जब भी मैं एन.टी.पी.सी.जमनीपाली में प्रशिक्षण देने जाता था तब मुझे वहां के ‘गेस्टहाउस’ से ‘ट्रेनिंग सेन्टर’ जाने की राह में सड़क के किनारे लगे हुए ‘बोर्ड’ पर एक सुभाषित लिखा हुआ पढ़ने को मिलता था- ‘रहिमन चुप व्है बैठिए देख दिनन के फ़ेर, नीकै दिन जब आएंगे बहुरि न लगिहैं देर.’ पढ़कर अच्छा लगता, कुछ ढाढ़स बंध जाता लेकिन अच्छे दिनों की प्रतीक्षा करते-करते मेरी अंखियां थक गई थी. मेरी आर्थिक दशा दिन-ब-दिन दुर्दशा में बदलती जा रही थी. मुझमें कोई बुरी आदत नहीं थी, जुआ नहीं, पान-सिगरेट नहीं, शराब के स्वाद का अता-पता नहीं, फ़िज़ूल खर्च नहीं; लेकिन कर्ज़ पर चढ़ते ब्याज और अनिवार्य घरेलू खर्च का जोड़ मेरे व्यापार की आमदनी से बहुत अधिक था, लिहाज़ा बदहाली बनी रहती. प्रशिक्षण कार्यक्रम भी अधिकतर धन्यवाद-ज्ञापन वाले हुआ करते थे, यदकदा पारिश्रमिक वाले भी परन्तु वे हाथी के मुंह में आइसक्रीम जैसे थे.
पुरानी कहावतें सचेत करती हैं कि मनुष्य भूखा रह ले लेकिन कर्ज़ न ले; लेकिन ‘जाके पांव न फ़टी बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई ?’ मनुष्य खुद तो भूखा रह लेगा लेकिन अपने परिवार को भूखा कैसे देख सकेगा, घर आए अतिथि को भूखा कैसे वापस करेगा ? एक पढ़ा-लिखा इन्सान अपने बच्चों को पढ़ाने से कैसे इन्कार कर सकेगा ? लोगों ने मेरी भरपूर मदद की लेकिन मदद करने वाले भी आखिर कितनी और कितने बार करते ?
मेरा घर बनते समय श्वसुरजी और बड़े भैया ने बहुत आर्थिक सहयोग दिया था जो वस्तुतः कर्ज़ था पर वह मदद के रूप में में बदलते जा रहा था क्योंकि कर्ज की वापसी नहीं हो पा रही थी. अकस्मात एक दिन श्वसुरजी हृदयाघात में दिवंगत हो गए और मुझे एक ‘डिफ़ाल्टर’ दामाद की भूमिका में उनके अंतिम संस्कार में सम्मिलित होना पड़ा. उस समय मैं खुद से कितना शर्मिन्दा था, मैं आपको किन शब्दों में बताऊं ? मुझे इस बात का जीवन भर अफ़सोस रहेगा कि मैं उनके जीते-जी मैं उनका उधार उन्हें वापस न कर सका. उन्होंने, बड़े भैया ने और मेरे मित्र रामकिशन खंडेलवाल ने मुझसे कभी रकम का तगादा नहीं किया न किसी को उसके बारे में बताया या मुझे जताया- दस-बीस साल तक भी नहीं !
आप इसे पढ़कर सोचते होंगे कि आखिर ऐसी परिस्थिति क्यों बनी ? दरअसल स्थिति धीरे-धीरे ऐसी बनती गई कि वैसी परिस्थिति बन गई. मुझे स्वयं आश्चर्य होता है कि मुझमें व्यापार करने के स्वाभाविक गुण थे, प्रबन्धन का छॊटा-मोटा जानकार भी था- फ़िर भी स्थिति पर नियन्त्रण क्यों न कर सका ? भाग्यवादी भाग्य को दोष दे सकते हैं तो कर्मवादी कौशल को लेकिन सच तो यह है कि किसी को मना न कर पाने के संकोची स्वभाव और पारिवारिक जिम्मेदारियों को अपनी औकात से बाहर जाकर निभाने के संस्कार ने मुझे ऐसे संकट में डाल दिया.
नौकरी-पेशा और व्यापारियों का मनोविज्ञान अलग-अलग होता है॰ घरेलू जिम्मेदारियों के परिप्रेक्ष्य में दोनों की प्रतिक्रिया भिन्न होती हैं॰ जैसे रिश्तेदारी में किसी शादी-ब्याह या गमी में जाना हो तो नौकरी-पेशा व्यक्ति कह सकता है- 'क्या करूँ, छुट्टी नहीं है' या 'महीने का आखिरी चल रहा है' लेकिन व्यापारी ऐसा नहीं कह सकता॰ खास तौर से संयुक्त परिवार में जो सामने रहता है उसे पारिवारिक कार्यों में बहुत खर्च करना पड़ता है, यह खर्च किसी को दिखाई नहीं पड़ता, कोई यश नहीं मिलता, बस, नेकी कर दरिया में डाल॰
कर्ज़ लेकर जीवन की गाड़ी चलाने के लिए हुनरमन्द और बेशर्म होना अनिवार्य तत्व है. वैसे तो किसी को रकम उधार देने के लिए कई पैसेवाले उधार बैठे रहते हैं लेकिन वे सुरक्षित कर्ज़ देना पसन्द करते हैं यानी रकम ब्याज सहित समय पर वापस आ जाए. साहूकारी की दुनियां का रिवाज़ यह है कि सुरक्षित कर्ज़ पर ब्याज की दर कम होती है लेकिन सुरक्षा कम समझ आने पर ब्याज की दर उसी अनुपात में बढ़ती जाती है. मुझे अपनी साख बनाए रखने के लिए इधर की टोपी उधर करने का निरन्तर प्रयास करते रहना पड़ता था इसलिए जब किसी भुगतान तिथि का समय-संकट आता- मेरा दिमागी ‘एन्टीना’ किसी नए साहूकार की तलाश में भिड़ जाता. कुछ मेरे स्थाई साहूकार थे, कुछ नियमित, तो कुछ एकबारगी. जिनसे मैंने उधार मांगा उनमें से अधिकतर ने मेरी मदद की लेकिन कुछ ऐसे भी 'अभिन्न मित्र' थे जिन्होंने अपने पुट्ठे पर मुझे हाथ तक नहीं रखने दिया. वे अनुभव सच में बेहद खट्टे-मीठे थे और ‘आई-ओपनर’ भी. कर्ज़ इतना बढ़ गया था कि उससे मुक्त होने के उपाय ही समझ में न आते थे. पत्नी के गहने और घर से लगी जमीन बेचकर कुछ बोझ कम किया जा सकता था लेकिन वैसा करना दिल को गवारा न था॰ आखिर बकरे की मां कब तक खैर मनाती, वह दिन तो किसी दिन आना ही था सो आ गया.
हुआ यह कि अपने एक मित्र अक्षय से मैंने एक लाख रुपए कर्ज़ में लिए थे जिसका मैं हर महीने ब्याज अदा कर दिया करता था. लगभग दो वर्ष बाद उन्होंने रकम वापस करने के लिए कहा. मेरी स्थिति दयनीय थी, दिमाग काम नहीं कर रहा था कि कहां से जुगाड़ करूं ? मैंने उनसे कहा- ‘कुछ समय दे दो’ लेकिन वे बोले- ‘मुझे अभी रकम की जरूरत है.’ मैंने सोचा- इस मित्र ने मेरी ज़रूरत पर मुझे रकम दी थी, आज इसे ज़रूरत है तो मुझे किसी भी उपाय
से रकम वापस करनी चाहिए- ऐसा सोचकर मैंने उनके समक्ष अपने घर से जुड़ी खाली जमीन को बेचने का प्रस्ताव रखा जिसे वे प्रचलित बाजार भाव पर लेने के लिए सहमत हो गए. उन्होंने अपनी रकम काटकर शेष राशि मुझे दे दी. जमीन की ‘रजिस्ट्री’ के समय अक्षय ने मुझे एक बात बताई- ‘द्वारिका भाई, इस जमीन की खरीदी के बारे में जब मैंने अपने पिताजी को बताया तो वे मुझ पर बहुत बिगड़े ?’
