मंगलवार, 19 मई 2015

#पल पल ये पल

     
 पूर्वावलोकन   
                                                                      
          आमतौर पर लोकप्रिय राजनेताओं, प्रसिद्ध साहित्यकारों और समाजसेवियों द्वारा आत्मकथाएँ लिखी गई हैं। ये आत्मकथाएँ पाठकों के लिए प्रेरणास्रोत बनी लेकिन इस दुनियां में अधिकतर लोग सामान्य जीवन जीते हैं, बड़ी सफलता सबको हासिल नहीं होती। सफलता के लिए जिद चाहिए, मौके चाहिए, मौके का फायदा उठाने का हुनर चाहिए तब कहीं जाकर कोई सितारा ध्रुवतारा बनता है। सवाल यह है कि क्या किसी औसत व्यक्ति की जीवनकथा में वे तत्व नहीं होते जो सफल व्यक्तियों की कथा में होते हैं ?
          सफलता न सही, असफलता की कहानियाँ और उसके कारण हमें आत्मविश्लेषण का अवसर देते हैं और जीवन में चल रहे व्यक्तिगत संघर्ष में हो रही चूक की ओर इशारा करते हैं। मोहनदास करमचंद गांधी ने कहा था- ‘गल्तियाँ करके हम कुछ-न-कुछ सीखते हैं लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हम गल्तियाँ करते रहें और कहें कि हम सीख रहे हैं।'
          आत्मकथा लिखना, नंगे हाथों से 440 वोल्ट का करंट छूने जैसा खतरनाक काम है। कथा सबकी होती है लेकिन जब उसे सार्वजनिक रूप दिया जाता है तो वह अत्यंत चुनौतीपूर्ण हो जाती है। क्या बताएँ, क्या न बताएँ ? बताएँ तो किस तरह, छुपाएँ तो कैसे ? अतीत की घटनाओं का शब्दचित्रण, अपनी कमजोरियों और विशेषताओं का तटस्थ विवेचन, घटनाओं से जुड़े लोगों की निजता और भावनाओं का सम्मान- ऐसा कार्य है जैसे युद्धक्षेत्र में योद्धा अपने प्राण देने को तैयार हो लेकिन उसे सामने वाले के प्राण लेने में संकोच हो रहा हो।
          मुझे लगता है, आपको अपने जीवन में घटित सब कुछ बता दूं तब मेरे जी में जी आएगा ! यादें असीमित हैं, बताना बहुत कुछ है लेकिन सम्प्रेषण की बाधाएं है, शब्दों की विवशता भी है। मेरे सामने मुश्किल यह भी है कि मैंने जो आंसू बहाए हैं उन्हें आपको कैसे दिखाऊँ ? मैंने जो खुशियाँ पाई हैं उन्हें आपको कैसे महसूस कराऊँ ?
         यह आत्मकथा उन लोगों के लिए रौशनी की एक किरण बन सकती है जो अपनी जिन्दगी को खुशी से बिताना चाहते हैं, उसका मूल्य भी देना चाहते हैं लेकिन अपने आसपास के लोगों को समझा नहीं पा रहे हैं कि वे दरअसल क्या चाहते हैं ?
          आत्मकथा के प्रथम खंड 'कहाँ शुरू कहाँ खत्म' में मेरे बचपन से 33 वर्ष तक की उम्र की घटनाओं का समावेश था। इस द्वितीय खंड 'पल पल ये पल' में उसके बाद के 18 वर्षों की बातें हैं। मुझे उम्मीद है कि आप इस कालखंड की मेरी ज़िंदगी को पढ़कर एक आम मध्यमवर्गीय संयुक्त परिवार से जुड़े व्यापारी के दुख-सुख और उसकी मनस्थिति को सहज समझ पाएंगे।
          वैसे, किसी अनजाने से साधारण व्यक्ति की कथा से जुड़ने के आपके साहस और धैर्य को मैं प्रणाम कर रहा हूँ।      


                                                  ऐसा भी होता है 

          हमारे जीवन की यादों की बारात जब स्वागत द्वार के समीप होती है तब तक बारात की उछल-कूद, नाचना-गाना, बेंड-बाजा और गहमा-गहमी शान्त हो चुकी होती है; नाचने वाले थक जाते हैं, दूल्हा थक जाता है, घोड़ी थक जाती है और इंतज़ार करते-करते दुल्हन भी थक जाती है। जीवन की बारात में, जवानी में सब ओर हरियाली नज़र आती है लेकिन जब बुढ़ापा जीवन का स्पर्श करता है तब लाचारी बढ़ती है। बुढ़ापा सहारा खोजता है और सहारा देने वाले, सहारा न दे सकने के बहाने। कृष्ण बलदेव वैद के नाटक 'हमारी बुढ़िया' के कुछ अंश पढ़िए :

'सच तो यह है कि हम अपनी माँ से नफ़रत करते हैं.
उसकी महक हमें पसंद नहीं,
उसकी बहक हमें पसंद नहीं,
उसकी पोशाक हमें पसंद नहीं,
उसकी खूराक़ हमें पसंद नहीं,
उसकी खाँसी हमें पसंद नहीं,
उसकी हँसी हमें पसंद नहीं,
उसका गाना हमें पसंद नहीं,
उसका रोना हमें पसंद नहीं।

उसकी कहानियों से उबकाई होती है,
उसकी शिकायतों से ऊब होती है,
उसकी शेखियाँ हमें पसंद नहीं,
उसके आदेश हमें अखरते हैं,
उसके पकवान हमें जंचते नहीं,
उसके उपदेश हमें पचते नहीं,
उसके ढंग हमें ढोंगी नज़र आते हैं,
उसके रंग भड़कीले नज़र आते हैं,
उसकी बोलियाँ हम समझ नहीं पाते,
उसकी भाषा हम बोल नहीं पाते,
उसकी ढाल में सुस्ती है,
उसका सोच पुराना है,
और ये नया ज़माना है,
सच तो यह है कि वह दकियानूस है,
हमें ये सब सच बोलने वाले नहीं चाहिए।

तो क्या यही हमारी माता है ?
पास जाकर देखना चाहिए,
पास गए तो फिर पीछे हटना मुश्किल होगा,
वैसे ही मान लेना चाहिए,
मान लेंगे तो कुछ करना ज़रूरी हो जाएगा,
मिसाल के तौर पर इसे घर ले जाना,
इसकी देखभाल करना,
इसे दवा-दारू देना,
इसके बाल बनाना,
नाखून काटना,
इसे सैर कराना,
इससे बातें करना,
इसकी बात मानना,
इसकी बातें सुनना,
और उनको सहना,
और उनको समझना,
(क्या) ये सब हमसे हो पाएगा ?"

             मेरी माँ को सन 1966 में गर्भाशय में केन्सर हुआ था, सर्जरी सफल रही और उनकी ज़िन्दगी मज़े से चलती रही। कुछ वर्षों बाद उन्हें 'डायबिटीज' ने आ घेरा, फिर 'हाई ब्लड प्रेशर' हो गया, 'किडनी' में दोष आ गया और बुढ़ापा भी आ पहुंचा। नियमित दवा, चार-छः दिन के अंतराल में डॉक्टर को घर लाकर उन्हें दिखाना, उनके अशक्त होते शरीर और मन को सम्हालना। वहीं पर, दद्दाजी सत्तर वर्ष के हो गए थे, स्वस्थ थे, आवाज़ कड़क, गुस्सा बेमिसाल और मष्तिष्क पूर्णतः जागृत, प्रतिदिन भोजन के अतिरिक्त एक पाव मलाई और आधा सेर गाढ़ा दूध पीते थे।
           परिवार में मंझले होने की दुर्दशा वही जानता है जिसने मंझलापन झेला हो। आम तौर पर वह 'फ़ुटबाल ग्राउंड' के फ़ुटबाल की तरह होता है जिसे दोनों टीमों के खिलाड़ी लतियाते हैं; उसे गोल में भेजा जा सकता है लेकिन वह गोल कर नहीं सकता। वह पर्वतों के मध्य वृष्टिछाया के क्षेत्र की भाँति सदैव सूखे का शिकार रहता है। पौराणिक आख्यान रामायण में लक्ष्मण और भरत मंझले होने के कारण ही उपेक्षित और 'अन्डर-असेस' हुए। मेरा विचार है कि संसार के समस्त मंझले लड़कों और लड़कियों को 'यूनियन' बनाकर अपनी दुर्दशा के विरुद्ध आवाज़ उठाना चाहिए। ऐसा नहीं है कि बड़े या छोटे को कष्ट न होते हों, उनकी तकलीफ वे जानें परन्तु मैंने एक भाई का छोटा और एक का बड़ा बनकर भी देखा है- जो मुसीबत मंझले पर आती है वह अवर्णनीय है।
          मैं अपनी पारिवारिक ज़िम्मेदारी समझता था पर घटनाएँ ऐसी प्रतिकूल घट रही थी कि मेरा घर में टिके रहना मुश्किल होता जा रहा था। एक दिन घर छोड़ने का दिन आ ही गया। दद्दाजी ने कहा- 'तुम अपनी कहीं अलग व्यवस्था कर लो।'
          ऐसी धमकी वे कई बार दे चुके थे लेकिन मेरा कर्तव्यबोध उसे अनसुना कर दिया करता था परन्तु इस बार मैंने उसे गंभीरता से ले लिया, फ़ैसला ले लिया कि अब इस घर में नहीं रहूँगा- बहुत निभा लिया। मैं इतना दुखी था कि जिस परिवार को मैंने अपना जीवन सौंप दिया, अपनी अभिलाषाएँ समर्पित कर दी, मुफ्त के नौकर की तरह सेवाएँ दी, उस तेरह कमरे वाले तीन मंजिला घर में ऐसी परिस्थितियों ने घर बना लिया कि उसमें हमारे लिए जगह न बची। आपके मन में यह प्रश्न अवश्य उठ रहा होगा- 'आख़िर ऐसा क्या हुआ ?'
          यदि मुझे इस कथा में काल्पनिक घटनाओं को भी साथ में पिरोना होता तो 'आत्मकथा' नहीं, एक साधारण कहानी लिखनी थी जिसमें घटनाक्रम किसी छद्म नाम के नायक के आसपास घूमते रहता जैसे अज्ञेय की 'शेखर एक जीवनी' या धर्मवीर भारती की 'गुनाहों का देवता' आदि। उस स्थिति में लेखक की कलम बेधड़क चलती है वह कुछ भी लिख सकता है परन्तु मैं इस कथा में अपने नाम का उपयोग कर रहा हूँ इसलिए स्वयं को सीमाबद्ध करना ज़रूरी है। दूसरों पर गलतियां थोप कर स्वयं को निर्दोष बताना- राजनीति में चलता है लेकिन परिवार-नीति में नहीं। चलिए, मैं मान लेता हूँ कि ज़रूर मेरी ही गलतियां रही होंगी जो 'मेरे घर-परिवार' से अलग होने की नौबत सामने आ गई।
           माधुरी को जब मैंने अपना निर्णय सुनाया तो वे भौंचक रह गई- 'अरे, ये कैसी बात  कर रहे हो ?'
'दद्दाजी ने घर से जाने के लिए कह दिया।' मैंने बताया।
'सुबह मैंने दद्दाजी को नाराज होते सुना था पर वह तो रोज की बात है। वो तो तुमको आज के पहले दस बार घर से निकालने की बात कह चुके हैं, आज तुम्हें क्या हो गया है ?'
'माधुरी, अब मेरा इस घर में बने रहना मुझे दुष्कर लग रहा है, मैं नहीं रहूँगा।'
'क्या बात करते हो ?' वे मुझ पर बिगड़ गई- 'अम्मा को कौन सम्हालेगा, दद्दाजी को कौन देखेगा, खाना कौन बनाएगा ? तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है क्या ?'
'नहीं, अब इस घर से मेरा दाना-पानी खत्म, मैंने किराए का एक घर देख लिया है।'
'नहीं, तुम फिर से सोचो, अभी गुस्से में हो, ये तुम ठीक नहीं कर रहे हो।' माधुरी ने मेरा प्रतिवाद किया।
          सोचते-समझते, अपने धैर्य की परीक्षा देते मैं सैंतीस वर्ष का हो गया था। ये अतीत सहते-निभाते बीता, अब माधुरी कह रही हैं- 'तुम फिर से सोचो'।  क्या अब भी सोचने के लिए कुछ और बचा है ?
          मैं अपने परिवार का ही अंग था, अपने-पराए का कोई भाव मेरे मन में कभी नहीं आया। 'पेंड्रावाला' में मैंने मालिक की हैसियत से नहीं, वरन अपने पारिवारिक व्यापार के 'ट्रस्टी' की भूमिका में परिश्रम और ईमानदारी से काम किया। इस बीच ऐसी अनेक पारिवारिक परिस्थितियाँ बनी जिसके कारण हमारा उस घर में रहना असहज हो गया। कुल मिलाकर उन सब के समवेत प्रभाव से मेरे 'गृह निष्कासन' की पटकथा तैयार थी, केवल मंचन शेष रह गया था।
         मेरा जिस परिवार में जन्म हुआ, जिनके सहयोग से मैं बड़ा हुआ, जिनके साथ मैं सैंतीस वर्षों तक जुड़ा रहा- उस परिवार से दूर होने का समय आ पहुँचा। जब तक परिवार में रहा, यथाशक्ति परिवार के लिए काम करता रहा, निस्पृह भाव से। मैं सोचता था कि 'गब्बर खुस होगा, सबासी देगा' लेकिन गब्बर ने कहा- 'ले, अब गोली खा।'
         दद्दाजी ने घर से जाने के लिए कह दिया, मैंने घर छोड़ने का निर्णय ले लिया, माधुरी ने पुनर्विचार का अनुरोध किया लेकिन घर मेरे लिए यातनागृह बन चुका था, मैं मुक्त होना चाहता था।
         मुक्त तो होना चाहता था लेकिन सवाल ये था कि जाऊँ कैसे ? उसी घर में मेरा जन्म हुआ था, उसी वृक्ष की छाँव में बचपन बीता, युवा हुआ, विवाह हुआ, हमारे बच्चे हुए, क्या उससे विलग होना आसान है ? एक दिन बीता फिर दो, तीन, चार, पांच और छः दिन लेकिन घर से जाने की हिम्मत न हो। मेरी हालत यह थी कि न निगलते बन रहा था, न उगलते।
         एक दिन दद्दा जी ने माधुरी के गहने अम्मा के माध्यम से वापस करवा दिए, घर के सब गहने उनकी 'कस्टडी' में रहते थे। रात को जब मैं घर आया तो माधुरी ने मुझसे पूछा- 'तुमने गहने के लिए कहा था क्या ?
'नहीं।' मैंने बताया।
'तो फिर दद्दाजी ने मेरे गहने क्यों भेजे ?'
'मुझे पता नहीं हैं।'
'फिर मैं क्या करूँ ?'
'भेजे है तो रख लो, बात बढ़ाने से कोई लाभ नहीं, वैसे ही स्थिति विस्फोटक है, ऐसे में अर्थ का अनर्थ हो सकता है।'
'तुमने क्या सोचा ?'
'सोच लिया, अब इस घर में नहीं रहना।'
'तो फिर अटक क्यों गए हो ?' माधुरी ने प्रश्न किया। उसके प्रश्न के उत्तर में मैं रो पड़ा। जब मेरा रुदन शांत हो गया तो उसने पूछा- 'क्या हुआ ?'
'मैं इस घर से कैसे जाऊं, तुम बताओ ? मैंने कभी नहीं सोचा था कि ऐसा होगा, मैं तो सोचता था कि इस घर से मेरी अर्थी निकलेगी।'
'तो मत जाओ, मैं तो तुमको कब से कह रही हूँ।'
         वे सो गई, मैं बेचैन था, नींद नहीं आ रही थी। मैंने पान की पुड़िया खोली, उसमें से एक पान निकाल कर खाया और आचार्य रजनीश के प्रवचन की एक पुस्तक पढ़ने लगा। लगभग दो घंटे बीत गए, किसी प्रसंग को समझाते हुए आचार्य ने एक उदाहरण दिया- 'जानते हो कि बहेलिया पक्षी को कैसे पकड़ता है ? पेड़ की शाखा में वह बांस की एक पतली डंडी को एक विशेष ढंग से इस तरह बांधता है कि जैसे ही पक्षी उस पर बैठता है, बांस की डंडी उलट जाती है इसलिए पक्षी भी उलटा हो जाता है। उलटते ही वह उसे और अधिक जोर से पकड लेता है, वह भूल जाता है कि उसके पास पंख है जिसकी सहायता से वह उड़ सकता है, भाग सकता है, बच सकता है लेकिन भय उसे वैसा समझने का अवसर नहीं देता और इसी कारण वह बहेलिया की पकड़ में आ जाता है।'
         उस समय रात को डेढ़ बज चुके थे, माधुरी गहरी नींद में थी, मैंने उन्हें जगाया, वे चौंककर उठी और पूछा- 'क्या हुआ ?'
'कल अपन ये घर छोड़ देंगें।'
'इतनी रात को यह बताने के लिए जगाया ?'
'तुम्हें अभी बताना ज़रूरी लगा।'
         2 मई 1984 को दोपहर भोजन के पश्चात हमने अपने और बच्चों के कपडे दो सूटकेस में भरे, हम सब ने बारी-बारी अम्मा के पैर छुए, वे रो पड़ी। हमारे साथ नीचे दद्दाजी के पास आई और उनसे कहा- 'रोका इन्हीं, बहू सुबह से लेकर रात तक घर में लगी रहत ह, इनखर कारन तुम्ही खांय का मिलत ह य जई तो मोसे कुछू न होई, मोरे भरोसे तुम्ही खिचिड़ियौ न मिली।'
         दद्दाजी गुस्से में थे, कोई जवाब नहीं दिया। हमने उनके पैर छुए और चुपचाप अपने तीनों बच्चों के साथ घर से निकल गए।
         मैं अपना घर छोड़कर दुखी भी नहीं था, प्रसन्न भी नहीं। जैसे मेरे उस घर से जुड़े दुःख और सुख उसी क्षण विलीन हो गए। समय ने बड़ा निर्णय लिया था, संभवतः वह मुझे अपनी कसौटी में कसना चाहता था।
         गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर की बांग्ला काव्य रचना 'गीतांजलि' की कविता 'बिपदा मोरे रोक्खा कोरो' ने मेरा आजीवन साथ दिया :   
                                                            
'प्रभो ! विपत्तियों से मेरी रक्षा करो'- यह प्रार्थना लेकर तेरे द्वार पर नहीं आया,
विपत्तियों से भयभीत न होऊं- यही वरदान दे।

अपने दुःख से व्यथित चित्त को सान्त्वना देने की भिक्षा नहीं मांगता,
दुखों पर विजय पाऊं, यही आशीर्वाद दे- यही प्रार्थना है।
तेरी सहायता मुझे न मिल सके तो भी यह वर दे कि
मैं दीनता स्वीकार करके अवश न बनूँ।

संसार के अनिष्ट-अनर्थ और छल-कपट ही मेरे भाग में आए हैं,
तो भी मेरा अंतर इन प्रताड़नाओँ के प्रभाव से क्षीण न हो।
'मुझे बचा ले'- यह प्रार्थना लेकर मैं तेरे दर पर नहीं आया,
केवल संकट सागर में तैरते रहने की शक्ति मांगता हूँ।

'मेरा भार हल्का कर दे'- यह याचना पूर्ण होने की सान्त्वना नहीं चाहता,
यह भार वहन करके चलता रहूँ- यही प्रार्थना है।
सुख भरे क्षणों में मैं नतमस्तक होकर तेरे दर्शन कर सकूँ किन्तु,
दुःख भरी रातों में जब सारी दुनियां मेरा उपहास करेगी
तब मैं शंकित न होऊं- यही वरदान चाहता हूँ।'

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          सन 1950 में बिलासपुर के तात्कालीन डिप्टी कमिश्नर (कलेक्टर) मक़बूल अहमद खां ने अखिल भारतीय कविसम्मलेन और मुशायरे की नींव रखी। अपने कार्यकाल में उन्होंने हर वर्ष दो दिन के लगातार कार्यक्रम करवाए जिसमें देश भर से नामी कवियों और शायरों को आमंत्रित किया जाता था। स्थानीय म्युनिस्पल स्कूल के मैदान में पच्चीस हज़ार लोगों के लिए बैठकर कार्यक्रम का आनंद लेने की व्यवस्था पी.डब्ल्यू.डी.के जिम्मे होती थी। उन दिनों टेन्टहाउस तो थे नहीं, शामियाना लगाने में दो सप्ताह लग जाते थे। बारिश से बचने के लिए रेल्वे के पार्सल आफिस से तारपोलिन, वनविभाग से बल्लियाँ और बाँस, स्कूल व धर्मशालाओं से दरी आदि का जुगाड़ होता था, इस प्रकार श्रोताओं के बैठने का इंतजाम किया जाता था। शहर के आसपास के सौ-पचास मील तक लोगों को कानों-कान खबर पहुँच जाती और वे इष्टमित्रों सहित बिलासपुर पहुँच जाते, रात भर रस-विभोर होकर सुनते और अत्यंत अहोभाव से कवियों, शायरों और मक़बूल अहमद खां साहब को मन-ही-मन आशीष देते अपने घर वापस चले जाते। 
          उसके बाद ऐसे आयोजनों की लोकप्रियता से प्रभावित होकर नगर की विभिन्न गणेशोत्सव और दुर्गोत्सव समितियाँ तथा कुछ नागरिक भी कविसम्मेलन आयोजित करने के लिए आगे आए जिनके सौजन्य से मेरे जैसे हज़ारों रसिक श्रोताओं ने भारत के उत्कृष्ट कवियों और शायरों को सुना। उस युग के 'सुपर स्टार' थे- गोपालदास 'नीरज' जिन्हें सुनने के लिए लोग कांपती ठण्ड में भी पूरी रात बैठे रहते और उनसे कविता सुनते। उनकी कविता- 'ऐसी क्या बात है, चलता हूँ अभी चलता हूँ; इक गीत ज़रा झूम के गा लूं तो चलूँ' और 'कारवां गुज़र गया गुबार देखते रहे'- को सुनना और महसूस करना- अद्भुत अनुभव होता था.

          सन 1963 में, जब मैं वाणिज्य स्नातक के प्रथम वर्ष में था, कवि बाबा नागार्जुन ने हमारी कक्षा में आकर कविता पाठ किया था. उस समय मेरी तुच्छ बुद्धि को यह समझ में न आया कि किस महान विभूति को मैं साक्षात सुन और देख रहा हूँ। 
          सन 1964 में अपने कॉलेज में ही मैंने कवि इन्दीवर को सुना-

                                      'एक तू न मिला सारी दुनियां मिले भी तो क्या है,
                                      मेरा दिल न खिला सारी बगिया खिले भी तो क्या है।'

                                              'कोई जब तुम्हारा ह्रदय तोड़ दे,
                                              तड़पता हुआ जब कोई छोड़ दे;
                                              तब तुम मेरे पास आना प्रिये,
                                              मेरा दर खुला है खुला ही रहेगा, 
                                              तुम्हारे लिये।'

          सन 1968 में विधि महाविद्यालय के वार्षिकोत्सव में मुझे डा.हरिवंशराय बच्चन को सुनने का सौभाग्य मिला। उन्होंने अपनी 'मधुशाला' सुनाई, एक लोकगीत भी सुनाया- 'जाओ लाओ पिया, नदिया से सोन मछरी'. उनकी इस कविता की गहराई को आप भी महसूस करें :

इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, 
उस पार न जाने क्या होगा !

यह चाँद उदित होकर नभ में /  कुछ ताप मिटाता जीवन का / लहरा-लहरा यह शाखाएँ / कुछ शोक भुला देती मन का / कल मुर्झानेवाली कलियाँ /  हँसकर कहती हैं मगन रहो / बुलबुल तरु की फुनगी पर से / संदेश सुनाती यौवन का / तुम देकर मदिरा के प्याले / मेरा मन बहला देती हो / उस पार मुझे बहलाने का /  उपचार न जाने क्या होगा ! इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा !

2
जग में रस की नदियाँ बहती / रसना दो बूंदें पाती है / जीवन की झिलमिल सी झाँकी /  नयनों के आगे आती है / स्वरतालमयी वीणा बजती /  मिलती है बस झंकार मुझे / मेरे सुमनों की गंध कहीं / यह वायु उड़ा ले जाती है /ऐसा सुनता, उस पार, प्रिये / ये साधन भी छिन जाएँगे / तब मानव की चेतनता का / आधार न जाने क्या होगा ! इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा !

3
प्याला है पर पी पाएँगे / है ज्ञात नहीं इतना हमको / इस पार नियति ने भेजा है / असमर्थ बना कितना हमको /
कहने वाले, पर कहते है / हम कर्मों में स्वाधीन सदा / करने वालों की परवशता / है ज्ञात किसे, जितनी हमको / कह तो सकते हैं, कहकर ही / कुछ दिल हलका कर लेते हैं / उस पार अभागे मानव का /  अधिकार न जाने क्या होगा ! इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा !

4
कुछ भी न किया था जब उसका / उसने पथ में काँटे बोये / वे भार दिए धर कंधों पर / जो रो-रोकर हमने ढोए /महलों के सपनों के भीतर /  जर्जर खँडहर का सत्य भरा /  उर में ऐसी हलचल भर दी / दो रात न हम सुख से सोए / अब तो हम अपने जीवन भर / उस क्रूर कठिन को कोस चुके / उस पार नियति का मानव से / व्यवहार न जाने क्या होगा ! इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा !

5
संसृति के जीवन में, सुभगे / ऐसी भी घड़ियाँ आएँगी / जब दिनकर की तमहर किरणें / तम के अन्दर छिप जाएँगी / जब निज प्रियतम का शव, रजनी / तम की चादर से ढक देगी / तब रवि-शशि-पोषित यह पृथ्वी / कितने दिन खैर मनाएगी / जब इस लंबे-चौड़े जग का / अस्तित्व न रहने पाएगा / तब हम दोनों का नन्हा-सा 
संसार न जाने क्या होगा ! इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा !

6
ऐसा चिर पतझड़ आएगा / कोयल न कुहुक फिर पाएगी / बुलबुल न अंधेरे में गा गा / जीवन की ज्योति जगाएगी / अगणित मृदु-नव पल्लव के स्वर /  ‘मरमर' न सुने फिर जाएँगे / अलि-अवली कलि-दल पर गुंजन 
करने के हेतु न आएगी / जब इतनी रसमय ध्वनियों का /  अवसान, प्रिये, हो जाएगा / तब शुष्क हमारे कंठो का / उदगार न जाने क्या होगा! इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!

7
सुन काल प्रबल का गुरु-गर्जन / निर्झरिणी भूलेगी नर्तन / निर्झर भूलेगा निज ‘टलमल' / सरिता अपना ‘कलकल' गायन / वह गायक-नायक सिन्धु कहीं / चुप हो छिप जाना चाहेगा / मुँह खोल खड़े रह जाएँगे गंधर्व, अप्सरा, किन्नरगण / संगीत सजीव हुआ जिनमें / जब मौन वही हो जाएँगे / तब, प्राण, तुम्हारी तंत्री का / जड़ तार न जाने क्या होगा ! इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा !

8
उतरे इन आखों के आगे / जो हार चमेली ने पहने / वह छीन रहा, देखो, माली / सुकुमार लताओं के गहने / दो दिन में खींची जाएगी / ऊषा की साड़ी सिन्दूरी / पट इन्द्रधनुष का सतरंगा / पाएगा कितने दिन रहने / जब मूर्तिमती सत्ताओं की /  शोभा-सुषमा लुट जाएगी / तब कवि के कल्पित स्वप्नों का / श्रृंगार न जाने क्या होगा!

 9
दृग देख जहाँ तक पाते हैं / तम का सागर लहराता है / फिर भी उस पार खड़ा कोई /  हम सब को खींच बुलाता है / मैं आज चला तुम आओगी / कल, परसों सब संगी साथी / दुनिया रोती-धोती रहती / जिसको जाना है, जाता है / मेरा तो होता मन डगमग / तट पर ही के हलकोरों से / जब मैं एकाकी पहुँचूँगा / मँझधार, न जाने क्या होगा !

इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, 
उस पार न जाने क्या होगा !"
        
          वे दिल को छू लेने वाले गीत थे, आज भी वे शब्द, उनके स्वर मेरे मनमस्तिष्क में अंकित हैं। गीत वे  नहीं होते जो गाये जाते हैं या सुने जाते हैं या पसंद किए जाते हैं बल्कि गीत वे होते हैं जिनसे पीछा छुडाना श्रोता के लिए मुश्किल हो जाता है। कवि सम्मेलन सम्पन्न हो जाता है, मुशायरा ख़त्म हो जाता है, कवि, शायर और श्रोता अपने-अपने घर चले जाते हैं लेकिन वे गीत इन्सान का पीछा करते रहते हैं।
         किशोरावस्था की उत्सुकता, यौवन की हलचल और प्रौढ़ावस्था की परिपक्वता का सम्पूर्ण सार कविगण अपनी कविता और शायर अपनी शायरी में पिरोया करते हैं। न जाने कैसे, उन्हें हमारे दिल का हाल पता चल जाता है ? आप भी यदि ऐसी कविता लिखते हैं या शायरी करते हैं तो मेरा सलाम क़बूल करें।
          हिंदी साहित्य के प्रख्यात कवियों में जयशंकर 'प्रसाद', सुमित्रानंदन पंत, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला', महादेवी वर्मा, मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, नागार्जुन, 'हरिऔध', भवानीप्रसाद मिश्र, मुक्तिबोध जैसे अनेक कवियों ने अपनी-अपनी शैली के अनुसार कवितायें रची और साहित्य जगत में सुस्थापित हुए परन्तु जनलोकप्रियता की कसौटी पर वे कमजोर पड़े। मंचीय कवितापाठ ने जब सामान्यजन को कविता से जोड़ा तब ही कविता लोकप्रिय हुई और कवि भी। आज़ादी की लड़ाई में संलग्न योद्धाओं की स्मृति में रची गई कविता, भारत की स्वाधीनता से प्रभावित होकर लिखी गई राष्ट्रोत्थान की कविता, पड़ोसी देशों के विवाद से प्रेरित उन्मादी कविता, युवाओं के दिल को छूने वाली श्रृंगार व वियोग की कविता, समाज में व्याप्त कुरीतियों पर प्रहार करती कविता, आमजन की असुविधा पर टिप्पणी करती कविता, स्त्रियों पर हो रहे अत्याचार को उकेरती कविता, दलितों व गरीबों के दुःख-दर्द को प्रक्षेपित करती कविता ने भारतवासियों की मनोभावना को जैसे शब्द दे दिए।
          मंच कवितापाठ के आकर्षण से कोई न बच सका, सबने अवसर खोजे, अपनी रचनाएं पढ़ी लेकिन जिनके पास प्रस्तुतीकरण की रोचक शैली थी, वे मंच पर टिके रहे, शेष छिटक कर बाहर हो गए। फिर आया अतुकांत शैली की कविता का युग, जिसके दो हिस्से हो गए; एक- ऐसी कविता जो किसी को समझ में न आए और दूसरी- जो सरलता से समझ में आए। मंचीय कवियों ने दूसरी शैली को अपनाया और कविता लेखन इतना सरल हो गया कि वह सबके लिए आसान हो गया, परिणामस्वरूप कवियों की बाढ़ आ गई। मेरे जैसे अल्पज्ञानी भी कविता लिखने का प्रयास करने लगे जबकि मुझमें कवि का चित्त ही न था।
          देश में व्यापारिक बुद्धिशाली कुछ कवियों ने अपनी दूकान खोल ली, अपने-अपने समूह बना लिए जिसके कारण आयोजक व्यापारी कवि को कवि सम्मलेन का ठेका देने लगे, सबका काम आसान हो गया किन्तु कविता में गिरावट शुरू हो गई। मधुर और संदेशवाहक गीत न जाने कहाँ खो गए, गंभीरता का स्थान चुटकुलेबाजी ने लिया, कवितापाठ कम, भाषणपाठ अधिक होने लगा।

