मंगलवार, 10 मार्च 2015

पूर्वावलोकन

         
                                                                      
          आमतौर पर लोकप्रिय राजनेताओं, प्रसिद्ध साहित्यकारों और समाजसेवियों द्वारा आत्मकथाएँ लिखी गई हैं। ये आत्मकथाएँ पाठकों के लिए प्रेरणास्रोत बनी लेकिन इस दुनियां में अधिकतर लोग सामान्य जीवन जीते हैं, बड़ी सफलता सबको हासिल नहीं होती। सफलता के लिए जिद चाहिए, मौके चाहिए, मौके का फायदा उठाने का हुनर चाहिए तब कहीं जाकर कोई सितारा ध्रुवतारा बनता है। सवाल यह है कि क्या किसी औसत व्यक्ति की जीवनकथा में वे तत्व नहीं होते जो सफल व्यक्तियों की कथा में होते हैं ?
          सफलता न सही, असफलता की कहानियाँ और उसके कारण हमें आत्मविश्लेषण का अवसर देते हैं और जीवन में चल रहे व्यक्तिगत संघर्ष में हो रही चूक की ओर इशारा करते हैं। मोहनदास करमचंद गांधी ने कहा था- ‘गल्तियाँ करके हम कुछ-न-कुछ सीखते हैं लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हम गल्तियाँ करते रहें और कहें कि हम सीख रहे हैं।'
          आत्मकथा लिखना, नंगे हाथों से 440 वोल्ट का करंट छूने जैसा खतरनाक काम है। कथा सबकी होती है लेकिन जब उसे सार्वजनिक रूप दिया जाता है तो वह अत्यंत चुनौतीपूर्ण हो जाती है। क्या बताएँ, क्या न बताएँ ? बताएँ तो किस तरह, छुपाएँ तो कैसे ? अतीत की घटनाओं का शब्दचित्रण, अपनी कमजोरियों और विशेषताओं का तटस्थ विवेचन, घटनाओं से जुड़े लोगों की निजता और भावनाओं का सम्मान- ऐसा कार्य है जैसे युद्धक्षेत्र में योद्धा अपने प्राण देने को तैयार हो लेकिन उसे सामने वाले के प्राण लेने में संकोच हो रहा हो।
          मुझे लगता है, आपको अपने जीवन में घटित सब कुछ बता दूं तब मेरे जी में जी आएगा ! यादें असीमित हैं, बताना बहुत कुछ है लेकिन सम्प्रेषण की बाधाएं है, शब्दों की विवशता भी है। मेरे सामने मुश्किल यह भी है कि मैंने जो आंसू बहाए हैं उन्हें आपको कैसे दिखाऊँ ? मैंने जो खुशियाँ पाई हैं उन्हें आपको कैसे महसूस कराऊँ ?
         यह आत्मकथा उन लोगों के लिए रौशनी की एक किरण बन सकती है जो अपनी जिन्दगी को खुशी से बिताना चाहते हैं, उसका मूल्य भी देना चाहते हैं लेकिन अपने आसपास के लोगों को समझा नहीं पा रहे हैं कि वे दरअसल क्या चाहते हैं ?
          आत्मकथा के प्रथम खंड 'कहाँ शुरू कहाँ खत्म' में मेरे बचपन से 33 वर्ष तक की उम्र की घटनाओं का समावेश था। इस द्वितीय खंड 'पल पल ये पल' में उसके बाद के 18 वर्षों की बातें हैं। मुझे उम्मीद है कि आप इस कालखंड की मेरी ज़िंदगी को पढ़कर एक आम मध्यमवर्गीय संयुक्त परिवार से जुड़े व्यापारी के दुख-सुख और उसकी मनस्थिति को सहज समझ पाएंगे।
          वैसे, किसी अनजाने से साधारण व्यक्ति की कथा से जुड़ने के आपके साहस और धैर्य को मैं प्रणाम कर रहा हूँ।  