‘क्यों ?’ मैंने पूछा.
‘वे इस बात से नाराज़ थे कि मैंने अपनी रकम की वसूली के लिए आपके घर से जुड़ी जमीन खरीद ली.’
‘पर जमीन तो मैंने अपनी मर्जी से बेची है, आपके दबाव पर नहीं.’
मेरा घर बनते समय श्वसुरजी और बड़े भैया ने बहुत आर्थिक सहयोग दिया था जो वस्तुतः कर्ज़ था पर वह मदद के रूप में में बदलते जा रहा था क्योंकि कर्ज की वापसी नहीं हो पा रही थी. अकस्मात एक दिन श्वसुरजी हृदयाघात में दिवंगत हो गए और मुझे एक ‘डिफ़ाल्टर’ दामाद की भूमिका में उनके अंतिम संस्कार में सम्मिलित होना पड़ा. उस समय मैं खुद से कितना शर्मिन्दा था, मैं आपको किन शब्दों में बताऊं ? मुझे इस बात का जीवन भर अफ़सोस रहेगा कि मैं उनके जीते-जी मैं उनका उधार उन्हें वापस न कर सका. उन्होंने, बड़े भैया ने और मेरे मित्र रामकिशन खंडेलवाल ने मुझसे कभी रकम का तगादा नहीं किया न किसी को उसके बारे में बताया या मुझे जताया- दस-बीस साल तक भी नहीं !
आप इसे पढ़कर सोचते होंगे कि आखिर ऐसी परिस्थिति क्यों बनी ? दरअसल स्थिति धीरे-धीरे ऐसी बनती गई कि वैसी परिस्थिति बन गई. मुझे स्वयं आश्चर्य होता है कि मुझमें व्यापार करने के स्वाभाविक गुण थे, प्रबन्धन का छॊटा-मोटा जानकार भी था- फ़िर भी स्थिति पर नियन्त्रण क्यों न कर सका ? भाग्यवादी भाग्य को दोष दे सकते हैं तो कर्मवादी कौशल को लेकिन सच तो यह है कि किसी को मना न कर पाने के संकोची स्वभाव और पारिवारिक जिम्मेदारियों को अपनी औकात से बाहर जाकर निभाने के संस्कार ने मुझे ऐसे संकट में डाल दिया.
नौकरी-पेशा और व्यापारियों का मनोविज्ञान अलग-अलग होता है॰ घरेलू जिम्मेदारियों के परिप्रेक्ष्य में दोनों की प्रतिक्रिया भिन्न होती हैं॰ जैसे रिश्तेदारी में किसी शादी-ब्याह या गमी में जाना हो तो नौकरी-पेशा व्यक्ति कह सकता है- 'क्या करूँ, छुट्टी नहीं है' या 'महीने का आखिरी चल रहा है' लेकिन व्यापारी ऐसा नहीं कह सकता॰ खास तौर से संयुक्त परिवार में जो सामने रहता है उसे पारिवारिक कार्यों में बहुत खर्च करना पड़ता है, यह खर्च किसी को दिखाई नहीं पड़ता, कोई यश नहीं मिलता, बस, नेकी कर दरिया में डाल॰
कर्ज़ लेकर जीवन की गाड़ी चलाने के लिए हुनरमन्द और बेशर्म होना अनिवार्य तत्व है. वैसे तो किसी को रकम उधार देने के लिए कई पैसेवाले उधार बैठे रहते हैं लेकिन वे सुरक्षित कर्ज़ देना पसन्द करते हैं यानी रकम ब्याज सहित समय पर वापस आ जाए. साहूकारी की दुनियां का रिवाज़ यह है कि सुरक्षित कर्ज़ पर ब्याज की दर कम होती है लेकिन सुरक्षा कम समझ आने पर ब्याज की दर उसी अनुपात में बढ़ती जाती है. मुझे अपनी साख बनाए रखने के लिए इधर की टोपी उधर करने का निरन्तर प्रयास करते रहना पड़ता था इसलिए जब किसी भुगतान तिथि का समय-संकट आता- मेरा दिमागी ‘एन्टीना’ किसी नए साहूकार की तलाश में भिड़ जाता. कुछ मेरे स्थाई साहूकार थे, कुछ नियमित, तो कुछ एकबारगी. जिनसे मैंने उधार मांगा उनमें से अधिकतर ने मेरी मदद की लेकिन कुछ ऐसे भी 'अभिन्न मित्र' थे जिन्होंने अपने पुट्ठे पर मुझे हाथ तक नहीं रखने दिया. वे अनुभव सच में बेहद खट्टे-मीठे थे और ‘आई-ओपनर’ भी. कर्ज़ इतना बढ़ गया था कि उससे मुक्त होने के उपाय ही समझ में न आते थे. पत्नी के गहने और घर से लगी जमीन बेचकर कुछ बोझ कम किया जा सकता था लेकिन वैसा करना दिल को गवारा न था॰ आखिर बकरे की मां कब तक खैर मनाती, वह दिन तो किसी दिन आना ही था सो आ गया.
हुआ यह कि अपने एक मित्र अक्षय से मैंने एक लाख रुपए कर्ज़ में लिए थे जिसका मैं हर महीने ब्याज अदा कर दिया करता था. लगभग दो वर्ष बाद उन्होंने रकम वापस करने के लिए कहा. मेरी स्थिति दयनीय थी, दिमाग काम नहीं कर रहा था कि कहां से जुगाड़ करूं ? मैंने उनसे कहा- ‘कुछ समय दे दो’ लेकिन वे बोले- ‘मुझे अभी रकम की जरूरत है.’ मैंने सोचा- इस मित्र ने मेरी ज़रूरत पर मुझे रकम दी थी, आज इसे ज़रूरत है तो मुझे किसी भी उपाय
से रकम वापस करनी चाहिए- ऐसा सोचकर मैंने उनके समक्ष अपने घर से जुड़ी खाली जमीन को बेचने का प्रस्ताव रखा जिसे वे प्रचलित बाजार भाव पर लेने के लिए सहमत हो गए. उन्होंने अपनी रकम काटकर शेष राशि मुझे दे दी. जमीन की ‘रजिस्ट्री’ के समय अक्षय ने मुझे एक बात बताई- ‘द्वारिका भाई, इस जमीन की खरीदी के बारे में जब मैंने अपने पिताजी को बताया तो वे मुझ पर बहुत बिगड़े ?’
‘क्यों ?’ मैंने पूछा.
‘वे इस बात से नाराज़ थे कि मैंने अपनी रकम की वसूली के लिए आपके घर से जुड़ी जमीन खरीद ली.’
‘पर जमीन तो मैंने अपनी मर्जी से बेची है, आपके दबाव पर नहीं.’
'पिताजी का कहना था कि क़र्ज़ पटाने के लिए कोई भी अपने घर से जुड़ी जमीन नहीं बेचता. जब मैंने उन्हें सारी बात समझाई तब वे शांत हुए और मुझसे पूछा कि मैं इस जमीन का क्या करूंगा ?’
‘क्या बताया आपने ?’
‘मैंने बताया कि ‘इनवेस्टमेन्ट’ है तब उन्होंने मुझे आदेश दिया कि इस जमीन को मैं कभी भी किसी दूसरे व्यक्ति को न बेचूं, केवल आपको को ही दूँ.’
‘ऐसा क्या ? लेकिन क्या पता, मैं इसे कब खरीद पाऊंगा ?’
‘चाहे जब आपकी व्यवस्था बने, आपकी यह जमीन मेरे पास अमानत जैसी है, मैंने अपने पिता को वचन दिया है.’ अक्षय ने कहा.