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          आप सोच रहे होंगे कि आत्मकथा में कविसम्मेलन क्यों घुस गया ? दरअस्ल, एक कविसम्मेलन के आयोजन का भार मुझ पर आया था, उसकी याद आई तो बाकी यादें भी साथ चली आई। हुआ ये, कुछ मित्रों के आग्रह पर मुझे पुनः बिलासपुर ज़ेसीज से जुड़ना पड़ा। सन 1981 में धनवृद्धि के उद्देश्य से हमने टिकट बेचकर कविसम्मेलन करवाने का निर्णय लिया। अपने संगठन के 'एक' उपाध्यक्ष को हास्य कवि सुरेन्द्र शर्मा और उनकी टीम को अनुबंधित के लिए दस हज़ार रूपए के साथ दिल्ली भेजा गया। उपाध्यक्ष ने वापस लौट कर सुरेन्द्र शर्मा की आगमन तथा तिथि सहमति का हमें सन्देश दिया। कविसम्मेलन की तैयारी शुरू कर दी गई , रेलवे इंस्टिट्युट का सभागार आरक्षित हो गया, टिकट छप गई, बिक्री आरम्भ हो गई। 
          अचानक एक दिन सूझा कि कवि सुरेन्द्र शर्मा से उनके आगमन कार्यक्रम के बारे में पूछताछ कर ली जाए इसलिए उनको ट्रंककाल लगाया। उनसे जब उनसे बात हुई तो हमारे होश उड़ गए। उन्होंने बताया कि बिलासपुर आने की उनकी कोई 'बुकिंग' नहीं है। उनसे किसी ने संपर्क ही नहीं किया इसलिए कोई अग्रिम राशि भी उन्हें नहीं मिली। उन्होंने बिलासपुर पहुँचने से साफ़ मना कर दिया क्योंकि उसी दिन किसी अन्य कार्यक्रम में उनकी पहले से बुकिंग थी। हम लोग वैसे भी शहर में टिकट बेचने में बहुत गाली खा चुके थे अब जूते खाने की नौबत आ गई थी। सम्बन्धित उपाध्यक्ष को बुलाकर पूछा तो उन्होंने सुरेन्द्र शर्मा को एक भद्दी गाली दी और कहा-'वह झूठ बोलता है।'
'तुमने उनसे दस हज़ार की रसीद ली होगी, वह कहाँ है ?' हमने पूछा।
'इतने बड़े आदमी से भला मैं रसीद कैसे माँगता ? मैं उसके विश्वास में रह गया।' उसने हमें समझा दिया।
           ख़ैर, दस हज़ार को तो बाद में देख लेते, पहले नियत तिथि पर कविसम्मेलन आयोजित करने की समस्या सिर पर थी। दिल्ली के ही एक कवि गोविन्द व्यास से मेरी तनिक जान-पहचान थी, उनका फोन नम्बर पता किया और उनसे बात की, परिस्थिति बताई तो वे बोले- 'फ़िक्र मत करो द्वारिकाभाई, कवि  सम्मलेन होगा और शानदार होगा, मुझे एक दिन समय दो, मैंने अन्य कवियों से बात करके बताता हूँ।'
'आपको एडवांस कैसे भेजें ?' मैंने पूछा।
'ज़रुरत नहीं, आपसे बिलासपुर में ही एक साथ ले लेंगे।' गोविंद व्यास ने कहा। 
          अगले दिन उनका फोन आया, मन प्रसन्न कर देने वाला फोन आया, बजट कम और उत्कृष्ट कवियों का समूह। निर्धारित तिथि पर उनके साथ आ रहे थे- शरद जोशी, ओमप्रकाश आदित्य और जेमिनी हरियाणवी। बात बन गई, नियत तिथि को कविगण बिलासपुर आए और कवितापाठ किया, मज़ा आ गया। धन्यवाद गोविन्द व्यास।
           कार्यक्रम के कुछ समय बाद कवि सुरेन्द्र शर्मा जब बिलासपुर आए तब हमने उनसे भेंट की और दस हजार अग्रिम की चर्चा की तो उन्होंने अपने बच्चे की कसम खाई और बताया कि उनसे किसी ने संपर्क नहीं किया तब हमें समझ में आया कि हमारा सिक्का ही खोटा था. जब अपने 'उपाध्यक्ष' से बात की तो उसने अपनी माँ  की कसम खा ली. दोनों कसमों के बीच हमारा दस हज़ार कहीं खो गया. खैर, जो हुआ सो हुआ, शरद जोशी से मिलकर परम आनंद की अनुभूति हुई. उनके जैसे समृद्धिशाली व्यंग्य लेखक के दर्शन, उनकी सज्जनता और सामीप्य को कभी नहीं भुलाया जा सकता। साहित्यजगत में उनकी प्रतिष्ठा व्यंग्य लेखन की रही, साथ ही वे व्यंग्य के कवि भी थे, इस कविता को पढ़कर आप जान जाएँगे :

 " 'च' ने चिड़िया पर कविता लिखी।
   उसे देख 'छ' और 'ज' ने चिड़िया पर कविता लिखी।
   तब त, थ, द, ध, न, ने
   फिर प, फ, ब, भ और म, ने
   'य' ने, 'र' ने, 'ल' ने
   इस तरह युवा कविता की बारहखड़ी के सारे सदस्यों ने
   चिड़िया पर कविता लिखी।

   चिड़िया बेचारी परेशान
   उड़े तो कविता
   न उड़े तो कविता।
   तार पर बैठी हो या आँगन में   
   डाल पर बैठी हो या मुंडेर पर
   कविता से बचना, मुश्किल
   मारे शरम मरी जाए।

   एक तो नंगी,
   ऊपर से कवियों की नज़र
   क्या करे, कहाँ जाए
   बेचारी अपनी जात भूल गई
   घर भूल गई, घोंसला भूल गई
   कविता का क्या करे
   ओढ़े कि बिछाए, फेंके कि खाए
   मरी जाए कविता के मारे
   नासपिटे कवि घूरते रहें रात-दिन।

   एक दिन सोचा चिड़िया ने
   कविता में ज़िन्दगी जीने से तो मौत अच्छी
   मर गई चिड़िया
   बच गई कविता।
   कवियों का क्या,
   वे दूसरी तरफ़ देखने लगे।"

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          सन 1982 में मुझे बिलासपुर जूनियर चेंबर का अध्यक्ष मनोनीत किया गया। मैंने इस अवसर का उपयोग नेतृत्वकला सीखने की दिशा में किया और संगठनात्मक प्रबंधन के प्रयोग आरम्भ किए। सदस्य संख्या बढ़ाना, कार्यक्रमों की संख्या और गुणवत्ता में वृद्धि करना, सामान्य एवं कार्यकारिणी सभा की बैठकों में संसदीय प्रणाली लागू करना, व्यक्तित्व विकास के प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित करना, संगठन का आर्थिक आधार तैयार करना, बैठकों में सदस्यों की उपस्थिति संख्या में वृद्धि करना और नगर के युवाओं के विकास के लिए प्रयास करना- इन संकल्पों के साथ मैंने अपनी 'टीम' का गठन किया और स्वयं के साथ अन्य उन्तीस सदस्यों को उस प्रयोग में झोंक दिया।
          वर्ष भर के कार्यक्रमों के बारे में लिखने का कोई विशेष मतलब नहीं निकलता लेकिन यह बताने में मुझे बहुत ख़ुशी हो रही है कि मुझे और मेरे अनेक सहयोगियों को उनकी अतिसक्रियता के चलते उनके माता-पिता ने घर से बाहर नहीं निकाला। कर दिखाने की ललक, कर गुज़रने का ज़ुनून और कर लेने के बाद की ख़ुशी- इन सब मनस्थितियों का हमने मिलजुल कर अनुभव किया और वे हमारे जीवन के यादगार दिन बन गए जिन्हें हम कभी न भुला पाएंगे। उसी दौरान एक मित्र मिले, चन्द्रशेखर जालान जो हैदराबाद से बिलासपुर आए और बिलासपुर की एक स्टील फेक्ट्री के महाप्रबन्धक बनकर आए थे। दोस्ती-यारी किसे कहते हैं- यह मैंने उनसे सीखा।
         किशोरावस्था में डेल कार्नेगी और स्वेट मार्टिन की प्रेरणादायक पुस्तकें पढ़कर विदेशों के माहौल और हमारे समाज की सोच की तुलना करके मैं हतप्रभ हो जाता था। कहाँ वे लोग जो मनुष्य को उसकी क्षमता का उपयोग कर आगे बढ़ने का सन्देश देते थे और कहाँ हमारा माहौल- जो सुबह से लेकर रात तक हमारा हौसला गिराने में सन्नद्ध रहते, उस पर भी, तुर्रा ये कि 'हम तुमको सुधार रहे हैं'। अपने बड़े होने का 'एडवांटेज', ज्ञानी होने का भ्रम और समर्थ होने के घमंड में डूबी उस समय की सामाजिक-पारिवारिक सोच ने अनेक उदीयमान पौधों को मुर्झाकर जीने के लिए मज़बूर कर दिया। अपने परिवार, अपने व्यापार; अपनी संपत्ति, अपनी व्यवस्था को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए उन अग्रजों ने असंख्य संभावनाओं में हीनभावना भरकर उन्हें मन मसोसने के लिए मजबूर कर दिया।
          'जेसीज़' के प्रशिक्षण कार्यक्रमों में मुझे वही राह दिखाई पड़ी जो डेल कार्नेगी और स्वेट मार्टिन दिखाया करते थे, मैंने उस राह को अपनाया और मन में संकल्प लिया कि नई पीढ़ी में आत्मविश्वास भरने के लिए मैं प्रशिक्षण कला सीखूंगा और अपनी साँस रहते तक अपने देश के नौजवानों को इस घटिया माहौल से बाहर निकालने का प्रयास करूंगा। अब, मुझे वह मंच मिल गया जहां मुझे अपने जीवन की सार्थकता दिखाई पड़ने लग गई, 'हलवाई' से अलग कुछ और करने और बनने का सूत्र समझ में आ गया।
        
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                                                       चलती का नाम गाड़ी 
                                          


          दद्दा जी के घर में थे तो ‘घर’ में थे, जब बेघर हुए तब समझ में आया कि ‘अपना घर’ क्या होता है! किराए के पहले घर में कुछ दिन रहे फ़िर नेहरू नगर में उससे ज्यादा दिन रहे फ़िर राजेन्द्र नगर में अपने मित्र गजानन खनगन के घर चले गए। यह नया ठिकाना दूकान से तनिक नज़दीक था, रिहाइश पहली मंज़िल में थी। हमारे पड़ोसी खरे जी के बगीचे में लगे अनार के पेड़ की डाल ऊपरी मंजिल तक आ गई थी जो हमारे बेडरूम की खिड़की के आस-पास झूमती रहती। अनार के आकर्षक लाल फूल छोटे-छोटे फल बने और कुछ समय बाद बड़े होने लगे। उन फलों को बढ़ते देखना, एक अलग किस्म का अहसास था। 
          एक दोपहर मैं जब घर पहुंचा तो हमारे पांच वर्षीय पुत्र कुन्तल अत्यन्त प्रसन्न मुद्रा में अपने हाथों में दो अनार लिए खड़े थे। उसने चहकते हुए मुझसे कहा- ‘पापा, अनार।’
‘अरे वाह, कौन लाया?’
‘कोई नहीं, खिड़की के बाहर से हाथ बढ़ाकर तोड़ लिया, मुझसे बन गया।’ उसका चेहरा सफ़लता के भाव से पुलकित था। 
‘चलो मेरे साथ, अपनी चप्पल पहनो।’
‘कहां जाना है, पापा?’
‘सवाल नहीं, चलो।’ मैंने उसे धमकाया, वह कुछ समझ न पाया, मेरे साथ, हाथ में अनार लिए हुए पड़ोसी खरे जी के घर पहुंचा। मैंने कालबेल दबाई, दरवाजा श्रीमती खरे ने खोला और पूछा- ‘आइये अग्रवाल जी, आपने कैसे तकलीफ़ की?’
‘कम्मू ने आपके पेड़ से अनार चुराए हैं, उसे वापस करने आया है।’
‘अनार चुराए हैं, कैसे?’
‘बेडरूम की खिड़की से इसने हाथ बढ़ाकर तोड़े।’
‘तो क्या हुआ, कुछ नहीं होता, बच्चा है।’
‘बच्चा है तो क्या चोरी सीखेगा, आप इन्हें वापस ले लीजिए।’ मैंने उनसे कहा और  कुन्तल को आदेश दिया- ‘कम्मू, आन्टी से माफ़ी मांगो।’ कुन्तल घबराया सा बोला- ‘सारी, आन्टी।’
‘आप बच्चे के साथ अन्याय कर रहे हैं।’ श्रीमती खरे दुखी भाव से बोली।
‘ठीक है, अब आप कम्मू के लिए अनार घर भिजवा दिया करें ताकि उसे इस प्रकार तोड़ना न पड़े।’ मैंने उन्हें विकल्प सुझाया। उसके बाद उनके घर से कम्मू के लिए अक्सर अनार आया करते थे।

           उस घर की कुछ एक बातें और याद आ रही हैं।  मेरे एक मित्र के मित्र हैदराबाद से बिलासपुर आए थे, उनसे मेरी मुलाकात हुई, मैंने उन्हें रात्रि-भोज पर अपने घर में आमन्त्रित किया। रात को लगभग दस बजे वे आए, मैंने उनका स्वागत किया और आदरपूर्वक बिठाया। माधुरी से उनका परिचय करवाया। माधुरी ने मुझे इशारे से किचन में बुलाया और कहा- ‘तुम्हारा ये दोस्त तो ‘पी' कर आया है!’
‘नहीं, ऐसा नहीं होगा, तुम क्या ‘श्योर’ हो?’
‘हाँ, हाँ, उसके मुँह से भभका आ रहा है, एक काम करो, उसे कहीं बाहर ले जाकर खिला दो।’ माधुरी ने सलाह दी।
‘ठीक है।’ मैंने कहा। बाहर आकर मित्र के मित्र से मैंने कहा- ‘चलिए, किसी होटल में डिनर लेंगे।’
‘अरे, क्या हुआ, आपने तो घर में खिलाने के लिए बुलाया था?’ 
‘घर में कुछ अड़चन है, यहां नहीं हो पाएगा।’
‘ये बात गलत है, घर में बुलाया तो घर में खिलाइये।’ उन्होंने फ़िर से इसरार किया। तब तक मुझे गुस्सा आना शुरू हो गया था लेकिन ‘अतिथि देवो भव’ को ध्यान में रखते हुए मैंने आहिस्ता से पूछा- ‘आप ‘ड्रिंक’ लेकर आए हैं क्या?’
‘हाँ, तो?’
‘इस हालत में हमारे घर में कोई घुस भी नहीं सकता, भोजन करना तो बहुत आगे की बात है।’
‘तो आप अपने घर बुलाकर मेरा अपमान कर रहे हैं?’
‘नहीं, मैं तो आपको किसी अच्छे होटल में ले जा रहा हूँ , आप मेरे मेहमान हैं।’ मैंने उसको समझाने का प्रयत्न किया।
‘बस, रहने दीजिए।’ वे नाराज होकर बिना खाए चले गए।

          कुछ ऐसी ही एक घटना और, मेरे एक साहित्यकार मित्र एक दिन मेरी दूकान में आए और उन्होंने बताया- ‘नई कहानी लिखी है लेकिन यहां दूकान में तुम्हारे ग्राहकों के कारण व्यवधान होता है इसलिए तुम्हारे घर आकर आराम से सुनाऊंगा।’ 
‘आज रात को ही घर आ जाओ, वहीं भोजन करना, फ़िर सुनेंगे।’ मैंने कहा। नियत समय पर वे आए, भोजन किया और कहानी शुरू करने से पूर्व बोले- ‘माधुरी को बुला लो, वह भी सुन लेगी।’
‘तुम शुरू करो, जब तक वे भोजन करके आती हैं।’ मैंने कहा। कहानी का वाचन-श्रवण आरम्भ हुआ, कुछ देर में माधुरी भी आकर बैठ गई। उनकी कहानी आगे बढ़ी और थोड़ी देर में बहकने लगी यानी स्त्री-अंग एवं प्रणय-प्रसंग के विवरण प्रविष्ट होने लगे। माधुरी उठी और चली गई। लंबी कहानी थी, किसी प्रकार पूरी हुई और मित्र चले गए। उनके जाने के बाद माधुरी ने मुझे डांटा- ‘तुम्हारे दोस्त को इतनी भी समझ नहीं कि किसी महिला की उपस्थिति में क्या बताना, क्या नहीं बताना?’
‘अब, उसकी कहानी में जो था, उसने बताया।’ मैंने उसका बचाव किया।
‘उनसे बोलो कि अपने परिवार के साथ बैठकर वैसी कहानी उन्हें सुनाया करें, और हाँ, दोबारा से ये आदमी हमारे घर में नहीं आना चाहिए।’ उन्होंने ताकीद की। इस बात को तीस वर्ष होने जा रहे  हैं, तब से उस मित्र का मेरे घर में ‘प्रवेश-निषेध’ चल रहा है।
  
        हमारे मकानमालिक ‘रमी’ के शौकीन थे, वे शहर से बाहर नौकरी करते थे, हर रविवार मित्रगण एकत्रित होते और महफ़िल जमती। कभी ‘कोरम’ कम होता तो मुझे वे आवाज देते- ‘आ जाओ सेठ।’ अपुन भी बैठ जाते थे। न जाने क्या बात थी कि उनके घर में अक्सर मैं ‘प्लस’ में रहता था, जीत के रुपयॊं में से साढ़े छः सौ गिन कर निकालता और वहीं मकानमालिक के हाथ में रखता- ‘लीजिये, इस महीने का किराया।’ वे चिढ़ते और बोलते- ‘ देखो, इस बनिया किरायेदार को देखो, मेरे घर में हम दोस्तों को लूट कर किराया पटाता है।’ ये सच है कि जब तक उनके घर में रहा, मैंने कभी अपने जेब से किराया नहीं भरा, वहीं जीतना, वहीं देना। आप बताइये, कैसा रहा?
        एक दिन उन्होंने मुझसे शिकायत की- ‘रात के समय ऊपर से तुम्हारे चलने की धम-धम आवाज आती है, उससे मेरी नींद खुल जाती है।’
‘रात में बाथरूम जाना पड़ता है, कैसे रोका जाए, आप बताओ?’
‘रोकने को नहीं बोल रहा हूँ सेठ, आहिस्ता चला करो।’ उन्होंने मुझे समझाया।
        अगली रात मैं बाथरूम जाने के लिए बिस्तर से उठा, अपना एक पैर मैंने जोर से फ़र्श पर रखा, तब ही अचानक मुझे मकानमालिक की सीख याद आ गई। मैंने अपना दूसरा पैर आहिस्ता से जमीन पर रखा और दबे पाँव बाथरूम गया और वापस आ गया। अगली सुबह वे मिले और बोले- ‘यार सेठ, कल रात तुमने फ़िर मुझे सोने नहीं दिया।’
‘क्या हुआ खनगन जी?’
‘कल रात तुम्हारे एक पैर रखने की आवाज ‘धम’ से आई, मेरी नींद खुल गई लेकिन उसके बाद तुम्हारे चलने की कोई आहट नहीं आई, मैं रात भर यह सोचता रहा कि उसके बाद तुमने क्या किया ?’
'अपना एक पैर जैसे ही मैंने फर्श पर रखा, मुझे आपकी बात याद आ गई इसलिए डर के मारे वापस खींच लिया और बिस्तर में ही..........।' मैंने बताया। 

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          इस बीच छोटे भाई राजकुमार का विवाह हुआ। दद्दाजी और मेरे मध्य बोलचाल नहीं थी फ़िर भी पूरे एक माह तक अपनी दूकान छोड़ उनके साथ लगकर शादी का काम किया। माधुरी ने रसोई और मेहमाननवाज़ी सम्हाली और मैंने बाहर का काम। वैवाहिक कार्यक्रम में बड़ी संख्या में रिश्तेदार आए, दद्दाजी के अंतिम पुत्र का विवाह जो था। मेरी छोटी बहन आशा के श्वसुर शिवदयाल जी भी जबलपुर से आए थे। एक फ़ुर्सत में उन्होंने मुझसे पूछा- ‘द्वारका बाबू, सुना, आप अलग रहते हैं?’
‘जी, आपने ठीक सुना।’

‘हमारे कुछ समझ में नहीं आया।’
‘क्या?’
‘पिछले चार दिन से हम आपको और बहूरानी को शादी-ब्याह के काम में जिस प्रकार जुटे देख रहे हैं, मुझे तो अचरज हो रहा है।’
‘इसमें अचरज कैसा साह जी? हमने यह घर छोड़ा है, अपना परिवार नहीं।’ मैंने उन्हें समझाया। उनका चेहरा प्रसन्नता से खिल उठा।
          उधर शादी-ब्याह का काम निपटा और मैं और दद्दाजी फ़िर दूर-दूर हो गए। एक माह का अनवरत साथ भी कोई सकारात्मक परिणाम न ला पाया।
          किराये के घरों में कब तक रहते इसलिए जमीन की तलाश शुरू की। इधर-उधर भटकने के बाद लिंक रोड पर एक धान के खेत पर विकसित ‘कालोनी’ पसन्द आई, दूकान की अर्जित पूंजी से प्लाट खरीद कर इस उम्मीद पर छोड़ दिया कि जब सुविधा होगी तब घर बनवाएंगे।     
          दिन अच्छे गुजर रहे थे, मेरा नया काम अच्छा चल रहा था। हलवाई के धन्धे से मुक्ति मिली, साथ ही संयुक्त परिवार से भी, इस प्रकार मैं मुक्ति का दोहरा आनन्द उठा रहा था। ये मुक्ति शान्तिदायक तो थी लेकिन चुनौतीपूर्ण भी। मैं आत्मविश्वास से भरपूर था, कुछ कर गुजरने की तमन्ना थी इसलिए भिड़ कर व्यापार किया। तीनों बच्चे बड़े हो रहे थे, घर-परिवार में तनावरहित माहौल, सच में, मज़े की ज़िन्दगी बीत रही थी जिसके लिए हम न जाने कब से तरस रहे थे!
          हमारे शहर के एक प्रतिष्ठित चिकित्सक रमी के शौकीन थे। लगभग रोज ही उनके घर में बैठक हुआ करती थी लेकिन उस समूह में सीमित लोगों को प्रवेश प्राप्त था, उनमें से एक मेरे मकानमालिक खनगन जी भी थे। खनगन जी ने एक दिन मुझसे कहा- ‘आज रात डाक्टर साहब के घर रमी खेलने चलो।’   
‘नहीं, मैं कभी उनके घर नहीं गया, फ़िर, बिना बुलाए वहाँ जाना ठीक नहीं।’ 
‘डाक्टर साहब ने तुम्हें बुलाया है।’
‘तो फ़िर ठीक है, रात को दस बजे आ जाऊंगा।’ मैंने हामी भरी। निश्चित समय पर मैं पहुंचा, साथ में बैठा, खेला और जैसे ही बारह बजे, मैं उठ खड़ा हुआ और मैंने खनगन जी से पूछा- ‘घर चलोगे?’ उन्होंने बाद में आने की बात कही इसलिए मैं अकेले घर वापस आ गया। 
          हमारी मकानमालकिन सरल स्वभाव की गृहस्थन थी, उनको कभी नाराज होते नहीं देखा-सुना था। अगली सुबह वे ऊपर आई, मैंने दरवाजा खोला, उन्हें नमस्ते की लेकिन वे गुस्से में तमक कर बोली- ‘रात को जब आप घर वापस आते हैं तो आपको नीचे गेट बन्द करना चाहिये, आप कल खुला छोड़ दिए, गाय ने घुसकर मेरे सारे पौधे चर लिए।’ मैंने अपनी छत से बाहर झांक कर देखा, सच में उस बेअक्ल गाय ने गुलाब के सारे पौधे चट कर डाले थे। श्रीमती खनगन ने वे पौधे अत्यन्त परिश्रम से तैयार किए थे, उनमें अनेक रंगों के खूबसूरत गुलाब हुआ करते थे। उनका नाराज होना स्वाभाविक था, उन्होंने मेरी अच्छी ‘परेड’ ली। मैं चुपचाप सुनता रहा और उनकी पीड़ा को समझता रहा पर उनसे क्या बताता कि गेट बंद न करना मेरी नहीं वरन उनके पतिदेव की गलती थी क्योंकि वे मेरे बाद घर आए थे! मैं तो डाँट खा ही चुका था, असलियत जानने के बाद पतिदेव को भी प्रसाद प्राप्त होता इसलिए मैं चुप्पी मार गया। मैंने दो धर्म एक साथ निभाए- किराएदार का और मित्रता का। उस चुप्पी का दूरगामी परिणाम भविष्य में घातक सिद्ध हुआ, दरअसल उसी दिन मेरे उस घर से विदाई की भूमिका तैयार हो गई। आगे का किस्सा आप समझ गए होंगे।    
          एक दिन मकानमालिक ने मुझसे कहा- ‘यार सेठ, मकान खाली कर दो, हम लोग ऊपर ‘शिफ़्ट’ होंगे।’
‘तो हम लोग नीचे शिफ़्ट हो जाते हैं।’
‘नहीं, नीचे कुछ बनवाना है।’
‘मैंने जब आपसे मकान किराए पर लिया था तब आपसे कहा था कि जब तक मेरा खुद का मकान नहीं बन जाता आप मुझसे खाली नहीं करवाएंगे और आपने उस बात को माना था। मैंने जमीन ले ली है लेकिन अभी मकान बनवाने की गुन्जाइश नहीं है, दो-तीन साल और लग जाएगा।’
‘नहीं, खाली कर दो।’
‘ठीक।’ मैंने जवाब दिया।
          एक और घर खोज लिया। घर का सामान ट्रेक्टर पर लदते देख मकानमालिक ने पूछा- ‘क्या सेठ, इतनी जल्दी जा रहे हो? मैं सोच रहा था कि अभी खाली करने को कहूंगा तो साल-दो साल लगा दोगे, तुम तो बीस दिन में खाली कर गए।’
‘मैं आपसे लड़-झगड़ कर नहीं, मित्रवत जाना चाहता हूं।’ मैंने उन्हें बताया। मकानमालिक दुखी भाव से अपने घर के अन्दर चले गए।

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          किराए का नया घर ग्राउन्डफ़्लोर था लेकिन किराया दोगुना था। हमारे तीनों बच्चे हिन्दी माध्यम वाले सरस्वती शिशु मन्दिर में पढ़ते थे, पढाई का स्तर अच्छा था। मेरे एक मित्र ने मुझसे प्रश्न किया- ‘यार, तुम अपने बच्चों के दुश्मन हो क्या?’
‘कैसे?’
‘तुम बच्चों को हिन्दी मीडियम में पढ़ा रहे हो, आज जमाना अंग्रेजी का है, ऐसे में वे तरक्की कैसे करेंगे?’

‘तुम ठीक कह रहे हो परन्तु मेरे घर में बोलचाल की भाषा हिन्दी है इसलिए मुझे ऐसा लगता है कि वे किसी भी विषय को अपनी मातृभाषा में आसानी से समझ सकेंगे।’
‘पर जमाना तो अंग्रेजी का है, वे प्रतिस्पर्धा में कैसे टिकेंगे?’
‘तो अंग्रेजी सीखने में क्या परेशानी है? यह आसान है, सीख लेंगे।’
‘अंग्रेजी के माहौल की अंग्रेजी अलग होती है, द्वारिका!’
‘होती होगी यार, मुझे अपने बच्चों के लिए अंग्रेजी मीडियम उन पर मानसिक अत्याचार लगता है, खास तौर से जबकि वे हिन्दी के माहौल में पल-बढ़ रहे हैं।’
‘तुम मेरी बात नहीं मानोगे?’
‘नहीं, अपने देश में, अपनी भाषा के साथ हो रहा अतिक्रमण मुझे दुख देता है।’
‘तो तुम ज़माने के साथ नहीं चलोगे?’
‘क्या मैं भेड़ हूँ जो भीड़ के साथ चलूं?’
‘तुम अकेले पड़ जाओगे।’
‘कोई बात नहीं, जो मैं कर सकता हूँ, जरूर करूंगा।’
‘जैसे?’
‘मैं अपने सारे काम हिन्दी भाषा में ही करता हूँ, समस्त पत्रव्यवहार, लिफ़ाफ़ों पर पता, दूकान की बिलबुक, बैंक के सभी कार्य आदि शतप्रतिशत हिन्दी में करता हूँ।’
‘क्या तुम अंग्रेजी से नाराज हो?’
‘नहीं, मैं अंग्रेजी भाषा की कद्र करता हूँ, मैंने यदि अंग्रेजी न सीखी होती तो मैं विश्व के अद्भुत साहित्य से वंचित रह जाता।’
‘फ़िर?’
‘तुम भले चाहे जो समझो पर हिन्दी के साथ हो रहा अन्याय और अंग्रेजी के लिए हो रही अंधी दौड़ मुझे बहुत अज़ीब लगती है।  मेरा संकल्प है कि अपने स्तर पर अपनी मातृभाषा अपनाने के लिए जीवन भर प्रयत्न करूंगा।’

       किराए का नया घर विद्यानगर में लिया जो सरस्वती शिशु मंदिर से दूर था इसलिए बच्चे समीप में ही स्थित सेंट जोसेफ (हिंदी माध्यम) में पढ़्ने लगे। तीनों बच्चे पढ़ाई में सामान्य थे, हर साल पास हो जाते थे, बस। हमारे घर में रंगीन टीवी और व्ही.सी.आर. था जो बच्चों का अधिकांश समय लील जाता था, वैसे भी पढ़ना सबको रुचता नहीं- इसलिए हमने कभी जोर-जबर्दस्ती नहीं की। 
       कुन्तल सात वर्ष का हो चुका था, समझदार हो रहा था इसलिए जुआँ खेलने की हमारी पारिवारिक परम्परा से उसे मुक्त रखने की बात मेरे मन में आई। मैंने ताश खेलना छोड़ दिया। अब, पच्चीस वर्ष हो चुके हैं, मुझे ताश को हाथ लगाए ! ठीक किया न?
       मेरा टीवी का व्यापार ठीक-ठाक चल रहा था, घर खर्च निकल जाता था। पत्नी और बच्चे खर्चीले नहीं थे इसलिए कोई असुविधा भी नहीं थी। टीवी की दूकान ‘मधु छाया केन्द्र’ एक तकनीकी कारण से पार्टनरशिप फ़र्म के रूप में शुरू की गई थी, उसकी इन्कमटेक्स की पेशी के लिए सूचना आई। मेरे आयकर वकील ने मुझे बताया कि आयकर अधिकारी को पांच सौ रुपए देना पड़ेगा तब फ़र्म का रजिस्ट्रेशन होगा अन्यथा साहब कोई न कोई अड़ंगा लगा देगा। मैंने उनसे कहा- ‘मैं किसी को रिश्वत नहीं देता।’
‘आप क्यों लफ़ड़े में पड़ते हो, ले-दे कर नक्की करिए।’
‘नहीं।’
‘अच्छा एक काम करिए, पांच सौ मुझे मेरी फ़ीस समझ कर दे दीजिए। आप कल पेशी में आ जाना, आपको कुछ कहना-सुनना नहीं है, बाकी सब मैं देख लूंगा।’ 
‘ठीक है।’ मैंने उन्हें पांच सौ रुपए दे दिए।
       अगले दिन मैं पेशी में गया। आयकर अधिकारी ने अपनी मुन्डी उठाकर वकील से संकेत में पूछा कि क्या है? वकील ने कहा- ‘पार्टनरशिप रजिस्ट्रेशन का केस है सर।’
‘क्या करना है? साहब ने पूछा।
‘करना है सर।’ वकील ने मुस्कुरा कर कहा। साहब ने इशारों मे पूछा ‘कितना।’ वकील ने अपने दाहिने हाथ के पंजे को दिखाकर ‘पाँच’ का इशारा किया। साहब ने भी अपनी पाँचों उंगलियां दिखाकर ‘कन्फ़र्म’ किया। पेशी खत्म हो गई।
        शाम को वकील मेरे पास चिन्तित से आए और मुझसे कहा- ‘भाई साहब, गड़बड़ हो गया।’
‘क्या हुआ?’
‘साहब पाँच हजार रुपए मांग रहे हैं।’
‘अरे, पांच सौ की बात थी, आपने इशारा भी किया था।’
‘पांच सौ का ही रेट है पर वो पांच हजार पर अड़ गए हैं।’
‘आप समझाओ उनको।’
‘मैंने समझाया पर वे माने नहीं, मैं उनको जोर नहीं दे सकता, मेरा रोज का काम है।’
‘फ़िर?’
‘फ़िर क्या, पांच हजार देना पड़ेगा।’
‘मरवा दिया आपने मुझे। अब, मैं खुद साहब से बात करता हूँ, कहां है उसका घर?’
‘विनोबा नगर में, गायत्री मन्दिर के आगे।’
‘ठीक है, आप जाओ, उसको मैं देखता हूँ।’ मैंने उनको विदा किया। 
          उसी रात लगभग नौ बजे मैं उस साहब के घर पहुंचा। अपने साथ एक बड़े साइज का ‘केलेन्डर’ और एक डिब्बा मीठा भी ले गया। साहब ने पूछा- ‘ये क्या ले आए?’
‘आपके लिए है सर।’
‘कैसे आए?’
‘मधु छाया केन्द्र के रजिस्ट्रेशन का केस है आपके पास। वकील साहब ने मुझे बताया था कि पांच सौ लगेगा परन्तु आपने पांच हजार कहा है।’
‘हाँ, उतना ही होता है।’
‘बात दरअसल ये है सर, कि यह व्यापार मेरे पिताजी के नियंत्रण में है, वे बहुत कड़क इन्सान हैं, किसी को एक रुपए भी नहीं देते, पुराने टाइप के आदमी हैं न!’
‘तो?’
‘आपको देने के लिए मैंने उनकी गैर जानकारी में अपने पास से रुपए दिए थे।’
‘फ़िर?’
‘उतने में ही मान जाइये, सर।’ 
‘नहीं।’
‘चलिए, पांच सौ और दे देता हूं।’ 
‘नहीं।’
‘पांच सौ और बढ़ा देता हूँ परन्तु मेरे पिताजी को न मालूम पड़े सर, नहीं तो मुझे घर से निकाल देंगे।’
‘मैं तुम्हारे पिता को क्यों बताऊंगा?’
‘जी, आपकी कृपा है सर।’ मैं वापस मुड़ा तो उन्होंने कहा- ‘सुनो।’
‘जी सर।’
‘आज तुमने इन्कम टेक्स आफ़िसर को साग-सब्जी बेचने वाला कुंजड़ा बना दिया।’
‘सारी सर।’ मैंने कहा और त्वरित गति से उसके घर के बाहर निकला, स्कूटर स्टार्ट की और कुछ दूर जाकर जोर से ठहाका लगाया। वैसे तो पांच सौ की जगह मेरे पन्द्रह सौ रुपए ठुक गए थे पर मैं फिर भी खुश था, क्यों खुश था?