सोमवार, 9 मार्च 2015

5 : रहने को घर नहीं है

                                                      5 : रहने को घर नहीं है
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           घर बनवाने के लिए जमीन तो थी लेकिन घर खड़ा करने के लिए मेरे पास धन की व्यवस्था न थी। धंधा कमजोर चल रहा था। घर का किराया, सामान्य घरेलू खर्च, तीन बच्चों की पढ़ाई, बैंक का ब्याज और रिश्तेदारी में आना-जाना इत्यादि मिलाकर किसी प्रकार गाड़ी घिसट रही थी। हम लोग किफायत से रहते थे इसलिए कोई अड़चन न थी लेकिन बचत भी न थी। यक्ष प्रश्न यह था कि धन के अभाव में घर कैसे बने? फिर भी, 'चलो घर बनवाते हैं' का खेल शुरू किया गया। आर्किटेक्ट से घर का एक नक्शा बनवाया गया जिसकी अनुमानित लागत पांच लाख 'प्लस' निकली। जेब में पांच हजार न थे तो मकान कैसे बनता इसलिए मैंने और माधुरी ने आपस में तय किया कि अपनी जमीन के एक कोने में 'स्टाफ क्वाटर' जैसा बनाकर रहेंगे, उसके बाद जब सुविधा होगी तो नक़्शे के हिसाब से घर बनवाएंगे।    
          जेब में पांच हजार न थे तो मकान कैसे बनता इसलिए मैंने और माधुरी ने आपस में तय किया कि अपनी जमीन के एक कोने में 'स्टाफ क्वाटर' जैसा बनाकर रहेंगे, उसके बाद जब सुविधा होगी तो नक़्शे के हिसाब से घर बनवाएंगे। मैंने अपने आर्किटेक्ट सुनील सोनी को परिवर्तित योजना बताई तो उन्होंने एक सादे कागज़ पर कुछ रेखाएं खींच दी और एक कामचलाऊ प्रारूप बनाकर दे दिया। सन १९९२ में खींची गई उन रेखाओं के आधार पर बने उस 'कामचलाऊ घर' को बने अब बाईस साल हो गए हैं, हम अभी भी उसी घर में रह रहे हैं क्योंकि जिस शेष जमीन पर हमें अपना 'ड्रीम हाउस' बनाना था- वह जमीन मेरी मुफलिसी के चलते बिक गई। क्यों बिकी ? ये बाद की बात है, बाद में बताऊंगा !
          घर की नींव खुद गई, अब उसे भरने के लिए सरिया और सीमेंट की ज़रुरत थी। मेरे एक सुहृद विनोद मिश्रा ने सलाह दी कि हमारे पूर्वज अपने घरों में पत्थर की नींव तैयार करवाते थे, दो-दो मंजिल के मकान बनते थे तो फिर अब ये सरिया-सीमेंट की अनिवार्यता क्यों ? उनका बताया नुस्खा मुझे जंचा, बचत भी समझ में आई, मैंने नींव में पत्थर भरवा कर मुरम से जोड़ाई करवा दी और भरपूर पानी डलवाया ताकि वह भलीभांति 'सेट' हो जाए। उस बीचबारिश का मौसम आ गया, काम तीन महीने रुका रहा, फिर शुरू हुआ। बाजार से निर्माण सामग्री उधार में आती रही और घर बनता रहा। जब घर की छत ढालने का काम सामने आया तो आर्किटेक्ट ने कहा- 'द्वारिका भाई, पांच इंच का 'स्लेब' ढलेगा।'
'भाई मेरे, पांच इंच में बहुत खर्च आएगा, कम करो यार।' मैंने कहा.
'उससे कम में नहीं हो सकता।'
'अपन तीन इंच का स्लेब ढालेंगे।'
'आपकी जो मर्जी करिये, कल के दिन छत बैठेगी तो मेरी ज़िम्मेदारी नहीं।'
'किसी दुर्घटना की कौन जिम्मेदारी लेता है सोनी जी, सब दूसरों पर डाल देते हैं। चलो, वैसे भी, अगर छत गिरी तो हम सब उसी में दबकर दफ़न हो जाएंगे, आपसे शिकायत करने वाला कोई न बचेगा।' मैंने कहा.

बेचारे सोनी जी 'आप जानिए' की भंगिमा बनाकर मुस्कुराए और चुप हो गए। 

          उधर मकान का काम बढ़ रहा था, इधर बाजार की उधारी चढ़ते जा रही थी। नगर में प्रतिष्ठित 'पेंड्रावाला' की औलाद को उधार मिलने में कोई तकलीफ न थी लेकिन देर से ही सही, प्रतिष्ठा बचाने के लिए भुगतान तो करना ही था। इसी चिंता में एक दिन मैं अपनी दूकान 'मधु छाया केंद्र' में गंभीर मुद्रा में बैठा था तब ही दद्दाजी के एक मित्र श्री गोपाल भगत मेरे पास आए और पूछा- 'क्या बात है, क्या सोच रहे हो, द्वारका बाबू ?'
'चाचाजी, घर बनवाने का काम शुरू किया है, पैसे की अड़चन हो रही है। उसी में मेरा दिमाग उलझा हुआ है।'
'कितना चाहिए ?'
'एक लाख।'
'चिंता मत करो, कल इसी वक्त तुम्हारा काम हो जाएगा।' उन्होंने कहा.
          अगले दिन हस्ताक्षर किया हुआ पंजाब नेशनल बैंक का एक कोरा चेक उन्होंने मुझे दिया और निर्देश दिया- 'जितनी जरुरत हो, 'अमाउंट' भर लेना और मुझे फोन से बता देना ताकि उतनी व्यवस्था मेरे खाते में रहे। 'इस प्रकार वे अनायास संकटमोचक की तरह प्रगट हुए और मेरी समस्या का तात्कालिक समाधान हो गया। घर में पलस्तर और दाने वाली 'टाइल्स' का काम लग गया। 'ये भी बनवा लो', 'ये भी करवा लो' के चक्कर में तथाकथित 'स्टाफ क्वाटर' एक छोटे से खूबसूरत घर में बदल गया।