‘क्या बताया आपने ?’
‘मैंने बताया कि ‘इनवेस्टमेन्ट’ है तब उन्होंने मुझे आदेश दिया कि इस जमीन को मैं कभी भी किसी दूसरे व्यक्ति को न बेचूं, केवल आपको को ही दूँ.’
‘ऐसा क्या ? लेकिन क्या पता, मैं इसे कब खरीद पाऊंगा ?’
‘चाहे जब आपकी व्यवस्था बने, आपकी यह जमीन मेरे पास अमानत जैसी है, मैंने अपने पिता को वचन दिया है.’ अक्षय ने कहा.
वैसे भी माधुरी और मेरे तीनों बच्चों ने मुझसे कभी गैरवाज़िब मांगें नहीं की, चारों मितव्ययी थे. संगीता इन्दौर के डेन्टल कालेज में पढ़ती थी तब उसकी फ़ीस का इंतज़ाम करना मेरे लिए दुर्धर्ष कार्य था. जब पूरे साल फ़ीस नहीं जा पाती तब उसका परीक्षा का प्रवेशपत्र अटक जाता तो मुझसे फोन पर कहती- ‘पापा, चौदह हज़ार फ़ीस और बारह सौ ‘लेट फ़ी’, कुल मिलाकर पन्द्रह हज़ार दो सौ रुपए भेजिए तब परीक्षा दे पाऊंगी.’ मैं फ़िर किसी नए सुहृद मित्र की तलाश में निकल पड़ता ताकि उससे उधार मिल सके और संगीता परीक्षा दे सके. बहुत कष्टमय समय था वह. कई बार राशन और साग-सब्ज़ी खरीदने के पैसे भी जेब में न होते पर कोई-न-कोई मुझे खुशी-खुशी उधार दे देता क्योंकि मैं ‘पेन्ड्रावाला’ परिवार का लड़का था, उसे क्या पता कि सेठों के घर के किसी पचास वर्षीय सदस्य की ऐसी दुर्दशा है !
मेरी तकदीर एकदम खराब भी नहीं थी, हमारे शहर में ‘एल एम एल वेस्पा’ की नई ‘डीलरशिप’ खुली तो उन्होंने ग्राहकों के समूह से बारह माह तक दो हज़ार रुपए प्रति माह जमा करवाने की योजना शुरू की जिसमें प्रत्येक माह एक ‘लक्की ड्रा’ निकाला जाता था. जिसका नाम निकलता उसे स्कूटर मिल जाती और अगली किश्तें माफ़ हो जाती. मेरा नाम पहले ‘ड्रा’ में आ गया, तेईस हज़ार की स्कूटर दो हज़ार में आ गई. उस स्कूटर में हम पाँचों यानी मैं, मेरे आगे संज्ञा, पीछे संगीता, उनके पीछे माधुरी और माधुरी की गोद में कुन्तल, जब ठस्समठस्सा बैठकर सड़कों पर निकलते तो लोग हमें देखकर मुस्कुराते, हम उन्हें देखकर.
आर्थिक असुविधा का दौर तीस वर्षों तक चला, ध्रुपद गायन के विलम्बित लय की तरह उबाऊ, लेकिन सच मानिए हम लोग मस्ती से जीते थे. तंगी का दबाव हर समय बना रहता था लेकिन तनाव अस्थाई रहता था. जब किसी भुगतान की समस्या सामने होती तो तात्कालिक तनाव उपजता और जैसे ही व्यवस्था बन जाती, तनाव छूमन्तर. तनाव प्रबन्धन की किसी पुस्तक में इसके लिए तीन उपाय सुझाए गए थे जिसका नाम था- AAA ‘फ़ार्मूला’. A=Alter, A=Avoid, A=Accept.
#तनाव हो तो उसके मूल कारण की तलाश कर उसे दूर करने के उपाय किए जाएं : Try to alter the situation; #यदि उपाय सफ़ल न हों तो उन्हें टाला जाए या उनसे बचा जाए : If alteration is not possible, avoid it;
#जब दोनों उपाय सम्भव न हो तो परिस्थिति को स्वीकार कर लिया जाए : If it's no way, accept it.
मैं इन तीनों तरीकों का प्रयोग करता और मज़े में रहता था. इस विधि से मेरी आयु भी बढ़ रही थी क्योंकि जिन्हें मुझसे वसूली करनी थी वे मेरे दीर्घायु होने के लिए अपने ईश्वर से सतत प्रार्थना करते रहते थे.
असुविधाओं के पहाड़ के नीचे दबे-दबे मेरा दम घुटने लगा था. दूर-दूर तक उम्मीद की कोई किरण नज़र नहीं आती थी फिर भी साहिर लुधियानवी की इस ग़ज़ल को सुनकर अँधेरे के पार देखने की कोशिश मैं किया करता था :
मेरी तकदीर एकदम खराब भी नहीं थी, हमारे शहर में ‘एल एम एल वेस्पा’ की नई ‘डीलरशिप’ खुली तो उन्होंने ग्राहकों के समूह से बारह माह तक दो हज़ार रुपए प्रति माह जमा करवाने की योजना शुरू की जिसमें प्रत्येक माह एक ‘लक्की ड्रा’ निकाला जाता था. जिसका नाम निकलता उसे स्कूटर मिल जाती और अगली किश्तें माफ़ हो जाती. मेरा नाम पहले ‘ड्रा’ में आ गया, तेईस हज़ार की स्कूटर दो हज़ार में आ गई. उस स्कूटर में हम पाँचों यानी मैं, मेरे आगे संज्ञा, पीछे संगीता, उनके पीछे माधुरी और माधुरी की गोद में कुन्तल, जब ठस्समठस्सा बैठकर सड़कों पर निकलते तो लोग हमें देखकर मुस्कुराते, हम उन्हें देखकर.
आर्थिक असुविधा का दौर तीस वर्षों तक चला, ध्रुपद गायन के विलम्बित लय की तरह उबाऊ, लेकिन सच मानिए हम लोग मस्ती से जीते थे. तंगी का दबाव हर समय बना रहता था लेकिन तनाव अस्थाई रहता था. जब किसी भुगतान की समस्या सामने होती तो तात्कालिक तनाव उपजता और जैसे ही व्यवस्था बन जाती, तनाव छूमन्तर. तनाव प्रबन्धन की किसी पुस्तक में इसके लिए तीन उपाय सुझाए गए थे जिसका नाम था- AAA ‘फ़ार्मूला’. A=Alter, A=Avoid, A=Accept.
#तनाव हो तो उसके मूल कारण की तलाश कर उसे दूर करने के उपाय किए जाएं : Try to alter the situation; #यदि उपाय सफ़ल न हों तो उन्हें टाला जाए या उनसे बचा जाए : If alteration is not possible, avoid it;
#जब दोनों उपाय सम्भव न हो तो परिस्थिति को स्वीकार कर लिया जाए : If it's no way, accept it.
मैं इन तीनों तरीकों का प्रयोग करता और मज़े में रहता था. इस विधि से मेरी आयु भी बढ़ रही थी क्योंकि जिन्हें मुझसे वसूली करनी थी वे मेरे दीर्घायु होने के लिए अपने ईश्वर से सतत प्रार्थना करते रहते थे.
असुविधाओं के पहाड़ के नीचे दबे-दबे मेरा दम घुटने लगा था. दूर-दूर तक उम्मीद की कोई किरण नज़र नहीं आती थी फिर भी साहिर लुधियानवी की इस ग़ज़ल को सुनकर अँधेरे के पार देखने की कोशिश मैं किया करता था :
"रात भर का है मेहमां अंधेरा
किस के रोके रूका है सवेरा.
रात जितनी भी संगीन होगी
सुबह उतनी ही रंगीन होगी,
ग़म ना कर ग़र है बादल घनेरा
किसके रोके रूका है सवेरा.