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          समाज में मिलजुल कर रहने की अवधारणा योग्य-अयोग्य, सक्षम-अक्षम, स्वस्थ-अस्वस्थ, धनिक -निर्धन, सबके परस्पर सहयोग की है। लेकिन जबसे ‘मैं’ और ‘मेरा’ ने हमारी सोच पर कब्ज़ा किया, पूरी सामाजिक व्यवस्था डगमगा गई। रिश्ता कोई भी हो, वह अब क्षणिक हो गया है, सम्पूर्ण व्यवहार ‘धन-आगमन’ पर केन्द्रित हो गया है। फ़िल्म ‘चलती का नाम गाड़ी’ में एक गीत था- ‘यारो, समझो इशारे, फ़ौरन पुकारे, पम पम पम; यहाँ चलती को गाड़ी, कहते हैं यारों, पम पम पम।’ सबकी ज़िंदगी में यही होता है।
          इस बीच दद्दा जी से मेरा जुड़ना-न-जुड़ना लगा रहता था। लॉज का निर्माण कार्य तेजी से चल रहा था, दो-चार महीने, मेरा उनसे तालमेल बना रहता फ़िर कोई न कोई ऐसी बात हो जाती कि मैं उनके पास जाना बन्द कर देता लेकिन वे पचहत्तर वर्ष की उम्र में भी पूरे उत्साह से लॉज के निर्माण कार्य में जुटे रहते।
          मेरा व्यापार खरामा-खरामा चल रहा था लेकिन जमीन खरीद लेने के कारण व्यापार में लगी पूंजी नहीं के बराबर हो गई। पूरा माल उधार में आता और बिकता भी लेकिन जोखिम लेने का साहस कम हो जाने से मेरे व्यापार में विपरीत प्रभाव पड़ने लगा। ब्लेक-व्हाइट टीवी की मांग कम होने लगी और रंगीन टीवी अधिक बिकने लगे। रंगीन टीवी बहुत मंहगे आते थे, लगभग पन्द्रह हजार के, जिसका पर्याप्त स्टाक रखने की व्यवस्था तब हो पाती जब उसके अनुरूप पूंजी हाथ में होती। जिस दूकान में भरपूर स्टाक होता है वहां ग्राहक को प्रभावित करना आसान होता है पर जहां स्टाक कम रहता है वहां ग्राहक को साधना बहुत कठिन होता है। फ़िर, उन दिनों बाज़ार में विभिन्न राज्यों में निर्मित टीवी का ‘क्रेज’ टूटने लगा था और उनके बदले ‘बी.पी.एल.’, ‘ओनिडा’, ‘फिलिप्स’, ‘वीडियोकोन’, ‘बिनाटोन’, ‘क्राउन’ जैसी कम्पनियों के रंगीन टेलीविजन बाजार में लोकप्रिय हो गए थे। इनकी डीलरशिप के लिए बड़ी पूंजी की जरूरत थी जो मेरे पास नहीं थी। बैंक लिमिट बढ़ाने को तैयार न था जबकि बैंक से ली गई रकम जमीन खरीदी में फ़ंस चुकी थी जिसका ब्याज हर महीने पच्चीस हजार मेरे ऊपर चढ़ जाता था। एक शाम बड़े भैया रायपुर से आए, मेरी दूकान की दशा देखकर मुझसे बोले- ‘क्या बात है, तुम्हारा स्टाक बहुत कम है?’

‘ठीक ही है।’ मैंने उत्तर दिया।
‘क्या ठीक है? ये लो, ये रख लो, अपना स्टाक ठीक करो, जब तुम्हारे पास व्यवस्था हो जाए तब वापस कर देना।’ उन्होंने अस्सी हजार मुझे दिए। उस ‘आक्सीजन’ को प्राप्त करने की खुशी को मैं शब्दों में कैसे व्यक्त करूं? पर वह प्राणवायु भी कितना साथ देती जहां व्यापार पर तगड़ा ब्याज हावी हो और उसके अनुपात में लाभ कम हो रहा हो!
  
        ३ नवम्बर १९९८ की सुबह लगभग छः बजे मेरे घर की कालबेल बजी, मैंने जागकर दरवाजा खोला तो आश्चर्यचकित रह गया। अम्मा और दद्दाजी आए थे, मेरे घर से अलग होने के बाद वे पहली बार हमारे घर आए थे, दुखी दिख रहे थे। दोनों अन्दर आकर बैठे और मुझे धीमी आवाज में माधुरी की माँ के निधन का दुःखद समाचार बताया- ‘अभी जबलपुर से फोन आया था।’ मैने जाकर माधुरी को बताया तो वे वहीं जमीन पर निश्चेष्ट होकर बैठ गई और रोने लगी। अम्मा उनको ढाढ़स बंधाने लगी और दद्दाजी ने मुझसे कहा- ‘तुम बहू को लेकर जल्दी ट्रेन से रायपुर के लिए निकलो, वहां से साढ़े दस बजे जबलपुर के लिए हवाईजहाज निकलेगा, अन्त्येष्टि दोपहर को होगी, तब तक तुम लोग पहुँच जाओगे। रायपुर में बड़े भैया सब व्यवस्था बना रहे हैं।’
        रायपुर से जबलपुर तक की हवाईयात्रा मुश्किल से आधे घंटे की थी, माधुरी गुमसुम बैठी रही और मैं अपनी सासूमाँ के स्नेहसिक्त स्वभाव को याद करता रहा। मैं जब भी ससुराल जाता तो रसोई में उनके पास अपनी थाली लेकर बैठ जाता, वे गरम-गरम रोटी सेंककर मुझे देती, मुस्कुराती जाती और कहती- ‘लालाजी, उतै डायनिंग टेबल में बैठवे के बदले आप इतै जमीन में बैठ के खात हो, जे हमें अच्छो नइ लगत।’
‘पर मुझे तो आपके पास बैठकर खाने में ही मजा आता है।’ जब मैं ऐसा कहता तो वे आँचल से अपनी आँखों के कोर पोछने लगती। 
        मैं जब भी उनसे मिलता था तो लौटते समय वे अपने मोटे कांच वाले चष्मे से मुस्कुराते हुए मुझे निहारती और बीस रुपए मुझे अवश्य देती थी। एक बार की बात है, मैं ससुराल गया था, रात की ट्रेन थी, हम सब गप-शप करते बैठे थे। जैसे ही समय हो गया मैंने कहा- ‘अब मैं चलता हूँ।’ सासूमाँ ने मुझे विदाई देने के लिए रुपए निकाले तो सौ का एक नोट निकला। सौ का नोट देखकर मेरा मन मुदित हो गया लेकिन वह प्रसन्न्ता क्षणभंगुर थी। उन्होंने अपने मँझले पुत्र से पूछा- ‘काए मदन, तुम्हाए पास बीस रुपय्या चिल्लर हैं?’ मदन के पास भी चिल्हर नहीं था। मैंने सासूजी से कहा- ‘कोई बात नहीं, आप पूरे सौ रुपए दे दीजिए।’ पर उनके हाथ से सौ का नोट छूटा नहीं। फ़िर मैंने उनको समझाया- ‘इसके पहले मैं जब आया था तो दो बार आपने विदाई नहीं दी थी, उसके चालिस रुपए, इस बार का बीस रुपए, कुल साठ रुपए, बचे चालिस, तो अगले दो बार आप मत देना।’
‘आप तो, लाला जी...’ कहते हुए, हंसी से बेहाल होते हुए सौ का नोट आखिर मुझे दे दिया।
        दोपहर को हम लोग घर पहुँचे, पचपन वर्षीया सासूमाँ की पार्थिव देह सफ़ेद चादर में लिपटी रखी थी। उनका सदा मुस्कुराता चेहरा एकदम शान्त था और जैसे मुझसे कह रहा था- ‘लाला जी, तन्नक जल्दी आने रहो, आपने तो देर कर दई।’

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          राष्ट्रीय प्रशिक्षक बनने के बाद मुझे अन्तर्राष्ट्रीय स्तर का प्रशिक्षक बनने की धुन सवार हो गई लेकिन उस स्पर्धा में प्रविष्ट होने के लिए ढेर सारे रुपयों की ज़रूरत थी क्योंकि उसमें भाग लेने के लिए उन अन्तर्राष्ट्रीय अधिवेशनों में जाना पड़ता जहां इसकी स्पर्धा आयोजित होती थी। ‘इन्टरनेशनल ग्रेजुएट’ बनने के लिए तीन सीढ़ियां थी, पहले ‘प्राइम’, फ़िर ‘एक्सेल’ और अन्त में ‘ओम्नी’ यानी तीन विदेश यात्राएं ! अपनी आर्थिक स्थिति वैसे ही डावांडोल थी, किसी प्रकार परिवार चला रहा था, विदेश कैसे जाता? अपने साथियों को 'क्वालीफ़ाई' करते देखता और लक्ष्मीजी की आरती का स्मरण कर चुप रह जाता- ‘...सब सम्भव हो जाता, जी नहीं घबराता, जय लक्ष्मी माता।’ उनकी पूजा तो हम लोग प्रत्येक दीपावली में विधि-विधान से करते थे लेकिन न जाने क्यों, उनकी कृपादृष्टि बिलकुल भी नहीं हो रही थी। उधर, सिद्धि विनायक की भी साथ में पूजा-अर्चना हो रही थी पर वे प्रभु भी मुझसे अपना श्रीमुख मोड़े हुए थे।
          प्रशिक्षक बनने के बाद मुझे उत्तर भारत के अनेक स्थानों में जाने और प्रशिक्षण देने के अवसर मिले। ‘लीडरशिप इन एक्शन’, ‘स्पीच क्राफ़्ट’ और ‘ज़ोन ट्रेन द ट्रेनर्स वर्कशाप’ के कार्यक्रमों में पायलट फ़ेकल्टी के रूप में हरियाणा के करनाल, बिहार के झूमरी तलैया और रांची, उत्तरप्रदेश के लखीमपुर खीरी, महाराष्ट्र के नागपुर और अमरावती, मध्यप्रदेश के ग्वालियर, भोपाल, इन्दौर, रायपुर, रायगढ़, दुर्ग आदि शहरों में प्रशिक्षण देने और सीखने का मौका मिला।
          लखीमपुर खीरी में ‘स्पीचक्राफ़्ट’ की एक घटना मुझसे भुलाए नहीं भूलती। हुआ ये, कि २६ प्रशिक्षुओं को प्रभावी ढंग से बोलने की कला सिखानी थी। प्रथम दिवस दस घंटे तक चले सत्र में सबसे पहले प्रत्येक प्रतिभागी को उसके मनपसन्द विषय पर बोलने के लिए तीन-तीन मिनट का समय दिया गया ताकि प्रतिभागी के वर्तमान प्रस्तुतीकरण के स्तर का आकलन किया जा सके। उसके बाद उन्हें बोलने की तकनीक, विषय वस्तु की तैयारी आदि के बारे में उदाहरण सहित विस्तार से विधियां बताई गई। सत्र के अन्त में सबको एक चिट उठाकर अगले दिन प्रस्तुतीकरण के लिए विषय दिए गए जो उनके लिए ‘होमवर्क’ जैसा था। विषय गम्भीर, उपयोगी और रोचक चुने गए थे जैसे- ‘जेसीज को कैसे बढ़ाया जाए’, ‘युवा शक्ति का विदोहन’, ‘यदि मुझे प्रधान मन्त्री बना दिया जाए’, ‘क्या अपने विवाह में मैं दहेज का विरोध करूंगा’, ‘बढ़ता भ्रष्टाचार’, ‘मेरी मनपसन्द हीरोइन’, ‘फ़िल्म और समाज’ आदि। कुल २६ विषय लिखकर पर्चियों को मिक्स कर दिया गया और जिसने जो पर्ची उठाई, उसी विषय पर अगले दिन उसे पाँच मिनट का भाषण प्रस्तुत करना था। उन पर्चियों में एक विषय था- ‘मैं कमीना हूं।’ जिसने उस विषय की पर्ची उठाई, वह उसे पढ़कर मुस्कुराया और चला गया।


          अगली सुबह सत्र आरम्भ होने के पहले अध्याय अध्यक्ष ने मुझसे कहा- ‘सर, आपने हमारे सदस्य को गाली दी?’
‘नहीं तो ?’ मैंने पूछा।
‘आपने उसे कमीना बना दिया।’ अध्यक्ष ने रोष में कहा।
‘नहीं, एक विषय दिया गया ताकि वह अपना प्रस्तुतीकरण कर सके।’
‘कोई और विषय नहीं मिला, आपने उसका अपमान किया है।’
‘कमाल है, आप कह रहे हैं कि अपमान हुआ है, वे तो अपने विषय को पढ़कर प्रसन्न दिख रहे थे।’
‘उसको बाद में वह बात समझ में आई, वो बेहद दुखी है।’
‘उसे बुलाओ, मेरी बात कराओ।’ मैंने कहा। प्रतिभागी से मैंने बात की, उसके आहत मन पर मरहम लगाया और उसे छूट दी कि वह अपने मनचाहे विषय पर प्रस्तुतीकरण दे सकता है। खैर, बात तो बन गई, वर्कशाप बढ़िया रहा, वहां से मुझे पीलीभीत के लिए निकलना था।
         वापसी की ट्रेन रात नौ बजे की थी लेकिन मुझे विदा करने कोई नहीं आया तब मुझे वह समझ में आया जो विषय देते समय मैं न समझ पाया था जबकि मैं उस विषय पर एक रोचक प्रस्तुति की उम्मीद कर रहा था। 
          एक और घटना झूमरी तलैया की याद आ रही है। वहाँ मुझे ‘लीडरशिप इन एक्शन’ पर दो दिवसीय वर्कशाप करने के लिए भेजा गया था। मेरे साथ एक और राष्ट्रीय प्रशिक्षक भी थे, बनारस से आए थे, जो हाल में ही राष्ट्रीय प्रशिक्षक बने थे।  कार्यक्रम का पहला सत्र मैंने लिया, उसके बाद दूसरे सत्र में ‘अभिप्रेरणा’ विषय पर प्रशिक्षण देने का काम उनको सौंप दिया। उन्होंने एक डायरी निकाली और एक के बाद एक ‘मोटीवेशनल’ शेर सुनाने लगे। शायरी सबको पसन्द आई, वाह-वाही से उनका हौसला बढ़ता गया और वे विषय प्रवेश न कर मुशायरे में प्रवेश कर गए। जब मुझे असहनीय हो गया तो मैं उठकर बाहर चला गया, एक घंटे बाद जब मैं लौटा तो उनका ‘सत्र’ सम्पन्न हो चुका था। मैंने अल्प-विश्रामकाल में प्रतिभागियों से पूछा- ‘अभिप्रेरणा का सत्र कैसा रहा?’
‘वाह-वाह।’ जवाब आया। मैंने अपना सिर पीट लिया।
          एक घटना ग्वालियर की, विषय ‘लीडरशिप’ ही था, इन्डियन जूनियर चेम्बर ने मेरे अतिरिक्त एक और प्रशिक्षक भेजा था जो आगरा के एक शासकीय महाविद्यालय में हिंदी की प्रोफ़ेसर थी। शुरुआती दो सत्र उन्हें लेने थे, लंच के बाद के दो मुझे। मेरी ट्रेन लगभग ग्यारह बजे ग्वालियर पहुँची, सज-संवर कर मैं लंच के समय सभागृह पहुँच गया। भोजन करते समय मैंने अपनी सहयोगी प्रशिक्षक से पूछा- ‘पिछले सत्र में आपने क्या ‘कव्हर’ किया?’
‘मैंने तो विषयसूची में निर्धारित चारों विषय दो सत्र में ही निपटा दिया।’ उन्होंने मासूमियत से बताया।
‘मेरे लिए क्या बचा?’
‘अब आपके लिए तो कुछ बचा नहीं, मैं तो समझी कि आप नहीं आओगे।’
‘पर मेडम, मेरा देर से आना तो पूर्वसूचित था, आपको कार्यक्रम संयोजक ने नहीं बताया? चलिए, कोई बात नहीं, उस विषय पर कुछ और बातें बता देता हूं।’ मैंने उन्हें समझाया। उन्होंने मुझे ज़रा अचरज़ से देखा।
          लंच के बाद वाला सत्र तीन घंटे चला, ‘लीडरशिप’ व्यापक विषय है, 'हरि अनंत हरि कथा अनंता', चाहे  जितना भी बता दो, कम है। मेरी उस प्रस्तुति के दौरान, पूरे समय मेरी सहयोगी प्रशिक्षक गौर से मुझे देखती-सुनती रही। समापन सत्र में हम दोनों अगल-बगल बैठे। उन्होंने मुझसे तनिक झुककर प्यार से पूछा- ‘आप कहीं पढ़ाते हैं क्या ?’
‘नहीं तो।’
‘फ़िर, क्या करते हैं?’
‘हलवाई हूं।’
‘ओ, नो।’ वे चमक कर बोली।
‘ओ, येस।’ मैंने  मुस्कुराकर कहा।

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                                                                  पल ये पल 


          मनुष्य को सदा भ्रम रहता है कि वह स्वयं अपने जीवन का संचालन कर रहा है लेकिन सच तो यह है कि घटनाएं, स्वयमेव अपने ढंग से होते रहती हैं- मनुष्य उनके आसपास 'जूडो-कराते' जैसी मुद्रा में खुद को बचाते की कोशिश करते रहता है। ज्यादातर उसकी पिटाई ही होती है क्योंकि कोई चाहे जितना शक्तिशाली हो, वह परिस्थितियों के मुक़ाबले कमजोर ही पड़ता है।
          एक घटना बताऊँ ? एक बार मैं अपने एक मित्र के साथ उनकी कार में बिलासपुर से रायपुर जा रहा था। मित्र की दो विशेषताएं थी, एक, वे शहर के धाकड़ और आक्रामक हस्ती माने जाते थे और दो, तेज गति से कार चलाना उनका स्वभाव था। उस समय 'वन-वे' सड़क थी, एक ट्रक ने उनकी कार को दस-बारह किलोमीटर तक 'साइड' नहीं दिया। आपको मेरे मित्र के क्रोध का अनुमान लग गया होगा। भन्नाते हुए किसी प्रकार उन्होंने ट्रक को 'ओवरटेक' कर लिया और कुछ आगे जाकर अपनी कार बीच सड़क में इस तरह खड़ी की कि उस ट्रक को रुकना पड़ा। मित्र का पारा चढ़ा हुआ था, वे ट्रक ड्राइवर के परिवार की महिला सदस्यों का स्मरण करते हुए बड़े तैश में कार से उतरे, हम भी उनके साथ उतरे। उधर ट्रक से भी तीन हट्टे-कट्टे सरदारजी उतरे और हमारी ओर आने लगे। उन तीनों को देखकर मित्र ने हमसे कहा- 'छोड़ो यार, ट्रक वालों के मुंह नहीं लगना चाहिए,... बहुत उजड्ड होते हैं' और तेजी से अपनी कार में वापस आकर 'फुल स्पीड' में रायपुर की ओर बढ़ गए।
         मनुष्य सोचता है कि उसके सामने चाहे जैसी भी स्थिति आएगी, वह निपट लेगा लेकिन जब परिस्थितियों से सामना होता है तो होश हवा हो जाता है। मैंने बहुत बुरे दिन देखे, बहुत बुरे। सच तो यह है बिलासपुर नगर के प्रतिष्ठित 'पेंड्रावाला' के द्वारिकाप्रसाद को वे दिन देखने पड़े इसीलिए तो इस आत्मकथा का जन्म हुआ !
         हम लोग नए घर में आ गए, छोटा सा घर लेकिन क्या करते ? अपनी दोनों अटैची कमरे के एक कोने में रखी और किचन के लिए बर्तन और अनाज आदि की व्यवस्था करने निकल पड़े। रात को लगभग नौ बजे घर आकर सामान रखा और हम सब रात्रि भोजन के लिए अपने 'पुराने' घर पहुँच गए। दद्दाजी हम सबका चेहरा देखते रह गए। दरअसल, घर से निकलते समय अम्मा ने माधुरी से कहा था- 'रात को खाना खाने यहीं आ जाना'। कैसा लगा आपको हमारा घर से निकलना और कुछ ही देर में पुनः जुड़ना ?
         सैंतीस वर्ष का सश्रम कारावास भुगत कर मैं जेल से बाहर आ गया था, मैं स्वतंत्र और तनावमुक्त 'फील' कर रहा था, माधुरी के दिल का हाल मैंने पता नहीं किया- इस कारण कुछ लिखना उचित नहीं लेकिन हमारे तीनों बच्चों और उनके दादी-दादी बहुत दुखी हो गए। हमारे पुत्र- कुंतल उस समय तीन वर्ष के थे, पुत्रियाँ- संज्ञा पांच वर्ष और संगीता आठ वर्ष की। तीनों स्कूल से लौटकर रोज अपने दादा-दादी के घर पहुँच जाते, उनसे बतियाते, मोहल्ले के साथियों के साथ खेलते और रात नौ बजे के पहले घर वापस आ जाते।   
         मेरे कई मित्रों को जब इस घटना का पता चला तो वे हाल-चाल जानने घर आए, वे विस्मित थे, मेरी मदद करना चाहते थे। घर में कुछ भी न था, यहाँ तक कि पलंग, बिस्तर, तकिया भी नहीं, हम सपरिवार जमीन पर दरी बिछाकर सोते थे। मेरे मित्र सुभाष दुबे ने पोर्टेबल कूलर भेज दिया, चन्द्रशेखर जालान तो हमारी व्यवस्था को देख कर नाराज़ हो गए और कहा- 'ये क्या ? तुरंत अपना बैग तैयार करो और मेरे घर चलो, जब तक तुम्हारी सही व्यवस्था नहीं होती तब तक हमारे साथ रहना।' उन्होंने जिद पकड़ ली, किसी प्रकार समझा-बुझा कर उनको विदा किया। 
         बड़े भैया को जब खबर लगी तो वे बिलासपुर आए, पहले दद्दाजी और अम्मा से बात की, उसके बाद हमें मनाने नए घर पहुंचे। उस समय मैं घर में नहीं था, उन्होंने माधुरी से कुछ देर बात की और सारी परिस्थितियों को समझने के बाद निर्णय दिया- 'ठीक है, यहीं रहो, उस घर में वापस जाने की ज़रूरत नहीं।' कुछ दिनों बाद, शायद उनकी पहल पर, हमारे कमरे का सामान जैसे, पलंग, बिस्तर, आलमारी आदि नए घर में पहुंचा दिया गया।
          ओफ़.... मैं तो आपको अपने गृह निष्कासन की घटना बताने लग गया लेकिन उसके पहले कुछ और महत्वपूर्ण घटनाएं भी हुई जिनका ज़िक्र छूट गया।
          मैंने प्रशिक्षण कार्यक्रम के अपने रुझान के बारे में आपको बताया था, वह सिलसिला आगे बढ़ा और मेरी प्रशिक्षण शैली की सुगंध आसपास बिखरने लगी। जेसीज़ अध्यायों में विभिन्न विषयों पर प्रशिक्षक के रूप में आमंत्रण आने लगे, मैं जाने लगा, प्रशंसा होने लगी, उत्साह बढ़ने लगा। प्रसिद्धि कुछ अधिक फैली और मुझे रायपुर, दुर्ग, भोपाल, इंदौर और ग्वालियर जैसे  महत्वपूर्ण अध्यायों में प्रशिक्षण देने के अवसर मिले। सन 1984 में भारतीय जूनियर चेंबर ने राज्य स्तर पर नए प्रशिक्षकों को विकसित करने की एक योजना बनाई जिसमें मध्यप्रदेश के समस्त अध्यायों से उन सदस्यों के आवेदन बुलाए गए जो प्रशिक्षक बनने की अभिलाषा रखते हों। उन्हें प्रशिक्षित करने के लिए इंदौर में दो दिवसीय 'राज्य प्रशिक्षक प्रशिक्षण सेमीनार' आयोजित किया गया जिसमें मुझे 'पायलट फेकल्टी' नियुक्त किया गया। आप समझ गए होंगे कि मेरी 'ट्रेनिंग एक्सप्रेस' ने कैसी 'स्पीड' पकड़ी ?
          आपको बता चुका हूँ कि मुझे तम्बाखू वाले पान खाने का बहुत शौक था, 'बाबा 160' से शुरू हुआ पान का स्वाद तब तक देशी पत्ती वाली तम्बाखू तक पहुँच चुका था। लगभग हर समय मेरे मुँह में पान भरा रहता था और मैं उसी स्थिति में बातचीत कर लेता था, आप हँसिएगा नहीं, प्रशिक्षण भी दे लेता था।
         इंदौर के सेमीनार में राज्य से चयनित कोई बीस प्रतिभागी रहे होंगे, हम तीन लोगों ने उन्हें प्रशिक्षण दिया। अंत में, उनसे 'फीडबेक' लिया गया, सम्पूर्ण कार्यक्रम और प्रशिक्षकों के बारे में उनके मूल्यांकन पर नज़र घुमाते समय मुझ पर किए गए एक 'कमेन्ट' को पढ़कर मैं चौंक गया- 'बहुत अच्छा प्रशिक्षण देते हैं लेकिन मुँह में आपका पान दबाकर प्रशिक्षण देना बहुत अजीब लगा, मेरी राय है कि आप पान खाना छोड़ दें या प्रशिक्षण देना।' 
         जिन्हें भी किसी नशे की लत है, वे जानते है कि इनकी गिरफ्त से निकलना कितना मुश्किल है ! मैं पान खाना छोड़ने की कोशिश, अनेक तरीक़ों से कर चुका और हार मान चुका था। मेरे मुँह में 'फ़ाइब्रोसिस' हो चुका था, मुँह कम खुलता था। डेंटिस्ट डा.पी.एन. गुलाटी ने मुझे समझाया- 'तुम धीरे-धीरे 'कैन्सर' की तरफ बढ़ रहे हो', मेरे मित्र डा.महेश कासलीवाल अक्सर कहते थे- 'देखना तू 'कैन्सर' से मरेगा' लेकिन मैं अनेक प्रयासों की बावज़ूद उस व्यसन से स्वयं को मुक्त नहीं कर पा रहा था। इंदौर से वापस आकर उस प्रशिक्षु के वे शब्द मेरे माथे पर जैसे चिपक गए- 'आप पान खाना छोड़ दें या प्रशिक्षण', ये चोट गहरी थी, निर्णय लेना ज़रूरी हो गया।
          मुझे समय ज़रूर लगा, एक दिन प्रशिक्षण जीत गया और पान, तम्बाखू, सुपारी हार गए। शैलेन्द्र अग्रवाल (इंदौर), धन्यवाद, आई लव यू। 
          एक और बुरी आदत मुझसे चिपकी हुई थी, 'रमी' खेलने की, संगत ऐसी थी कि मेरे पैर उस ओर बढ़ ही जाते थे। ये ज़रूर है कि हमारे दांव कमजोर रहते थे, हम लोग हार-जीत के लिए नहीं वरन मनोरंजन के लिए खेलते थे लेकिन बेशक़, आदत खराब थी। उससे व्यापार की एकाग्रता भंग होती थी और समय की बर्बादी भी होती थी लेकिन..लेकिन..और लेकिन। उसे याद कर अब शर्म महसूस होती है लेकिन जब शर्म आनी चाहिए थी तब नहीं आई, अब आई तो क्या आई ?

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          बिलासपुर के सदरबाजार में एक भूखंड हम तीनों भाइयों के नाम से कई वर्ष पूर्व खरीदा गया था जिस पर सन 1983 में 'लॉज' बनाने का निर्णय दद्दाजी ने लिया। उस समय तक दद्दाजी और बड़े भैया का शीतयुद्ध ठंडा पड़ चुका था, दोनों का मिलना-जुलना आरम्भ हो चुका था। बड़े भैया लॉज का नक्शा तैयार करने के लिए रायपुर से आर्किटेक्ट लेकर आए। योजना की चर्चा के दौरान मैं भी दर्शक दीर्घा में था, मैंने अपनी राय दी- 'कार पार्किंग' का प्रावधान होना चाहिए।' बिना पूछे राय देने का जो हाल हुआ करता है, वही हुआ, प्रस्ताव ध्वस्त। मैंने गौर किया कि कई बार बिना बोले रहा नहीं जाता और यदि बोल पड़ो तो अपमानित होना पड़ता है, खास तौर से 'बंधुवा मजदूर' को तो अपना पद हमेशा याद रखना ही चाहिए। खैर, ये सब होते रहता था, लॉज के निर्माण का कार्य आरम्भ होने के पूर्व सुबह पांच बजे भूमिपूजन हुआ, पूजन का सुअवसर मुझे नहीं मिला क्योंकि दद्दाजी ने कहा- 'मंझले से पूजा नहीं करवाई जाती'। मैंने यह तो सुना था कि मंझले लड़के अन्तिम संस्कार नहीं करते लेकिन मेरी जानकारी में एक और वृद्धि हुई कि उसे पूजन का अधिकार भी नहीं होता। हे प्रभो ! मंझलों के लिए भी कुछ उत्साहवर्धक नियम इस भारतवर्ष में भेजो।
           दद्दाजी का मैं 'दौडू' था, उनके काम, जैसे, लॉज निर्माण से जुड़े कार्य करना, उनके खाता-बही लिखना, रिश्तेदारी में दुःख-सुख में बाहर जाना, पत्र व्यवहार करना, बैंक, खाद्य विभाग, बिजली विभाग और आयकर विभाग आदि का काम करना। आयकर विभाग की बात निकली तो उससे जुड़ा एक किस्सा बताऊँ ?
          दद्दाजी अपने हिसाब-किताब और लेन-देन में बहुत मुस्तैद थे। रोज का काम रोज करना, समय पर अग्रिम आयकर जमा करना और अनुशासित जीवन जीना- उनकी स्थायी आदत थी। गलत काम करना नहीं, गलत बात करना नहीं, गलत बात सहना नहीं। हर वर्ष आयकर का 'रिटर्न' भरने के बाद 'रिफंड' की स्थिति बन जाती और आप तो जानते हैं कि भारतवर्ष में बिना रिश्वत के 'रिफंड ऑर्डर' करदाता को मिलते नहीं और दद्दाजी किसी को घूस दें, ये संभव न था। तीन साल के 'रिफंड ऑर्डर' ऑफिस में अटक गए थे, एक दिन दद्दाजी आयकर कार्यालय पहुँचे और 'डीलिंग क्लर्क' से बात की तो उसने टरका दिया, दद्दाजी भड़क गए और पूछा- 'कहाँ है तुम्हारा साहब ?' 
वे आयकर अधिकारी नरसिम्हन के कमरे में धड़धड़ाते घुस गए और उनकी अच्छी खबर ली। विभाग में तहलका मच गया। किसी व्यापारी की ऐसी हिम्मत ? साहब ने पता किया तो उनको मालूम हुआ कि वह 'पेंड्रावाला' है, नाम रामप्रसाद अग्रवाल।
          आयकर अधिकारी नरसिम्हन साहब मेरी दूकान के नियमित ग्राहक थे, उसी शाम वे आए और मुझसे पूछा- 'ये राम परसाद कौन है ?'
'मेरे पिता जी, आप उनको जानते हैं क्या ? मैंने उनसे पूछा।
'मइ आज इ उसको जाना।'
'आप उनसे मिले क्या, सर ?'
'आज हमारा ऑफिस आया था, भोत हल्ला किया।' 
'सॉरी सर, उनका आवाज़ ज़रा तेज है।'
'जरा तेज है ? भोत तेज है।'
'सॉरी सर, आप उनकी बात को ध्यान मत दीजिए।'
'ठीक है, अब से ऑफिस का कोई काम होगा तो तुमको आना, उसको भेजने का नइ, समज गया।'
'जी, समझ गया, सर।' मैंने हाथ जोड़कर उनको विदा किया।

          ब्रजेश कृष्ण की यह कविता दद्दाजी के स्वभाव पर लिखी गई लगती है :

''जब हर कहीं देखी जा रही हो
विरुदावली गायकों की जमात
या ठकुर-सुहाती के प्रवीणों का काफ़िला
तब बीते हुए काल के
मुंहफट आदमी को याद करना
हिमाक़त नहीं तो और क्या है ?