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         घर का काम शुरू करने के पहले मैंने घर का नक्शा नगर पालिका के कार्यालय में जमा कर दिया, बिजली कनेक्शन लगाने का आवेदन विद्युत् मंडल में दे दिया था लेकिन न नक्शा पास हुआ और न बिजली का कनेक्शन मिला क्योंकि दोनों देवस्थानों में काम आगे बढ़ाने के लिए पांच-पांच सौ रूपए के रिजर्व बैंक के गवर्नर के हस्ताक्षरित एवं महात्मा गाँधी के छायाचित्र से युक्त पत्रपुष्प चढ़ाना आवश्यक था। मैं किसी अंधश्रद्धालु की तरह प्रत्येक माह दोनों कार्यालयों में अपना शीश झुकाता रहा, वे मुझे टरकाते रहे। न उन्होंने अपना मुंह खोला और न मैंने अपनी पर्स। दरअसल मैं यह नहीं समझ पा रहा था कि यदि आवेदन नियमानुसार थे तो रिश्वत किस बात की ?
          इस बीच मकान का काम बढ़ता रहा और दस माह में 'रहने लायक' तैयार भी हो गया अर्थात, घर के प्रवेश व पीछे दरवाजे लग गए लेकिन घर के अन्दर कमरों के दरवाजे नहीं बन सके, खिडकियों में ग्रिल लग गई लेकिन पल्ले नहीं लग सके, सामान रखने के लिए आलमारियाँ न बन सकी लेकिन दीवारों में जगह बन गई, दीवारों में 'व्हाईट सीमेंट' पुत गई लेकिन 'पेंटिंग' न हो सकी, फर्श में 'मोजाइक टाइल्स' लग गई लेकिन 'पालिस' न हो सकी, 'इलेक्ट्रिक फिटिंग्स' लग गई लेकिन विद्युत् प्रवाह चालू न हुआ, 'बाउंड्री वाल' न बन सकी आदि।
          कहावत है, 'शादी करके देख, मकान बनवा के देख'- बिना आर्थिक संसाधन के घर बनवाने का तनाव सहते-सहते हम पति-पत्नी के चेहरे पिंडखजूर से बदलकर छुहारा हो गए थे, फिर भी, अपना घर बन जाने की आंतरिक प्रसन्नता का वह अनुभव अवर्णनीय है। घर आधा-अधूरा ही सही- अपना तो है। है न ?  
          गृहप्रवेश का कार्यक्रम दिन में था, छोटे भाई राजकुमार ने अभ्यागतों के लिए सामान्य भोजन के अतिरिक्त 'महाशिवरात्रि' पर्व को ध्यान में रखते हुए फलाहार की भी व्यवस्था करवाई। सब आए लेकिन हमारे एक मेहमान दिन में न आकर शाम के धुंधलके में सपत्नीक आए, विद्युत् मंडल के मुख्य अभियंता- बी.के.मेहता। वे जमीन पर बिछी दरी पर बैठे, चारों तरफ देखकर आधे-अधूरे घर का मुआयना किया, फिर उन्होंने मुझसे पूछा- 'घर में अन्धेरा क्यों कर रखा है ?'
'घर में अभी तक बिजली का कनेक्शन नहीं लगा है।' मैंने उन्हें बताया।
'क्यों, 'एप्लाई' नहीं किया ?'
'लगभग एक साल हो गया।'
'फिर ?'
'नहीं मिला इसीलिए तो आप अँधेरे में बैठे हैं।'

'क्या कारण बताया गया ?'

'मैंने 'थ्री फेस कनेक्शन' माँगा है, वे कहते हैं कि कालोनी में 'सिंगल फेस' लाइन है, थ्री फेस लाइन जब होगी तब लगेगा।'

'तो आप चुपचाप प्रतीक्षा कर रहे हैं।'

'मैं और क्या करता ?'

'एक बात बताइये, मैं आपकी दूकान में आपसे मिलने महीने में तीन-चार बार ज़रूर आता हूँ, आपने मुझे कभी बताया नहीं।'

'मेहता जी, इतने छोटे से काम के लिए 'चीफ इजीनियर' को कहा जाए, मुझे उचित नहीं लगा।'

'आप हद करते हैं, अग्रवाल जी।' उन्होंने कहा, नास्ता-चाय लिया, नमस्कार किया और चले गए।

अगले दिन विद्युत मंडल का वाहन ढेर सारा साज-ओ-सामान लेकर मित्रविहार कालोनी में घुसा, दो दिन के अन्दर 'थ्री फेस' लाइन लग गई। उसके बाद हमारे घर में विद्युत् प्रवाह आरंभ हो गया। हम लोग अँधेरे से उजाले में आ गए ! 

           ले-दे कर किसी प्रकार रहने लायक घर बन गया, हमें किराए के घरों से मुक्ति मिली लेकिन नगरपालिका ने हमारे घर का नक्शा 'पास' नहीं किया। भवन अनुज्ञा विभाग के इंजीनियर सुधीर गुप्ता मेरे 'जेसी' मित्र थे, वे मुझे कार्यालय का चक्कर लगाता देख शर्मिन्दा होते और कहते- 'बस, आप अगली बार आएँगे तो आपका नक्शा पास हुआ मिलेगा, आप यहाँ बार-बार आते हैं, मुझे ख़राब लगता है।' पर, मैं आपको बता ही चुका हूँ कि भवसागर से पार उतरने का 'टोल टेक्स' भरे बिना कोई कैसे पार हो सकता था ?
एक दिन कार्यालयीन समय पर मैं नगरपालिका के आयुक्त जगदीशशरणसिंह चौहान के चेंबर में बिना पूछे घुस गया, तीन लोग और भी बैठे थे। मैंने उनसे कहा- 'एक साल से ऊपर हो गया, मेरे घर का नक्शा पास नहीं हुआ जबकि सभी आवश्यक प्रपत्र दिए गए हैं, आपकी तरफ से कोई आपत्ति नहीं आई, फिर भी मैं चक्कर काट रहा हूँ। सुना है, आप पांच सौ रुपए लेकर दस्तखत करते हैं लेकिन मैं एक पैसा नहीं दूंगा। अब आपके पास दो रास्ते बचे हैं, या तो बिना अनुमति बन चुके मेरे घर को तोड़ने का आदेश आज ही निकालिए या मुझे अभी अनुमतिपत्र दीजिए।'
          चौहान साहब सकपकाए, मुझसे बैठने के लिए कहा, मेरा नाम पूछा, सहायक को बुलाकर मेरी फ़ाइल मंगवाई और अपने खूबसूरत हस्ताक्षर कर दिए।