लब पे शिकवा न ला अश्क पी ले
जिस तरह भी हो कुछ देर जी ले,
अब उखड़ने को है ग़म का डेरा
किसके रोके रूका है सवेरा.
आ कोई मिल के तदबीर सोचे
सुख के सपनों की तासीर सोचे,
जो तेरा है वो ही ग़म है मेरा
किसके रोके रूका है सवेरा.
रात भर का है मेहमान अंधेरा
किसके रोके रूका है सवेरा."
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जब मैं अपनी दूकान में बैठता तो तगादे वालों को सम्हाल लेता था लेकिन जब मेरे घर के ‘लेंडलाइन’ फ़ोन पर तगादा आता तो बड़ी मुसीबत हो जाती. छोटा सा दो कमरे का घर है, फ़ोन पर हो रही बात सबको सुनाई पड़ती इसलिए मेरे अर्थसंकट के रहस्य उघड़ जाने का भय था. किसी को मालूम न पड़े इसलिए मैं ‘रिसीवर’ को उठाकर बाहर रख देता ताकि फ़ोन ‘हेल्ड’ हो जाए और मैं निश्चिन्त सो सकूं. माधुरी का ध्यान मेरी इस हरकत पर चला गया और जब उन्हॊंने कई बार वैसा होते देखा तो उनका माथा ठनका. उन्होंने मुझसे पूछताछ की तो मैंने स्वीकार किया कि वैसा साहूकारों के तगादे के डर से करता पड़ता है. वे चल रही कमजोर आर्थिक स्थिति को जानती तो थी लेकिन मेरी इस गंभीर लड़ाई से अपरिचित थी. उन्होंने पूछा- ‘ऐसे कैसे चलेगा, कोई उपाय है तुम्हारे पास?’
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जब मैं अपनी दूकान में बैठता तो तगादे वालों को सम्हाल लेता था लेकिन जब मेरे घर के ‘लेंडलाइन’ फ़ोन पर तगादा आता तो बड़ी मुसीबत हो जाती. छोटा सा दो कमरे का घर है, फ़ोन पर हो रही बात सबको सुनाई पड़ती इसलिए मेरे अर्थसंकट के रहस्य उघड़ जाने का भय था. किसी को मालूम न पड़े इसलिए मैं ‘रिसीवर’ को उठाकर बाहर रख देता ताकि फ़ोन ‘हेल्ड’ हो जाए और मैं निश्चिन्त सो सकूं. माधुरी का ध्यान मेरी इस हरकत पर चला गया और जब उन्हॊंने कई बार वैसा होते देखा तो उनका माथा ठनका. उन्होंने मुझसे पूछताछ की तो मैंने स्वीकार किया कि वैसा साहूकारों के तगादे के डर से करता पड़ता है. वे चल रही कमजोर आर्थिक स्थिति को जानती तो थी लेकिन मेरी इस गंभीर लड़ाई से अपरिचित थी. उन्होंने पूछा- ‘ऐसे कैसे चलेगा, कोई उपाय है तुम्हारे पास?’
‘मुझे समझ में नहीं आ रहा है कि क्या करूं ! भरपूर परिश्रम करता हूं, दूकान में भी और प्रशिक्षण में भी लेकिन देनदारी और उसका ब्याज इतना चढ़ा हुआ है कि उससे पार पाना मेरे लिए असम्भव दिखता है.’ मैंने बताया.
‘फ़िर ?’
‘मेरे मन में एक विचार आया है कि अपन यह शहर छोड़ दें.’
‘अरे, तुम हमेशा कुछ बेढब ही सोचते हो॰ जाओगे कहाँ ?’
‘पुणे, पुणे ठीक रहेगा॰'
‘पुणे ही क्यों ?’
‘प्रशिक्षण कार्यक्रम वहां से अच्छा चलेगा और बच्चों की पढाई भी बेहतर हो सकेगी.’ मैंने कहा.
अपना घर-शहर छोड़कर जाना बहुत कठिन निर्णय था. हमने आपस में बहुत सोच-विचार किया और निर्णय लिया कि पहले पुणे जाकर सर्वेक्षण किया जाए और वहां की संभावनाओं की टोह ली जाए फिर अंतिम निर्णय लिया जाए. मैंने पुणे जाने के लिए रेल आरक्षण करवा लिया, संगीता को खबर की कि वह इन्दौर से सीधे पुणे पहुंच जाए.
पुणे के लिए निकलने के पहले मैंने बड़े भैया को एक पत्र लिखा था, उन्होंने अवश्य पढ़ा होगा, कुछ अंश आप भी पढिए :
बिलासपुर
6 जून 1998
आदरणीय भैया,
आज यह पत्र लिखना मुझे कितना अजीब लग रहा है, मैं क्या बताऊँ ? यद्यपि मुझे जन्म आपने नहीं दिया है लेकिन सदा से आपको अभिभावक मानता रहा हूँ- शायद पिता से ज़्यादा, इसलिए मन में आया कि अपने विचार, अपना हृदय और अपनी भावनाएं आपके सामने व्यक्त करूँ. ऐसा भी लगता है कि मुझे अपने जीवन का शेष भविष्य कैसा बनाना है, आपसे कुछ बता-समझ लूँ , तो शायद निर्णय बेहतर हो सकेगा. इस पत्र को लिखते समय यद्यपि मैं भावुक हूँ, तथापि मेरी सोच का आधार व्यवहारिक है. मैंने पचास साल का जीवन यथासंभव पवित्रता और ईमानदारी से जिया है इसलिए मुझमें पर्याप्त साहस है, मुझे किसी का डर नहीं है क्योंकि मनुष्य सबसे ज़्यादा खुद से डरता है जबकि मैंने कुछ ऐसा किया नहीं जिसे मेरी अन्तरात्मा गलत मानती हो.
मुझे याद आता है जब मेरे 'ग्रेजुएशन' के बाद आपने मेरी 'आइ.ए.एस. कोचिंग' के लिए दिल्ली भेजने की व्यवस्था की थी. दद्दाजी के द्वारा पारिवारिक दायित्वों के प्रवचन से प्रभावित होकर जब मैंने दिल्ली नहीं जाने का निर्णय लिया था तब आपने मुझे बुरी तरह झिड़का था और समझाया था- 'इस घर को छोड़कर जा और अपनी ज़िन्दगी जी अन्यथा पछताएगा.' और भी बहुत सी बातें याद आ रही हैं लेकिन क्या बताऊँ, मुझसे गलत निर्णय हो गया. संभवतः हीन भावना से ग्रस्त होकर मैं साहस न कर पाया और सच में मैं ऐसी अंधेरी गुफा में फंस गया जहां न तो प्रकाश है और न ही पर्याप्त हवा.
जीवन का एक लंबा समय बीत गया. पचास साल बीत गए, अब जीवन की संध्या-बेला निकट आ गई है, मन बेचैन हो उठा है. शेष जीवन को मैं साहस और स्वाभिमान के साथ जीना चाहता हूँ. आप ये न समझें कि मेरा बीता समय दुखपूर्ण था. मैंने उपलब्ध परिस्थितियों को समझा, स्वयं को उसके अनुरूप बनाया और टुकड़ों में ही सही- सुख को चुन-चुन कर इकट्ठा किया और आनंदित होता रहा लेकिन जबसे होश सम्हाला तब से आज तक आर्थिक विषमताओं और तनाव के पहाड़ ढोते-ढोते अब मैं थक गया. मृत्यु के लिए सामान जोड़ते-जोड़ते मेरी हिम्मत हार गई है, अब मैं जीना चाहता हूँ. यह पत्र मैं आपको इसीलिए लिख रहा हूँ.