बड़े लोगों और उनके दरबार की बात छोड़ो
गौर करो अपने आसपास
दोस्तों की सहज और मामूली बातों पर
तुम पाओगे कि
साफ़गोई से बोलना
और कहना अपनी बात बिना डरे
पुरानी अठन्नी और चवन्नी की तरह
चलन से बाहर हो चुका है।

इस चौकन्ने समय में
सावधानी से बोलते हुए हम
पहले भांपते हैं सामनेवाले का चेहरा
और फिर बुरा न बनने की क़वायद में कुछ कहते हुए
छिपाते हैं ख़ुद को अपनी ही ओट में।

कठिन और शातिर लड़ाई में
पराजित योद्धा की तरह
समय से बाहर कर दिए गए
मुंहफट लोग अब इतने कम बचे हैं
कि उन्हें एक दुर्लभ प्रजाति की तरह
बचाने की ज़रुरत है।" 

          मेरे गृह निष्कासन के बाद जब मेरी सक्रियता कम हो गई तब दद्दाजी अपनी ही शक्ति से सारा कार्य संपादित करने लगे। उस समय वे लगभग सत्तर वर्ष के थे किन्तु उनकी मानसिक और शारीरिक सक्रियता प्रशंसनीय थी। वे गजब के जीवट इन्सान थे। एक दिन उन्होंने मुझसे कहा था- 'देखो, हम टूट जाएंगे लेकिन झुकने वालों में से नहीं हैं।'

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           28 जुलाई 1984 को संयुक्त राज्य अमेरिका के लास एंजिलिस में ओलिम्पिक खेल आरंभ हुए और उसी दिन से बिलासपुर में दूरदर्शन का 'रिले सेंटर' भी। बहुत दिनों से मैं 'हलवाई' की प्रतिष्ठा से मुक्ति लिए छटपटा रहा था। उन्हीं दिनों मेरा ध्यान टेलीविजन विक्रय की संभावना पर गया और मैंने उसी दूकान में बाजार से चार 'ब्लेक-एंड-व्हाईट' टीवी मंगवा कर रख लिए, दूकान चालू हो गई। इस प्रकार मैं एक नए व्यापार में प्रविष्ट हो गया, 'पेंड्रावाला' के एक तिहाई हिस्से में एक नया 'शोरूम' बन गया 'मधु छाया केंद्र'। शमशाद बेग़म का एक गीत आपको याद होगा- 'बड़ी मुश्किल से दिल की बेक़रारी को क़रार आया।' 
          एक शाम मेरे मित्र चन्द्रशेखर जालान दूकान आए और मुझसे पूछा- 'क्या हाल है ?'
'ठीक है।' मैंने बताया।
'क्या ठीक है ?'
'क्या मतलब ?'
'रिले सेंटर शुरू हो गया है, ये चार टीवी सजाकर क्या धंधा करेगा ?'
'यार, अपने पास पूँजी है नहीं, तकलीफ़ चल रही है, बस ऐसे ही चलेगा।'
           कुछ देर वे यूँ ही हंसी-मज़ाक़ करते रहे, फिर चले गए। अगले दिन दोपहर को लगभग एक बजे वे अपनी पत्नी सरिता के साथ कार में आए। मैं अपनी दूकान में बैठा था। मुझसे बोले- 'चल, मेरे साथ चल।'
'कहाँ जाना है ?' मैंने पूछा।
'सवाल बहुत करता है तू, तेरे से एक काम है।'
'मेरा कोई 'रिलीवर' नहीं है, कैसे जाऊं ?' 
'किसी 'स्टाफ' को बिठा दे, कौवे।'  'कौवे' शब्द का वही अर्थ था जो आप जानते हैं- काले रंग का चालाक पक्षी।              उन्होंने जिद पकड़ ली, मुझे वैसा ही करना पड़ा। मैं भी उनके साथ कार में बैठ गया। कार 'सिंडिकेट बैंक' में रुकी, हम तीनों अन्दर गए। शाखा प्रबंधक, जालान को आते देख खड़े हो गए, हम सबको आदरपूर्वक बैठाया और पूछा- 'जालान साहब, आपने कैसे तकलीफ़ की ?' चन्द्रशेखर जालान बिलासपुर के उद्योग 'एम.पी.अलॉय' के जनरल मैनेजर थे, उसी बैंक से उनका कारोबार था, पूरे शहर में उनकी बहुत प्रतिष्ठा थी।
'ये साढ़े पाँच लाख की एफ.डी.और एन.एस.सी. हैं, इसे अपने पास रख लीजिए, ये मेरे मित्र हैं इन्हें 'ओवर ड्राफ्ट एडवांस' कर दीजिए।' जालान ने मेरी और संकेत करते हुए कहा।
'आपको कितना चाहिए ?' प्रबंधक ने मुझसे पूछा।
'एक लाख में हो जाएगा।'
'बस, एक लाख, क्या करेंगे ?'
'टीवी और उससे सम्बन्धित सामान लेना है।'
'ठीक है, आप 'पार्टी' का नाम बताइये, मैं आपको एक लाख का 'ड्राफ्ट' बनवाकर देता हूँ।'
'आपकी 'फार्मेलिटी' ?'
'वह सब बाद में हो जाएगा, पहले आप खरीदी कर लीजिए। जालान जी, ये 'पेपर्स' आप रख लीजिए, इसकी ज़रुरत नहीं है, आपने कह दिया, उतना ही काफी है।' शाखा प्रबंधक राजा  नरसैय्या ने कहा।
           कहते हैं, 'जिसका कोई न हो, उसका खुदा होता है', आप बताइये, चंद्रशेखर जालान जैसा मित्र क्या ख़ुदा से कम होता है ?

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          मुझे ऐसा लगता है कि जीवन में कुछ भी निश्चित नहीं है, चाहे जितना अपना माथा फ़ोड़ो, कोशिशें करो, जैसा होना है, वैसे हालात बन जाएंगे। इसका मतलब आप यह न निकालें कि ऊपर आसमान में बैठा कोई इसे संचालित कर रहा है बल्कि ऐसा समझें कि धनुष में बाण चढ़ा कर संधान करते रहें, कभी न कभी वह लक्ष्य पर सटीक जा लगेगा। सफ़लता अपनी कीमत वसूल करती है, जो उस कीमत को चुकाने के लिये तैयार है उसे निराश होने की ज़रूरत नहीं। 
          सन 1984 में भारतीय जूनियर चेम्बर ने वृंदावन में ’राष्ट्रीय प्रशिक्षक प्रशिक्षण सेमिनार’ आयोजित किया जिसमें भाग लेने के लिये मैंने अपना पंजीयन करवाया और वहां पहुंच गया। दुर्भाग्य से ट्रेन पांच घंटे विलंब पहुची और मैं सेमिनार स्थल में दो घंटे देर से पहुंचा। ’पायलट फ़ेकल्टी’ सुब्रतो घोषाल ने प्रवेश देने से मना कर दिया। मैंने बहुतेरा समझाया कि गलती मेरी नहीं, ट्रेन की है लेकिन वे टस से मस न हुए। उनका तर्क था कि कार्यक्रम स्थल पर समय पर आने की अनिवार्यता को ध्यान में रखते हुए एक दिन पहले आना था। मैं समझ गया कि वे नियम से बंधे थे और मैं अपने प्रारब्ध से। एकबारगी मैं निराश हो गया लेकिन मैंने उनसे निवेदन किया- 'बहुत दूर से बीस घंटे की यात्रा करके आया हूं, तीन दिन बाद का वापसी ’रिजर्वेशन’ है, मेरे संकट को समझिये, सर।' उनके चेहरे पर दया का भाव उभरा और विलीन भी हो गया। याद है आपको फ़िल्म 'मुग़ल-ए-आज़म’ का संवाद- 'खुदा गवाह है, हम मोहब्बत के दुश्मन नहीं, उसूलों के गुलाम हैं’– मेरी प्रार्थना अस्वीकृत हो गई। मैंने फ़िर से कहा- 'आप मुझे भले ही भाग न लेने दें लेकिन दर्शक दीर्घा में प्रवेश दे दें।’ तीनों प्रशिक्षकों ने आपस में चर्चा करके अनुमति दे दी। 

          किसी अभिनेता को नाटक के मंच पर उतरने के पहले ’रिहर्सल’ करने का जो लाभ मिला करता है वह मुझे उन तीन दिनों की दर्शक दीर्घा में बैठने से मिल गया। प्रशिक्षण की बारीकियां, समझने-समझाने का तरीका, प्रस्तुतीकरण और उसमें होने वाली गलतियां- ये सब मेरे भविष्य के लिए बड़े उपयोगी सूत्र थे। अगले वर्ष पुनः अवसर मिला, भोपाल में, मैं वहां पहुंच गया लेकिन आप तो जानते ही हैं कि मेरे हर काम में विघ्नहर्ता निद्रालीन रहते हैं और राहु-केतु सक्रिय रहते हैं। यहां भी नई झंझट। पायलट फ़ेकल्टी सरदार रुपिन्दर सिंह सूरी ने मेरे प्रपत्र की जांच की और मेरा प्रवेश बाधित कर दिया। उनकी आपत्ति थी कि नियमानुसार राष्ट्रीय प्रशिक्षक बनने के लिए प्रतिभागी का राज्य प्रशिक्षक होना अनिवार्य था जबकि मैं राज्य प्रशिक्षक नहीं था। उन्होने मुझसे कहा- 'नो, मिस्टर अग्रवाल, यू आर नाट एलिजिबल।’
'सर, आप तो मुझे बहुत परेशानी में डाल रहे हैं।’ मैंने हिंदी में कहा।
'परेशानी ? क्या आपने नियम नहीं पढ़े?’
'सर, पिछ्ले दो वर्षों से मैं 'राज्य प्रशिक्षक प्रशिक्षण सेमिनार' का पायलट फ़ेकल्टी रहा हूं, क्या अब मुझे प्रशिक्षु बनना पड़ेगा?’
'अरे, ऐसा क्या?’ वे चौंके। उनके सहयोगी प्रशिक्षक डा. मो.अबसार फ़ारुकी ने मेरे कथन की पुष्टि की तब उन्होंने कहा- 'ओ.के. मिस्टर अग्रवाल, यू आर इन।’
          उसके बाद शुरू हुआ, हम प्रशिक्षुओं पर अंग्रेजी भाषा में भाषण का भीषण आक्रमण। प्रशिक्षण के उद्देश्य, वयस्कों में सीखने की बाधाएं, प्रशिक्षण की तैयारी और उसका प्रस्तुतीकरण, इसके अलावा और न जाने क्या-क्या ! सच कह रहा हूं, मेरा भेजा पक गया। ऐसा लगे, कहां मैं इन अंग्रेज की औलादों के बीच फ़ंस गया ?  प्रशिक्षण के दौरान हमारी कड़ी परीक्षा ली गई,  जैसे कोई फ़ौजी कार्यक्रम हो। सुबह साढ़े सात से रात साढ़े नौ बजे तक 'मैराथन लेक्चर’- जैसे गद्दा बनाने वाला कपड़े की खोल में ठूंस कर रुई भरता है फ़िर उसे सिलने के बाद गद्दे की डंडे से पिटाई करता है, बाप रे बाप ! अत्याचार की हद तब पार हो गई जब दूसरे दिवस की रात आठ बजे उन्होंने हम छ्ब्बीस प्रतिभागियों को एक-एक चिट उठवाकर अलग-अलग विषय देकर आदेश दिया- 'रात को अपना 'कोर्स डिजाइन’ करो और अगली सुबह 'प्रेजेन्टेशन’ दो।'

          दो दिनों तक बारह-बारह घन्टे चले 'इनपुट सेशन’ ने थका डाला था, दिमाग सुन्न पड़ गया था, आंखें नींद से बोझल थी, ऊपर से ’प्रेजेन्टेशन’ की रातों-रात तैयारी !  हड़बड़ी में 'डिनर’ लिया और काम में भिड़ गए । मेरी चिट निकली थी- 'बी योरसेल्फ़’ अर्थात ’अपने जैसा बनो’। रात में ग्यारह बजे के आस-पास मेरी तैयारी पूरी हो गई तब मैं अपने कमरे से बाहर निकला । आसपास के सभी कमरे खुले थे, सब अपने काम में लगे थे । सबको अलग-अलग विषय मिले थे पर अधिकांश लोग जानकारी और आवश्यक प्रशिक्षण सामग्री के अभाव में अपना प्रेजेन्टेशन 'डिजाइन’ नहीं कर पा रहे थे । मेरे पास भरपूर सामग्री थी और किन्चित अनुभव भी, मैं उनके साथ देर रात तक लगा रहा । लगभग सवा दो बजे वे तीनों अत्याचारी प्रशिक्षक 'सरप्राइज़ चेक’ में निकले और उस कमरे में पहुंच गए जहां मैं भी उनके साथ लगा था । सरदारजी भड़क गए- 'ये आपका कमरा तो नहीं है, आप यहां क्या कर रहे हैं ?' 
'सर....वो..।’
'क्या वो।’
'ज़रा घूमने आ गया था।’
'इतनी रात घूमने?  हम सब सुन चुके हैं।’
'सारी सर?’
'इतना काम्पिटीशन है, तुम्हें डर नहीं लगता?’
'जो होगा सो होगा पर मुझे इनकी सहायता करना ज़रूरी लगा ।’
'इसका मतलब है कि इस कारस्तानी का फ़ायदा आप और लोगों को भी दे चुके हैं।’
'जी, सारी सर।’
'जाइए अपने कमरे में।’ पायलट फ़ेकल्टी ने मुझे घुड़काया, मैं वहां से भागा और कमरे में जाकर सो गया।
         अगले दिन प्रेजेंटेशन हुए। प्रत्येक प्रेजेंटेशन के बाद तीनों प्रशिक्षक बारी-बारी से प्रस्तुति का मूल्यांकन करते थे। जब मेरी बारी आई तो मूल्यांकन पायलट फ़ेकल्टी रुपिन्दर सिंह सूरी को करना था। मुझे बीती रात की याद आई, सरदार जी का चेहरा तना हुआ सा दिखा। वे मुझे सिंह की तरह देख रहे थे और मैं हिरण के शावक की तरह सरपट भागने की मन:स्थिति में था। दिल धक-धक करने लगा किन्तु जैसे ही मेरी प्रस्तुति आरम्भ हुई, मुझमें ऐसी ऊर्जा का संचार हुआ कि मेरे सामने सब बौने थे और मैं केवल प्रशिक्षक था जिसे अपना प्रभावी प्रस्तुतीकरण करना था।
           समय पर मैंने प्रस्तुति समाप्त की और शान्त भाव से अपनी जगह पर जाकर बैठ गया। पायलट फ़ेकल्टी ने मेरा मूल्यांकन शुरू किया- 'लेट मी इन्ट्रोड्यूस , द अमिताभ बच्चन आफ़ इंडियन जूनियर चेम्बर, मिस्टर द्वारिका प्रसाद अग्रवाल।’
          मेरी सांस रुक सी गई, गला रुंध गया। छ्ब्बीस में से छः राष्ट्रीय प्रशिक्षक चुने गए उनमें मेरा नाम था या नहीं ? आप 'गेस’ कीजिए।

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          भारत में टेलीविजन का आगमन भारतवासियों के लिए एक चमत्कारिक घटना थी। संपूर्ण देश की धड़कन जैसे उसमें प्रसारित होनेवाले कार्यक्रमों से जुड़ गई थी। आधे घंटे के फ़िल्मी गीतों के कार्यक्रम 'चित्रहार’ और 'रंगोली’; धारावाहिक 'हम लोग’, 'बुनियाद’, 'ये जो है ज़िदगी’; रविवार की शाम को हिंदी फ़ीचर फ़िल्म; हिन्दी तथा अंग्रेजी में समाचार आदि के आकर्षण ने हर भारतवासी को अपने समीप बुलाकर बैठा लिया। । घर-घर सिनेमा आ गया, नाटक आ गया, गीत-संगीत आ गया, देश-विदेश की आंखों-देखी घटनाओं के समाचार, 'लाइव क्रिकेट मैच’ आदि बहुत कुछ आ गया और सबसे बड़ी बात- बहुत बड़ी आबादी के हाथ में 'जेन्युइन टाइम पास’ आ गया जो कालांतर में 'टाइम किलर’ बन गया। आज यह बात समझ में शायद ही आए कि वह कैसा पागलपन था लेकिन जिन्होंने उस युग को देखा है, उनसे पता कीजिए कि पूरा देश किस कदर टीवी-मय था, सब ओर एक ही चर्चा- टीवी का यह कार्यक्रम, वह कार्यक्रम; सीरियल का यह पात्र, वह पात्र। तब ही 'आंखें’ और 'आरजू’ जैसी सफ़ल फ़िल्मों के निर्माता रामानंद सागर ने भारतवर्ष के अत्यन्त लोकप्रिय ग्रन्थ पर एक 'सीरियल’ बनाया- 'रामायण’ जिसके प्रदर्शन ने प्रत्येक रविवार की सुबह 9 से 10 बजे तक का समय देश की बहुत बड़ी आबादी का अपने लिए आरक्षित कर लिया। उस एक घन्टे के लिए जैसे पूरे देश का रक्तप्रवाह थम सा जाता, समस्त गतिविधियां और आवागमन स्थगित हो जाते, टीवी के सामने असंख्य दर्शक तल्लीन होकर उस प्रदर्शन में खो जाते। 'तल्लीन' शब्द का असली अर्थ मैंने उस दर्शक समूह को देखकर जाना।
          बहुत कम लोगों के घर में टेलीविजन हुआ करते थे इसलिए उनके घर 'मिनी थियेटर’ जैसे हो गए थे। मोहल्ले-पड़ोस के स्त्री-पुरुष, बड़े-बूढ़े और बच्चे नियत समय पर पहुंच जाते, सबके बैठने की व्यवस्था बनाई जाती, कई बार भीड़ इतनी बढ़ जाती कि टीवी मालिक के परिवारजन खड़े-खड़े कार्यक्रम देखते क्योंकि उनके बैठने की जगह ही न बचती ! शुरुआती दिनों में तो शिष्टाचार चला फ़िर टालना शुरू हुआ और फ़िर भगाना। जिसे भगाया गया वह अपमानित हुआ और किसी प्रकार टीवी खरीदने की जुगत बिठाने लगा। उन दिनों ब्लेक-व्हाइट टीवी ही उपलब्ध थे जो तीन से चार हजार के बीच आ जाते थे लेकिन निम्न मध्यम वर्ग के लिए उतने पैसे की व्यवस्था आसान बात नहीं थी इसलिए बच्चों की ज़िद के आगे मां-बाप येन-केन-प्रकारेण घर में टीवी लाने के प्रयास करते जिनमें घरखर्च में कटौती, रिश्तेदारों से उधार और जेवर बेचने जैसे उपाय शामिल थे। गरीब तो उस समय टीवी से कोसों दूर था। फ़िर, 14'' के 'पोर्टेबल’ टीवी बाज़ार में आए, वे दो हजार के अन्दर आ जाते थे तब अनेक परिवारों का शौक सध गया। 
          व्यापार में सफ़लता के लिए ग्राहक की जरूरत समझना अत्यावश्यक है। ग्राहक को आज क्या चाहिए, उस वस्तु की आपूर्ति कैसी है? कल किस वस्तु की मांग आने वाली है, क्या संभावनाएं हैं? किसी नई वस्तु को ग्राहक की मांग के रूप में कैसे विकसित किया जाए? इन बातों को सफ़ल व्यापारी समय से पूर्व ताड़ कर उस पर काम करना शुरू कर देते हैं। उन दिनों टीवी की मांग का अनुमान लगाकर देश में बड़े पैमाने पर उत्पादन शुरू हुआ, सबसे अधिक ख्याति भारत सरकार के उपक्रम 'ई.सी.’ टीवी की थी जैसे, किसी जमाने में 'एच.एम.टी.’ घड़ियों की हुआ करती थी। उसी प्रकार उड़ीसा सरकार का 'कोणार्क’, उत्तरप्रदेश का 'अप्ट्रान’, केरल का 'केल्ट्रान’ आदि की उनके अपने प्रदेशों के अतिरिक्त अन्य राज्यों में भी अच्छी मांग थी। कुछ गैरसरकारी निर्माता भी बाज़ार में अपनी उपस्थिति दर्ज़ कर रहे थे जैसे- 'वेस्टन’, 'टेलीविस्टा’, 'डायनोरा’ आदि। किसी टीवी कंपनी की ’डीलरशिप’ लेना हे्मामालिनी से विवाह करने की इच्छा जैसा कठिन काम था। मैं 'अप्ट्रान’ की डीलरशिप लेने लखनऊ गया, मेरे एक स्कूली सहपाठी वहां इंजीनियर थे लेकिन वे मुझे प्रयास कर भी नहीं दिला पाए। वहां से दिल्ली गया, जहां मैंने 'वेस्टन’ और 'टेलीविस्टा’ के लिए कोशिश की लेकिन आप ऐसा समझिए कि उन्होंने मुझे भगाया भर नहीं। 
          नई 'टेक्नालाजी’ थी, टेलीविजन बहुत बिगड़ा करते थे, कुछ-न-कुछ गड़्बड़ होते रहता था। कम्पनियां न तो इन्जीनियर मुहैया कराती, न ही उनके सर्विस सेन्टर थे। टीवी सुधारने वाले शहर में मुश्किल से दो-चार होते थे, उनका दिमाग आसमान में रहता था और वे खूबसूरत युवतियों की तरह भाव खाते थे।  मुश्किलें बहुत थी पर मैने भरपूर टीवी बेचे, सबसे ज्यादा 'कोणार्क’।
         टेलीविजन का मेरा काम चल निकला यद्यपि जितने तेजी से ग्राहक बढ़े, उतनी ही तेजी से टीवी की दूकानें भी बढ़ी। प्रतिस्पर्धा तगड़ी थी इसलिए मज़ा भी आता था। मेरे लिए दोनों दूकानों का काम सम्हालना कठिन हो रहा था इसलिए 'पेन्ड्रावाला’ मैंने छोटे भाई को सौंप दी और मैं पूर्णकालिक रूप से 'मधु छाया केन्द्र’ में बैठने लगा। इस बीच, नए घर में हम लोग धीरे-धीरे व्यवस्थित होने लगे तब ही एक दिन माधुरी ने मुझसे कहा- 'ये घर बदलो।’
'क्या हुआ?’ मैने पूछा।
'कम्मू (हमारा पुत्र कुन्तल) आज बाहर से मां की गाली सीखकर आया, ये मोहल्ला मुझे ठीक नहीं लगता।’
'ठीक है, कहीं और देखता हूं।’ मैंने आश्वस्त किया। उसी सप्ताह हम लोग नेहरूनगर स्थित एक मित्र के घर में 'शिफ़्ट’ हो गए। जिस पुराने घर को हमने छोड़ा था वह मेरे मित्र भागवत दुबे का था, उन्होने मुझसे घर का किराया नहीं लिया। वही मुसीबत नए घर में भी पीछे लग गई, मकान मालिक एम.जी.तापस से किराया पूछा तो वे बोले- 'नहीं यार, मेरा ट्रान्सफ़र हो गया है, तुम मेरे घर की देखरेख करो, वही किराया है।’ अब आप बताओ कि किसी के घर में कितने दिन 'फ़्री’ में रहा जा सकता है? 
          अब आप इसे पढ़्कर मकानमालिकों के बारे में उम्दा राय न बना लें, भले लोग कम ही मिलते हैं। अपना घर छोड़ने के बाद मैंने चार मकान बदले तब यह समझ में आया कि मकानमालिक और उसकी घरवाली को सहना बहुत कठिन काम होता है। यदि वे अगल-बगल या ऊपर-नीचे रहते हैं तो उनकी सतर्क निगाहें आपके आने-जाने के समय पर, आपके घर आने-जाने वाले आगन्तुकों के सबब पर; उनके कान आपके घर से प्रसारित होने वाली प्रत्येक ध्वनि जैसे- हंसी, रुदन और बातचीत का पूरा ब्यौरा 'रेकार्ड’ करते रहते हैं। उनका लाडला पुत्र यदि आपके बच्चे की पिटाई कर दे तब भी आप मौन धारण करें या 'तुरन्त मकान खाली कर दें’- जैसी कठिन परिस्थिति भी सामने आ सकती है। एक बात और, क्या अच्छा हो कि आपको किरायेदार बनने की नौबत न आए लेकिन आ जाए तो ध्यान रखना कि किराए के घर की दीवार पर कभी कील न ठोकें, वह मकानमालिक के सीने में भाले जैसी चुभती है।
      

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                                                                  नया दौर 

          मेरा शहर बिलासपुर, छत्तीसगढ़ के मध्य में स्थित है जहाँ केवल तीन मौसम होते हैं : बारिश, गर्मी और बहुत गर्मी। बारह में से दस माह की गर्मी का प्रचण्ड रूप देखना हो तो मेरे शहर में आपका स्वागत है लेकिन ठण्ड , यूँ ही इठलाती-बलखाती आती और चली जाती है। स्वेटर से ही काम निकल जाता है, सूट और टाई पहनने के काम कम आते हैं, दिखाने के काम अधिक आते हैं। सूट-टाई की बात निकली तो मुझे बिलासपुर के एक कॉलेज के हिंदी विभाग के एक प्रोफ़ेसर की याद आ रही है जिन्हें किसी शहरवासी ने बगैर सूट-टाई के नहीं देखा। यह भी चर्चा थी कि वे सूट पहनकर ही सोया करते थे। खैर, अपुष्ट सूचना पर अधिक जोर देना ठीक नहीं लेकिन यह सच है कि बिलासपुर के मौसम में सूट-टाई धारण करना दुस्साहसिक 'लुकबाजी' हुआ करती थी पर अब तो ज़माना अम्भ से बदल गया है, जिसे देखो अब सूट धारण किए हुए दिखता है। पिछले बीस-पच्चीस वर्षों में अंग्रेजियत इस कदर पुष्पित-पल्लवित हुई कि उसका प्रभाव बोलचाल की भाषा और परिधान पर बहुत तेजी से फैला। अफसर से लेकर सेल्समेन तक और हॉटल मैनेजर से लेकर बेयरा तक, सब सूट धारण किए हुए हैं इसीलिए आज-कल के दूल्हे शर्म के मारे शेरवानी पहनने लगे हैं।
          सन १९७५ में जब मेरी शादी हुई थी तब एक सूट ससुराल के सौजन्य से और दूसरा अपने पैसे से बनवाया था। शादी के वक़्त मैं दुबला-पतला-छरहरा था लेकिन शरीर फ़ैल जाने के कारण मेरे वैवाहिक सूट 'मिसफिट' हो गए थे, हाँ, दूसरे विवाह का योग बनता तो नया सूट सिलवा लेता लेकिन ऐसा सुअवसर् सबको नहीं मिलता इसलिए उसके बाद फिर कभी नया सूट बनवाने की जरूरत नहीं पड़ी।
          इंडियन जूनियर चेम्बर ने सन १९८८ में नागपुर में दो दिवसीय 'ट्रेनर्स समिट' आयोजित की जिसमें देश के सभी राष्ट्रीय प्रशिक्षकों को प्रशिक्षण की आधुनिक शैली और सोच को विकसित करने के उद्देश्य से बुलाया गया। 'ड्रेस कोड' था- सूट और टाई। मेरे पास यह व्यवस्था नहीं थी, मेरे मित्र राष्ट्रीय प्रशिक्षक राजेश दुआ ने मुझसे पूछा- 'फिर, कैसा करेंगे, ड्रेस कोड के अभाव में वे 'एन्ट्री' नहीं देंगे ?'
'चल यार, अपन दोनों बिना सूट के चलते हैं, कोई कुछ नहीं बोलेगा।' मैंने कहा।  
          हम दोनों नागपुर पहुँचे, यथासमय मैं धोती-कुरता पहनकर और राजेश दुआ कुरता-पजामा और जाकेट धारणकर 'हाल' में निःसंकोच घुसे, सब हमें घूरकर देखते रहे पर किसी की हिम्मत नहीं हुई कि 'ड्रेस कोड' का ज़िक्र भी करे। भारतमाता की जय। 

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          हमारी बड़ी बिटिया संगीता अब बड़ी होने लगी थी, चौदह वर्ष की, तब ही एक कष्टदायक सिलसिला शुरू हो गया। कोई बालक हमारी बिटिया पर मोहित हो गया और उसने पत्र और कार्ड के माध्यम से हमारे घर में संदेश भेजने का अनवरत कार्यक्रम आरम्भ कर दिया। किसी दिन बड़ी सुबह वह घर के बाहर छोड़ जाता तो कभी पोस्ट से भेजता। नाम-पता कुछ नहीं। उसका हौसला बढ़ा और राह चलती बिटिया का फ़ोटोग्राफ़ भी भेजने लगा। घर में सब परेशान, कौन है? वह रास्ते में कोई हरकत न करता और फ़ोटो भी कहीं दूर से लेता ताकि उसकी पहचान छुपी रहे। ‘प्लेटोनिक लव्ह’ जानते हैं न आप? बस, कुछ वैसा ही। एक दिन, संगीता ने मुझसे कहा- ‘पापा, प्रिंसिपल मेम ने आपको स्कूल बुलाया है, कुछ गड़बड़ है, वे गुस्से में दिख रही थी।’
          अगली सुबह मैं प्रिन्सिपल सिस्टर ग्रेस से मिलने उनके आफ़िस पहुँचा, मैंने बाहर से ही पूछा- ‘मैं अन्दर आऊं?’
‘आइये।’ उन्होंने कहा और अपना टेबल ड्राअर खोला और बीस-पच्चीस कार्ड का एक बन्डल मेरी ओर पटकते हुए बढ़ाया और कहा- ‘ये देखिए, आपकी बेटी की करतूत।’ मैंने उन पत्रों को सरसरी निगाह से देखा, वे उसी पागल प्रेमी के लिखे गए कार्ड थे जो हमारे घर में भी साल भर से लगातार भेज रहा था। मैंने प्रिन्सिपल से पूछा- ‘ कोई इसे लिख रहा है इसमें मेरी बेटी की क्या गलती है मैडम, क्या मेरी बेटी ने किसी को लिखा?’
‘नहीं, लेकिन उसके नाम से स्कूल में ये सब आ रहा है।’
‘तो मैं क्या करूँ, ऐसे कार्ड हमारे घर में भी साल भर से आ रहे हैं लेकिन भेजने वाला न तो अपना नाम लिख रहा है, न ही सामने आ रहा है।’
‘ऐसा है क्या?'
'जी|' 
'मान लीजिए, आपको उसका पता लग जाए तो आप क्या करेंगे?’
‘बहुत आसान है मैडम।’
‘क्या।’
‘उसके घर के पते पर मैं उसकी माँ को प्रेमपत्र भेजना शुरू कर दूंगा, पूरे परिवार का दिमाग ठिकाने आ जाएगा।’ मैंने उपाय बताया। प्रिन्सिपल जोर से हँसी और मुझे गरम चाय पिलाकर विदा किया। 

          एक दिन हमारे घर में एक रजिस्टर्ड लिफाफा आया, साइज बड़ा, अन्दर हमारी बिटिया संगीता का गणतंत्र दिवस की परेड का नेतृत्व करते हुए एक 'एनलार्ज' फोटोग्राफ था। आप तो जानते हैं कि रजिस्टर्ड लिफ़ाफ़े में भेजनेवाले का पता लिखना ज़रूरी होता है, उसमें एक नाम था (जो फर्जी था) और पता लिखा था- 'सरस्वती शिशु मंदिर, बिलासपुर'। घर में आए समस्त 'प्रणय निवेदन पत्र' लेकर मैं सरस्वती शिशु मंदिर पहुँच गया और प्राचार्य को सम्पूर्ण घटना की जानकारी दी। प्राचार्य ने शिकायत को गंभीरता से लिया। उन दिनों शिशु मंदिर में अर्धवार्षिक परीक्षा चल रही थी इसलिए उत्तर पुस्तिकाओं से हस्तलिपि का मिलान आसानी से हो गया, पत्रप्रेषक दसवीं कक्षा का छात्र था, वह विद्युत मंडल के एक अधिकारी का पुत्र था। प्राचार्य ने उस छात्र के अभिभावक को शाला में तलब किया, उन पत्रों को देखकर उन्होंने अपने पुत्र की हस्तलिपि को पहचाना तब प्राचार्य ने उनसे ही पूछा- 'आप ही बताइये, आपके पुत्र पर क्या 'एक्शन' लिया जाए?' माता-पिता रो पड़े। उन्होंने क्षमा करने का निवेदन कर भरोसा दिलाया- 'यदि फिर शिकायत आए तो हमारे बेटे को 'रेस्टिकेट' कर दिया जाए'। प्राचार्य ने मुझसे पूछा, मुझे उतना 'स्पेस' देना उचित लगा। इस प्रकार, बड़ी मुश्किल से वह कष्टदायक सिलसिला बंद हो पाया।