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शनिवार, 7 मार्च 2015

13 - समझो इशारे

          हमारी हॉटेलनुमा लाज शुरू हो गई  लेकिन किसी प्रकार घिसट रही थी। प्राप्त आय से बिजली का बिल और स्टाफ का वेतन निकाल जाता तो मन प्रसन्न हो जाता। कोई भी व्यापार हो, जमने में समय लगता है लेकिन शुरुआत में धीरज रखना बहुत कठिन होता है।
          मेरे एक फाइनेंसर प्रत्येक रविवार को सुबह दस बजे के आसपास मेरे दर्शन करने के लिए उसी नियमित भाव से आया करते थे, जिस भाव से हनुमानजी के भक्त मंगल और शनिवार को मंदिर पहुँचते हैं। उनका यह सिलसिला तब तक अनवरत बना रहा जब तक मैंने उनका उधार चुकता नहीं किया। वे बीच-बीच में मुझसे  कहते रहते- 'भाई जी, मैंने आजतक कभी आपसे रकम का तगादा किया क्या, कभी कुछ बोला क्या ?'
'नहीं, आपने तो कभी नहीं बोला।' मैं घबराकर जवाब देता। घबराता इसलिए कि सच में तगादा न कर दे वरना कहाँ से लाकर देता, ज़रा, बड़ी रकम थी।
          एक दिन उन्होंने मुझे बताया कि कुछ वर्षों पूर्व वे भी घनघोर आर्थिक कष्टों से होकर गुजरे थे और साहूकारों से रकम उधार लेकर व्यापार चलाया करते थे। एक बार उनके यहाँ इंदौर के एक वास्तुविज्ञ आए और उन्होंने दिशापरिवर्तन के कुछ ऐसे सुझाव बताए जिन पर अमल करने से उनके व्यापार और आय में अभूतपूर्व वृद्धि हुई। मेरे व्यापार की धीमी प्रगति पर चिन्तित होते हुए उन्होंने मुझे आश्वस्त किया कि वे उस वास्तुविज्ञ को बिलासपुर बुलवाकर मेरी लाज 'विजिट' करवाएँगे। वे कहते थे- 'शहर की 'मेनरोड' में आपकी हॉटेल है, चलती नहीं है, मुझे देखकर बहुत दुख होता है।'
          एक दिन वे उन्हीं वास्तुविज्ञ को लेकर लाज में आए। वास्तुविज्ञ ने आगे से पीछे और नीचे से ऊपर तक लाज का मुआयना किया और कहा- 'भाई साहब, मैं कई वर्षों से वास्तु विशेषज्ञ का काम कर रहा हूँ, लोगों को दोषमुक्त होने के उपाय बताया करता हूँ लेकिन आपको मैं क्या सलाह दूँ, मेरे समझ में नहीं आ रहा है।'
'आपने ऐसा क्या देख लिया ?' मैंने पूछा।
'एक-दो दोष हो तो दिशा वगैरह बदलवा दूँ, आपके यहाँ दोष ही दोष हैं।'
'अरे।'
'एक तो आपके लाज का प्रवेशद्वार दक्षिणमुखी है, कमरे भी सही कोण में नहीं हैं। जिस भूमि पर यह लाज बना है वह अष्टकोणी है, सब कुछ प्रतिकूल है।'
'फिर आपकी क्या राय है ?'
'मेरी समझ में, इस लाज से बस आपका खाना-खर्च चलेगा, आप कभी तरक्की नहीं कर पाएंगे। मेरी राय है कि आप इसे बेचकर छुट्टी पाइए और किसी अन्य स्थान पर नया होटल बनवाइए।'
'जी, मैं समझ गया। आप आराम से बैठिए और चाय पीजिए।' मैंने कहा।
          चाय के बाद वे उठ खड़े हुए और जाते-जाते उन्होंने मुझसे पूछा- 'क्या विचार किया ?'
'भाई जी, आप मुझे तीन-चार वर्ष का समय दीजिए, उसके बाद आप इसी लाज में पुनः चाय पीने आइएगा, फिर देखेंगे।'
'मैं समझा नहीं !'
'अब आपको क्या समझाऊँ ! अभी तो मैं यह समझना चाहता हूँ कि मेरी व्यापारिक प्रतिभा में कितना दम है, वास्तु-विज्ञान के चमत्कार को बाद में समझेंगे।' मैंने उन्हें उत्तर दिया और प्रणाम किया। मैंने ध्यान दिया कि मेरे उत्तर से मेरे साहूकार मित्र का चेहरा उतर गया।