.....मैंने अपने और दूसरों के जीवन का बहुत अध्ययन किया है, दो-चार किताबें भी पढ़ी हैं इसलिए मुझे अपनी असलियत समझना ज़्यादा कठिन नहीं लगा. मुझे आपको यह बताते हुए कोई हिचकिचाहट नहीं है कि मैं पर्याप्त क्षमतावान, योग्य और व्यवहारकुशल व्यक्ति हूँ लेकिन अपने दोषों के प्रति भी सजग हूँ जैसे- आज के व्यवारिक जगत के अनुकूल न होना, सहज ही दूसरों पर भरोसा कर लेना, अपने मन को मार लेना, अपनी तकलीफें सामान्यतया न कहना.
मैं पचास वर्ष बाद आज जो कुछ हूँ वह मेरा स्वयं का निर्माण है जिससे मैं संतुष्ट हूँ. मुझे स्वयं से या किसी दूसरे से कुछ शिकायत भी नहीं है, परन्तु अब मुझे अपना शेष जीवन शांति से व्यतीत करना है, बच्चे बड़े हो गए हैं- उनको व्यवस्थित करना है ताकि उनके भविष्य पर मेरे अपने जीवन के हास्यास्पद पारिवारिक प्रयोगों की काली छाया न पड़े.
मैं बिलासपुर छोड़ना चाहता हूँ. यह भावुकता से लिया गया निर्णय नहीं है, मैंने शुरू में ही लिखा कि इस पत्र का व्यवहारिक आधार भी है. यह न समझें कि मैं भगोड़ा हूँ क्योंकि मैंने इस वीभत्स पारिवारिक वातावरण को लंबे समय तक भोगा है, अब हार गया हूँ. हिम्मत जवाब दे गई. जिनके आस-पास मैं हूँ- उनको मेरी आँखें देखें- मेरा मन यह भी नहीं चाहता इसलिए दूर जाना चाहता हूँ. यदि कुछ समय यहां और रह गया तो संभव है कि आपको मुझे किसी मानसिक रोग के चिकित्सालय में ले जाने का कष्ट उठाना पड़े. आप सोच रहे होंगे कि ऐसी क्या बात है ? मुझसे कुछ न पूछें क्योंकि किसी की मैं क्या शिकायत करूँ, क्यों स्वयं को छोटा बनाऊँ ?
.....मुझे समझ में आ गया की आशाएँ नदी की रेत में कुछ लिखने जैसा भ्रम है, सब छलावा है. मैं अपने सारे प्रयासों के बाद भी संयुक्त कुटुम्ब के प्रति अपने उत्तरदायित्व को नहीं निभा पाया.
एक धन्यवाद आपको दे दूँ, छोटे-मोटे तो बहुत से हैं लेकिन एक बड़ा उपकार आपने मुझपर किया जो आपने मेरी पत्नी के रूप में माधुरी का चयन किया. अपनी यूनिट में हम लोग अत्यंत प्रसन्न और संतुष्ट हैं. इसका पूरा श्रेय आपको है.
एक उपकार और करें, आप पहल करके मुझे इस शहर से विदा करने में मेरी सहायता करें. मित्रविहार का घर यदि बाजार में बेचूंगा तो परिवार की बदनामी होगी, बेहतर है इसे आप ले लें. देनदारी चुकाने के बाद जो कुछ बचेगा उससे मैं अपना भविष्य बना लूंगा, चला लूँगा. बस, मुझे मुक्ति दिलवा दीजिए. तीनों बच्चों में अच्छी सम्भावनाएँ हैं, आपके आशीर्वाद से वहाँ सब व्यवस्थित हो जाएगा, कहीं कोई तकलीफ़ महसूस हुई तो मैं आपका पुत्र जैसा हूँ- आपको याद कर लूंगा.
प्लीज़, मुझे इस अन्धी गुफ़ा से मुक्त करवाइए.
आपका,
द्वारिका
==========
कोई मनुष्य जब सफलता के आसमान में उड़ते रहता है तो उसे हर असफल व्यक्ति मूर्ख और कामचोर समझ में आता है॰ उसे लगता है- 'बताओ, सफलता कितनी आसान बात है, कोई भला असफल क्यों है ? यह ज़रूर कमअक्ल या आलसी है.' पंजाब की एक कहावत है- 'ज़िंदे घर दाणें, वे कमले बी स्याणें' अर्थात जिनके घर में दाणे यानी धन है वहाँ के कम अक्ल भी सयाने (समझदार) हैं॰ मैंने अनेक मूर्खों को सफलता के पायदान में चढ़ते देखा है॰ लोग उन्हें हुनरमंद और होशियार मानते हैं. आप गौर करिएगा, किसी भी सफल व्यक्ति में आत्ममुग्धता भरपूर रहती है, उसका आत्मविश्वास हर समय शिखर पर रहता है, आवाज़ में दम रहता है, उसके बीवी-बच्चों की लोग बड़ी इज्ज़त करते हैं वहीं पर असफल व्यक्ति आत्महीनता का शिकार रहता है, आवाज कमजोर रहती है, उसकी बीवी 'सबकी भौजाई' होती है, उसके बच्चों के साथ लोग घटिया हरकतें करते हैं. समर्थ लोग असमर्थों का बहुमुखी शोषण करना अपना स्वयंसिद्ध अधिकार समझते हैं. यह सुनी-सुनाई नहीं, आपको आपबीती बता रहा हूँ.
जो धनवान है, बलवान है या पद-वान है, परिवार में उसी का दबदबा रहता है. उसकी पसंद या नापसंद का ध्यान रखा जाता है, 'किसी बात पर वे नाराज़ न हो जाएं, कहीं बुरा न मान जाएं'- ऐसी सतर्कता बरती जाती है. मुद्दा अधिक महत्व का हो या कम महत्व का- उसकी राय ली जाती है और निर्णय लेते समय उसकी राय को प्राथमिकता भी दी जाती है जबकि धनहीन, बलहीन और पदहीन व्यक्ति 'दो कौड़ी का आदमी' माना जाता है. कुछ पूछना दूर की बात है, उसे बताना भी ज़रूरी नहीं समझा जाता. यदि परिवार की किसी चर्चा में वह चुपचाप सुनते रहता है तो उससे कहा जाता है- 'यहाँ क्यों खड़े हो !'
मैंने 'सफलता के सूत्र' विषय पर अनेक प्रशिक्षण कार्यक्रम किए हैं, उन सूत्रों को मैं जानता हूँ, सबको बताता-समझाता भी हूँ लेकिन अपने और अन्य परिचितों के जीवन का अध्ययन करने पर मैंने यह पाया कि किसी को भी चौतरफ़ा सफलता नहीं मिलती॰ मनुष्य जब किसी एक क्षेत्र में सफल होता है तो अन्य क्षेत्र उसकी पकड़ से फिसल जाते हैं॰ अड़चन यह है कि सबको सब कुछ चाहिए लेकिन ऐसा नहीं होता है॰ आप ध्यान दीजिए, पैसे और राजनीति के पीछे दौड़ने वाला व्यक्ति पारिवारिक सुख से वंचित हो जाता है, परिवार का ध्यान रखने वाला व्यक्ति सांसारिक विफलताओं का शिकार बन जाता है॰ जिसकी रुचि साहित्य और कला की ओर विकसित हो जाती है वह अपनी काल्पनिक दुनिया से भटककर यश और प्रसिद्धि की जंजीरों में कैद हो जाता है, वहीं पर जिसकी रुचि आध्यात्म या भक्तिभाव से जुड़ जाती है वह स्वयं की या भगवान की खोज में अपना जीवन समर्पित कर देता है॰ हाँ, कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो सभी क्षेत्रों में हाथ आजमाते हैं- वे कहीं के नहीं रह जाते॰ मैं इसी आखिरी 'डिजाइन' का इन्सान हूँ॰ यह भी कर लूँ, वह भी कर लूँ- के चक्कर में मुझे न खुदा मिला न विसाल-ए-यार॰
'असुविधा' कम समय का कष्ट होता है; जब असुविधा लंबे समय तक चलती है तो उस स्थिति को बोल-चाल में कहते हैं- 'तकलीफ चल रही है'; उससे भी अधिक समय लगने पर वह स्थिति 'संकट' कहलाती है और जब संकट की गंभीरता बढ़ जाती है तो उसे 'विपत्ति' कहते हैं॰ विपत्ति भी जब व्यापक रूप धारण कर लेती है तो वह 'आपदा' हो जाती है॰ मेरी पारिवारिक इकाई में आपदा तब आती जब मैं अनुपस्थित हो जाता यानी मेरी स्वाभाविक मृत्यु हो जाती या मैं आत्महत्या करके चुपचाप निकल लेता लेकिन मृत्यु आई नहीं और आत्महत्या करने वालों में से मैं था नहीं ! उस समय मेरी उम्र 52 वर्ष की हो चुकी थी लेकिन हौसले जवान थे॰
बिलासपुर
6 जून 1998
आदरणीय भैया,
आज यह पत्र लिखना मुझे कितना अजीब लग रहा है, मैं क्या बताऊँ ? यद्यपि मुझे जन्म आपने नहीं दिया है लेकिन सदा से आपको अभिभावक मानता रहा हूँ- शायद पिता से ज़्यादा, इसलिए मन में आया कि अपने विचार, अपना हृदय और अपनी भावनाएं आपके सामने व्यक्त करूँ. ऐसा भी लगता है कि मुझे अपने जीवन का शेष भविष्य कैसा बनाना है, आपसे कुछ बता-समझ लूँ , तो शायद निर्णय बेहतर हो सकेगा. इस पत्र को लिखते समय यद्यपि मैं भावुक हूँ, तथापि मेरी सोच का आधार व्यवहारिक है. मैंने पचास साल का जीवन यथासंभव पवित्रता और ईमानदारी से जिया है इसलिए मुझमें पर्याप्त साहस है, मुझे किसी का डर नहीं है क्योंकि मनुष्य सबसे ज़्यादा खुद से डरता है जबकि मैंने कुछ ऐसा किया नहीं जिसे मेरी अन्तरात्मा गलत मानती हो.
