात नहीं. वह आपके घर नियमित आती-जाती रहेगी और मैं उसे आपकी ही देखरेख में यहां छोड़कर जा रहा हूं॰’
‘आप ठीक कहते हैं लेकिन आपका निर्णय हमें पसन्द नहीं आया.’ उनकी आवाज़ में क्षोभ झलक रहा था. रात को भोजन के समय उन्होंने मुझे फ़िर चेताया- ‘हॉस्टल के बारे में आप फ़िर से विचार कीजिए.’ मैंने कृतज्ञ भाव से उनकी ओर देखा, मन ही मन उनकी सज्जनता और उदारता पर मुग्ध होकर मैं चुपचाप भोजन करता रहा.
          अगली सुबह हम सामान लेकर हॉस्टल गए. जैसी रहने और खाने की व्यवस्था थी, उसे देखकर मेरा मन खिन्न हो गया लेकिन संगीता ने कहा- ‘पापा, आप चिन्ता मत करो, कुछ दिन में मुझे इन सब की आदत पड़ जाएगी.’ संगीता को वहां छोड़कर मैं बहुत भारी मन लेकर वापस लौटा. पर क्या करोगे, कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है.
          संगीता से दो साल छोटी हमारी बेटी संज्ञा ने भी 'पीएमटी' देने का एक प्रयास किया, उसमें असफ़ल हो गई और अपने हाथ खड़े कर दिए- ‘पापा, यह मेरे वश का नहीं.’ हमें समझ में आ गया कि पढ़ने-लिखने और 'कुछ बनने' का उबाऊ काम उन्होंने अपने होनेवाले पति के लिए छोड़ रखा है. उन्होंने स्थानीय विप्र महाविद्यालय में बी.एस.सी. (माइक्रोबायोलोजी) में प्रवेश ले लिया. संज्ञा से दो साल छोटे हमारे पुत्र कुन्तल, सरस्वती शिशु मंदिर में ‘हाई स्कूलिंग’ कर रहे थे. संज्ञा और कुन्तल का पढ़ाई-लिखाई में मन कम लगता था, उन्हें अन्य गतिविधियां अधिक पसंद थी. सच पूछिये तो इन दोनों के भविष्य को लेकर हम लोग बेफ़िक्र हो गए थे. वे जितना पढ़ें ठीक, जो करें ठीक, जो न करें ठीक.
          कुन्तल का मिठाई दूकान में काम करने में बहुत दिल लगता था इसलिए उन्हें जब समय मिलता, दूकान आ जाते या अपने मित्रों के साथ घूमते-फ़िरते. बारहवीं कक्षा में पढ़ाई के दौरान उन्होंने 'पीईटी' की प्रतिस्पर्धा में भाग लिया और अत्यन्त निराशाजनक प्रदर्शन किया. श्रीमानजी के हाल-चाल का एक घटनाक्रम आपके जानने योग्य है- शाला की अर्धवार्षिक परीक्षा में उत्तर-पुस्तिका के एक पृष्ठ में वे अपने ‘आचार्यजी’ का 'कार्टून' बनाते रहे क्योंकि परीक्षाकक्ष में एक घंटा तक रुकना अनिवार्य था! एक घंटा व्यतीत हो जाने के बाद उत्तर-पुस्तिका के उस पृष्ठ को फाड़कर निकाल लिया और कक्ष से बाहर आ गए. घर आकर उन्होंने अपनी करतूत हमें बताई और यह संकेत दिया कि उनका भविष्य कैसा होने जा रहा है!
            कुछ दिनों बाद उनकी शाला से मेरे लिए बुलावा आ गया. प्राचार्या ( प्राचार्य का स्त्रीलिंग- प्राचार्या ! ) ने कुन्तल के बारे में मुझसे शिकायत की और फिर कुन्तल से पूछा- ‘तुमने उत्तर-पुस्तिका कोरी क्यों छोड़ी?’
‘उस दिन मेरी तैयारी नहीं थी, मुझे किसी भी प्रश्न के उत्तर नहीं मालूम थे.’ कुन्तल ने बताया.
‘फ़िर, उसका एक पन्ना क्यों फाड़ा?’
‘एक घंटे का समय बिताना था बहनजी, इसलिए एक रेखाचित्र बना रहा था. उठने के पहले यह समझ में आया कि आचार्यजी चित्र को देखेंगे तो बहुत पिटाई करेंगे इसलिए उस पन्ने को फाड़कर जेब में रख लिया.’
‘क्या यह बड़ी भूल नहीं है?’
‘जी, मुझसे गलती हुई और मैंने आचार्यजी से क्षमायाचना भी कर ली.’ कुन्तल ने कहा. प्राचार्या कुन्तल के कक्षा शिक्षक की ओर मुड़ी और उनसे पूछा- ‘क्यों आचार्यजी, क्या इसने आपको ये सब बताया था?’
‘जी.’ आचार्यजी ने सहमति में अपना सिर हिलाया.
‘आपसे क्षमा मांगी?’
‘जी.’
‘फ़िर आपने अग्रवालजी को क्यों बुलाया?’
‘मैं चाहता था कि यह घटना इन्हें मालूम हो.’ आचार्यजी बोले. तब प्राचार्या ने मुझसे कहा- ‘अब आपको पूरी बात मालूम हो चुकी है, आप बताइए, कुन्तल को क्या दंड दिया जाए?’
‘मेरी सलाह है कि इसे शाला से निष्कासित किया जाए और इसके चरित्र-प्रमाणपत्र पर प्रतिकूल टिप्पणी भी की जाए.’ मैंने कहा.
‘यह आप क्या कह रहे हैं?’
‘बहनजी, शाला नियमों के अनुकूल चलती है. कुन्तल ने अक्षम्य भूल की है. इन्हें अहसास होना चाहिए कि गल्तियों के कैसे परिणाम आते हैं.’
‘आपने तो बहुत कड़क निर्णय बता दिया.’
‘ऐसी बात नहीं है. आप मेरी बात समझिए, ये मेरे घर में इसलिए रहते हैं क्योंकि मेरे पुत्र हैं. इन्हें यदि घर में रहना है तो उसके नियमों और मर्यादाओं का पालन करना पड़ेगा. यदि उनका उल्लंघन होता है तो एक बार समझाऊंगा, फ़िर चेतावनी दूंगा और नहीं माने तो घर से बाहर निकाल दूंगा.’
‘ठीक है, जो हुआ सो हुआ. कुन्तल ने अपनी भूल स्वीकार कर ली और क्षमा मांग ली इसलिए प्रकरण को यहीं समाप्त करते हैं. आपको हमने इसलिए बुलाया था कि यह सब आपको मालूम रहना चाहिए.’
‘मुझे तो यह सब पहले से ही मालूम था.'
‘ऐसा क्या?’ प्राचार्या चौंकी.
‘जी, उसी दिन, जिस दिन पन्ना फाड़ा गया था.’ मैंने कुर्सी से उठते हुए बताया.

==========