          जिन घरों में कमउम्र लड़कियां बड़ी हो रही हैं वे परिवार बड़े अजीब हालातों से गुजरते हैं। लड़की को घर में ताले में बंद करके रखें तो वह पढ़ेगी कैसे ? अपने व्यक्तित्व को कैसे निखारेगी ? आजकल, लड़की के   ससुराल वालों का हाल भी अजीब दिखता है- बहू पसंद नहीं आई तो सास-ससुर कह देते हैं- 'भगाओ इसे, इसके माँ-बाप के घर'; पत्नी पसंद नहीं आई तो पतिदेव 'सुहागरात मनाने के पश्चात' कह देते हैं- 'मुझे तुम पसंद नहीं, मैंने तो अपने मम्मी-पापा का मन रखने के लिए तुमसे शादी की थी, तुम या तो मेरे मम्मी-पापा के साथ रहो या अपने मम्मी-पापा के पास, मैं अपने साथ नहीं रखूँगा।' अब, ऐसे अजब-ग़जब माहौल में लड़की को पढ़ाना-लिखाना और उसे मजबूत करना अभिभावक के लिए अनिवार्य हो गया है लेकिन घर के बाहर लड़कियों को खतरे ही खतरे। लड़की की शादी के पहले और उसकी शादी के बाद भी माँ-बाप का दिल हर समय धुक-धुक होते रहता है, न जाने कब क्या हो जाए ?
          जब किसी घर में लड़की का जन्म होता है तो लोग कहते हैं- 'बधाई, घर में लक्ष्मी आई', लेकिन नवागत 'लक्ष्मीजी' का भविष्य सुनिश्चित करने के लिए बेले गए पापड़ के स्वाद कई बार बेस्वाद हो जाते है, कई बार कडुवे तो कई बार जहरीले भी। इस घटिया सामाजिक व्यवस्था की सड़ांध में न जाने कैसे लड़कियाँ और लड़कियों के माँ-बाप जीते हैं और उसे सहते भी हैं! हमें भी दो बेटियों के लालन-पोषण का सुअवसर मिला, अत्यंत विपरीत सामाजिक, पारिवारिक और आर्थिक परिस्थितियों में उन्हें बड़ा किया, पढ़ाया लिखाया, उनका ब्याह किया। इस दायित्व निर्वहन में अनेक सुहृद मिले तो कुछ हृदयविहीन भी लेकिन वह सब बताने का समय अभी नहीं है, अभी तो आप उस दौर की वे घटनाएं पढ़ें जो भारत का अभिनव स्वरुप बना रही थी।
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           इधर, किराए के घर में एक अजीब घटना हो गई। हमारे बगल वाले घर में मकान मालिक के छोटे भाई रहते थे। दोनों भाइयों के बीच मनमुटाव था, मालिकाना हक को लेकर विवाद भी था इसलिए वे मेरी किराएदारी से रुष्ट रहा करते थे, हम लोगों से बातचीत भी नहीं करते थे परन्तु बच्चे आते-जाते थे क्योंकि वे हमउम्र थे।  उनका छोटा बेटा गरम मिजाज़ था और कई बार हमारे पुत्र कुंतल की अकारण पिटाई कर देता था। कुंतल स्वभाव का सीधा था, पिट कर रोते हुए घर आता और शिकायत करता तो मैं उसको समझाता- 'चलो कोई बात नहीं, गुस्सैल है, मार दिया होगा।' उसके माता-पिता से उसकी शिकायत करने का मतलब बच्चों की लड़ाई में बड़ों का बीच में पड़ना जैसा हो जाता, फिर, वह मकानमालिक के भाई का बेटा था, इसलिए हम लोग चुप रहते।  
          दोनों घरों का प्रवेश द्वार एक था जिसके बाहर मैंने अपनी 'नेमप्लेट' टांग दी ताकि मेरे परिचितों को घर खोजने में असुविधा न हो। एक दिन मकानमालिक के भाई ने मेरी नेमप्लेट वहां से निकाल कर फेंक दी। मुझे कुछ समझ न आया। एक सूत्र से मुझे मालूम पड़ा कि किसी व्यक्ति ने उनसे पूछ लिया- 'क्या तुम 'पेंड्रावाले' के घर में किराए से रहते हो?" 
'नहीं, वो तो मेरा किराएदार है.' 
'झूठ क्यों बोलते हो, 'पेंड्रावाला' और तुम्हारा किराएदार? हो ही नहीं सकता, नेमप्लेट तो उसी की लगी है।'
          बस, इस बात से आहत होकर उसने मेरी नेमप्लेट हटा दी और हमें वहां से निर्वासित करने की योजना बनाने में सन्नद्ध हो गया। उसकी योजना सफल हो गई और एक रात ग्यारह बजे स्वयं मकानमालिक अपने छोटे भाई के घर से भोजन करने के पश्चात मेरे घर आए और मकान खाली करने की 'नोटिस' दे गए।  मैं किराए का पांचवा घर खोजने निकला, एक मिल भी गया। इधर, माधुरी ने भी मुझे नोटिस दे दिया - 'अब किराए के घर में नहीं जाती, खुद के घर में जाऊँगी।'
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          बच्चों की किशोरावस्था की मानसिकता को समझना ज़रा कठिन काम है. सीखने का काम वे खुद करना चाहते हैं लेकिन उनके माता-पिता उन्हें बच्चा ही समझते रहते हैं और उनके पीछे लगे रहते हैं. परिणामस्वरूप एक अदृश्य दूरी विकसित होने लगती है और किशोर वय उन्हें अनसुना करने लगता है. वे सोचते हैं- ‘इनकी तो बड़-बड़ करने की आदत है’, इस कारण अनेक महत्वपूर्ण बातें भी दर-किनार हो जाती हैं. सामान्यतया, परिवार में अभिभावकों का एक-तरफ़ा भाषण चलता है जो संप्रेषण नहीं बन पाता क्योंकि संप्रेषण के लिए यह ज़रूरी है कि जो कुछ कहा जा रहा है उसे सुना जाए, समझा जाए और कहने वाले को वापस मालूम पड़े कि सुननेवाले ने क्या सुना और समझा? परिवार में आपसी संवाद बना रहे तब ही दोनों पीढ़ियां एक-दूसरे को बखूबी समझ पाती हैं अन्यथा गलतफ़हमियों की संभावना बढ़्ती जाती है. 
          हर उम्र अपने निष्कर्ष निकालती है और समय के अनुरूप खुद को ढालती है. पुराने ‘फंडे’ चाहे जितने उपयोगी रहे हों लेकिन मौज़ूदा समय में काम नहीं आते. उदाहरण के लिए- हमने किताबों में पढ़ा है- ‘सदा सच बोलना चाहिए’. अब इस युग में सदा सच बोलने वाले की क्या दशा-दुर्दशा बनेगी, जरा सोचिए! हमारे पुत्र कुंतल ने एक दिन पूछा- ‘पापा, क्या सदा सच बोलना चाहिए?’ 
‘नहीं.’ मैंने उत्तर दिया.
‘पर हमें तो यही बताया जाता है.’
‘उसमें सुधार की जरूरत है.’
‘क्या?’
‘उसमें से ‘सदा’ शब्द को निकाल देना चाहिए.’
‘क्यों?’
‘ये दुनियां ऐसी ही है, सच को लोग पसन्द करते हैं लेकिन बर्दाश्त नहीं कर सकते.’
‘मैं समझा नहीं.’
‘देखो, सच बोलना एक रणनीति होती है जो मनुष्य की प्रगति में बहुत सहायक है. वही व्यक्ति तरक्की करता है जिसकी विश्वसनीयता होती है और वह सच बोलने और दिया गया वचन निभाने से बनती है इसलिए सच बोलना उपयोगी है लेकिन यदि सच बोलने से खुद को या किसी और को नुकसान की सम्भावना हो तब या तो चुप रह जाना चाहिए या झूठ को इस तरह बोलना चाहिए कि वह सच लगे.’
‘मैं ठीक से नहीं समझ पा रहा हूं.’
‘उसे तुम्हारी ज़िंदगी के अनुभव समझाएंगे.’ मैंने उसे समझाया.
           हमारे बच्चे हमसे अधिक जानकार हैं और समझदार भी. अभिभावक की भूमिका में हम उन्हें ‘अन्डर-असेस’ करते हैं, मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि उनका बुद्धिचातुर्य विलक्षण है. एक बार की बात है, हमारी बड़ी बिटिया संगीता जब दसवीं कक्षा में पढ़ रही थी, उसने मुझसे पूछा- ‘पापा, हमारी स्कूल का ‘ट्रिप’ अमरकंटक जा रहा है तो क्या मैं आपका कैमरा ले जाऊं?’ मैं चुप रहा तो उसने वही प्रश्न फ़िर से किया. मैंने जवाब दिया- ‘जब अमरकंटक जाने का निर्णय तुमने खुद ले लिया तो कैमरा ले जाने का निर्णय भी ले लो.’
‘नहीं पापा, ऐसा नहीं है, मुझे मालूम है कि आप अमरकंटक जाने के लिए कभी मना नहीं करेंगे, हाँ, कैमरा के लिए मना कर सकते हैं.’ संगीता ने मुझे समझाया.
          इस पिता-पुत्री संवाद में संगीता की बातों में छुपी चतुराई को आप समझ गए होंगे. कई बार जो कुछ कहा जा रहा है उन शब्दों के पीछे भी कई अन्य बातें छुपी रहती हैं जिस पर ध्यान देने से ही असल बात समझ में आती है. किसी बात को सही ढंग से समझने के लिए सुनने का धैर्य विकसित करना बेहद जरूरी है. चुप रहकर सुनना बहुत कठिन होता है क्योंकि हमारे बोलने का उतावलापन बाधक बन जाता है. चुप रहकर सुनने वाले को हम लोग उपहास में ‘मौनी बाबा’ कहा करते हैं जबकि सच तो यह है कि मौन ही वह साधन है जिसकी सहायता से हम सामनेवाले की बात को सही ढंग से समझ सकते हैं. यही मौन स्वयं को जानने का भी साधन है. संत गुरु नानकदेव ने अपनी अपूर्व वाणी ‘जपुजी’ में श्रवण के महत्व पर चार पौढ़ियां में गंभीर चर्चा की है. 
          आचार्य रजनीश (ओशो) कहते हैं- ‘तुम बोलते वक्त सजग होते हो, सुनते वक्त नहीं होते...जब भी कोई दूसरा तुमसे बोलता है तुम सजग नहीं होते क्योंकि एक ‘इंटरनल डायलाग’ है- एक भीतर चलने वाला वार्तालाप है, जिसमें तुम दबे रहते हो. दूसरा बोले चला जाता है, तुम ऐसा भाव भी प्रकट करते हो कि तुम सुन रहे हो लेकिन वह (केवल) तुम्हारी भावभंगिमा है, भीतर तुम बोले चले जा रहे हो. जब तुम भीतर बोल रहे हो तो किसकी सुनोगे? तुम भीतर जो बोल रहा है उसको ही सुनोगे क्योंकि बाहर बोलनेवाले की आवाज तो तुम्हारे तक पहुँच ही न पाएगी.’
          मेरे मित्र बी.के.मेहता, जब वे मध्यप्रदेश विद्युत मंडल बिलासपुर के मुख्य अभियंता थे, एक दिन उनके कार्यालयीन समय में मैं उनसे मिलने गया. लगभग आधे घंटे मैं वहां बैठा. उस बीच दो नागरिक अपनी समस्या लेकर उनके पास आए. मैंने गौर किया कि उन दोनों की समस्या उन्होंने ध्यान से सुनी, बीच में छोटे-छोटे प्रश्न किए ताकि सारे विवरण उभर कर सामने आ जाएं. उनकी बात पूरी होने पर उन्हीं से पूछा- ‘तो आप क्या चाहते हैं?’ उनका समाधान सुनकर उनसे शालीनता से कहा- ‘आप जाइये, आपका काम हो जाएगा.’ उनके जाने के बाद मैंने मेहता जी से पूछा- ‘आपने उनकी समस्या का समाधान इतनी आसानी से कर दिया?’
‘मैं यह जानता हूं कि कोई व्यक्ति यदि मुझ तक अपनी समस्या लेकर आया है तो वह मेरे अधीनस्थों से निराश होकर सुनवाई की उम्मीद लेकर आता है. मेरा काम उनको यह संतोष दिलाना है कि उनकी बात सुनी गई, मैंने वही किया. दूसरी बात यह है कि जिस व्यक्ति कि समस्या होती है- उसी के पास समाधान भी होता है. इन दोनों की व्यक्तियों की समस्याओं के समाधान नियमों के अनुकूल थे इसलिए मुझे निर्णय लेने में कोई परेशानी नहीं हुई.’ उन्होंने कहा.
‘और, अगर वे समाधान नियमों के प्रतिकूल होते तो?’             
‘पहले तो, वे यहां तक आने की हिम्मत ही न करते, फ़िर भी यदि नियम की जानकारी न होने के कारण कोई मेरे पास आता है तो उसे समझाना और संतुष्ट करना मेरी जिम्मेदारी बनती है.’ 
'इसके लिए तो आपको उससे बहुत सी बातें करनी पड़ेगी लेकिन मैंने देखा कि आप बोलने में बहुत कंजूसी करते हैं.'
'असल बात यह है कि मैं बोलूंगा तो सुनूंगा कैसे? सुनना पहली प्राथमिकता होती है, उसके बाद समझना और फिर समझाना। वैसे किसी भी बात को कम शब्दों में भी समझाया जा सकता है.' उन्होंने बताया.                               पुरानी कहावत है- ‘बातहिं हाथी पाइये, बातहिं हाथी पाँव’, अर्थात, मीठी बातों से हाथी इनाम में मिल सकता है और बकवास करने से हाथी के पैर से कुचले जाने की सज़ा. बोलने और सुनने के बीच संतुलन बनाने का हुनर प्रयास से विकसित किया जा सकता है, इसके लिए तनिक जागरूकता और सतर्कता की जरूरत होती है. हमारे वाणी संयम में सबसे बड़ी अड़चन हमारा स्वभाव है. बहिर्मुखी व्यक्ति के लिए चुप रहना कठिन काम होता है; कब बोलना, कितना बोलना, कैसे बोलना- इसमें उससे अक्सर चूक होती है जिसके परिणाम घातक भी हो जाते हैं.
          कई बार कही गई बात रास्ता भटक जाती है, किसी दूसरी जगह टकरा जाती है और अनर्थ हो जाता है. एक घटना आपको सतर्क रहने के लिए बता रहा हूँ; मेरे मित्र सुधीर की पत्नी शशि खंडेलवाल ने हमें अपने घर ‘डिनर’ पर आमंत्रित किया. रात को हम सपरिवार उनके घर पहुंचे. भोजन में हमें परोसा गया- पराठा, करेले का साग और आम का अचार. करेला को देखकर मेरे रोंगटे खड़े हो गए. करेला मुझसे नहीं खाया जाता क्योंकि उसका कड़ुआपन मुझे सख्त नापसन्द था लेकिन आम का अचार देखकर हिम्मत वापस आई. करेले को मैंने छुआ भी नहीं, वह उपेक्षित सा पड़ा रहा. जब शशि भाभी मुझे दूसरा पराठा परोसने आई तो उन्होंने पूछा- ‘भाई साहब आपने तो करेला खाया नहीं?’        
‘मुझे बिलकुल पसन्द नहीं, मेरे समझ नहीं आता कि लोग इसे कैसे खा लेते हैं?’
‘थोड़ा सा खाकर तो देखिये.’ उनके आग्रह पर मैंने खाया, करेला अत्यन्त स्वादिष्ट था. फ़िर तो उसके बाद दूसरा और तीसरा भी. जब भाभी चौथा करेला परोसने लगी तो मैंने उनसे कहा- ‘बस अब नहीं लूंगा, पेट भर गया.’
‘कैसा लगा आपको करेला?’
‘शानदार भाभी, ऐसा स्वादिष्ट करेला तो मैंने अपनी ज़िंदगी में कभी नहीं खाया.’
‘फ़िर आपको एक और लेना चाहिए.’
‘नहीं, अब और नहीं, हाँ, सबके खाने के बाद यदि बच जाए तो ‘पैक’ करके दे दीजिएगा, मैं कल सुबह नास्ते में ले लूंगा.’ मैंने कहा. उसके बाद रात को बारह-साढ़े बारह बजे तक गप-शप होती रही, वहां से लौटते समय बचे हुए करेले भी घर आ गए, अगली सुबह माधुरी ने पराठा बनाकर परोसा और साथ में रात वाले करेले भी. 
          घर में साग-भाजी बाजार से लाने का काम मेरा है, भले ही मुझे पसन्द न था लेकिन अन्य सब्जियों के साथ करेला भी घर आता था लेकिन मैंने गौर किया कि कई दिनों से वह नहीं बन रहा था. एक दिन, खाना खाते समय मैंने माधुरी से पूछा- 'आजकल करेला नहीं बनता जबकि मैं लाते रहता हूं?’
‘मैंने उसे बनाना बंद कर दिया, तुम जो करेला लाते हो उसे मैं फ़ेक देती हूँ.’
‘ऐसा क्यों?’
‘हमको तो बनाना आता नहीं, तुम्हारी ज़िन्दगी का सबसे अच्छा करेला शशि भाभी ने बनाया था. अब तुमको जब खाना रहे तो अपनी उसी भाभी के पास जाकर खा लिया करो.’ 
          अब आप समझ गए होंगे कि कहे गए शब्द भी फ़िसल कर कैसे रास्ता भटक जाते हैं!

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                                                          रहने को घर नहीं है
                                                       
           घर बनवाने के लिए जमीन तो थी लेकिन घर खड़ा करने के लिए मेरे पास धन की व्यवस्था न थी। धंधा कमजोर चल रहा था। घर का किराया, सामान्य घरेलू खर्च, तीन बच्चों की पढ़ाई, बैंक का ब्याज और रिश्तेदारी में आना-जाना इत्यादि मिलाकर किसी प्रकार गाड़ी घिसट रही थी। हम लोग किफायत से रहते थे इसलिए कोई अड़चन न थी लेकिन बचत भी न थी। यक्ष प्रश्न यह था कि धन के अभाव में घर कैसे बने? फिर भी, 'चलो घर बनवाते हैं' का खेल शुरू किया गया। आर्किटेक्ट से घर का एक नक्शा बनवाया गया जिसकी अनुमानित लागत पांच लाख 'प्लस' निकली। जेब में पांच हजार न थे तो मकान कैसे बनता इसलिए मैंने और माधुरी ने आपस में तय किया कि अपनी जमीन के एक कोने में 'स्टाफ क्वाटर' जैसा बनाकर रहेंगे, उसके बाद जब सुविधा होगी तो नक़्शे के हिसाब से घर बनवाएंगे।    
          जेब में पांच हजार न थे तो मकान कैसे बनता इसलिए मैंने और माधुरी ने आपस में तय किया कि अपनी जमीन के एक कोने में 'स्टाफ क्वाटर' जैसा बनाकर रहेंगे, उसके बाद जब सुविधा होगी तो नक़्शे के हिसाब से घर बनवाएंगे। मैंने अपने आर्किटेक्ट सुनील सोनी को परिवर्तित योजना बताई तो उन्होंने एक सादे कागज़ पर कुछ रेखाएं खींच दी और एक कामचलाऊ प्रारूप बनाकर दे दिया। सन १९९२ में खींची गई उन रेखाओं के आधार पर बने उस 'कामचलाऊ घर' को बने अब बाईस साल हो गए हैं, हम अभी भी उसी घर में रह रहे हैं क्योंकि जिस शेष जमीन पर हमें अपना 'ड्रीम हाउस' बनाना था- वह जमीन मेरी मुफलिसी के चलते बिक गई। क्यों बिकी ? ये बाद की बात है, बाद में बताऊंगा !
          घर की नींव खुद गई, अब उसे भरने के लिए सरिया और सीमेंट की ज़रुरत थी। मेरे एक सुहृद विनोद मिश्रा ने सलाह दी कि हमारे पूर्वज अपने घरों में पत्थर की नींव तैयार करवाते थे, दो-दो मंजिल के मकान बनते थे तो फिर अब ये सरिया-सीमेंट की अनिवार्यता क्यों ? उनका बताया नुस्खा मुझे जंचा, बचत भी समझ में आई, मैंने नींव में पत्थर भरवा कर मुरम से जोड़ाई करवा दी और भरपूर पानी डलवाया ताकि वह भलीभांति 'सेट' हो जाए। उस बीचबारिश का मौसम आ गया, काम तीन महीने रुका रहा, फिर शुरू हुआ। बाजार से निर्माण सामग्री उधार में आती रही और घर बनता रहा। जब घर की छत ढालने का काम सामने आया तो आर्किटेक्ट ने कहा- 'द्वारिका भाई, पांच इंच का 'स्लेब' ढलेगा।'
'भाई मेरे, पांच इंच में बहुत खर्च आएगा, कम करो यार।' मैंने कहा.
'उससे कम में नहीं हो सकता।'
'अपन तीन इंच का स्लेब ढालेंगे।'
'आपकी जो मर्जी करिये, कल के दिन छत बैठेगी तो मेरी ज़िम्मेदारी नहीं।'
'किसी दुर्घटना की कौन जिम्मेदारी लेता है सोनी जी, सब दूसरों पर डाल देते हैं। चलो, वैसे भी, अगर छत गिरी तो हम सब उसी में दबकर दफ़न हो जाएंगे, आपसे शिकायत करने वाला कोई न बचेगा।' मैंने कहा.

बेचारे सोनी जी 'आप जानिए' की भंगिमा बनाकर मुस्कुराए और चुप हो गए। 

          उधर मकान का काम बढ़ रहा था, इधर बाजार की उधारी चढ़ते जा रही थी। नगर में प्रतिष्ठित 'पेंड्रावाला' की औलाद को उधार मिलने में कोई तकलीफ न थी लेकिन देर से ही सही, प्रतिष्ठा बचाने के लिए भुगतान तो करना ही था। इसी चिंता में एक दिन मैं अपनी दूकान 'मधु छाया केंद्र' में गंभीर मुद्रा में बैठा था तब ही दद्दाजी के एक मित्र श्री गोपाल भगत मेरे पास आए और पूछा- 'क्या बात है, क्या सोच रहे हो, द्वारका बाबू ?'
'चाचाजी, घर बनवाने का काम शुरू किया है, पैसे की अड़चन हो रही है। उसी में मेरा दिमाग उलझा हुआ है।'
'कितना चाहिए ?'
'एक लाख।'
'चिंता मत करो, कल इसी वक्त तुम्हारा काम हो जाएगा।' उन्होंने कहा.
          अगले दिन हस्ताक्षर किया हुआ पंजाब नेशनल बैंक का एक कोरा चेक उन्होंने मुझे दिया और निर्देश दिया- 'जितनी जरुरत हो, 'अमाउंट' भर लेना और मुझे फोन से बता देना ताकि उतनी व्यवस्था मेरे खाते में रहे। 'इस प्रकार वे अनायास संकटमोचक की तरह प्रगट हुए और मेरी समस्या का तात्कालिक समाधान हो गया। घर में पलस्तर और दाने वाली 'टाइल्स' का काम लग गया। 'ये भी बनवा लो', 'ये भी करवा लो' के चक्कर में तथाकथित 'स्टाफ क्वाटर' एक छोटे से खूबसूरत घर में बदल गया।

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         घर का काम शुरू करने के पहले मैंने घर का नक्शा नगर पालिका के कार्यालय में जमा कर दिया, बिजली कनेक्शन लगाने का आवेदन विद्युत् मंडल में दे दिया था लेकिन न नक्शा पास हुआ और न बिजली का कनेक्शन मिला क्योंकि दोनों देवस्थानों में काम आगे बढ़ाने के लिए पांच-पांच सौ रूपए के रिजर्व बैंक के गवर्नर के हस्ताक्षरित एवं महात्मा गाँधी के छायाचित्र से युक्त पत्रपुष्प चढ़ाना आवश्यक था। मैं किसी अंधश्रद्धालु की तरह प्रत्येक माह दोनों कार्यालयों में अपना शीश झुकाता रहा, वे मुझे टरकाते रहे। न उन्होंने अपना मुंह खोला और न मैंने अपनी पर्स। दरअसल मैं यह नहीं समझ पा रहा था कि यदि आवेदन नियमानुसार थे तो रिश्वत किस बात की ?
          इस बीच मकान का काम बढ़ता रहा और दस माह में 'रहने लायक' तैयार भी हो गया अर्थात, घर के प्रवेश व पीछे दरवाजे लग गए लेकिन घर के अन्दर कमरों के दरवाजे नहीं बन सके, खिडकियों में ग्रिल लग गई लेकिन पल्ले नहीं लग सके, सामान रखने के लिए आलमारियाँ न बन सकी लेकिन दीवारों में जगह बन गई, दीवारों में 'व्हाईट सीमेंट' पुत गई लेकिन 'पेंटिंग' न हो सकी, फर्श में 'मोजाइक टाइल्स' लग गई लेकिन 'पालिस' न हो सकी, 'इलेक्ट्रिक फिटिंग्स' लग गई लेकिन विद्युत् प्रवाह चालू न हुआ, 'बाउंड्री वाल' न बन सकी आदि।
          कहावत है, 'शादी करके देख, मकान बनवा के देख'- बिना आर्थिक संसाधन के घर बनवाने का तनाव सहते-सहते हम पति-पत्नी के चेहरे पिंडखजूर से बदलकर छुहारा हो गए थे, फिर भी, अपना घर बन जाने की आंतरिक प्रसन्नता का वह अनुभव अवर्णनीय है। घर आधा-अधूरा ही सही- अपना तो है। है न ?  
          गृहप्रवेश का कार्यक्रम दिन में था, छोटे भाई राजकुमार ने अभ्यागतों के लिए सामान्य भोजन के अतिरिक्त 'महाशिवरात्रि' पर्व को ध्यान में रखते हुए फलाहार की भी व्यवस्था करवाई। सब आए लेकिन हमारे एक मेहमान दिन में न आकर शाम के धुंधलके में सपत्नीक आए, विद्युत् मंडल के मुख्य अभियंता- बी.के.मेहता। वे जमीन पर बिछी दरी पर बैठे, चारों तरफ देखकर आधे-अधूरे घर का मुआयना किया, फिर उन्होंने मुझसे पूछा- 'घर में अन्धेरा क्यों कर रखा है ?'
'घर में अभी तक बिजली का कनेक्शन नहीं लगा है।' मैंने उन्हें बताया।
'क्यों, 'एप्लाई' नहीं किया ?'
'लगभग एक साल हो गया।'
'फिर ?'
'नहीं मिला इसीलिए तो आप अँधेरे में बैठे हैं।'

'क्या कारण बताया गया ?'

'मैंने 'थ्री फेस कनेक्शन' माँगा है, वे कहते हैं कि कालोनी में 'सिंगल फेस' लाइन है, थ्री फेस लाइन जब होगी तब लगेगा।'

'तो आप चुपचाप प्रतीक्षा कर रहे हैं।'

'मैं और क्या करता ?'

'एक बात बताइये, मैं आपकी दूकान में आपसे मिलने महीने में तीन-चार बार ज़रूर आता हूँ, आपने मुझे कभी बताया नहीं।'

'मेहता जी, इतने छोटे से काम के लिए 'चीफ इजीनियर' को कहा जाए, मुझे उचित नहीं लगा।'

'आप हद करते हैं, अग्रवाल जी।' उन्होंने कहा, नास्ता-चाय लिया, नमस्कार किया और चले गए।

अगले दिन विद्युत मंडल का वाहन ढेर सारा साज-ओ-सामान लेकर मित्रविहार कालोनी में घुसा, दो दिन के अन्दर 'थ्री फेस' लाइन लग गई। उसके बाद हमारे घर में विद्युत् प्रवाह आरंभ हो गया। हम लोग अँधेरे से उजाले में आ गए ! 

           ले-दे कर किसी प्रकार रहने लायक घर बन गया, हमें किराए के घरों से मुक्ति मिली लेकिन नगरपालिका ने हमारे घर का नक्शा 'पास' नहीं किया। भवन अनुज्ञा विभाग के इंजीनियर सुधीर गुप्ता मेरे 'जेसी' मित्र थे, वे मुझे कार्यालय का चक्कर लगाता देख शर्मिन्दा होते और कहते- 'बस, आप अगली बार आएँगे तो आपका नक्शा पास हुआ मिलेगा, आप यहाँ बार-बार आते हैं, मुझे ख़राब लगता है।' पर, मैं आपको बता ही चुका हूँ कि भवसागर से पार उतरने का 'टोल टेक्स' भरे बिना कोई कैसे पार हो सकता था ?
एक दिन कार्यालयीन समय पर मैं नगरपालिका के आयुक्त जगदीशशरणसिंह चौहान के चेंबर में बिना पूछे घुस गया, तीन लोग और भी बैठे थे। मैंने उनसे कहा- 'एक साल से ऊपर हो गया, मेरे घर का नक्शा पास नहीं हुआ जबकि सभी आवश्यक प्रपत्र दिए गए हैं, आपकी तरफ से कोई आपत्ति नहीं आई, फिर भी मैं चक्कर काट रहा हूँ। सुना है, आप पांच सौ रुपए लेकर दस्तखत करते हैं लेकिन मैं एक पैसा नहीं दूंगा। अब आपके पास दो रास्ते बचे हैं, या तो बिना अनुमति बन चुके मेरे घर को तोड़ने का आदेश आज ही निकालिए या मुझे अभी अनुमतिपत्र दीजिए।'

          चौहान साहब सकपकाए, मुझसे बैठने के लिए कहा, मेरा नाम पूछा, सहायक को बुलाकर मेरी फ़ाइल मंगवाई और अपने खूबसूरत हस्ताक्षर कर दिए।

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                                                               फिर ऐसा भी हुआ 

          निर्माणाधीन लॉज का ‘सिविल वर्क’ पूरा हो चुका था, उसे चालू करने की सारी कोशिशें किसी न किसी बाधा के कारण स्थगित हो जाती थी, सबसे बड़ी बाधा थी- प्रेत बाधा। हाँ, वही भूत-प्रेत वाली बाधा ! मुहल्ले-पड़ोस में सब लोग कहते थे- ‘वहाँ एक जिन्न है।’ निर्माण में हो रहे विलम्ब और अनेक बाधाओं के चलते अफ़वाह को और मज़बूती मिलती गई। विलम्ब और बाधाओं के कारण कुछ और ही थे लेकिन 'क्रेडिट' भूत-प्रेत के खाते में जा रही थी। सवाल यह है कि ये भूत-प्रेत होते भी हैं नहीं ? 
          मैंने उन्हें देखा नहीं और न ही देखना चाहता। मेरे लिए वे ईश्वर की तरह हैं यानी- मानो तो देवता, न मानो तो पत्थर। जो मानते हैं उनके लिए भगवान है, उसी प्रकार जो डरते हैं उनके लिए भूत होता है। मैं तो व्यापारी की सन्तान हूँ, रक्त में व्यापार प्रवाहित है। स्मशान घाट में बैठूँगा तो वहाँ भी कफ़न और लकड़ी बेच कर आजीविका चला लूँगा, डरूंगा नहीं, भला रोजी-रोटी से कैसा डर ? 
मैंने दद्दाजी को समझाया को ये सब बेकार की अफवाहें हैं लेकिन एक दिन उन्होंने मुझे यह बताकर चौंका दिया- 'बड़े भैया ने रायपुर की एक 'पार्टी' से बात कर ली है, कल लॉज का सौदा 'फाइनल' करने के लिए वे लोग आने वाले हैं.'
'ये आप क्या कर रहे हैं ?' मैंने विरोध किया।
'जाने दो, अपन झंझट में क्यों पड़ें ?'
'कोई झंझट नहीं.'
'तो फिर ?'
'मत बेचिए, मैं चलाऊंगा उसे।'
'ज़िद करते हो तुम, भूत-प्रेत से कोई निपट सकता है ?'
'आप मानिए, मैं चला लूंगा और अगर सच में वहाँ भूत होगा तो भी मुझे कोई परेशानी नहीं होगी।'
'कैसे ?'
'भूत-प्रेत अपने से बड़े को मान देंगे कि नहीं?'