मुझे याद आता है जब मेरे 'ग्रेजुएशन' के बाद आपने मेरी 'आइ.ए.एस. कोचिंग' के लिए दिल्ली भेजने की व्यवस्था की थी. दद्दाजी के द्वारा पारिवारिक दायित्वों के प्रवचन से प्रभावित होकर जब मैंने दिल्ली नहीं जाने का निर्णय लिया था तब आपने मुझे बुरी तरह झिड़का था और समझाया था- 'इस घर को छोड़कर जा और अपनी ज़िन्दगी जी अन्यथा पछताएगा.' और भी बहुत सी बातें याद आ रही हैं लेकिन क्या बताऊँ, मुझसे गलत निर्णय हो गया. संभवतः हीन भावना से ग्रस्त होकर मैं साहस न कर पाया और सच में मैं ऐसी अंधेरी गुफा में फंस गया जहां न तो प्रकाश है और न ही पर्याप्त हवा.
जीवन का एक लंबा समय बीत गया. पचास साल बीत गए, अब जीवन की संध्या-बेला निकट आ गई है, मन बेचैन हो उठा है. शेष जीवन को मैं साहस और स्वाभिमान के साथ जीना चाहता हूँ. आप ये न समझें कि मेरा बीता समय दुखपूर्ण था. मैंने उपलब्ध परिस्थितियों को समझा, स्वयं को उसके अनुरूप बनाया और टुकड़ों में ही सही- सुख को चुन-चुन कर इकट्ठा किया और आनंदित होता रहा लेकिन जबसे होश सम्हाला तब से आज तक आर्थिक विषमताओं और तनाव के पहाड़ ढोते-ढोते अब मैं थक गया. मृत्यु के लिए सामान जोड़ते-जोड़ते मेरी हिम्मत हार गई है, अब मैं जीना चाहता हूँ. यह पत्र मैं आपको इसीलिए लिख रहा हूँ.
.....मैंने अपने और दूसरों के जीवन का बहुत अध्ययन किया है, दो-चार किताबें भी पढ़ी हैं इसलिए मुझे अपनी असलियत समझना ज़्यादा कठिन नहीं लगा. मुझे आपको यह बताते हुए कोई हिचकिचाहट नहीं है कि मैं पर्याप्त क्षमतावान, योग्य और व्यवहारकुशल व्यक्ति हूँ लेकिन अपने दोषों के प्रति भी सजग हूँ जैसे- आज के व्यवारिक जगत के अनुकूल न होना, सहज ही दूसरों पर भरोसा कर लेना, अपने मन को मार लेना, अपनी तकलीफें सामान्यतया न कहना.
मैं पचास वर्ष बाद आज जो कुछ हूँ वह मेरा स्वयं का निर्माण है जिससे मैं संतुष्ट हूँ. मुझे स्वयं से या किसी दूसरे से कुछ शिकायत भी नहीं है, परन्तु अब मुझे अपना शेष जीवन शांति से व्यतीत करना है, बच्चे बड़े हो गए हैं- उनको व्यवस्थित करना है ताकि उनके भविष्य पर मेरे अपने जीवन के हास्यास्पद पारिवारिक प्रयोगों की काली छाया न पड़े.
मैं बिलासपुर छोड़ना चाहता हूँ. यह भावुकता से लिया गया निर्णय नहीं है, मैंने शुरू में ही लिखा कि इस पत्र का व्यवहारिक आधार भी है. यह न समझें कि मैं भगोड़ा हूँ क्योंकि मैंने इस वीभत्स पारिवारिक वातावरण को लंबे समय तक भोगा है, अब हार गया हूँ. हिम्मत जवाब दे गई. जिनके आस-पास मैं हूँ- उनको मेरी आँखें देखें- मेरा मन यह भी नहीं चाहता इसलिए दूर जाना चाहता हूँ. यदि कुछ समय यहां और रह गया तो संभव है कि आपको मुझे किसी मानसिक रोग के चिकित्सालय में ले जाने का कष्ट उठाना पड़े. आप सोच रहे होंगे कि ऐसी क्या बात है ? मुझसे कुछ न पूछें क्योंकि किसी की मैं क्या शिकायत करूँ, क्यों स्वयं को छोटा बनाऊँ ?
.....मुझे समझ में आ गया की आशाएँ नदी की रेत में कुछ लिखने जैसा भ्रम है, सब छलावा है. मैं अपने सारे प्रयासों के बाद भी संयुक्त कुटुम्ब के प्रति अपने उत्तरदायित्व को नहीं निभा पाया.
एक धन्यवाद आपको दे दूँ, छोटे-मोटे तो बहुत से हैं लेकिन एक बड़ा उपकार आपने मुझपर किया जो आपने मेरी पत्नी के रूप में माधुरी का चयन किया. अपनी यूनिट में हम लोग अत्यंत प्रसन्न और संतुष्ट हैं. इसका पूरा श्रेय आपको है.
एक उपकार और करें, आप पहल करके मुझे इस शहर से विदा करने में मेरी सहायता करें. मित्रविहार का घर यदि बाजार में बेचूंगा तो परिवार की बदनामी होगी, बेहतर है इसे आप ले लें. देनदारी चुकाने के बाद जो कुछ बचेगा उससे मैं अपना भविष्य बना लूंगा, चला लूँगा. बस, मुझे मुक्ति दिलवा दीजिए. तीनों बच्चों में अच्छी सम्भावनाएँ हैं, आपके आशीर्वाद से वहाँ सब व्यवस्थित हो जाएगा, कहीं कोई तकलीफ़ महसूस हुई तो मैं आपका पुत्र जैसा हूँ- आपको याद कर लूंगा.
प्लीज़, मुझे इस अन्धी गुफ़ा से मुक्त करवाइए.