          अपने लाज में मैंने कुछ अजूबे प्रयोग भी किए जो उसकी शीघ्र उन्नति में बाधक बने। आजकल होटल व्यवसाय में शराबखोरी और अनुचित यौन सम्बन्धों की ग्राहकी बहुत बड़ी संख्या में है। इस पंद्रह वर्ष के अनुभव का सार यह है कि छुप-छुप कर शराब पीने का रिवाज खत्म हो गया है, अब यह खुल्लम-खुल्ला हो गया है। आम तौर पर होटलों में शराबनोशी पर प्रतिबंध नहीं रहता लेकिन मैंने अपने काउंटर के सामने हिन्दी भाषा में लिखवा दिया है- "यदि आप शराब पीने-पिलाने के शौकीन हैं तो यह हॉटेल आपके लायक नहीं है, बेहतर है कि किसी और हॉटेल में चले जाएँ।"
          इसी प्रकार अनुचित यौन सम्बन्धों के लिए समस्त विश्व में हॉटेल सुरक्षित और लोकप्रिय हैं। अधिकतर हॉटेलमालिक इसे 'प्रमोट' करते हैं क्योंकि ऐसे युगल प्रेमी आधे घंटे में कमरा खाली करके निकल जाते हैं और कमरा एक दिन में तीन-चार बार लग जाता है ! है न फायदे का व्यापार ? पर मैं अपनी कोशिश भर इसे अपने लाज में नहीं होने देता हालांकि मैं इन प्यासे युवाओं से हमदर्दी रखता हूँ क्योंकि आजकल विवाह की प्रचलित उम्र तीस वर्ष के आस-पास चल रही है, 'हार्मोन्स' मजबूर करते हैं, बेचारे क्या करें ! लेकिन मेरी कोशिश यह रहती है कि वे मेरे हॉटेल को बख्शें।
          मेरे कुछ शुभचिंतकों ने मुझे सलाह दी- 'ऐसी कड़ाई में तो अपना हॉटेल चला चुके !' लेकिन मैं कड़क बना रहा। घर-खर्च चल रहा था, पुराना उधार पट रहा था। मैं इसी बात से संतुष्ट था कि विगत तीस वर्षों से चल रही घनघोर कड़की से मैं बाहर आ गया था, किसी से उधार नहीं मांगना पड़ रहा था लेकिन क्या मुसीबतें खत्म हो गई थी ? ज़िंदगी का मुसीबतों से याराना होता है जो कभी नहीं छूटता। खैर, नई मुसीबतों के बारे में बाद में बताऊंगा, अभी आपको कुछ और बताता हूँ।
       व्यापार करना लाभप्रद है लेकिन चकल्लसी काम भी है। जिस प्रकार किसी राजनीतिज्ञ का भेजा चौबीसों घण्टे बेमतलब की राजनीतिक जोड़-तोड़ में भिड़ा रहता है उसी प्रकार व्यापारी का दिमाग खुद को बचाने में लगा रहता है। व्यापारी के अनेक बाप होते हैं जो समय-असमय उसे सताते रहते हैं और 'हारर फिल्म' के काल्पनिक भय की भांति खोपड़ी में हर पल चक्कर लगाते हैं। वैसे तो व्यापारी ख़ुदमुख़्तार मालिक होता है, साथ ही, वह खुद का नौकर भी होता है। असली व्यापारी को अपने व्यापार के अलावा कुछ और नहीं सूझता और जिस व्यापारी को कुछ और भी सूझता है तो समझ लीजिए, उसकी नाव डूबने वाली है।
          सरकारी नियमों का दबाव और सरकारी अधिकारियों का रुआब सम्हालना बेहद कठिन, युक्तिपूर्ण और खर्चीला काम है। व्यापारी की जान उनकी मुट्ठी में कैद रहती है, वे जब चाहें, मुट्ठी मसक दें और व्यापारी के प्राण साँय से निकल जाए। जो व्यापारी स्वभाव से डरपोक नहीं है वह व्यापार नहीं नहीं कर सकता। हर समय अपना हाथ जोड़े, सिर झुकाए इस धनभक्त को देखकर उसकी हीनभावना की गहराई का अनुमान लगाना किसी के लिए भी असंभव है।
          इधर मेरा लाज खुला, उधर कुछ दिनों बाद बिलासपुर में छत्तीसगढ़ के उच्च-न्यायालय की स्थापना की घोषणा हो गई। हमारे शहर के नेताओं में इतना दम न था कि इसे राजधानी बनवा लेते, राजधानी रायपुर घोषित हो गई और हल्ला-गुल्ला मचाने पर 'हाईकोर्ट' हमें दे दिया गया। शहर के लोग प्रसन्न हो गए, बिलासपुर को न्यायधानी के रूप में 'प्रिंट मीडिया' ने प्रचारित कर दिया। 'डिनर' रायपुर वाले जीम गए और हमारा शहर झूठी पत्तल चाटकर ही नाचने-कमर मटकाने लगा, बहुत सीधे लोग हैं हमारे शहर के !
          ये सब आपको इसलिए बता रहा हूँ कि हाईकोर्ट के खुलने से मेरे ऊपर भी गाज गिरी ! शहर के असली मालिक कलेक्टर ने अपने मुलाजिमों को शहर के सभी होटल, लाज और धर्मशालाओं को 'बुक' करने के लिए दौड़ाया ताकि जबलपुर उच्चन्यायालय से स्थानांतरित होकर आ रहे बाबुओं-साहबों के आवास की व्यवस्था बनाई जा सके। बिलासपुर के अतिरिक्त जिलाधीश मेरी लाज में भी आए। वार्ता इस प्रकार हुई :
'आपकी लाज में कितने कमरे हैं ?' अतिरिक्त जिलाधीश ने पूछा।
'चालिस।' मैंने बताया।
'हाईकोर्ट के लोग यहाँ रुकेंगे, कम से कम छः महीने, उससे अधिक भी रुक सकते हैं।'
'ठीक है।'
'आप कितने कमरे दे सकते हैं ?'
'पच्चीस...पच्चीस कमरे।'
'ओके, बुक कर लीजिए।'
'जी।'
'तो मैं चलता हूँ।'
'चले जाइयेगा लेकिन आपने किराया पूछा नहीं, भुगतान के बारे में कुछ नहीं बताया।'
'वो सब बाद में हो जाएगा।'
'क्या मतलब ?'
'आप अभी उनको अपने यहाँ रुकवाइए, फिर देख लेंगे, आप क्यों चिंता करते हो।' अतिरिक्त जिलाधीश ने कहा।
'आपके रहते मुझे क्या चिंता ? पर ज़रा मेरी बात सुन लीजिए।'
'क्या ?'
'मुझसे मेरे लाज के कमरों का 'रेट' लेते जाइए, इसकी पुष्टि कीजिए, 'आफ़ीसियल लेटर' भेज दीजिए और साथ में पच्चीस हजार का 'एडवास ड्राफ्ट', उसके बाद ही अपने मेहमानों को मेरे यहाँ भेजिएगा।'
'हूँ।'
'जी।' मैंने कहा। वे उठे और मेरी ओर घूरते हुए जाने लगे तो मैंने उनसे आग्रह किया- 'सर, चाय तो पी लीजिए।'
'फिर कभी, आज कई जगह जाना है।' वे बोले और विदा हो गए। मैं बाल-बाल बच गया। शहर के जिन होटलों और धर्मशालाओं ने उन्हें अपने कमरे दिये थे उनके कमरे लगभग साल भर फंसे रहे और किसी को एक पैसा नहीं मिला ! कलेक्टर ने कोई लिखित आदेश दिया नहीं था, सब मौखिक था, फिर, कर लो वसूल पैसा कलेक्टर से, है ताकत ! ऐसी घटनाएँ होती रहती हैं, सब चुपचाप सहते हैं, कौन मुंह लगे ! वैसे, कैसा लगा आपको न्यायधानी का न्याय ?