            लम्बी कहानी है, धीरे-धीरे आगे बढ़ेगी। शायर मुनव्वर राणा की ग़ज़ल है:

"दुनिया सलूक करती है हलवाई की तरह
तुम भी उतारे जाओगे मलाई की तरह।
माँ बाप मुफलिसों की तरह देखते हैं बस
कद बेटियों के बढ़ते हैं महंगाई की तरह।
हम चाहते हैं रक्खे हमें भी ज़माना याद
ग़ालिब के शेर, तुलसी की चौपाई की तरह।
हमसे हमारी पिछली कहानी न पूछिए
हम खुद उधड़ने लगते हैं तुरपाई की तरह।"

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          बैंक लिमिट बढ़ाने को तैयार नहीं था इसलिए साहूकारों से अधिक दर की ब्याज पर उधार लेना शुरू हुआ लेकिन ब्याज पर ब्याज और तगादे पर तगादा शुरू हो गया और आर्थिक विवशता ने मुझे अपनी बाहों में कस लिया। उसी वक्त मेरे श्वसुरजी को मेरी आर्थिक स्थिति की भनक मिली तो उन्होंने माधुरी के माध्यम से मुझे मदद का प्रस्ताव किया। जब मैं अपने संयुक्त परिवार में रहता था तब मेरे परिवार में यह चर्चा-ए-आम थी कि मैंने ‘पेन्ड्रावाला’ की कमाई चुपचाप अपनी ससुराल में जमा करके रखी है, काश! मैंने वैसा किया होता तो ससुराल का सहयोग न लेना पड़ता, अपना जमा पैसा मँगवा लेता। ससुराल से उधार लेने की बात मुझे जम नहीं रही थी, संकोच हो रहा था लेकिन यात्री ट्रेन के आसपास भटकने वाले भूखे इन्सान के पास ‘मेनू’ का ‘आप्शन’ नहीं रहता ! बेशरमी ओढ़ कर वहां से भी ले लिया लेकिन इधर गड्ढा इतना अधिक हो चुका था कि किसी चमत्कार के बिना बात बनना असम्भव था और कोई चमत्कार हो नहीं रहा था।
          जमीन खरीदना और उस पर घर बनाना- दोनों निर्णय गलत थे। ‘अपना घर बनाना है’- के चक्कर में व्यापार में लगी पूंजी ऋणात्मक दिशा में घूम गई और कई वर्षों तक ‘इसकी टोपी उसके सिर पर’- के तरीके से काम करना पड़ा, परिणामस्वरूप मेरा व्यापार भसकता गया। बाज़ार और बैंक में साख गिरने लगी, उधार देकर मदद करने वाले भी मुझसे आंखें चुराने लगे, आखिर वे कब तक और कितनी बार मेरी सहायता करते ? ‘तेली के पास तेल है तो क्या वह पहाड़ पर चुपड़ देगा?’
          आर्थिक चमत्कार भले न हुआ लेकिन एक मनचाहा अवसर मेरे समक्ष आ ही गया। आपको मैंने बताया था कि फ़टेहाली की दशा में विदेश जाकर अंतर्राष्ट्रीय प्रशिक्षक बनने का कोई रास्ता न था लेकिन भारतीय जूनियर चेम्बर से आए एक पत्र से मुझे सूचना मिली कि जूनियर चेम्बर इन्टरनेशनल उस प्रशिक्षण कार्यक्रम का आयोजन भारत में ही कर रहा है। मैंने आवेदन भेजा, चयन हो गया और मैं नियत तिथि पर उस ‘ट्रेन द ट्रेनर’ तीन दिवसीय कार्यक्रम में भाग लेने मुम्बई पहुंच गया। पायलट फ़ेकल्टी थे- न्यू-जीलेन्ड के बिल पॉटर और उनके साथ दो भारतीय सहयोगी प्रशिक्षक। 
           बिल पॉटर गजब के इन्सान थे। झक्क गुलाबी चेहरा, ऊंचे-पूरे थे। वे अपने देश की फुटबाल टीम के कोच भी थे। वे खुद को ‘ट्रेनर’ कहलाना पसन्द नहीं करते थे क्योंकि उनके अनुसार- ‘ट्रेनर’ तो पशुओं का होता है, मैं ‘कोच’ हूँ, मैं मनुष्यों को सिखाता हूँ।’ मैंने पहली बार किसी प्रशिक्षक को जीन्स और टी शर्ट पहन कर प्रशिक्षण देने के लिए आया देखा। अभी तक तो जितने मिले, इस बात पर बहुत जोर देने वाले मिले- ‘प्रशिक्षक को ‘वेल ड्रेस्ड’ होना चाहिए- सूट, टाई और चमकते जूते पहने हुआ प्रशिक्षक पहली नज़र में अपना जो प्रभाव डालता है वह पूरे सत्र में कायम रहता है।’ शुरूआती दौर में मैंने भी ‘अप-टू-डॆट’ रहने कॆ उन निर्देशों को अपनाया। सूट तो मेरे पास था नहीं इसलिए पैन्ट-शर्ट, टाई पहन कर असर डालने की कोशिश करता लेकिन मुझे ज़ल्दी ही समझ में आ गया कि असर वेशभूषा का नहीं वरन प्रशिक्षक के प्रस्तुतीकरण का होता है इसलिए मैंने अपने गले में टाई लटकाना बन्द कर दिया और साधारण पैन्ट-शर्ट या कुरता-पैजामा पहन कर प्रशिक्षण देने जाने लगा।
          बिल पॉटर का मानना था कि प्रशिक्षण सुविधाजनक होना चाहिए तब ही प्रशिक्षु पर प्रभाव पड़ता है। माहौल तनाव रहित हो, प्रशिक्षु ‘रिलेक्स’ हों और प्रशिक्षक मज़े में अपनी बात प्रस्तुत करनेवाला, तब बात बनती है। वे कुशल रेखाचित्रकार थे जिसका उपयोग वे अपनी बात समझाने के लिए किया करते थे। उनके प्रस्तुतीकरण के दौरान थकान और तनाव का कोई काम न था, परिणामस्वरूप सीखना एकदम आसान हो जाता था। उन तीन दिनों में वे मेरे गुरू बन गए, मैंने उनसे जो सूत्र सीखे वे आजीवन मेरे काम आए। उस कार्यक्रम में सहभागिता के पश्चात मैं ‘प्राइम’ ट्रेनर बन गया और अन्तर्राष्ट्रीय प्रशिक्षक बनने की पहली पायदान पर खड़ा हो गया। यही मेरी आखिरी पायदान सिद्ध हुई क्योंकि उसके बाद की दो सीढ़ियां- ‘ए़क्सेल’ और ‘ओम्नी’ मुझे नसीब नहीं हुई क्योंकि उनके लिए विदेश जाना अनिवार्य था और आपको तो मालूम ही है कि उन दिनों विष्णुप्रिया लक्ष्मी जी मुझसे रूठी हुई थी| 
          मुम्बई में हमारा प्रशिक्षण जिस सभागार में था उसके पास में ही 'फ़िल्म सिटी’ थी। कार्यक्रम समाप्त होने के बाद हम लोग वहां घूमने गए। फ़िल्म ‘शरारा’ की शूटिंग चल रही थी जिसमें एक 'डांस सीक्वेंस' फिल्माया जा रहा था, बेहद 'बोरिंग' था। निर्माता निर्देशक थी- हेमामालिनी, वही हेमामालिनी, ‘शोले’ वाली- ‘यूं तो, हम सीख रहे थे गोली चलाना लेकिन हमें कुछ दाल में काला नज़र आता है’- उन्हें आमने-सामने देखना सुखद अनुभूति थी, मेरी नज़रें बार-बार घूम कर उन्हीं की ओर टिक जाती थी, सुंदरता और सौम्यता की प्रतिमूर्ति...वाह... हेमा जी... वाह !

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          जूनियर चेम्बर इन्टरनेशनल का ‘प्राइम ट्रेनर’ बनने के बाद जब मैं अपने शहर वापस आया, मेरे जेसी मित्रों ने एक कार्यक्रम आयोजित कर मुझे सम्मानित किया जो मुझे आज तक याद है. याद क्यों है ? याद इसलिए है कि इन्सान कितना भी बड़ा तीरन्दाज़ हो जाए, उसकी अपने शहर में इज़्ज़त नहीं हुआ करती, यहां तक कि घर के लोग भी प्रभावित नहीं होते। जब मेरे द्वारा किए गए प्रशिक्षण कार्यक्रमों की चर्चा मेरे पिता यानी दद्दाजी तक पहुंची तो उन्होंने टिप्पणी की- ‘दस-बीस मूर्ख उसकी बातों को सुनकर ताली बजा देते हैं और हमारे पुत्र अपना काम-धन्धा छोड़ कर भाषण देने का काम करने लगे हैं।’ आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि मुझे इन कार्यक्रमों को करते अब वर्षों बीत चुके हैं, देश के सभी हिंदी भाषी राज्यों के विभिन्न शहरों और अपने शहर में भी सैकड़ों कार्यक्रम कर चुका हूं लेकिन आज तक मेरे पिता या भाइयों ने कभी मेरे प्रशिक्षण कार्यक्रम में पधारने का कष्ट नहीं किया, न उन्हें कभी यह उत्सुकता हुई- ‘चल कर देखें, आखिर यह कर क्या रहा है ?’
          एक दिन बिलासपुर के ग्रामीण बैंक के प्रशिक्षण केन्द्र से फ़ोन आया कि वे अपने अधिकारियों के लिए आयोजित प्रशिक्षण कार्यक्रम में मेरी सेवाएं चाहते हैं। बहुत अरसे से मुझे ऐसी किसी खबर का इन्तज़ार था। अब परेशानी यह थी कि अब तक मैं जेसीज में आंतरिक प्रशिक्षण दिया करता था जिसके ‘टिप्स’ मुझे जेसीज के ‘मेन्युअल’ में मिल जाते थे लेकिन यहां बैंक के अधिकारियों को प्रशिक्षित करना था, उन्हें कैसे किया जाए ? मेरे एक मित्र विवेक जोगलेकर उसी संस्थान में नियमित प्रशिक्षक थे, मैंने उनसे अपनी समस्या बताई। उन्होंने मुझे विषय से सम्बन्धित कई बातें विस्तार से समझाई और पढ़कर तैयारी करने के लिए अनेक लिखित प्रपत्र भी दिए। अगले दिन मैं गया और मुझसे जैसा बन पड़ा- मैंने चार ‘सेशन’ लिए और राम-राम करते घर वापस आया। बात आई-गई हो गई लेकिन उसके कुछ दिनों बाद एक अज़ूबा हो गया, क्या हुआ ?  बाद में बताऊंगा।

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          कुछ स्त्रियां खूबसूरत होती हैं, कुछ खूबसूरत दिखती हैं, कुछ खूबसूरत दिखाई पड़ती हैं. ‘खूबसूरत होती हैं’- वे जो कुदरती खूबसूरत होती हैं जैसे- किसी स्त्री के त्वचा का आकर्षक रंग, आनुपातिक देहयष्टि, प्रभावोत्पादक अंग-प्रत्यंग, मोहक चितवन और मादक मुस्कान आदि.
           ‘खूबसूरत दिखती हैं’- वे जो सबको खूबसूरत लगे न लगे परन्तु किसी को भा जाए जैसे मजनू को लैला. आपको वह किस्सा पता है? अरब देश की एक सल्तनत में कैस नामक युवक और लैला नाम की लड़की एक-दूसरे के इश्क में पड़ गए. लैला के अब्बा सल्तनत के वज़ीर थे जो इस मामले से बेहद खफ़ा थे लेकिन उनकी दोनों को समझाने-बुझाने की सारी कोशिशें नाकाम हो गई. लैला के अब्बा ने सुल्तान से शिकायत की और दखल की गुजारिश की. सुल्तान ने कैस को तलब किया और कहा- ‘कैस, तुम हमारे हरम में जाओ और जो लड़की तुम्हें सबसे ज़्यादा खूबसूरत लगे, उसे छांट लो, हम उससे तुम्हारा निकाह करा देंगे पर तुम लैला का पीछा छोड़ दो.’
‘नामुमकिन हुज़ूर, मैं उससे दूर नहीं हो सकता.’ कैस ने जवाब दिया. 
‘क्यों? आखिर उस कलूटी लैला में क्या दिखा जो तुमने हमारे हरम की खूबसूरती को ठुकरा दिया?’
‘हुजूर, लैला की खूबसूरती को देखने के लिए मज़नू की आंखें चाहिए.’ 
‘खूबसूरत दिखाई पड़ती हैं’- वे जो ‘ब्यूटी पार्लर’ की कृपा से ‘ब्यूटीफ़ुल’ बन गई हैं. आज, अब सब खूबसूरत दिखाई पड़ती हैं. लिपे-पुते चेहरे में किसी की सुन्दरता का आकलन अत्यन्त चुनौतीपूर्ण काम हो गया है.
          खूबसूरती की बात चली तो मेरा दिल कर रहा है कि मैं आपको अपनी पत्नी माधुरी से जुड़ी एक ऐसी घटना बताऊं जिसमें उपरोक्त तीनों परिभाषाओं का सम्मिश्रण बन कर सामने आया. दसेक साल पहले की बात है, हम पति-पत्नी ट्रेन से भिलाई जा रहे थे. गाल फ़ुलाकर सफ़र करना हमें पसन्द नहीं इसलिए सहयात्रियों से अल्पकालिक मित्रता बनाकर बातचीत कर लिया करते हैं ताकि समय आसानी से कट जाए. हमारे साथ दुर्ग के एक सराफ़ा व्यापारी भी सफ़र कर रहे थे, गपशप शुरू हो गई. उन्होंने मुझसे पूछा- ‘भिलाई किस काम से जा रहे हैं?’
‘अपनी छोटी बेटी के विवाह संबंध की चर्चा करने के लिए.’ मैंने बताया.
‘ये आपकी बड़ी बेटी हैं?’ उसने माधुरी की ओर देखकर पूछा.
‘नहीं, ये मेरी दोनों बेटियों की मां हैं.’ मैंने उसे बताया. वह स्तब्ध रह गया, उसकी मुखाकृति में घोर आश्चर्य उभर आया और शेष यात्रा में वह मौन साधे अविश्वास के साथ माधुरी की ओर थोड़ी-थोड़ी देर में देखता रहा.
देखिए, अब, उम्र की सीमा का बन्धन भी टूट कर ध्वस्त हो गया है ! 
          सन १९९३ की घटना है, ‘मिस बिलासपुर’ की प्रतियोगिता में मुझे निर्णायक के रूप में बुलाया गया था. मेरे अतिरिक्त तात्कालीन पुलिस अधीक्षक एवं आबकारी अधिकारी की पत्नियां भी निर्णायक मंडल में सम्मिलित थी. कार्यक्रम बिलासपुर के राघवेन्द्रराव सभा भवन में आयोजित हुआ था जिसमें पुरुषों को प्रवेश वर्जित था. उस कार्यक्रम में मैं अपनी पत्नी माधुरी के साथ गया था. सभागार के मंच के सामने हम तीनों निर्णायक बैठे थे, हमारे पीछे और मंच के दाएं-बाएं ‘v शेप’ में लड़कियों का हुज़ूम था. उस महकते-चमकते माहौल में मैं सर्वथा अकेला पुरुष था जिसने युवतियों की हुल्लड़ का वह अभूतपूर्व दृश्य देखा और उनकी मस्तिष्कभेदी सीटियों की आवाज सुनी. उस भीड़ में माधुरी कहां बैठी थी- मुझे मालूम नहीं लेकिन कार्यक्रम समाप्त होने के बाद उन्होंने मुझे बताया कि वे ऐसे कोण में बैठी थी कि तिरछी नज़र से मुझे देख पा रही थी. घर आकर माधुरी ने मुझसे कहा- ‘क्यों, लड़कियों को ऐसे देखते हैं क्या?
 उस भीड़ में माधुरी कहां बैठी थी- मुझे मालूम नहीं लेकिन कार्यक्रम समाप्त होने के बाद उन्होंने मुझे बताया कि वे ऐसे कोण में बैठी थी कि तिरछी नज़र से मुझे देख पा रही थी. घर आकर माधुरी ने मुझसे कहा- ‘क्यों, लड़कियों को ऐसे देखते हैं क्या?’
‘क्या हुआ?’ मैंने पूछा.
‘ऐसे बन रहे हो, जैसे कुछ नहीं हुआ.’
‘मैं नहीं समझा, खुलकर बोलो.’
‘प्रतियोगियों को किस ढंग से देख रहे थे?’
‘किस ढंग से देख रहा था?’
‘उनको सिर से लेकर पैर तक बार-बार घूर रहे थे. मैं सब देख रही थी, मेरी नज़र तुम्हारे चेहरे पर थी, समझे.’
‘मैं निर्णायक था इसलिए गहराई से देखना-समझना था, नज़रें झुकाकर तो नहीं देख पाता.’ मैंने उन्हें समझाने का असफ़ल प्रयास किया. फ़िर मुझे खुद ही अपनी गलती समझ में आ गई. उस घटना ने मुझे सिखाया कि किस जगह अपनी पत्नी को अपने साथ ले जाना और कहां नहीं. 
           उस कार्यक्रम में एक और तमाशा हुआ. सौन्दर्य प्रदर्शन पूर्ण होने के पश्चात हम तीनों निर्णायकों के द्वारा दिए गए अंकों को जोड़कर अंतिम परिणाम तैयार करने का काम मुझे सौंपा गया. विजेता, प्रथम उप-विजेता और द्वितीय उप-विजेता के नाम मैंने आयोजक को दे दिए. आयोजकों में से एक आयोजिका, जिनका नाम हमारे शहर में 'सक्रिय समाज सेविका’ के रूप में प्रतिष्ठित है, अंतिम परिणाम को देखकर चौंकी और मुझसे कहा- ‘द्वारिका भाई, ये तो गड़बड़ हो गया.’
‘क्या हुआ?’ मैंने पूछा.
‘प्रथम उप-विजेता वाली लड़की को ‘मिस बिलासपुर’ बनाना है.’
‘जब आपने पहले से ही सब कुछ तय कर रखा था तो हमें क्यों बुलाया था, दिखावा करने के लिए?’
‘अब उस बात को छोड़िए, नम्बर ऊपर-नीचे कीजिए और 'नई फ़ाइनल लिस्ट’ बना दीजिए, प्लीज़.’ उन्होंने आग्रह किया. मैं उठ खड़ा हुआ और मैंने कहा- ‘मैं आपकी बात नहीं मानूंगा, ये गलत है, अन्याय है.’
‘ये जरूरी है.’ आयोजिका ने कहा.
‘तो, मैं जा रहा हूं.’ मैं सभागार से बाहर निकल गया. मेरे जाने के बाद जो कुछ हुआ, वह अगले दिन के समाचारपत्र में छपा. जिसे हमने प्रथम उप-विजेता बनाया था उसके मस्तक पर ‘मिस बिलासपुर’ का ताज कुशोभित हो चुका था.
मैंने फ़णीश्वरनाथ रेणु के उपन्यास ‘मारे गए गुलफ़ाम’ के नायक हीरामन की तरह कसम खाई- ‘अब कभी किसी ‘ब्यूटी कान्टेस्ट’ में निर्णायक नहीं बनूंगा.’

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          पुरानी यादों की दुनियां अब भी अपनी लगती है। जिस जमीन पर हमारे कदम पड़े थे, उसके निशान भले ही मिट गए हों, खुशियों और तकलीफों के असर अब भले न दिखाई पड़ते हों लेकिन उनकी उपस्थिति मौके-ब-मौके उभरती रहती है, खास तौर से तकलीफें। ये तकलीफें खट्टे दही की तरह होती हैं जिसे खाना अरुचिकर हुआ करता है लेकिन उस दही की कढ़ी बनाकर उसके मज़े भी लिए जा सकते हैं. मेरी यह आत्मकथा उसी 'खट्टे दही की कढ़ी उबाल कर खाओ और आनंद मनाओ' जैसी है। वैसे तो यह बेशर्मी की हद है लेकिन क्या करूं ?  
          मनुष्य के साथ परेशानी यह है कि वह अपने अतीत से सबक नहीं लेता, बार-बार गलती करता है, पछताता है, कान पकड़ता है और फ़िर वैसी ही कोई दूसरी गलती करने के लिए तत्पर हो जाता है. वह ज्ञानी-ध्यानी हो या सांसारिक, सब का जीवन कुछ पाने या पकड़ने या समझने में बीतता है. ये लालसा समय मांगती है और निरन्तर प्रयत्न भी. प्रबन्धन के विद्वान सलाह देते हैं- ‘लगे रहो.’ यह ‘लगे रहो’ का पागलपन हमें लगाए रखता है. इसे आप सफ़लता प्राप्ति का माध्यम मानें या विशुद्ध मूर्खता- दोनों के पक्ष में तर्क दिए जा सकते हैं.
          मुझमें ढेर सारा ‘पैसा’ कमाने की ललक कभी न थी, हाँ, कुछ ऐसा सीखने-करने का दिल होता था कि ‘कुछ किया जैसा’ लगे और जीवन सार्थक लगे. कई बार कुछ रचनात्मक करने का दिल होता था लेकिन परिवार का व्यापारिक माहौल मेरी दोनों आंखों में तांगा खींचने वाले घोड़े की तरह आड़ लगाए रखता था ताकि मैं अगल-बगल न देख सकूं. मैं `बुकसेलर' बनना चाहता था, `फोटोग्राफर' बनना चाहता था, प्रशासनिक सेवाओं में जाना चाहता था, वकालत करना चाहता था, उद्योगपति बनना चाहता था लेकिन चाहने से क्या होता है मित्र ? बहुत हाथ-पैर मारे लेकिन एक अदना व्यापारी से अधिक कुछ न बन पाया। क्या ये सब मेरे भाग्य में न था ? 
           न, ऐसा नहीं है, दरअसल, 'लगे रहो' वाला सूत्र अपने जीवन में अंगीकार न कर पाया। कभी-कभी अपनी असफलताओं पर बहुत अफ़सोस होता है लेकिन डॉ. हरिवंशराय बच्चन की यह कविता बेहद सुकून देती है :

"जीवन में एक सितारा था
माना वह बेहद प्यारा था
वह डूब गया तो डूब गया.
अम्बर के आनन को देखो
कितने इसके तारे टूटे
कितने इसके प्यारे छूटे
जो छूट गए फिर कहाँ मिले ?
पर बोलो टूटे तारों पर
कब अम्बर शोक मनाता है ?
जो बीत गई सो बात गई.
जीवन में वह था एक कुसुम
थे उस पर नित्य निछावर तुम
वह सूख गया तो सूख गया.
मधुवन की छाती को देखो
सूखी कितनी इसकी कलियाँ
मुर्झाई कितनी वल्लरियाँ
जो मुर्झाई फिर कहाँ खिली ?
पर बोलो सूखे फूलों पर
कब मधुवन शोर मचाता है ?
जो बीत गई सो बात गई.
जीवन में मधु का प्याला था
तुमने तन मन दे डाला था
वह टूट गया तो टूट गया.
मदिरालय का आँगन देखो
कितने प्याले हिल जाते हैं ?
गिर मिट्टी में मिल जाते हैं
जो गिरते हैं कब उठते हैं ?
पर बोलो टूटे प्यालों पर
कब मदिरालय पछताता है ?
जो बीत गई सो बात गई.
मृदु मिट्टी के हैं बने हुए
मधु घट फूटा ही करते हैं
लघु जीवन लेकर आए हैं
प्याले टूटा ही करते हैं.
फिर भी मदिरालय के अन्दर
मधु के घट हैं मधु प्याले हैं
जो मादकता के मारे हैं
वे मधु लूटा ही करते हैं
वह कच्चा पीने वाला है
जिसकी ममता घट प्यालों पर
जो सच्चे मधु से जला हुआ
कब रोता है चिल्लाता है ?
जो बीत गई सो बात गई."

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                                                आज फिर जीने की तमन्ना है 

          मेरा जन्म छत्तीसगढ़ की धरती में हुआ, यहीं की मिट्टी ने मुझे पाला-पोसा और दिली ख्वाहिश है कि अन्त में इसी मिट्टी में समा जाऊं। ‘धान का कटोरा’ कहलाए जाने वाला यह प्रदेश प्रचुर खनिज संपदा के लिए भी विख्यात है।  यहां के मूल निवासियों के साथ अन्य क्षेत्रों से आए परिवार भी यहां रच-बस गए और वे भी छत्तिसगढ़िया बन गए। प्रत्येक क्षेत्र के अपने गुण-दोष होते हैं, वैसे ही हमारे भी हैं। यदि मौसम की बात करें- उत्तर छत्तीसगढ़ में सरगुजा और दक्षिण में बस्तर का इलाका अपने घने जंगलों के कारण खासा ठंडा रहता है लेकिन मध्य छत्तीसगढ़ अत्यधिक गर्म रहता है। महाकवि कालिदास के गीतिकाव्य ‘ऋतु संहार’ में ऋतु वसंत और वर्षा ऋतु का वर्णन जैसे हू-ब-हू छत्तीसगढ़ का ही साकार चित्रण हो:

             ‘आदीप्तवह्निसदृशैर्मरुतावधूतैः सर्वत्र किंशुकवनैः कु
             सद्यो वसन्तसमयेनि समाचितेयं रक्ताशुंका नववधूरिव भाति भूमिः’॥६॥१९॥

(वसन्त के आते ही पृथ्वी एकदम दहकती हुई, अग्नि जैसे दिखने वाले फूलों के भार से झुके हुए और वायु के झकोरों पर झूलते हुए टेसू के वनों से भर गई है और वह लाल वस्त्र पहनी हुई नई दुल्हन सी सुन्दर मालूम पड़ रही है। )

              ‘स-सीकराम्भोधरमत्तकुन्जरस्तडित्पताकोशनिशब्द्मर्दलः।

               समागतो राजवदुध्दत्द्युतिर्घनागमः कामिजन प्रिये’॥२॥१॥ 
              
(ग्रीष्म ऋतु समाप्त होने के पश्चात जब वर्षाऋतु आती है तो ऐसा लगता है जैसे राजाओं की तड़क-भड़क लेकर वर्षाकाल आया हो। पानी की फुहारों से भरे बादल जैसे उसके मस्त हाथी हों, बिजली जैसे उसकी पताका हो और बादलों के टकराने से पैदा होने वाली गड़गड़ाहट जैसे उसके धौसों की ध्वनि हो........)

           छत्तीसगढ़ की प्राणदायिनी शिवनाथ नदी २९० किलोमीटर की लम्बी यात्रा कर महानदी में विलीन हो जाती है। प्राचीन काल में शिवनाथ नदी के एक ओर १८ गढ़ थे और दूसरी ओर भी १८, इस प्रकार इन दोनों को मिलाकर क्षेत्र का नाम पड़ा- छत्तीसगढ़। अविभाजित मध्यप्रदेश में छत्तीसगढ़ कमाऊ पूत तो था लेकिन उसे खाने के लिए केवल दो मुट्ठी चाँवल मिलता था इसलिए वह पिछड़ेपन का दुख भोगते हुए तब तक सिसकता रहा जब तक कि सन 2000 में पृथक छत्तीसगढ़ नहीं बना।  
          छत्तीसगढ़ के ग्रामीण अपने हाड़तोड़ परिश्रम के लिए संपूर्ण भारत में विख्यात हैं। जम्मू-काश्मीर से कन्याकुमारी और कलकता से भुज तक संपूर्ण भारत में बाँध, नहर, पुल, सड़क या बहुमंजली इमारतों के गारे में छत्तीसगढ़ के श्रमिकों के पसीने की बूंदें अवश्य होंगी। खुले आसमान के नीचे अपना पसीना बहाते हुए वे मेहनत करने के मामले में बिहार और उड़ीसा के श्रमिकों से होड़ लेते हैं। मज़दूरी करने के लिए अन्य प्रदेशों में इनके जाने को उनका ‘पलायन’ कहा जाता है जबकि सच यह है कि वे पलायन नहीं करते बल्कि ‘कमाने-खाने’ जाते हैं और अच्छा-खासा पैसा कमाकर अपने घर वापस आते हैं, कर्ज़ पटाते हैं, धूमधाम से शादी-ब्याह निपटाते हैं, अधूरे शौक पूरे करते हैं और फ़िर अपने खेतों में काम से लग जाते हैं ! इस क्षेत्र में होने वाली धान की पैदावार अपूर्व श्रम चाहती है जिसके लिए वे सपरिवार तपती धूप और बरसते पानी में अहर्निश मेहनत करते हैं।  काम वे अपना ‘पेट भरने के लिए’ करते हैं जबकि उनके काम से संपूर्ण भारत के साथ-साथ विश्व के अनेक देशों के लोगों का पेट भरता है।
          छत्तीसगढ़ का ज़िक्र एक घटना बताने के संदर्भ में आया। पुरानी बात है, सन १९८३ में प्रख्यात पत्रकार सरदार खुशवंत सिंह हमारे निमंत्रण पर 'युगल जूनियर चेम्बर' के शपथ ग्रहण समारोह में विशिष्ट अतिथि के रूप में पधारे थे। करीब ३० घंटे वे बिलासपुर में रहे तब मुझे उनके सत्कार और सानिध्य का सुअवसर मिला। खुशवंत सिंह बेहद खुशमिज़ाज़ और मिलनसार व्यक्ति थे, खाने-पीने के शौक़ीन, बातें करने और सुनने के माहिर। भोजन के दौरान उन्होंने मुझसे पूछा- 'मैंने सुना है- "मथुरा का पेड़ा और बिलासपुर का खेड़ा"- मथुरा का पेड़ा तो मैंने खाया है, यहाँ का 'खेड़ा' क्या होता है ?'
          मेरे सामने विकट समस्या आ गई, उनको कैसे समझाऊँ कि 'खेड़ा' क्या है क्योंकि खेड़ा छत्तीसगढ़ की एक मौसमी सब्जी है जो उनके प्रवास के समय उपलब्ध नहीं थी। 'सीजन' होता तो बनवा कर खिला देता लेकिन 'आउट ऑफ सीजन' होने के कारण कोई उपाय न था। मैंने उन्हें बताने के लिए के लिए शब्द चित्र खींचा- 'सिंह साहब, आपने 'मुनगा' खाया होगा, खेड़ा कुछ वैसा ही होता है। फर्क यह रहता है कि कि मुनगा में बीज होते हैं जबकि खेड़ा में बीज नहीं, सिर्फ गूदा होता है। मुनगा की तरह इसकी भी सब्ज़ी और कढ़ी बनाई जाती है जो अत्यंत स्वादिष्ट होती है।'
          सरदारजी के चेहरे में न समझ पाने के भाव उभर आए। समझते भी कैसे, वे अगर मुझे शब्दों की मदद से समझाते कि फ्रांस की किसी 'वाइन' का स्वाद कैसा है तो मैं बिना चखे भला कैसे समझ पाता ?
         खुशवन्त सिंह गजब के इन्सान थे। वे जब लिखते थे तब साहित्यकार हो जाते लेकिन जब देखते या सुनते तो पत्रकार बन जाते। वे अपनी पीढ़ी के अग्रगामी व्यक्तित्व थे, सौ साल आगे के इन्सान। सोने की चम्मच लिए उनका जन्म हुआ जो किसी साहित्यकार के निर्माण की जमीन नहीं थी, उनके लिए ऐश-ओ-आराम वाली ज़िन्दगी का इन्तज़ाम था लेकिन खुशवन्त सिंह तो अलग मिट्टी के बने हुए थे। कहा जाता है कि प्रभावी लेखक वही बन पाता है जो जिज्ञासु स्वभाव का होता है। वे जब बिलासपुर आए तो उनके सवाल जैसे ख़त्म ही न होते थे, बिल्कुल किसी बच्चे जैसी जिज्ञासा थी उनमें। छत्तीसगढ़ में वे सम्भवतः पहली बार आए थे इसलिए जो कुछ उन्होंने सुन रखा था, वे उसके बारे में विस्तार से सुनना और समझना चाहते थे जिसके लिए वे शहर के कई बुद्धिजीवियों से मिले, बातें की और जब दिल्ली वापस गए तब उन्होंने छत्तीसगढ़ के रीति-रिवाजों के बारे में अपने साप्ताहिक कॉलम में उन बातों को रोचक अंदाज़ में लिखा जो ‘दैनिक नवभारत’ में प्रकाशित हुआ। उस लेख की प्रतिक्रिया में छत्तीसगढ़ में विरोध के स्वर उठे और 'खुशवन्त सिंह मुर्दाबाद' के नारे लग गए। क्या लिखा था उन्होंने?
          प्रत्येक क्षेत्र की अपनी परम्पराएं होती हैं, सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और पारिवारिक. इनमें कुछ उपयोगी होती हैं तो कुछ निरर्थक. कुछ दीर्घायु होती हैं तो कुछ अल्पकालीन, समय के साथ इनमें बदलाव होते रहता है। मैं आपको छत्तीसगढ़ की एक ऐसी परम्परा के बारे में बता रहा हूं जो हमारे यहां पुराने जमाने से चलायमान है और आज विश्व के अधिकांश देशों में भी प्रचलित है !
          मुस्लिम जैसे कुछ समुदायों को छोड़कर शेष सभी समूहों में केवल एक विवाह को ही सामाजिक और वैधानिक मान्यता प्राप्त है. छत्तीसगढ़ के आदि-निवासियों ने इसका एक तोड़ निकाला- ‘चूड़ी पहनाना’, वही, जिसे ईर्ष्यालु लोग ‘रखैल’ और आधुनिक लोग ‘लिव-इन रिलेशनशिप’ कहते हैं, अर्थात एक पत्नी के जीवित रहते हुए किसी अन्य या अधिक स्त्रियों से ‘पत्नी जैसा’ संबन्ध रखना. ध्यान देने योग्य बात यह है कि यह इकतरफ़ा सुविधा है- केवल पुरुषों के लिए. 
          छत्तीसगढ़ कृषि और रोजगार प्रधान क्षेत्र है जहां मनुष्य की श्रमशक्ति का बहुत महत्व है. खेतों में काम करने के लिए, मज़दूरी करके आजीविका कमाने के लिए हर परिवार को बड़ी संख्या में काम करने वाले हाथ चाहिए होते हैं. इसी वज़ह से बच्चे पैदा करने का कुटीर उद्योग यहां खूब फ़ल-फ़ूल रहा है. बच्चों के बड़े और काम करने योग्य होने में बहुत समय लगता है, ऐसी स्थिति में त्वरित आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए  निःशुल्क सेवा की अर्थशास्त्रीय सोच के अनुरूप पुरुष किसी अन्य जाति की स्त्री को ‘चूड़ी पहना कर’ अपने घर लाकर रख लेता है, इस प्रकार उसे केवल ‘खाने-कपड़े’ के भुगतान में एक अतिरिक्त स्थाई श्रमिक और मनोरंजन- दोनों मिल जाता है. घर में ‘चुड़िहाई’ पत्नी को लाकर रखने के लिए पहली पत्नी की सहमति ‘ले ली’ जाती है,
          मैंने पुरुषों के लिए उपयोगी एवं आकर्षक इस प्रथा की गहराई में जाकर उस मूल को जानने की कोशिश की तो यह समझ में आया कि आम तौर पर निम्न परिस्थितियों के कारण 'चुड़िहाई' प्रथा चलन में आई  : 
* पत्नी का संतानहीन होना.
* पत्नी द्वारा केवल लड़कियों को जन्म देना यानी लड़का पैदा न करना.
* पत्नी का लगातार बीमार रहना और ‘काम लायक’ न रहना.
* पत्नी से अनबन होना. लगातार मायके वापस जाने का दबाव डालने पर भी उसका घर छोड़कर न जाना.
* पत्नी के मायके वापस चले जाने के पश्चात भी सामाजिक रूप से ‘छोड़-छुट्टी’ न हो पाना.
* पति का विधुर हो जाना.
* पति का किसी अन्य स्त्री पर दिल आ जाना. ( टिप्पणी : यह सबसे अधिक कारगर स्थिति हुआ करती थी ) आदि.
            ‘चुड़िहाई’ प्रथा बीसवीं शताब्दी तक पर्याप्त लोकप्रिय थी लेकिन अब शिक्षा के प्रसार और महिला जागृतिकरण के कारण चुड़िहाई पत्नी को घर में लाना कठिन हो गया है, फ़िर भी सुदूर अंचलों में आदि-निवासियों के बीच यह प्रथा आज भी कायम है. छत्तीसगढ़ के बारे में एक और महत्व की बात बताने लायक है- यहाँ की स्त्रियाँ बेहद परिश्रमी होती हैं, सम्भवतः पुरुषों से अधिक ! कुछ समुदायों में स्त्रियों की सक्रियता इतनी अधिक रहती है कि उनके पति घर की `रखवाली' करते हैं, छक कर दारू सेवन करते हैं और अपने सौभाग्य पर  गर्व करते हैं और कहते हैं- 'कमाई-धमाई ओखर काम हे, मैं तो घरेच म रथों।' शराबखोरी के राक्षस ने अब छत्तीसगढ़ को अपनी बाहों में इस क़दर कस लिया है कि पुरुषों की मानसिकता और ख़ुशहाली, उनका स्वास्थ्य, शारीरिक सामर्थ्य - सब कुछ तेजी से बर्बादी के रसातल में डूबता जा रहा है. केवल छत्तीसगढ़ ही नहीं, पूरे देश में, बड़ी संख्या में वर्तमान पीढ़ी जिस तरह नशे की गिरफ्त में फँस रही है और जिस दुर्दशा की ओर जा रही है वह चिंतनीय है. जो चिंतनीय है वह परिवर्तनीय है किन्तु अब कौन सुनता है, कौन समझता है, कौन खुद को बदलना चाहता है ?  
          खुशवन्त सिंह का वह तीस वर्ष पुराना लेख तो अब उपलब्ध नहीं है किन्तु उन्होंने इन्हीं दोनों विषयों पर अपने व्यंग्यात्मक लहज़े में टिप्पणी की थी परिणामस्वरूप छत्तीसगढ़ में बवाल मच गया था. ऐसा ही विरोध कथालेखक बिमल मित्र की कहानी 'सुरसतिया' को लेकर भी हुआ था. क्या हम इतने असहिष्णु हो गए हैं कि यदि कोई हमारी कमियों को बताए तो हमें बर्दाश्त नहीं होता और हम उसे पढ़ना - समझना भी नहीं चाहते ?