आपका,
द्वारिका
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कोई मनुष्य जब सफलता के आसमान में उड़ते रहता है तो उसे हर असफल व्यक्ति मूर्ख और कामचोर समझ में आता है॰ उसे लगता है- 'बताओ, सफलता कितनी आसान बात है, कोई भला असफल क्यों है ? यह ज़रूर कमअक्ल या आलसी है.' पंजाब की एक कहावत है- 'ज़िंदे घर दाणें, वे कमले बी स्याणें' अर्थात जिनके घर में दाणे यानी धन है वहाँ के कम अक्ल भी सयाने (समझदार) हैं॰ मैंने अनेक मूर्खों को सफलता के पायदान में चढ़ते देखा है॰ लोग उन्हें हुनरमंद और होशियार मानते हैं. आप गौर करिएगा, किसी भी सफल व्यक्ति में आत्ममुग्धता भरपूर रहती है, उसका आत्मविश्वास हर समय शिखर पर रहता है, आवाज़ में दम रहता है, उसके बीवी-बच्चों की लोग बड़ी इज्ज़त करते हैं वहीं पर असफल व्यक्ति आत्महीनता का शिकार रहता है, आवाज कमजोर रहती है, उसकी बीवी 'सबकी भौजाई' होती है, उसके बच्चों के साथ लोग घटिया हरकतें करते हैं. समर्थ लोग असमर्थों का बहुमुखी शोषण करना अपना स्वयंसिद्ध अधिकार समझते हैं. यह सुनी-सुनाई नहीं, आपको आपबीती बता रहा हूँ.
जो धनवान है, बलवान है या पद-वान है, परिवार में उसी का दबदबा रहता है. उसकी पसंद या नापसंद का ध्यान रखा जाता है, 'किसी बात पर वे नाराज़ न हो जाएं, कहीं बुरा न मान जाएं'- ऐसी सतर्कता बरती जाती है. मुद्दा अधिक महत्व का हो या कम महत्व का- उसकी राय ली जाती है और निर्णय लेते समय उसकी राय को प्राथमिकता भी दी जाती है जबकि धनहीन, बलहीन और पदहीन व्यक्ति 'दो कौड़ी का आदमी' माना जाता है. कुछ पूछना दूर की बात है, उसे बताना भी ज़रूरी नहीं समझा जाता. यदि परिवार की किसी चर्चा में वह चुपचाप सुनते रहता है तो उससे कहा जाता है- 'यहाँ क्यों खड़े हो !'
मैंने 'सफलता के सूत्र' विषय पर अनेक प्रशिक्षण कार्यक्रम किए हैं, उन सूत्रों को मैं जानता हूँ, सबको बताता-समझाता भी हूँ लेकिन अपने और अन्य परिचितों के जीवन का अध्ययन करने पर मैंने यह पाया कि किसी को भी चौतरफ़ा सफलता नहीं मिलती॰ मनुष्य जब किसी एक क्षेत्र में सफल होता है तो अन्य क्षेत्र उसकी पकड़ से फिसल जाते हैं॰ अड़चन यह है कि सबको सब कुछ चाहिए लेकिन ऐसा नहीं होता है॰ आप ध्यान दीजिए, पैसे और राजनीति के पीछे दौड़ने वाला व्यक्ति पारिवारिक सुख से वंचित हो जाता है, परिवार का ध्यान रखने वाला व्यक्ति सांसारिक विफलताओं का शिकार बन जाता है॰ जिसकी रुचि साहित्य और कला की ओर विकसित हो जाती है वह अपनी काल्पनिक दुनिया से भटककर यश और प्रसिद्धि की जंजीरों में कैद हो जाता है, वहीं पर जिसकी रुचि आध्यात्म या भक्तिभाव से जुड़ जाती है वह स्वयं की या भगवान की खोज में अपना जीवन समर्पित कर देता है॰ हाँ, कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो सभी क्षेत्रों में हाथ आजमाते हैं- वे कहीं के नहीं रह जाते॰ मैं इसी आखिरी 'डिजाइन' का इन्सान हूँ॰ यह भी कर लूँ, वह भी कर लूँ- के चक्कर में मुझे न खुदा मिला न विसाल-ए-यार॰
'असुविधा' कम समय का कष्ट होता है; जब असुविधा लंबे समय तक चलती है तो उस स्थिति को बोल-चाल में कहते हैं- 'तकलीफ चल रही है'; उससे भी अधिक समय लगने पर वह स्थिति 'संकट' कहलाती है और जब संकट की गंभीरता बढ़ जाती है तो उसे 'विपत्ति' कहते हैं॰ विपत्ति भी जब व्यापक रूप धारण कर लेती है तो वह 'आपदा' हो जाती है॰ मेरी पारिवारिक इकाई में आपदा तब आती जब मैं अनुपस्थित हो जाता यानी मेरी स्वाभाविक मृत्यु हो जाती या मैं आत्महत्या करके चुपचाप निकल लेता लेकिन मृत्यु आई नहीं और आत्महत्या करने वालों में से मैं था नहीं ! उस समय मेरी उम्र 52 वर्ष की हो चुकी थी लेकिन हौसले जवान थे॰
बिलासपुर में चल रहे टीवी और फर्नीचर के व्यापार से हो रही आय मेरे तालाब को चुल्लू भर पानी से भर देने जैसा उपक्रम था॰ उस विपत्ति से निकलने का उपाय यही था कि घर बेचकर कर्ज़ पटाया जाए और प्रशिक्षण के क्षेत्र में आगे बढ़ा जाए क्योंकि उस व्यवसाय में मुझे अच्छी संभावनाएं समझ में आ रही थी॰ प्रशिक्षण का व्यवसाय हमारे भविष्य को सँवार देता और महानगर में बच्चों को पढ़ाई के लिए बेहतर माहौल मिलता॰ इसके लिए ज़रूरी था कि राष्ट्रीय स्तर पर काम करने के लिए किसी प्रसिद्ध नगर में ठिकाना बनाया जाए ताकि 'कारपोरेट सेक्टर' में 'बड़े शहर' के नाम का प्रभाव डाला जा सके॰ इन बड़े शहर के अनेक नामी प्रशिक्षकों का काम मैं इधर-उधर देखते रहता था, उन्हें सिर्फ़ उनके शहर के नाम के कारण दाम मिलता था॰ उनमें से लखनऊ के सत्तर वर्षीय राजेंद्र प्रसाद ने अपनी प्रशिक्षण शैली से मुझे बहुत प्रभावित किया, उनका समझने का तरीका और विषयवस्तु सच में मोहक थी लेकिन उनके अतिरिक्त मैंने कई नामी शहर के प्रशिक्षकों के प्रस्तुतीकरण देखे-सुने, वे मुझे प्रशिक्षण का व्यापार करते समझ आए॰ 'पावर पाइंट' पर लिखे गए शब्दों को अंधेरे में पढ़ना और उसे दो-चार वाक्यों में बढ़ाकर बता देना- प्रशिक्षण देना नहीं, सामने वाले को मूर्ख समझना है॰ प्रशिक्षण का अभिप्राय मात्र जानकारी बढ़ाना नहीं वरन प्रशिक्षु को प्रभावित करना होता है ताकि उसमें अपेक्षित परिवर्तन आ सके॰
मेरी इस बात को 'अपने मुंह मियाँ मिट्ठू' मत समझिएगा, मैं उन लोगों के काम से काफी आगे था॰ किसी नई जगह बसने के हिसाब से पुणे हर कोण से मुझे सर्वाधिक सही समझ आया इसलिए एक दिन हम दोनों सात-आठ सौ रुपए का जुगाड़ करके पुणे का चक्कर लगाने पहुँच गए॰
मेरी इस बात को 'अपने मुंह मियाँ मिट्ठू' मत समझिएगा, मैं उन लोगों के काम से काफी आगे था॰ किसी नई जगह बसने के हिसाब से पुणे हर कोण से मुझे सर्वाधिक सही समझ आया इसलिए एक दिन हम दोनों सात-आठ सौ रुपए का जुगाड़ करके पुणे का चक्कर लगाने पहुँच गए॰