          मेरा धंधा मज़ेदार है, कम मेहनत वाला लेकिन बहुत देखरेख वाला। इसका प्रबंधन करना आसान है लेकिन काफी-कुछ दारोमदार 'होटल-स्टाफ' पर निर्भर है। विश्वविख्यात 'ओबेरॉय होटल' समूह के मालिक मोहनसिंह ओबेरॉय की आत्मकथा में होटल प्रबंधन की कई बातें अंतर्निहित हैं, एक आपको बताता हूँ- उन्होंने देश-विदेश में अनेक होटल खोले। वे कई वर्षों तक रात को अपने घर में न सोकर अपनी किसी होटल में सोया करते थे, वह भी प्रत्येक रात कमरे बदल-बदल कर ! यहाँ तक कि उनकी पत्नी उनका रात का खाना लेकर होटल आती थी। इस तरह वे प्रत्येक कमरे का निरीक्षण करते, खामियों को देखकर उसे सुधारवाते और इस तरह वे स्वयं किसी ग्राहक की तरह अपने होटल की व्यवस्था को 'फील' करते। उनकी इसी कर्मठता ने उन्हें इस व्यवसाय में अपूर्व सफलता दिलाई।
          हॉटल चलाने का काम खट्टा भी है और मीठा भी। अधिकतर यात्री हमें भुगतान करने के बाद भी धन्यवाद करके जाते हैं, स्वयं प्रसन्न होकर और हमें प्रसन्नता देकर जाते हैं लेकिन कुछ दुष्ट दुःख देकर जाते हैं। टॉवेल, चादर, गिलास, प्लेट आदि तो गायब होते रहते हैं, सरकारी उपक्रम के एक अधिकारी टेलीफ़ोन उठाकर ले गए तो हैदराबाद का एक व्यापारी पोर्टेबल कलर टीवी तक ले उड़ा !
          ऐसे लोगों की सूची बहुत लंबी है जो भुगतान किए बिना अपनी पुरानी स्लिपर-चप्पल और कुछ पुराने कपड़े छोड़ कर गायब हो जाते हैं। हमारे शहर के एक नामी बिल्डर, एक बड़े ठेकेदार और एक नामी केटरर ने अपने मेहमानों को अपनी ज़िम्मेदारी में हॉटल में रुकवाया और उनका भुगतान करने से मुकर गए। घटनाएँ बहुत सी हैं, बताऊंगा तो आप सोचेंगे कि क्या मेरा प्रबंधन इतना मूर्खतापूर्ण क्यों है ? सच बताऊँ, यह लोगों पर भरोसा कर लेने का दुष्परिणाम है। हर बार सोचता हूँ- 'अब किसी पर भरोसा नहीं करूंगा' लेकिन बार-बार भरोसा कर लेता हूँ और फिर-फिर पछताता हूँ। 
          एक रात चार पुलिसकर्मी  हॉटल में रुकने आए। प्रवेश देने के पूर्व उनसे अग्रिम जमा करने के लिए कहा तो उन्होंने कहा- 'हमारे साहब सुबह आकर भुगतान करेंगे।' मैनेजर उनकी बात मान गए। रात को उन सबने जम कर खाना खाया और आराम से सोए। सुबह जब वे कमरा छोड़ रहे थे तब काउंटर में मेरी ड्यूटी थी। मैंने उन्हें हिसाब बताया तो वे बोले- 'हमारे साहब आ रहे हैं, वो पैसा देंगे।' थोड़ी देर में उनके साहब आए और यह कहकर भुगतान करने से इंकार कर दिया- 'सिटी-कोतवाली के टी॰आई॰ ने यहाँ भेजा है, उनसे बात कर लो।' मैंने सिटी कोतवाली के टी॰आई॰ से फोन पर बात की तो उन्होंने कहा- 'हमने किसी को नहीं भेजा।' जब मैंने उस पुलिस अधिकारी को बताया तो वे बोले- 'हम कोतवाली जाकर बात करते हैं।'
'आप पेमेंट तो कर जाइए, आप लोग चले जाओगे तो मैं आपको कहाँ खोजूंगा ?' मैंने कहा। मेरी बात सुनते ही उनका चेहरा तमतमा गया और हाथ कमरपट्टे पर चिपकी पिस्तौल पर पहुँच गया। उन्होंने अपने मातहतों से कहा- 'चलो यहाँ से।' इस प्रकार वे सब धड़धड़ाते हुए हॉटल से बाहर निकलकर पुलिस की सफ़ेद चमचमाती बड़ी वेन में बैठकर चले गए और अंतर्ध्यान हो गए और आज तक प्रकट नहीं हुए हैं।