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          पति-पत्नि के रिश्ते महीन धागे से लिपटे रहते हैं। नज़दीकियां रहती हैं इसलिये गलतफ़हमियां भी हो जाती हैं, गलतफ़हमियां होती हैं इसलिये टकराहट भी हो जाती है, टकराहट होती है तो अनबोला भी हो जाता है, अनबोला हो जाता है तो उसके बाद लम्बी चुप्पी और गाल फ़ुलाना चलता है लेकिन कुछ दिनों बाद आपस में मान-मनव्वल चालू हो जाता है और फ़िर एक-दूसरे के साथ प्यार भरी मुक्केबाजी के बाद पत्नी कहेगी- ‘तुम बड़े खराब हो’; या पति रिझाएगा- ‘जानेमन, तुम तो ज़रा सी बात में नाराज़ हो जाती हो’- जैसे बचकाने किन्तु असरकारी संवादों के आदान-प्रदान के पश्चात प्रकरण का पटाक्षेप हो जाया करता है।  

          मनोचिकित्सक डा. सावित्री देवी वर्मा ने अपनी पुस्तक ‘सुनो कान में’ में एक टिप्पणी की है- ‘दाम्पत्य जीवन फूलों की सेज नहीं, कांटों का ताज है।’ सामान्य ताज में हीरे-जवाहरात बाहर जड़े हुए होते हैं जबकि इस ताज में काटें अन्दर गुथे रहते हैं।
          मैं अपने दाम्पत्य जीवन में झांकता हूं तो मुझे ऐसा लगता है कि सामाजिक रीतियों के सहयोग से बना यह रिश्ता किसी ‘सर्कस’ की तरह है जिसमें जरा सा भी संतुलन बिगड़ा और बात बिगड़ जाती है। 'एक दूसरे को वश में रखने' का यह चुनौतीपूर्ण खेल पति-पत्नी के बीच आजीवन चलता है जिसमें खेल जीतने की कोशिश में आखिरकार दोनों हारते हैं। सवाल यह है कि आखिर कौन जीतता है? जीतता है- एक दूसरे पर भरोसा.
          गौर करने की बात यह होती है कि कठिन समय आने पर दोनों एक दूसरे का साथ कैसा निभाते हैं ? मेरी आर्थिक तकलीफ़ें तो तीस-पैंतीस साल चली, धीरे-धीरे आपको सब बताउंगा लेकिन अभी एक बात बता रहा हूं कि मेरे जैसे अज़ीब व्यक्ति की माधुरी अद्भुत पत्नी हैं। वे ‘खाते पीते’ घर की लड़की थी, उनके मायके में सोने-चाँदी के आभूषणों का बड़ा व्यापार था। उनके पिता ने अपनी लड़की मुझे और मेरे परिवार को देख-समझ कर सौंपी थी। उन्होंने कल्पना भी नहीं की होगी कि हम लोग कभी ऐसी दशा को प्राप्त हो जाएंगे कि कई बार इनकी जेब में सब्जी खरीदने के पैसे भी न होंगे ! 
          मैंने अपने विवाह के दिन से ही अपनी पत्नी को उनके माता-पिता के द्वारा मुझे सौंपी अमानत माना और वैसा ही व्यवहार किया। बदले में माधुरी ने भी मेरे परिवार को अपना माना, संभवतः मेरे प्रति अपनत्व से कुछ अधिक ही। एक ज़िम्मेदार गृहणी की भूमिका में मैंने उन्हें सदा सतर्क और तत्पर पाया। मुझे कई बार ऐसा समझ आता है कि पुरानी कहावत- ‘जोड़ियाँ स्वर्ग में तय होती हैं’- सही है। ज़्यादातर मुद्दों में हम दोनों की राय एक जैसी हुआ करती है, हाँ, बच्चों के मामले में हम दोनों की सोच में सदा विरोधाभास रहा। उनका मुझ पर स्थायी आरोप रहा कि हमारे बच्चों में जो भी दोष हैं, उसका कारण बच्चों के साथ मेरे द्वारा किया गया ‘साफ़्ट ट्रीटमेन्ट’था। बच्चों के प्रति वे उनके बचपन से ही कड़क रही, भरपूर देखरेख, डांट-डपट और ज़रूरतन पिटाई के साथ उन्होंने बच्चों को बड़ा किया। कड़ाई की अधिकता समझ आने पर मुझे बीच-बचाव करना पड़ता था या माधुरी को समझाना करना पड़ता था, बस, यहीं हम दोनों में ठन जाती। वे कहती- ‘बच्चे तुम्हारे कारण बिगड़ रहे हैं, तुमको मेरा साथ देना चाहिये, तुम उनकी तरफ बोल कर मेरे किए-धरे को मिटा देते हो।’ अब आप बताइये, एक पिटाई या डांट-डपट कर रहा हो तो दूसरे को पुचकारना ही पड़ता है, घर में दोनों कड़क हो जाएंगे तो कैसे बनेगा ?   
         माधुरी को मेरी आर्थिक परिस्थिति का थोड़ा-बहुत अनुमान था लेकिन अपनी गंभीर होती जा रही स्थिति से मैंने उन्हें अनभिज्ञ सा रखा था क्योंकि मैं सोचता था- ‘मैं तो परेशान हूं ही, उसे क्यों परेशान करूं ?’ हम पुरुष, बाहर की बेरहम दुनियाँ में रहते-सीखते काफी मज़बूत हो जाते हैं, कुछ बेशर्म भी; जबकि घरेलू महिलाएं अपने सीमित संसार में अपेक्षाकृत भावुक होती हैं इसलिए प्रतिकूल परिस्थितियों पर उन पर प्रतिक्रिया सघन हो जाती है, कई बार असह्य। मेरे बड़े भैया रूपनारायण ने एक बार दिल्ली के चावड़ीबाज़ार में कुछ खरीदी के दौरान मेरी 'ऑन रोड परेड' लेते हुए मुझसे पूछा था- 'मेरी समझ नहीं आता कि इस दशा में तुम्हें रात को नींद कैसे आ जाती है ?' आपको बताऊँ ? सच तो यह है कि मुझे नींद की कभी समस्या न रही, तकिये में सिर रखा और दो-तीन मिनट बाद ही इस जीवन की आपा-धापी से कहीं बहुत दूर चला जाता हूँ। मैंने अपने जीवन में कभी नींद की दवा नहीं खाई फिर भी हमेशा घोड़े बेचकर सोया। बहुत ही कठिन दिन देखे जो वर्षों चले लेकिन हर रात यह सोचकर आँखें बंद करता था- ' जो मैं कर सकता था, आज मैंने किया; कल की कल देखेंगे।' 
          कभी मेरी जेब में कुछ अधिक पैसे होते तो मैं माधुरी को साड़ी खरीदने के रुपए देता और कहता- ‘ये लो, एक हजार हैं, एक अच्छी सी साड़ी खरीद लो।’ वे बाजार से साड़ियाँ खरीदकर लाती और बताती- ‘देखो, उतने में चार साड़ियाँ आ गई।’
‘तुमसे कहा था, ज़रा मंहगी साड़ी लेना, तुम ये क्या ले आई ?’ मैं उलाहना देता।
‘जिस औरत में साड़ी पहनने का सलीका होता है, उसकी पहनी हुई सस्ती साड़ी भी महंगी दिखती है, समझे ?’ वे मुस्कुराते हुए कहती।

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          मेरा व्यापार दिनों-दिन कम होता जा रहा था, उधार की रकम का ब्याज बढ़ता जा रहा था, हालत यह हो गई कि ब्याज पटाने के लिए नए उधार का जुगाड़ करना पड़ता था। मेरे एक मित्र थे मुकेश खण्डेलवाल (अब दिवंगत) मुझसे कहा करते थे- 'भाई साहब, आप भी गज़ब हो, मध्यप्रदेश शासन के केबिनेट मंत्री, साउथ-ईस्टर्न कोलफील्ड्स के चेयरमेन, इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड के चीफ इंजीनियर, नगरनिगम के कमिश्नर जैसे ओहदेदार आपसे मिलने आपकी दूकान में आते हैं, आपके पास बैठकर घंटों बातचीत करते हैं, आप यह छोटा सा धंधा लिए बैठे हो ? आपकी जगह अगर मैं होता तो करोड़ों में खेलता।' मैं उसकी बात सुनता, मुस्कुराता और उसे समझाता- 'हर काम हर कोई नहीं कर सकता. अधाधुंध पैसा बनाने और बढ़ाने का खेल मैं नहीं जानता।'
‘आपको कुछ नहीं करना है, लोगों का काम करवाइये और अपना ‘शेयर’ ले लीजिए.’
‘तुम्हारा मतलब, दलाली ?’
‘नहीं भाई साहब, इसको ‘लाइजिनिंग’ कहते हैं.’
‘अरे, नाम अंग्रेजी में हो गया तो क्या मायने बदल गए ?’
‘आप जैसा चाहे समझिए, पर यह काम तो हींग लगे न फ़िटकरी, रंग चोखा है.’
‘आखिर बेईमानी के काम में साझेदारी तो है न ?’
‘अब आपको कैसे समझाऊं?’
‘मत समझा मेरे भाई, मेरे बाबा और पिता ने मुझे ईमानदारी से जीना सिखाया है, मुझे वही ठीक लगा. मैं नहीं चाहता कि मेरे परिवार में किसी के भी रक्त में बेईमानी का कण हो.’ मैंने उसे समझाया. वह चुप रह गया.
         एक घटना आपको बताता हूँ जिसे पढ़कर आप मेरी बात आसानी से समझ जाएंगे : अपनी दूकान 'मधु छाया केंद्र' में टीवी के साथ मैंने स्टील और फाइबर के फर्नीचर भी बेचना शुरू कर दिया था। एक दिन की बात है, बिलासपुर नगरनिगम के आयुक्त श्री कमलेश तिवारी मुलाक़ात के लिए आए, उनकी नज़र शो रूम में सजी 'नीलकमल' की फाइबर कुर्सी पर पड़ी, उन्होने मुझसे उसकी कीमत पूछी। मैंने बताया- '450/-'
'अरे, कीमत में इतना फर्क ? निगम को 80 कुर्सियों की ज़रूरत है, आज मैं फाइल देख रहा था उसमे इसी कंपनी की कुर्सी के तीन कोटेशन हैं और उसमें 'लोएस्ट' था- 760/-!'
'मेरे पास नीलकमल की यह सबसे मंहगी रेंज है और यही विक्रय मूल्य है।'
`आप इस कीमत में निगम को सप्लाई करेंगे?'
`क्यों नहीं, 20/- डिस्काउंट के साथ !'
'तो मुझे एक कोटेशन बनाकर दे दीजिए।' आयुक्त ने कहा। मुझे उस आपूर्ति का आदेश मिल गया, मैंने कर दी।
          कुछ दिनों बाद वह दूकानदार जिन्होंने 'लोएस्ट 760/-' का कोटेशन भेजा था, मेरे पास आए और शिकायत के लहज़े में कहा- 'क्या अंकल, न आपने कमाया और न मुझे कमाने दिया ?'
'क्या हुआ?' मैंने पूछा।
'आफ़िसों की सप्लाई ऐसे नहीं होती जैसे आपने नगर निगम में कर दी, सबको पैसा बांटना पड़ता है।'
'पर मेरे पास भुगतान का चेक आ गया, मुझसे किसी ने पैसे नहीं मांगे !'
'आपसे कोई क्यों माँगेगा ? पर इस तरह तो आप पूरा सिस्टम बिगाड़ देंगे।' वह दुखी था और मेरी मूर्खता पर चिंतित भी।
          आप समझ गए होंगे कि केवल जान-पहचान से कुछ नहीं होता, भरपूर पैसा कमाने के लिए होशियारी अनिवार्य तत्व होता है ! संसार में धन, बल, यश, मान- सबको 'सब' नहीं मिलता॰ इसे आप असफलता और अक्षमता भी कह सकते हैं॰ आज नहीं, सदा से ही इस दुनियां में आर्थिक सफलता को ही 'सफलता' माना जाता है, लेकिन उस सफलता के लिए मैं खुद को उतना 'बेरहम' नहीं बना पाया - क्या करूं, मुझसे नहीं बना !          
          अनेक तकलीफ़ों के बावज़ूद भी मैं कहीं-न-कहीं अपना दिल लगाए रखता जैसे अपने शहर के टेलीविजन नेटवर्क ‘हलो बिलासपुर’ में चर्चा के कार्यक्रम में प्रस्तोता का कार्य, सामयिक घटनाओं पर समूह चर्चा हेतु ‘विचार मंच’ का गठन एवं संचालन, शहर में ‘धूल हटाओ अभियान’, व्यक्तित्व विकास और प्रबन्धन के प्रशिक्षण कार्यक्रम आदि.
         
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          हाँ, प्रशिक्षण की बात चली तो याद आया, आपको मैं ग्रामीण बैंक के प्रशिक्षण कार्यक्रम के बाद की एक घटना के बारे में बताने वाला था. हुआ यह, एक दिन शिवपुरी-गुना ग्रामीण बैंक के अध्यक्ष श्री बडवेलकर का पत्र आया जिसमें उन्होंने मुझसे अपने अधिकारियों को शिवपुरी में प्रशिक्षण देने का आग्रह किया. उनसे फ़ोन पर बात करने पर मालूम हुआ कि स्टेट बैंक द्वारा नियोजित ग्रामीण बैंक की लगभग ७० शाखाएं शिवपुरी और गुना जिले के ग्रामीण क्षेत्रों में कार्यरत हैं जो घाटे में चल रही हैं, उनकी हालत चिन्ताजनक है और बैंक के पास स्टाफ़ को केवल दो माह तक सेलरी देने लायक ही गुंजाइश बची है !
‘मेरा प्रशिक्षण पर बहुत भरोसा है, मैं अपने क्षेत्र के सभी अधिकारियों को प्रशिक्षित करवाना चाहता हूं। मुझे विश्वास है कि इस तरीके से हम इस डूबते जहाज को बचा सकेंगे। बिलासपुर के प्रशिक्षण केन्द्र में एक साथ सबको नहीं भेजा जा सकता इसलिए अलग से प्रशिक्षण करवाने का प्रावधान न होने के बावजूद हमने आपको यहाँ बुलाने का निर्णय लिया है, आप आ जाइए.’ उन्होंने कहा.
‘जी, लेकिन आप मुझे क्यों बुला रहें हैं ?’
‘बिलासपुर के प्रशिक्षण केन्द्र से प्रशिक्षण लेकर आए हमारे दोनों अधिकारियों से आपके बारे में मुझे जो 'फीडबैक' मिला है उसने मेरी उम्मीद बढ़ा दी है, यह बताइये, आप ‘कितना’ लेंगे ?’
‘जो आप देंगे.’ मैंने उत्तर दिया.
          शिवपुरी में ग्रामीण बैंक के अधिकारियों का प्रशिक्षण दो दिनों तक नगरपालिका के सभागार में चला जिसमें उन्हें उत्साहित करने के लिए नेतृत्व क्षमता विकास, संप्रेषण, समूह में मिल-जुल कर कार्य करने के रहस्य और उत्प्रेरणा जैसे विषयों पर गहन चर्चा हुई. पहले ग्रामीण बैंक ‘कमर्शियल’ लेन-देन के लिए अधिकृत नहीं थे, उन्हें केवल ग्रामीणों को बैंक से जुड़ने, नकद जमा करने और ॠण लेने के लिए प्रोत्साहित करने का कार्य करना था लिहाज़ा लाभप्रद लेन-देन के अभाव में वे घाटे से उबर नहीं पा रहे थे. इसके अतिरिक्त बैंक के अधिकारियों और उनके अधीनस्थों की निष्क्रियता भी बड़ी समस्या थी.
        दूसरे दिन की एक घटना यादगार बन गई, हुआ यह, ‘लंच’ के बाद शिवपुरी के कलेक्टर श्री सार्खेल समूह को संबोधित करने के लिए आमंत्रित किए गए थे. दरअस्ल ग्रामीण बैंक की गतिविधियां राज्य शासन की देखरेख में संचालित होती हैं इसलिए उस क्षेत्र के कलेक्टर की निगाह-ए-करम जरूरी हुआ करती है. भाषण आदि औपचारिकताओं के पश्चात जब कलेक्टर वापस जाने लगे तो मैंने उनसे अनुरोध किया- ‘दस-पन्द्रह मिनट रुकिए और प्रशिक्षण देख लीजिए.’ वे हिचकिचाए और कहा- ‘दस मिनट के लिए रुक जाता हूं.’ उनकी उपस्थिति में ‘अभिप्रेरणा’ विषय पर प्रशिक्षण शुरू हुआ.
         मैं अभिप्रेरणा के आन्तरिक स्रोत के बारे में प्रतिभागियों को समझा रहा था- ‘ यह सच है कि आप लोग अत्यन्त प्रतिकूल परिस्थितियों में काम कर रहे हैं. अशिक्षित ग्रामीणों को समझाना और उन्हें बैंक तक लाना मुश्किल काम है, आपके पास तरीके का आफ़िस नहीं है, बिजली नहीं है, गांव की कीचड़ भरी सड़कों और खेतों पर आपको भटकना पड़ता है पर आपके पास ऐसे ‘पावर’ हैं जो कलेक्टर साहब के पास भी नहीं है.’ इसे सुनकर समूह उत्सुक सा हो गया. मैंने कलेक्टर की ओर देखा और उनसे पूछा- ‘सर, एक बात बताइए, आप यदि किसी व्यक्ति की पांच हजार रुपए की मदद करना चाहते हैं तो आपके पास कोई ‘डायरेक्ट पावर’ है क्या?’
‘नहीं, डायरेक्ट तो नहीं है.’ तनिक असहज होकर उन्होंने उत्तर दिया.
‘परन्तु सर, इस सभागार में जो लोग बैठे हुए हैं वे किसी भी ग्रामीण को पांच हजार से लेकर बीस लाख रुपए की मदद ॠण के माध्यम से तुरन्त देकर उनकी ज़िन्दगी में बदलाव ला सकते हैं, अब आप बताइए, आप ज़्यादा ‘पावरफ़ुल’ हैं या ये लोग?’  प्रश्न सुनकर कलेक्टर मुस्कुराए और दोनों हाथ समूह की ओर बढ़ाते हुए कहा- ‘ये लोग.’ सभागार में एक विद्युत शक्ति सी चमकी जो सबके मन-मष्तिस्क में प्रवेश कर गई, सबके चेहरे एक अनोखी ज्योति से दैदीप्यमान हो उठे. हमारे दो दिनों का परिश्रम जैसे एक उदाहरण में समाहित हो गया. सत्र डेढ़ घंटे चला, पूरे समय कलेक्टर उत्सुकता से देखते-सुनते रहे. जाते समय उन्होंने मुझसे कहा- ‘किसी दिन हमारे अधिकारियों के लिए भी एक प्रशिक्षण कर दीजिए.’
‘जब आप बुलाएंगे, आ जाऊंगा.’ मैंने उन्हें आश्वस्त किया.
          कार्यक्रम सम्पन्न होने के बाद मुझे बतौर पारिश्रमिक एक लिफ़ाफ़ा मिला, साथ में अध्यक्ष की ओर से आभार और खेद प्रकटन भी- ‘सर, आपने हमारे लिए जो किया, हम उसका यथोचित मूल्य नहीं दे पा रहे हैं, कृपया इसे ही हमारी ओर से भेंट मानकर स्वीकार करिए.’ मैंने सहज भाव से उसे रख लिया और उनसे विदा ली. शिवपुरी के शानदार ‘रिसोर्ट’ में, जहां मुझे ठहराया गया था, मैंने अपने कमरे में लिफ़ाफ़ा खोलकर देखा, उसमें बारह हजार रुपए थे. यह कार्यक्रम सितम्बर १९९३ में हुआ था, उस समय के हिसाब से बारह हजार बड़ी रकम थी. मैं अवाक रह गया क्योंकि अब तक एक प्रस्तुतीकरण के दो-ढाई सौ रुपए ‘मानदेय’ पाकर ही मन प्रसन्न हो जाया करता था. खुशी इस बात की थी कि प्रशिक्षण कार्यक्रम प्रभावी रहा और काम की कद्र भी हुई.
          अक्टूबर १९९३ में गुना के आस-पास पदस्थ अधिकारियों और कार्मिकों के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम गुना में आयोजित हुआ. उसके बाद उनके लिए स्थाई प्रशिक्षक तैयार करने हेतु जनवरी १९९४ में भी एक कार्यक्रम हुआ जिसमें मेरे मित्र प्रशिक्षक श्री राजेश दुआ भी साथ में गए. यानी, पांच माह में तीन कार्यक्रम, बल्ले-बल्ले !          अप्रैल १९९४ में भोपाल में मध्यप्रदेश के सभी ग्रामीण बैंकों के अध्यक्षों का सम्मेलन हुआ जिसमें वर्ष भर की गतिविधियां और स्थिति-विवरण प्रस्तुत हुए. शिवपुरी-गुना ग्रामीण बैंक के अध्यक्ष ने वहां बताया- ‘इस वित्त वर्ष में हमें दो करोड़ से अधिक लाभ हुआ है.’ शेष अध्यक्षों के चेहरे आश्चर्य से भर गए, एक ने प्रश्न किया- ‘मि. बडवेलकर, अगस्त-सितम्बर में अफ़वाह थी कि आप स्टाफ़ को सेलरी नहीं दे पा रहे हैं, अभी आप दो करोड़ की प्राफ़िट बता रहे हैं, कोई जादू किया क्या?’
‘जादूगर बिलासपुर में रहता है.’ श्री बडवेलकर ने बताया.

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                                                                जिया जाए न

          युगों से शासक के शासन का अर्थ है, आतंक बनाकर रखना॰ बीसवीं शताब्दि की शुरुआत में विश्व के देशों में राजतंत्रीय शासन के स्थान पर प्रजातांत्रिक व्यवस्था कायम करने का सिलसिला भी शुरु हो गया था. गुलामी के विरुद्ध आवाज़ उठाने वाले लोग सक्रिय हो चुके थे, साम्यवादी सोच उभर रहा था इसलिए कारखानों के श्रमिकों के लिए तनिक नरमी बरतने के उपाय खोजे जाने लगे. सन 1910 के आस-पास एल्टन मेयो नामक समाजशास्त्री ने ब्रिटेन के एक कारखाने में कुछ प्रयोग करके निष्कर्ष निकाले कि 'ह्यूमन टच' देकर कामगारों से अपेक्षाकृत अधिक काम लिया जा सकता है॰
          प्रभावी नेतृत्व कला पर संपूर्ण विश्व में गहन मनन-चिन्तन चला, नेतृत्व के अनेक तरीके और प्रकार खोजे गए, कई ग्रन्थ लिखे गए. राजनैतिक, सामाजिक, व्यापारिक और पारिवारिक स्तर पर असंख्य प्रयोग किए गए. उन प्रयोगों के माध्यम से रास्ते तलाशे गए ताकि कोई तो चमत्कारिक उपाय पकड़ में आए और उस शैली का अनुसरण करके असरदार नेतृत्व की कला विकसित की जा सके. मुझे लगता है कि अभी भी हम ‘यह करो-या-वह करो’ वाली स्थिति में चक्कर काट रहे हैं.
          मनुष्य का व्यवहार इतना रहस्यपूर्ण है कि किसी क्रिया विशेष पर वह क्या प्रतिक्रिया करेगा, इसका अनुमान लगाना मुश्किल है. प्रख्यात समाजशास्त्री अब्राहम मास्लो का मानना है कि मनुष्य को यदि बिना कुछ किए खाने को मिल जाए तो वह बिस्तर से ही नहीं उठेगा. ऐसे आलसियों के समूह से काम लेने का हुनर समझना, रेत से तेल निकालने जैसा दुष्कर कार्य है.
          अपनी बात करूं तो इस विषय पर मुझे अनेक प्रशिक्षण देने के अवसर मिले. जितना मैं पढ़ पाया, जान पाया, समझ पाया- अपनी शक्ति और योग्यता भर मैंने इस विषय को प्रभावी बनाकर प्रस्तुत करने की कोशिश की, हजारों को गुर बताए हैं लेकिन सच तो यह है कि मैं स्वयं को इस कला में असफ़ल मानता हूं. मेरी पत्नी मेरा कहना नहीं मानती और न ही मेरे तीनों बच्चे. यदि कभी कुछ मान गए तो वह मेरे लिए अहोभाग्य  का सबब होता है. यदि कभी, अपनी बात मनवाना आवश्यक होता है तो मुझे किसी राजनीतिज्ञ की तरह उस मुद्दे पर उनसे बात करके यह पूर्वानुमान लगाना पड़ता है कि ‘बात मानी जाएगी या नहीं?’ यदि मेरे समझ में आता है कि बात मान ली जाएगी तो आदेश प्रसारित करता हूं और यदि अवमानना की संभावना होती है तो चुप रहकर अपना सम्मान बचा लेता हूं. इसे आप ऐसा भी मान सकते हैं कि मेरी 'लीडरशिप' का दारोमदार सामनेवाली की मर्जी पर टिका है. सामने वाला मेरी बात मान जाए तो चमक गई और न माने तो भसक गई! जैसा हाल मेरा चल रहा है क्या संसार के शासन, प्रशासन और प्रबन्धन में वैसा चल सकता है?
           मैं बचपन से ही अपने बाबाजी, दद्दाजी के अत्यधिक कड़क स्वभाव की छाँव में पला-बढ़ा. घर में रहो या दूकान में या स्कूल में, आतंक का साया हर जगह मँडराते रहता था. स्कूल में भी कुछ बदमाश सहपाठी मुझे सताते रहते, 'चिकना' कहकर मेरे गाल सहलाते और अमर्यादित व्यवहार करने की कोशिश करते॰ डरते-डरते मैं इतना अधिक डरपोक हो गया था कि डरने से भी डर लगने लगा था. किसी से भिड़ जाऊँ- ऐसी हिम्मत नहीं होती थी इसलिए 'बच के चलो रे बाबा'- का स्वभाव विकसित होता गया जो आज तक कायम है॰
         संसार ऐसा है कि सबको डराकर रखो या डरकर रहो॰ मुझे यह समझ में आया है कि नेतृत्व करने के लिए डराने की कला सीखना ज़रूरी है क्योंकि जब तक आप में सामने वाले को आतंकित करने या तकलीफ पहुंचाने का माद्दा नहीं है, वह आपका कहा नहीं मानेगा॰ मुरली की धुन का प्रभाव अलग है और सुदर्शन चक्र का अलग॰  
          जब मैं वयस्क हुआ, जिम्मेदारियाँ आई तो नेतृत्व के अवसर बढ़ गए. घर या कार्यस्थल में मुंह बनाकर रहना, त्यौरियां चढ़ाना, आंखें तरेरना और गुर्राना मुझे अनुचित लगता था इसलिए हर परिस्थिति में मैंने खुशनुमा माहौल बनाकर काम करने का तरीका अपनाया, भले ही काम थोड़ा कम हो॰ ऐसा नहीं है कि दबाव डालकर काम कारवाने का प्रशिक्षण मुझे न मिला हो, मैं वह आसान तरक़ीब अपना सकता था लेकिन वह तरीका मुझे पढ़े-लिखे इन्सान का तरीका नहीं लगता था॰  शायर निदा फ़ाज़ली की नज़्म है :

"सफ़र में धूप तो होगी जो चल सको तो चलो
सभी हैं भीड़ में तुम भी निकल सको तो चलो.
किसी के वास्ते राहें कहाँ बदलती हैं,
तुम अपने आप को खुद ही बदल सको तो चलो.
यहाँ किसी को कोई रास्ता नहीं देता,
मुझे गिरा के अगर तुम सम्हल सको तो चलो.
यही है जिन्दगी कुछ ख्वाब चंद उम्मीदें,
इन्हीं खिलौनों से तुम भी बहल सको तो चलो."