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हम दोनों पुणे पहुँच गए। स्टेशन के सामने बनी धर्मशाला में रुक गए जो केवल इलाज़ करवाने आए मरीजों के लिए थी। किराया ६५/- प्रतिदिन था। यह अच्छा हुआ कि प्रबन्धक ने हमसे बीमारी का नाम नहीं पूछा और हम झूठ बोलने से बच गए। छः-सात घण्टे बाद हमारी बेटी संगीता भी इंदौर से बस द्वारा पुणे पहुँच गई। वहाँ हमारी पूर्व परिचित श्रीमति सुमन रवीन्द्रनाथ ने हमें पुणे के अनेक व्यापारिक और आवासीय स्थल दिखाए और भरपूर साथ दिया। मुझे वह शहर भा गया। खुला-खुला माहौल, मनमोहक मौसम, नियमित सांस्कृतिक- साहित्यिक गतिविधियां और पढ़ाई-लिखाई की उत्कृष्ट व्यवस्था देखकर दिल हो रहा था कि तुरन्त बोरिया-बिस्तर ले आऊँ और यहीं बस जाऊँ। माधुरी हिचक रही थी, नई जगह, मराठी भाषा न समझ पाने की परेशानी और 'इतने बड़े शहर में अपने पैर कैसे जमाओगे !'- का डर। मुझे कोई डर न था। यह संभव था कि प्रशिक्षण का व्यवसाय जमने में साल-दो-साल लगता, तब तक वहाँ किसी ठेले में पकौड़े-चाय बेच लेते और समय बिता लेते। पुणे में मुझे कौन जानता है कि यह ठेलेवाला द्वारिकाप्रसाद अग्रवाल 'सर्टिफाइड ट्रेनर जे॰सी॰आई॰' है जो देश के कारपोरेट सेक्टर में प्रबन्धकों को प्रबंधन सिखाता है या; यहाँ मेरे पिता सेठ रामप्रसाद को कौन जानता है जो इस बात का डर हो कि कोई क्या कहेगा, इतने बड़े आदमी का बेटा चाय-पकौड़े बेच रहा है ? मेरा अनुमान था कि 'पुणे' का नाम अपना असर दिखाएगा और प्रशिक्षण का काम जल्द ही जम जाएगा फिर ठेले से मुक्ति मिल जाएगी।
मेरे भीतर से आवाज आ रही थी कि शहर बदलने में ही कल्याण है लेकिन माधुरी 'फिफ़्टी-फिफ़्टी' चल रही थी। संगीता ने कोई प्रतिक्रिया नहीं की, वह घूमती-फिरती चुपचाप सब देखती रही। तीन दिन के प्रवास के पश्चात हम लोग बिलासपुर के लिए आज़ाद-हिन्द एक्स्प्रेस से शाम को रवाना हो गए। रास्ते में एक स्टेशन आया, दौड़, जहाँ से लोगों की भीड़ का एक रेला चढ़ा। उन्होने हमें धक्का दिया, बेअदबी की और हमारी बर्थ में बलात घुस गए। उन्होंने हम सबको सिकुड़कर कोने में बैठने और रात भर जागने के लिए के लिए मजबूर कर दिया। ये लोग हमारे ही देशवासी थे, बिना टिकट थे, बाबासाहब अंबेडकर के अनुयायी थे जो नागपुर में आयोजित होनेवाले भगवान बुद्ध की स्मृति में होने वाले किसी कार्यक्रम में भाग लेने जा रहे थे। वे सब 'कोच' में इतनी बड़ी संख्या में आकर घुस गए कि 'बर्थ' के मायने बदल गए, नीचे पैर रखने की जगह न रही और अगले दिन १२ बजे दोपहर तक, जब तक नागपुर न आया, 'तालाबंदी' की दशा में बैठे-बैठे हम इस अराजक देश में जन्म लेने को मन-ही मन कोसते रहे। चाय और पानी तक न पी सके क्योंकि सुबह का नित्यकर्म ही न हो पाया था, चाय-पानी लेने से संकट और प्रगाढ़ हो जाता।
नागपुर आया, हम सब 'टायलेट' भागे तब जान-पे-जान आई। टायलेट से वापस आकर 'टावेल' से चेहरा पोछते हुए माधुरी ने अपना निर्णय सुनाया- 'नहीं आना हमें इधर, अपना बिलासपुर ही अच्छा है।' इस प्रकार डेरा बदलने का अर्धविकसित प्रयास निष्फल हो गया और हम लोग बिलासपुर में ही चिपके रह गए। हमारा घर भी नहीं बिक पाया क्योंकि बड़े भैया ने मेरे पत्र का कोई उत्तर ही नहीं दिया, मैंने उनसे कभी पूछा भी नहीं। श्रीकांत वर्मा की इस कविता को पढिए :
मेरे भीतर से आवाज आ रही थी कि शहर बदलने में ही कल्याण है लेकिन माधुरी 'फिफ़्टी-फिफ़्टी' चल रही थी। संगीता ने कोई प्रतिक्रिया नहीं की, वह घूमती-फिरती चुपचाप सब देखती रही। तीन दिन के प्रवास के पश्चात हम लोग बिलासपुर के लिए आज़ाद-हिन्द एक्स्प्रेस से शाम को रवाना हो गए। रास्ते में एक स्टेशन आया, दौड़, जहाँ से लोगों की भीड़ का एक रेला चढ़ा। उन्होने हमें धक्का दिया, बेअदबी की और हमारी बर्थ में बलात घुस गए। उन्होंने हम सबको सिकुड़कर कोने में बैठने और रात भर जागने के लिए के लिए मजबूर कर दिया। ये लोग हमारे ही देशवासी थे, बिना टिकट थे, बाबासाहब अंबेडकर के अनुयायी थे जो नागपुर में आयोजित होनेवाले भगवान बुद्ध की स्मृति में होने वाले किसी कार्यक्रम में भाग लेने जा रहे थे। वे सब 'कोच' में इतनी बड़ी संख्या में आकर घुस गए कि 'बर्थ' के मायने बदल गए, नीचे पैर रखने की जगह न रही और अगले दिन १२ बजे दोपहर तक, जब तक नागपुर न आया, 'तालाबंदी' की दशा में बैठे-बैठे हम इस अराजक देश में जन्म लेने को मन-ही मन कोसते रहे। चाय और पानी तक न पी सके क्योंकि सुबह का नित्यकर्म ही न हो पाया था, चाय-पानी लेने से संकट और प्रगाढ़ हो जाता।
नागपुर आया, हम सब 'टायलेट' भागे तब जान-पे-जान आई। टायलेट से वापस आकर 'टावेल' से चेहरा पोछते हुए माधुरी ने अपना निर्णय सुनाया- 'नहीं आना हमें इधर, अपना बिलासपुर ही अच्छा है।' इस प्रकार डेरा बदलने का अर्धविकसित प्रयास निष्फल हो गया और हम लोग बिलासपुर में ही चिपके रह गए। हमारा घर भी नहीं बिक पाया क्योंकि बड़े भैया ने मेरे पत्र का कोई उत्तर ही नहीं दिया, मैंने उनसे कभी पूछा भी नहीं। श्रीकांत वर्मा की इस कविता को पढिए :
"मैं तो तक्षशिला जा रहा हूँ
तुम कहाँ जा रहे हो ?
नालन्दा।
नहीं,
यह रास्ता नालन्दा नहीं जाता
कभी जाता था नालन्दा,
अब नहीं।
नालन्दा ने अपना रास्ता बदल दिया
अब इस रास्ते से नालन्दा नहीं
तक्षशिला पहुंचोगे तुम
चलना है तक्षशिला ?
नालन्दा जानेवाले मित्रों,
प्रायः
यही होता है,
बताए गए रास्ते
वहाँ नहीं जाते
जहाँ
हम पहुँचना चाहते हैं -
जैसे
नालन्दा। "
नालन्दा। "
आपके ये AAA तो जिंदगी की बाजी इ तीन इक्के हैं । बहुत खूब ।
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