          मेरे रजिस्टर में उन सबका नाम-पता लिखा हुआ था और मैंने तरीके से तथाकथित साहब का शुभनाम भी पूछ लिया था। मुझे लगा कि इसकी रपट सिटी-कोतवाली में लिखवाऊँ लेकिन मुझे मालूम था कि वे अपने मौसेरे भाइयों के खिलाफ वे कुछ करेंगे नहीं इसलिए मैंने सम्पूर्ण साक्ष्य के साथ घटना की सूचना शहडोल (मध्यप्रदेश) के आई॰जी॰ को भेज दी। कुछ महीनों बाद मुझे डिंडोरी के पुलिस अधीक्षक की ओर से डिंडोरी जाकर बयान दर्ज़ कराने की सूचना मिली। मैंने अपनी अस्वस्थता का ज़िक्र करके असमर्थता व्यक्त की तो उन्होने एक अधिकारी को मेरा बयान लेने और दस्तावेज़ की पुष्टि के लिए बिलासपुर भेजा। मेरा बयान दर्ज़ हुआ और दस्तावेज़ देखने के बाद अधिकारी ने रजिस्टर पर हस्ताक्षर कर दिए। बिलासपुर में मौसेरे भाई थे तो शहडोल वाले सगे भाई, इस घटना को हुए कई वर्ष बीत चुके हैं, अब तक कुछ नहीं हुआ। लगता है मामला दाखिल दफ्तर हो गया। हाय-हाय रे मजबूरी !
           पुलिस विभाग का हम हॉटल वालों से चोली-दामन का साथ है। चोर-उचक्के, लुटेरे, उठाईगीर आदि भी हमारे यहां आश्रय लेते हैं इसलिए पुलिसवाले हम हॉटल वालों पर कड़ी नज़र रखते हैं। सकारात्मक नज़रिए से देखें तो हम लोग इन अपराधियों को आश्रय देकर उन्हें तलाशने में पुलिस की मदद करते हैं लेकिन पुलिस हमारे इस सहयोग को पुरस्कृत करने की जगह हमें संदेह की दृष्टि से देखती है।
         कई वर्ष पुरानी बात है, कुछ उठाईगीर मेरे यहां ठहरे, रजिस्टर में उन्होंने अपने शहर में आने का उद्देश्य ‘व्यापार’ लिखा था लेकिन वे रेल-यात्रियों की अटैची पार करने वाले कलाकार थे। चार में से तीन लोग रायपुर स्टेशन में रेल्वे पुलिस की गिरफ़्त में आ गए। पुलिस उन्हें लेकर हमारी हॉटल में आई और उस कमरे की जांच की जिसमें वे लोग रुके हुए थे। कमरे में कुछ न मिला अचानक एक पुलिसकर्मी का ध्यान इलेक्ट्रिक-स्विच-बोर्ड पर गया, उसे खोला गया तो चोरी किए गए गहने उन बोर्डों के पीछे छुपाए गए थे। पुलिस वालों में से एक गुर्राया- ‘अरेस्ट करो हॉटल-मालिक को, ये भी इन चोरों के साथ मिला हुआ है.’
‘क्या कहा आपने?’ मैंने तेज आवाज में पूछा।
‘अपने हॉटल में रुकवाया है, ज़रूर मिलीभगत है।’
‘हमारे रजिस्टर में इनकी एन्ट्री है, सबके नाम-पते हैं, इनका आने का उद्देश्य लिखा है, अब ये बाहर क्या करते हैं यह तो हम नहीं जानते।’
‘ऐसे कैसे नहीं जानते ?’
‘अच्छा, ये बताइए, ये लोग कहां पकड़े गए ?’
‘रायपुर रेल्वे स्टॆशन में।’
‘आपकी पोस्टिंग कहां है ?’
‘रेल्वे पुलिस रायपुर में।’
‘उठाईगिरी का प्रकरण रायपुर रेल्वे स्टॆशन में हुआ तो क्या इसका यह मतलब नहीं निकालता कि आपकी मिलीभगत है ?’
‘नहीं।’
‘तो फ़िर मेरी मिलीभगत कैसे हुई, आपको सोच-समझकर बात करना चाहिए। ’ मैंने समझाया जो सौभाग्यवश उसे समझ में आ गया।
          उन चार उठाईगिरों में से तीन धर लिए गए थे लेकिन 'चौथा' किसी अन्य दिशा में गया हुआ था उसे अपने तीन साथियों की गिरफ़्तारी की खबर नहीं थी। उसे गिरफ्तार करने के लिए हमारी हॉटल में जाल बिछाया गया और उसी रात को लगभग नौ बजे वह भी धर लिया गया। इस प्रकार चारों सूटकेस चोर उसी दिन पुलिस के हत्थे चढ़ गए।
          इस घटना के दस दिन बाद अखबारों में छपी खबर को पढ़कर मैं भौंचक रह गया- ‘बिलासपुर शहर के जगदीश लाज से गिरफ़्तार सूटकेस चोरों का 'चौथा' साथी आखिर में पकड़ा गया। रेल्वे पुलिस का एक दल उत्तरप्रदेश गया और उसे गिरफ़्तार करके रायपुर लाया।’ आप मामले को समझ रहे हैं न ? पुलिस ने 'चौथे' व्यक्ति की गिरफ्तारी की बात को कई दिनों तक छुपाकर रखा और एक काल्पनिक खोजी दल बनाया, उतरप्रदेश की 'बोगस' यात्रा बताई, अपने घर में ऐश किया, छुट्टी मारी, टी॰ए॰ और डी॰ए॰ बनाया तब वह 'चौथा' गिरफ्तार हो पाया ! वाह रे पुलिस, वाह !

           कहावत है- 'घोड़ा घास से यारी करेगा तो खाएगा क्या ?' इसका एक अर्थ यह भी निकाला जा सकता है कि दूकानदार को ग्राहक से ज़रा दूरी बनाकर रखना चाहिए जबकि अच्छे दूकानदार में यह गुण होना चाहिए कि वह ग्राहक से नज़दीकी बनाकर रखे ! सवाल यह है कि इस दूरी और नज़दीकी में कितनी दूरी बनाकर रखी जाए ? मैंने यह अनुभव किया है कि कुछ ग्राहक ऐसे होते हैं जो नजदीकियों का अनुचित लाभ लेते हैं जिसका परिणाम यह होता है कि उनके घटिया व्यवहार के कारण सभी ग्राहक संदेह के घेरे में आ जाते हैं। वैसे भी, कहा जाता कहा है कि जिस दूकानदार का पैसा नहीं डूबा तो वह कैसा व्यापारी ?
          अंग्रेजी में कहावत है- 'No risk no gain.' यही ‘रिस्क’ लेना कई बार मुसीबत बन जाता है। मैंने व्यापार में उतने अधिक धोखे नहीं खाए जितने भरोसा करने या दयालुता दिखाने में। किस्से तो भरपूर हैं लेकिन आपको एक घटना बताता हूं:
          एक सज्जन अपनी पत्नी और छोटे-छोटे तीन बच्चों के साथ हमारे लाज में पधारे। शुरू-शुरू में नियमित भुगतान होता रहा लेकिन उसके बाद थोड़ी देर होने लगी। एक महीने बाद उनका भुगतान अटक गया तो उन्होंने बहाने बनाने शुरू किए और उनकी देनदारी चढ़ने लगी और मुझे समझ में आने लगा कि ग्राहक मुझे बुद्धू बना रहा है लेकिन फ़ंसे पैसे को वसूलने की उम्मीद में उनकी बात को मानता रहा और जब नौ हज़ार रुपए से अधिक की देनदारी हो गई, मैंने निर्णय लिया कि इनका विदाई कार्यक्रम बनाया जाए।
          वे ग्राहक इतने चतुर थे कि मेरे लाज में पहुंचने से पहले ही निकल जाते, दिन भर न जाने क्या करते, रात को तब वापस आते जब मैं अपने घर के लिए लाज से निकल जाता और ‘स्टाफ़’ को कल भुगतान करवाने देने का ‘पक्का’ वायदा करके अपने कमरे में चले जाते। उनके परिेवारजन को हमने कभी बाहर जाते नहीं देखा, वे हर समय कमरे में ही रहते। मैं सामान्यतया रात को नौ बजे के आसपास घर के लिए निकल जाता हूं, उस रात मैं उनके इन्तज़ार में रुक गया। बहुत देर तक वे दूर खड़े मेरे जाने का इन्तज़ार करते रहे लेकिन जब रात को ग्यारह बज गए, ठंड बढ़ने लगी, वे मजबूरन लाज में आए मुझे प्रणाम किया और अत्यन्त दुखी भाव से भुगतान न कर पाने पर अफ़सोस ज़ाहिर किया। मैने उनकी बात ध्यान से सुनी और उनसे निवेदन किया- ‘कोई बात नहीं, पैसे मत दीजिए लेकिन आज रात आप और आपका परिवार हमारे लाज में नहीं सोएगा।’
‘अंकल जी ऐसा मत करिए, इतनी रात को मैं परिवार को लेकर कहां जाउंगा ?’
‘किसी दूसरी होटल में चले जाइए।’
‘मेरे पास बिलकुल पैसे नहीं हैं, कोई मुझे घुसने नहीं देगा।’
‘तो ?’
‘अभी बहुत ठंड है, रात का समय है, कल सुबह तक का समय दे दीजिए, कल मैं चला जाऊंगा।’
‘ठीक है, सुबह दस बजे तक रूम खाली हो जाना चाहिए।’
‘जी, मैं सुबह चले जाऊंगा लेकिन आपका ‘पेमेन्ट’ ?
‘उसे मैंने माफ़ कर दिया.’ मैंने कहा।
          अगली सुबह वे अपनी पत्नी के साथ कमरे से निकल कर नीचे आए, काउंटर पर मैं बैठा था। पत्नी की गोद में एक दुधमुंहा बच्चा था, साथ में दो छोटी बच्चियाँ थी, वह नज़र झुकाए मेरे सामने से बाहर निकल गई। वे रुके और मुझसे कहा- 'अब तक का कितना हुआ, बता दीजिए।'
'छोड़िए उसको, मैंने उसे छोड़ दिया।' मैंने कहा।
'ऐसा नहीं, आप बताइये, मैं अगर अपने बाप की औलाद हूँ तो आपका पैसा देकर जाऊंगा।'
'ठीक है।' मैंने उनसे कहा। उनके परिवार को इस तरह बेसहारा जाते देख मैं अंदर से दहल गया, मुझे लगा, जैसे मैंने कोई अपराध कर दिया हो लेकिन उस समय मेरे ऊपर मेरा फायदा-नुकसान सवार था, इंसानियत  नहीं।
          अब आपके मन में यह सवाल उठ रहा होगा कि वे वापस आए या नहीं ? इस घटना को बीते छः वर्ष से अधिक हो गए हैं, आज तक नहीं आए। संभव है, अभी भी उनकी आर्थिक स्थिति न सुधरी हो ! यह भी संभव है कि अब वे करोड़पति या अरबपति बन गए हो, उन्हें मेरी मदद की याद न हो और लाज से निकाले जाने का अपमान याद हो। यह भी हो सकता है कि जिस पूंजीवादी सोच के वशीभूत होकर मैंने अपनी मनुष्यता खो दी थी, उसी सोच ने उन्हें भी अमानुष बना दिया हो।
          जब पैसा जेब से निकलकर इंसान के सिर पर सवार हो जाता है तो उसका नज़रिया बदल जाता है, मैं आपको सच बता रहा हूँ !
       
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