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          सन १९९४ में मुझे अपने शहर की लालबहादुर शास्त्री शाला विकास समिति का अध्यक्ष मनोनीत किया गया. मैं राजनीति में सक्रिय कार्यकर्ता नहीं था, फ़िर भी बिलासपुर के तात्कालीन विधायक श्री बिसाहूराम यादव, जो मध्यप्रदेश शासन के मंत्री भी थे, मेरे अंतरंग थे, ने उस स्कूल के विकास का जिम्मा मुझे सौंपा जहाँ मैंने अपनी किशोरावस्था में सात साल पढ़ाई की थी॰
           सबसे अधिक चिन्ताजनक स्थिति थी- छात्रों की संख्या. २५ कमरे वाले स्कूल में, दो पारियों में, केवल  ६५० छात्र ! उस खूबसूरत इमारत के हर कमरे का चूने वाला पलस्तर उखड़ रहा था, सालों से रंग-रोगन नहीं हुआ था, ‘इलेक्ट्रिक वायरिंग’ व पंखे छात्रों की दुष्टता से ध्वस्त होकर लटक रहे थे, ब्लेकबोर्ड सफ़ेद पड़ गए थे, बच्चों के नए सत्र में प्रवेश के समय कुछ शिक्षक और कार्यालय लिपिक बेलौस घूसखोरी करते थे, पढ़ाई-लिखाई 'टरकाऊ' चल रही थी, आदि अनेक समस्याएं थी. हमारी शाला में दो ऐसे बेख़ौफ़ शिक्षक थे जो स्कूल में केवल ‘पे-डे’ पर तनख्वाह वसूलने आते थे, उन्हें स्कूल आने और बच्चों को पढ़ाने से जैसे सख्त नफ़रत थी लेकिन उनकी राजनीतिक पहुंच और ‘न्यूसेन्स वेल्यू’ के समक्ष प्राचार्य लाचार थे. लेकिन मात्र तीन माह में ईमानदारी और निष्ठा ने मिलजुलकर प्रयास किया और बहुत कुछ सुधर गया, स्कूल की शक्ल बदल गई, माहौल बदल गया.
          एक दिन मैं स्कूल के किसी काम से नगरनिगम दफ़्तर गया था. दिवंगत प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री की प्रतिमा टाउनहाल के कमरे में उपेक्षित सी पड़ी थी, मूर्ति के चेहरे पर एक धूलधूसरित बोरा बंधा हुआ था. पूछताछ करने पर पता चला कि वह मूर्ति दो-तीन साल से लावारिस पड़ी है. मैंने तुरन्त निगम के प्रशासक श्री राजीवरंजन से बात की, उन्हें समझाया कि स्कूल का नाम ‘लालबहादुर शास्त्री उच्चतर माध्यमिक शाला’ है इसलिए उस प्रांगण में शास्त्रीजी की प्रतिमा स्थापित करना उचित रहेगा. वे मान गए और ‘पोडियम’ तथा अन्य निर्माण व्यय निगम के द्वारा वहन करने के आदेश भी दे दिए. आर्किटेक्ट से हमने आकर्षक डिजाइन बनवाई, एक माह की अवधि में काम पूरा हो गया, २ अक्टूबर १९९४ को लालबहादुर शास्त्री जी के जन्मदिवस पर अनावरण का कार्यक्रम तय हुआ. सोचा कि उस अवसर पर मूर्तिकार का सम्मान भी किया जाए इसलिए जब मैं मूर्तिकार के घर उन्हें निमन्त्रित करने गया तो मालूम पड़ा कि उस मूर्ति की बनवाई का भुगतान उसे निगम से प्राप्त नहीं हुआ है तो उसकी व्यवस्था भी शाला विकास समिति ने कर दी. इस प्रकार लालबहादुर शास्त्री की उस उपेक्षित प्रतिमा को सम्मानपूर्वक प्रतिष्ठित किया जा सका.
          ऐसा न समझें कि सब ठीक ही रहा. शिक्षकों के एक गुट को शाला के विकास और पढ़ाई से कोई लेना-देना नहीं था. वे कानाफूसी करने और सहकर्मियों को बरगलाने में सिद्धहस्त थे और पूरे दिन अपनी ऊर्जा इसी काम में लगाते थे. प्राचार्य मेहरोत्रा से तो जैसे उनकी पिछले जन्म की दुश्मनी थी इसलिए उनकी गतिविधियों पर प्राचार्य की और प्राचार्य पर उनकी सतत दृष्टि लगी रहती थी. यह कार्य सास-बहू के परस्पर लगाव की तरह शाला के अन्य कार्यों में सर्वोच्च वरीयता प्राप्त था. प्रतिमा के अनावरण के अवसर पर प्राचार्य विरोधी गुट के मुखिया को मैंने कार्यक्रम-प्रस्तोता बना दिया ताकि शाला में वातावरण सौहार्द्रपूर्ण हो सके. मुझे आश्चर्य हुआ जब मेरे उस प्रयोग से प्राचार्य ऐसा रूठे कि उन्होंने मुझसे अनबोला कर लिया और उस बात को करीब आज ३१ वर्ष बीत चुके हैं, वे अब भी मुझे देखकर अपना मुंह फेर लेते हैं। अब आप अनुमान लगाइए कि उसके बाद शाला विकास कार्यक्रम का क्या हाल हुआ होगा ?
          हमारी समिति के एक उपाध्यक्ष, जो राजनीति में सक्रिय थे, ने मुझसे कहा- ‘मेरे रिश्तेदार की पत्नी (अर्थशास्त्र में एम.ए.) को स्कूल में अस्थाई अध्यापक नियुक्त करना है.'
‘लेकिन हमें तो अंग्रेजी के अध्यापक की ज़रूरत है, जबकि अर्थशास्त्र के हमारे पास पहले से ही तीन हैं, कैसा करें?’ मैंने उनसे पूछा।
‘वह मैं नहीं जानता, मैंने वचन दे दिया है, बहुत जरूरी है.’ उन्होंने कहा. मैंने प्राचार्य से बात की, वे भी मुझसे सहमत थे। हमने उपाध्यक्ष की बात न मानते हुए अंग्रेजी के अध्यापक की नियुक्ति की. फलस्वरूप, उपाध्यक्ष मुझसे रूठ गए और मुझे तानाशाह घोषित कर समिति के अन्य सदस्यों को मेरे विरोध में सहेज लिया॰ 
           शाला विकास समिति के अध्यक्ष का कार्य अवैतनिक होता है, फ़ोकट छाप. अपना काम-धाम छोड़कर समय दो, समस्याओं के समाधान के लिए दिमाग लगाओ, जलनखोरी पर शीतल जल छिड़को, महाआलसी शिक्षकों और बाबुओं से काम लो, ऊधम से मुक्ति के नाम से घर से भगाए गए बालकों को पढ़ाई और खेल से जोड़ो, स्कूल चलाने के लिए आवश्यक धनराशि के लिए बच्चों के अभिभावकों का खून चूसो- जैसी चुनौतियाँ होती है. इसके लिए 'लगे रहो' की मानसिकता होनी ज़रूरी है, मज़बूती चाहिए, लगन चाहिए, और बेशर्मी भी। नेतृत्व कला पर भाषण देना या सलाह देना सरल है लेकिन उसे कार्यरूप में परिणित करना बेहद कठिन है.
           अब आप मेरी दुर्गति समझिए, स्वतन्त्रता दिवस और गणतंत्र दिवस जैसे अवसरों पर भी प्राचार्य ने मुझे याद करने के काबिल नहीं समझा, झण्डा फहरा लिया, मिठाई खा ली. गाली-गलौच करने की विधा मैंने अपने ‘हलवाई’ जीवनकाल में सीखी थी, मैं दक्ष था, किन्तु सार्वजनिक जीवन में इसका उपयोग करना मुझे अशिष्टता समझ आया. मैं ऐसे कई नेताओं और अफसरों के बारे में जानता हूँ जिनका वाणी-संयम बहुत कमजोर है, उनके इस 'सद्गुण' के कारण उनकी बातें मानी जाती हैं, वे अपने मातहतों से अच्छा काम करवा लेते हैं ! यदि मैं भी उस विधा का उपयोग करता तो क्या प्राचार्य की ऐसी हिम्मत होती कि वह विकास समिति के अध्यक्ष को निमंत्रित किए बिना झंडा फहरा लेता ? 
           वह विधायक या सांसद या मंत्री क्या- जिसका नाम सुनने मात्र से कलेक्टर का अंडरवियर नम न हो जाए ! आप ही बताइए, यह कैसा लोकतन्त्र है ?
           उधर प्राचार्य नाराज, इधर विकास समिति के सदस्य खिलाफ और शाला के शिक्षक और 'ऑफिस स्टाफ' तो हमारी मुस्तैदी से हलाकान थे ही, धीरे-धीरे मेरी पकड़ कमजोर होती गई. इस बीच नगरनिगम के चुनाव हुए, संयोगवश, मेरे बालसखा के पुत्र महापौर बने. एक दिन उन्होंने बिलासपुर नगरनिगम द्वारा संचालित शालाओं के विकास समिति के अध्यक्षों और प्राचार्यों की एक बैठक बुलाई जिसमें मैं भी सम्मिलित हुआ. महापौर की भावभंगिमा और 'शिष्टाचार' का मुझ पर ऐसा असर पड़ा कि मैंने अपनी इज्ज़त का फ़लूदा बनवाने के बदले कदम पीछे खींच लेना उचित समझा और शाला विकास समिति के कार्य को हाथ जोड़कर अपने व्यापार और प्रशिक्षण कार्यक्रमों में व्यस्त हो गया. बोलो, सियावर रामचन्द्र की जय.

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          सन १९९४ की ही बात है, निर्माणाधीन लाज का काम पूरा हो चला था, ‘फ़िनिशिंग’ चल रही थी. उन दिनों फ़र्श में दाने की टाइल्स लगाने का चलन था जिसे फ़र्श में चिपकाने के बाद उस पर ‘वेक्स पालिश’ की जाती थी जिससे टाइल्स में चमक आती थी. निरीक्षण के दौरान दद्दा जी ने ताज़ा-ताज़ा लगी पालिश पर अपना पैर रख दिया और फ़िसल गए. परिणामस्वरूप उनके कूल्हे की हड्डी टूट गई जिसकी शल्यक्रिया हुई. वे दर्द न सह पाने के कारण बहुत बेचैन रहे, सारी रात तड़पते थे. लगभग दो सप्ताह अस्पताल में भरती रहकर वे घर वापस आए. दिन-रात परिश्रम करने वाला इन्सान इस तरह लाचार हो गया और चौबीसों घंटे बिस्तर पर पड़े रहने के लिए मज़बूर हो गया. छोटा भाई राजकुमार दद्दाजी के साथ रहता था, उसने दद्दाजी की बहुत सेवा की. दद्दाजी के बिस्तराधीन होने और सक्रियता कम हो जाने के कारण उन्हें पेट साफ़ न होने की समस्या हो गई. एनिमा दिया गया, ईसबगोल की भूसी व अन्य आयुर्वेदिक दवाएं दी गई जिसका असर ही न होता था, एलोपेथी दवा वे लेते न थे इस कारण हर सुबह हाथ में ‘ग्लब्स’ पहनकर उनकी गुदा के छिद्र में उंगली डालकर मल को निकाला जाता. यह कार्य बेहद बदबूदार था. इन्सान को अपने मल की बदबू तो आती नहीं पर दूसरे के मल की गन्ध यदि स्मृति में प्रवेश कर जाती है तो फिर घंटों पीछा नहीं छोड़ती. उस समय मैं संसार की उन सभी माताओं को मन ही मन प्रणाम करता था जो सालों-साल अपने बच्चे का उत्सर्जित मल पोछती हैं, बच्चे का शरीर और उसके पोतड़े व चड्डियाँ धोती हैं और निर्विकार होकर उस दुर्गन्ध का सामना किया करती हैं. धन्य है.
          लाज में दद्दाजी के साथ हुई दुर्घटना ने उस अफ़वाह को मज़बूती दे दी कि लाज में ज़रूर कोई भूत-प्रेत है. लोग चर्चा  करने लगे- 'देखो, भूत ने नाराज होकर सेठजी को पटक दिया.' लॉज का काम शुरू किए बारह साल हो गए थे. ख़रामा-ख़रामा बढ़ रहा काम इस दुर्घटना के कारण लम्बे समय के लिए बन्द हो गया.
          एक दिन दद्दाजी ने मुझे बताया- ‘मैं तुम भाइयों का बंटवारा करना चाहता था॰ इस बारे में बड़े भैया से मैंने अस्पताल में चर्चा की थी.’
‘फ़िर?’ मैंने पूछा.
‘उन्होंने मना कर दिया, कहा कि हम भाइयों के बीच कोई समस्या नहीं है, हम आपस में बन लेंगे.’
‘तो?’
‘वो कह रहे थे कि रायपुर में मेरे पास पर्याप्त है, मुझे तो कुछ चाहिए नहीं, अब आपका जो कुछ है वह इन्हीं दोनों भाइयों का है.’
‘अच्छा!’
‘तो मैंने कहा कि मैं तो तीनों को देना चाहता हूँ, संपत्ति के तीन हिस्से बनेंगे, फ़िर तुम अगर नहीं चाहिए तो अपना हिस्सा भाइयों को दे देना, ठीक कहा न?’
‘आपने सही कहा.’ मैंने हामी भरी.
          पिता-पुत्र के इस वार्तालाप को सुनकर मेरे मन में सवाल उठा कि बड़े भैया समर्थ हैं और वैभवपूर्ण जीवन व्यतीत कर रहे हैं जबकि उन दिनों मैं और छोटा भाई राजकुमार, हम दोनों गम्भीर आर्थिक कठिनाइयों से जूझ रहे थे. हमारे संकट को बड़े भैया भलीभांति जानते हैं, फ़िर भी, उन्होंने बंटवारे के लिए क्यों मना कर दिया? यह मेरे लिए आज भी रहस्य है॰
          समय बीतने के साथ-साथ यह बाद में समझ में आया कि हमारे कष्टमय जीवन का भुगतान शेष था जिसे हम अपने प्रारब्ध में लिखाकर लाए थे. जो कुछ होना था वह बिना घटे कैसे रह सकता था? घर से निकाले जाने के दस साल पूरे हो चुके थे, मेरी नैया प्रतिदिन धीरे-धीरे डुबक रही थी. मेरी नाव में मेरी पत्नी, तीन बच्चे, बढ़ते बच्चों की पढ़ाई का खर्च, मुझ पर चढ़ा कर्ज़, कर्ज़ पर ब्याज़ और मेरी अर्थ-अर्जन की अयोग्यता का निरन्तर बढ़ता वजन था जो हमारी गृहस्थी की नाव के लिए असहनीय हो गया था किन्तु मैं असहाय हो चला था. सच तो यह है कि इसके बाद जो कुछ हुआ, उसी ने इस आत्मकथा की भूमिका तैयार की अन्यथा मेरी भी कथा दुनियां के अन्य लोगों की तरह चिता की आग में जलकर भस्म हो जाती या ज़मीन में दफ़्न हो जाती.


शायर मजाज़ लखनवी के चंद अशआर पेश हैं :

"हर तरफ़ बिखरी हुई, रंगीनियाँ रानाइयाँ
हर क़दम पर इशरतें, लेती हुई अंगड़ाइयां
बढ़ रही हैं गोद फैलाये हुये रुस्वाइयाँ॰
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ?

ये रुपहली शाम, ये आकाश पर तारों का जाल
जैसे सूफ़ी का तसव्वुर, जैसे आशिक़ का ख़याल
आह लेकिन कौन समझे, कौन जाने जी का हाल॰
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ?

रास्ते में रुक के दम लूँ, ये मेरी आदत नहीं
लौट कर वापस चला जाऊँ, मेरी फ़ितरत नहीं
और कोई हमनवा मिल जाये, ये क़िस्मत नहीं॰
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ?

जी में आता है, ये मुर्दा चाँद-तारे नोंच लूँ
इस किनारे नोंच लूँ, और उस किनारे नोंच लूँ
एक दो का ज़िक्र क्या, सारे के सारे नोंच लूँ॰
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ?"

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          बड़ी बेटी संगीता उन दिनों बारहवीं यानी ‘हायर सेकेन्डरी’ के अंतिम वर्ष में थी. एक दिन उसने मुझसे कहा- ‘मेरी कुछ सहेलियां ‘पी.एम.टी.’ दे रही हैं, मैं भी देना चाहती हूं.’
‘सुना है कि ‘सलेक्शन’ 'टफ' है, कर लोगी?’ मैंने पूछा.
‘मालूम नहीं लेकिन मैं इस प्रतिस्पर्धा की गहराई और अपनी क्षमता को नापना चाहती हूं.’ उसने उत्तर दिया.
          बारहवीं की परीक्षा में उसे अच्छे अंक मिले लेकिन पी.एम.टी. में उसका प्रतिशत बहुत कम आया किन्तु इस प्रयास में उसे यह अनुमान लग गया कि अगली बार में निकाल लेगी. उसने ‘डाक्टर’ बनना तय कर लिया  इसलिए पूरे मनोयोग से उस तैयारी में भिड़ गई. समझा-बुझाकर स्थानीय सी.एम.डी.कालेज में बी.एस.सी.के प्रथम वर्ष में प्रवेश करवा दिया लेकिन उसने कालेज जाने से साफ़ इंकार कर दिया- ‘पापा, मैं कालेज नहीं जाऊंगी, यदि कालेज गई तो पी.एम.टी. नहीं हो पाएगा.’
'ठीक है, मत जाना परन्तु वार्षिक परीक्षा में तो बैठ जाओगी न ?' मैंने पूछा.
'उस समय बताऊँगी.' जवाब मिला.
        प्रत्येक शाम छः बजे वह स्थानीय ‘नेशनल कोचिंग’ में तीन घंटों का मार्गदर्शन लेने जाती थी, घर लौटते रात के साढ़े नौ बज जाते थे. एक दिन उसने मुझसे शिकायत की- ‘पापा, रात को कोचिंग से वापस लौटते समय पांच-छः लड़के ‘हीरो-होंडा’ में मेरी ‘लूना’ के अगल-बगल मुझे घेर कर मित्रविहार के मुंहाने तक आते हैं, रास्ते भर छेड़ते हैं, भद्दी बातें करते हैं. मैं बहुत दिनों से परेशान हूं. आप कुछ करिए.’
‘ठीक है, कल से कोचिंग जाना छोड़ दो.’ मैंने कहा.
‘ये क्या पापा, फ़िर कैसे पी.एम.टी. दे पाऊंगी?’
‘क्या करना? घर में रहो, झाड़ू-पोछा करो, खाना बनाओ, तुम डाक्टर बनने लायक नहीं.’
‘मैं नहीं समझी, ये आप क्या कह रहे हो?’
‘यही, कि ऐसे ही लड़के तुमको पढाई के दौरान मेडिकल कालेज में मिलेंगे, जब डाक्टर बन जाओगी तो अस्पताल में मिलेंगे, फिर बाज़ार में मिलेंगे. तुम्हारी रक्षा के लिए मैं तुम्हारे साथ कहां-कहां फ़िरूंगा? यह मेरे वश का नहीं है.’
‘तो?’
‘इनसे निपटने के रास्ते खुद खोजो, हिम्मत दिखाओ, डरोगी तो ऐसे लोगों का कैसे सामना करोगी? अपना  प्रभामंडल ऐसा बनाओ कि किसी की ऐसा करने की दम ही न पड़े.’
‘मैं समझ गई.’ संगीता ने उत्तर दिया. उसके बाद उसने मुझसे कभी कोई शिकायत नहीं की.
           रात को सोते समय अचानक घर का दरवाजा खुलने की आहट होती तो मैं जागकर देखता कि कड़कड़ाती ठंड है, सुबह का पौने चार बजा है, सुबह की पहली पाली में बिटिया को ‘फ़िजिक्स’ की कोचिंग में प्रधान सर के घर समय के पांच मिनट पूर्व पहुंचना है; सड़क सुनसान है, अंधेरा है, कंपकंपी है परन्तु इन सबकी कोई परवाह नहीं, उसे बस, एक ही धुन थी- लक्ष्य हासिल करने की.
          संगीता जैसे लाखों युवा अभिलाषी डाक्टर बनने की ज़द्दोज़हद में दिन-रात किताबों और ट्यूशन क्लास से जूझ रहे थे. उनके लिए वैवाहिक या जन्मदिन के कार्यक्रमों में शरीक होना, घूमना-फ़िरना, सिनेमा-टीवी देखना, हंसना-बोलना- सब स्वयं-प्रतिबन्धित था क्योंकि वे जानते थे कि प्रतियोगी परीक्षा में सफ़लता प्राप्त करने में ये सब रोड़े हैं. उनकी ज़िन्दगी में किताबें, नोट्स, कोचिंग और पढ़ाई के अलावा कुछ नहीं रह गया था.
         मुझे मालूम था कि आर्थिक रूप से समर्थ कुछ अभिभावक दस से पचास लाख तक ‘डोनेशन’ देकर अपने बच्चों को मेडिकल कालेज में भेज रहे हैं परन्तु मुफलिसी के चलते मेरे लिए ऐसी बात सोचना तक पाप था. यह भी सबको ज्ञात था कि कुछ ऐसे भी प्रतियोगी हैं जिन्हें केवल ३०% अंक मिले हैं फिर भी वे आरक्षण सुविधा का लाभ लेकर मेडिकल कालेज पहुंच गए लेकिन उनसे दोगुना से अधिक अंक पाने वाले टुकुर-टुकुर ताक रहे थे. हमारी बेटी तो 'सामान्य वर्ग' वाले कुल में जन्म लेने की अपराधी थी, वह भला कैसे प्रवेश पा जाती? अविभाजित मध्यप्रदेश में केवल छः मेडिकल कालेज थे, इंदौर, भोपाल, जबलपुर, ग्वालियर, रीवाँ और रायपुर जिसमें सभी वर्गों के लिए कुल ७२० 'सीट' थी जिसमें से केवल २७३ सीट सामान्य वर्ग के लिए 'आरक्षित' थी. इन्हें हासिल करने के लिए हर वर्ष साठ से सत्तर हजार छात्र-छात्राएँ अपनी योग्यता का आकलन करवाते. वे अपना सपना साकार करने के लिए दिन-रात पढ़कर तैयारी करते ताकि एक दिन वे डाक्टर बनें, अस्पताल में काम करें, रोगियों की सेवा करें लेकिन आप तो जानते हैं- सपने हैं सपने, कब हुए अपने, आंख खुली और टूट गए ! बहुत कम लोग सफल होते थे और शेष युवा उस दुर्धर्ष प्रतियोगिता में असफल  होने के लिए जैसे अभिशप्त थे. अपनी अकूत मेहनत और मूल्यवान समय को बर्बाद होते देख वे चुपचाप आँसू बहाते, हिम्मत हार जाते और अपने अभिभावकों को भी रूआँसा कर देते.
          मेरी अपनी जान-पहचान में कई ऐसे बच्चे थे जो पढ़ने में बहुत तेज थे, मेडिकल कॉलेज में पढ़ने की काबिलियत रखते थे लेकिन इस प्रवेश प्रतियोगिता में सफल न हो सके फ़लस्वरूप वे अपनी योग्यता के अनुरूप ‘केरियर’ न बना सके और समाज उनकी सेवाओं से वंचित रह गया. उनमें से अधिकांश शिक्षाकर्मी बनकर अपनी प्रतिभा और योग्यता के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं या अपने बच्चों को गोद में खिलाते हुए अपनी महत  उपलब्धि पर खिसिया कर हंसने का अभिनय रहे हैं.

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          इस आत्मकथा को पढ़कर आपके दिमाग में यह प्रश्न आ सकता है कि यह कथालेखक जानकार और होशियार समझ तो आता है लेकिन इसके बावज़ूद यह व्यक्ति अपने जीवन को मनोनुकूल क्यों नहीं बना पाया? मानव व्यवहार प्रबन्धन का ऐसा प्रशिक्षक जो अपने प्रस्तुतीकरण के प्रभाव से लोगों में आत्मविश्वास भर देता है, उनमें ऊर्जा का संचार कर देता है, वह अपने जीवन प्रबन्धन में इस कदर फ़िसड्डी क्यों रह गया ? क्या केवल भाषण देना आता है? जब खुद पर उन बातों को लागू करना हो तो फिर सिट्टी-पिट्टी क्यों गुम हो जाती है?
           यह सच है कि अनुवांशिकता के कारण व्यापार करने के गुर मेरे रक्त में सहज प्रवाहित हैं इसलिए फ़ुटपाथ में भी अगर कुछ बेचने के लिए बैठ जाऊं तो अपना धंधा बढ़िया चला लूंगा. तो फिर यह सब परेशानियाँ क्यों?
          असल में, मेरी असफ़लता और तकलीफ़ें मेरे संकोची स्वभाव का दुष्परिणाम है. आप ऐसा न समझें कि मैं सरल स्वभाव का सीधा-सादा इन्सान हूं. 'मो सम कौन कुटिल, खल, कामी; जेहि तन दियो ताहि बिसरायो, ऐसो नमकहरामी !'
        एक सच्ची घटना बताता हूं, इसे पढ़िए. पुरानी बात है, यही कोई पैंतीस वर्ष पुरानी, मेरे एक मित्र हैं- क्रांति कुमार ओझा, जो 'प्रिंटिंग प्रेस' चलाते हैं, ज्योतिष का ज्ञान रखते है. एक दिन मैंने उनसे आग्रह किया- ‘ओझा जी, कुन्डली देखकर मेरा भविष्य बता दीजिए.’ उन्होंने मुझसे कुन्डली मंगवाई और पन्द्रह दिन बाद मिलने का आदेश दिया. जब पन्द्रह दिन बीत गए तो मैं जिज्ञासु भाव लिए उनके पास गया. उन्होंने मुझसे कहा- ‘यार द्वारिका, अपन दोनों एक मोहल्ले में धंधा करते हैं, कई सालों से मैं तुम्हें जानता हूं. मैं अब तक तुम्हें एक सीधा-सादा व्यक्ति मानता था, आम लोगों में भी तुम्हारी 'इमेज' ऐसी ही है लेकिन मैं तुम्हें एक  बात बताता हूँ, नाराज नहीं होना मित्र.'
'बताइये, निःसंकोच बताइये.' मैंने उत्सुक होकर पूछा.
'तुम्हारी कुन्डली में बैठे ग्रह कुछ और बताते हैं.’
‘क्या ?’
‘तुम्हारी कुन्डली में स्पष्ट संकेत हैं कि तुम बहुत बदमाश ‘टाइप’ के आदमी हो.’
'महाराज, यह बात अभी तक केवल मुझे ही मालूम थी. इस बात को जानने वाले अब आप संसार के दूसरे व्यक्ति हो गए हैं. किसी और को मत बताना, प्रभु.’ मैंने उनसे प्रार्थना की.
           मनोवैज्ञानिक सिग्मंड फ्रायड मनुष्य के व्यक्तित्व को समुद्र में तैरते 'आइसबर्ग' की तरह अबूझ बताते हैं. पानी में तैरती बर्फ की चट्टान का केवल छोटा सा ऊपरी हिस्सा हमें दिखाई पड़ता है जबकि उसका बहुत बड़ा हिस्सा पानी में डूबा रहता है जो दिखाई नहीं पड़ता इसी प्रकार किसी भी मनुष्य के बाह्य स्वरुप को देखकर उसकी वास्तविकता को समझ पाना या उसके समग्र व्यक्तित्व को जान पाना असंभव है. इन्सान होता कुछ और है, दिखता कुछ और ! 
          मेरे संयुक्त परिवार में सम्प्रेषण सदैव एक-तरफ़ा रहा. बड़ों का काम बोलना और छोटों का काम 'जी-जी' करना. आम तौर पर अधिकांश परिवार इसी शैली को अपनाते हैं. इसीलिए सम्प्रेषण अधूरा रह जाता है क्योंकि सबको अपनी बात कहने या राय देने की आज़ादी नहीं होती. परिवार में जो आजीविका कमाता है या जो सबको डराकर रखता है- वही होशियार है शेष सब उसके आज्ञाकारी. इसका दुष्परिणाम यह होता है कि डरावने माहौल या अपनी अवमानना के भय से अन्य सदस्य अपने विचार या भावनाएं प्रगट नहीं करते जो किसी परिवार के लिए शुभ लक्षण नहीं हैं. मेरे दद्दाजी भी मुझसे राय लिया करते थे लेकिन इस अदा से- 'छोटे भइया, हमने तुम्हारी शादी जबलपुर में तय कर दी है, तुम्हारा क्या कहना है?' अब न तो मैंने उनसे शादी के सम्बन्ध में कुछ कहा था, न लड़की ही देखी थी, न उससे बात की थी फिर भी मुझे अपनी राय देनी थी! मैंने कहा- 'जैसा आप उचित समझें.' मेरे कहने का अर्थ संसदीय भाषा में यह है कि प्रस्तावक ने प्रस्ताव पटल पर रखने के पूर्व ही निर्णय ले लिया है और वह केवल अनुमोदन चाहता है.
         एक उदाहरण पढ़िए- एक माँ अपनी पांच वर्षीय बेटी के साथ मॉल में घूम रही है. अचानक बच्ची का ध्यान 'टॉय शॉप' में रखी एक गुड़िया की ओर जाता है, बच्ची का दिल उसे पाने के लिए मचल जाता है. वह अपनी माँ से उस गुड़िया को खरीदने का आग्रह करती है लेकिन माँ उसे झिड़क देती है- 'मैं इसीलिए तुमको बाज़ार लाना पसंद नहीं करती. तुम्हें जो दिख गया वह खरीदना है. ऐसा करोगी तो फिर मैं तुम्हें अपने साथ नहीं लाऊंगी.' 
'मम्मी, एक मिनट रुकना, मैं आई.' बच्ची ने अपनी माँ से कहा और दौड़कर शॉप के अंदर गई. सेल्समेन से उस गुड़िया को बाहर निकालकर दिखाने के लिए कहा. बच्ची ने उस गुड़िया को अपने दोनों हाथों से थामा, प्यार से देखा, 'किस' किया और उसे वापस करते हुए सेल्समेन को कहा- 'थैंक्स अंकल.'
          अब, इस घटना से बच्ची ने क्या अनुभव किया होगा ? यही न, कि भविष्य में वह अपनी भावनाएँ माँ से न बताए क्योंकि माँ नाराज़ होती है, उसे सजा भी मिल सकती है. अगर ऐसी घटनाएँ बार-बार होती हैं तो यह संभव है कि दोनों के बीच भविष्य में संवादहीनता की स्थिति बन जाए. ऐसी ही छोटी-छोटी घटनाएं कालान्तर में पारस्परिक स्नेह, विश्वास और मधुर सम्बन्धों की स्थापना में बाधक सिद्ध हो सकती है.
         मेरे परिवार में केवल मेरी माँ थी जो मुझसे और सबसे बराबर प्यार करती थी. घर के अन्य बड़ों का स्थायी भाव किसी पब्लिक स्कूल के प्रिंसिपल जैसा था, केवल सुनने की आज़ादी थी, कहने की नहीं. इन बातों का मुझ पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि कोई भी प्रतिक्रिया करने में संकोच का अनुभव करता था और मैं स्वभाव से दब्बू  बनता गया. संवाद की सुविधा न होने के कारण मैं एक अपने परिवार के लिए 'रोबो(ट)' की भांति हो गया और 'जो आदेश....' की मुद्रा में जकड़ गया.
         आप ऐसा न सोचें कि इस कथा के जरिए मैं अपनी तकलीफ़ों का बोझ आपको बता कर खुद को हल्का करने की कोशिश कर रहा हूँ॰ दरअसल, मैं जानना चाहता हूँ कि हम सब जिस आनंदमय जीवन के लिए तरसते हैं वह हमसे यूँ दूर क्यों होते जाता है ? शायर गुलज़ार लिखते हैं :

"तुझसे नाराज़ नहीं ज़िन्दगी हैरान हूँ मैं
तेरे मासूम सवालों से परेशान हूँ मैं.

जीने के लिए सोचा ही नहीं, दर्द सम्हालने होंगे
मुस्कुराए तो मुस्कुराने के क़र्ज़ उतारने होंगे,
मुस्कुराओ कभी, तो लगता है जैसे होठों पे कर्ज़ रखा है.

ज़िन्दगी तेरे गम ने हमें रिश्ते नए समझाए
मिले जो हमें, धूप में मिले, छाँव के ठंडे साए.

आँख अगर भर आई है बूंदें बरस जाएंगी
कल क्या पता, किनके लिए, आँखें तरस जाएंगी,
जाने कब गुम हुआ, कहाँ खोया, एक आँसू जो छुपा कर रखा था.

तुझसे नाराज़ नहीं ज़िन्दगी हैरान हूँ मैं
तेरे मासूम सवालों से परेशान हूँ मैं."

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                                                             कहीं धूप कहीं छांव


         Stephen R. Covey की एक पुस्तक है: 'The Seven Habits Of Highly Effective People' जिसमें जीवन प्रबंधन के सात अद्भुत सूत्र हैं. इसमें बहुत कुछ ऐसा है जो हमारे दिमाग की नई खिड़कियाँ खोल सकता है. जैसे, इस पुस्तक में प्रभावी सम्प्रेषण के बारे में एक आनुभूतिक चर्चा है. हम लोग 'Sympathy' शब्द से भलीभाँति परिचित हैं जिसका हिन्दी अर्थ है सहानुभूति. अँग्रेजी का एक और शब्द है- 'Empathy' जिसका अर्थ है समानुभूति. स्टीफन का मानना है- सहानुभूति और समानुभूति में फ़र्क है. सहानुभूति, किसी स्थिति से एक समझौता होता है जिसमें मनुष्य की भावुक प्रतिक्रिया होती है. सहानुभूतिवश की गई ऐसी मदद सामने वाले को पराश्रित बनाती है जबकि समानुभूति में यह जरूरी नहीं कि सुनी गई बात से आपकी सहमति हो, बल्कि यह सामनेवाले व्यक्ति को पूरी गहराई से समझने का भावुकतापूर्ण  बौद्धिक प्रयास है. जब हम किसी को सुनते हैं तो इन चार तरीकों से प्रतिक्रिया करते हैं :
# हमारा आकलन > सुनी गई बात से हम सहमत हैं या असहमत ?
# हमारी जांच-पड़ताल > फिर, हम अपनी निश्चित धारणाओं के अनुसार सामने वाले से प्रश्न करते हैं.
# हमारी सलाह > उसके बाद, अपने पुराने अनुभव के आधार पर उसे अपनी राय देते हैं.
# हमारा निष्कर्ष > अंत में, अपनी सोच की कसौटी के आधार पर सामने वाले के व्यवहार और इरादे को समझते की कोशिश करते हैं. 
          स्टीफ़न  के अनुसार- 'जो कुछ कहा जाता है उसका 10% शब्दों के माध्यम से, 30% आवाज के माध्यम से और शेष 60% हमारे शरीर की भाषा से संप्रेषित होता है. समानुभूति में आप केवल कान से नहीं सुनते बल्कि आप अपनी आंखों और दिल से भी सुनते  हैं. आप महसूस करने के लिए सुनते हैं, अर्थ समझने के लिए सुनते हैं, अर्थात 'मैं सामने वाले को समझने के लिए उसे सुन रहा हूँ.'  
          एक घटना आपको बताता हूँ- गर्मी के दिन थे, मैं अपने एक मित्र के घर उनके 'लंच-टाइम' में पहुँच गया. उनका छोटा बच्चा 'डायनिंग चेयर' पर अनमना सा बैठा था, वह भोजन करने का इच्छुक न था लेकिन उसकी माँ उसे भोजन कराने के लिए दृढ़संकल्पित थी. उन्होंने मुझसे भी भोजन करने का अनुरोध किया, मैंने मना किया लेकिन 'कोल्ड-ड्रिंक' के लिए राजी हो गया. फ्रिज से निकलते कोल्डड्रिंक को देख बच्चा मचल गया- 'मैं कोल्डड्रिंक लूँगा.' उसकी सुई कोल्डड्रिंक में अटक गई थी. मामला पेचीदा हो गया. माँ ने बच्चे से वादा किया- 'भोजन कर लो, उसके बाद तुम्हें कोल्डड्रिंक दूँगी, पक्का.'
'नईं, मैं पहले कोल्डड्रिंक लूँगा.' बच्चे ने रोते हुए कहा. माँ ने बहुत समझाया पर बच्चा अपनी बात पर अड़ गया.
'एक काम करो, मैं तुमको कोल्डड्रिंक देती हूँ लेकिन खाने के पहले तुम नहीं पियोगे, हाँ, खाना और कोल्डड्रिंक साथ-साथ ले सकते हो.' दोनों में समझौता हो गया, बच्चा अपने काम में लग गया और बच्चे की माँ हम लोगों की बातचीत में शामिल होने के लिए आ गई. मैंने उनसे कहा- 'भाभी जी, बच्चे की ज़िद इस तरह पूरी करके आप उसे बिगाड़ रही हैं.'
'सच तो यह है भाई साहब, ये सब आपके कारण हुआ.' वे बोली.
'मेरे कारण?'
'हाँ, आपके कारण. आप उसके खाने के समय में आए, उसके नज़र के सामने फ्रिज से कोल्डड्रिंक निकला, ज़ाहिर है, बच्चा उसे देखेगा तो मचलेगा.'
'ओ, सॉरी, पर मैंने देखा कि आपने उसकी बात मानी लेकिन उसने तो आपकी बात नहीं मानी ?'   
'मानी, बराबर मानी, आप देखिए, वह कोल्डड्रिंक पी रहा है, साथ ही खाना भी खा रहा है.'
'उसने आपको झुकाया, फिर खाना खाया.'
'यह झुकने-झुकाने की बात नहीं है. हम दोनों ने एक दूसरे की भावना को समझा.' बच्चे की माँ ने मुझे समझाया. 
            स्टीफ़न की पुस्तक 'द सेवन हैबिट्स ऑफ़ हाइली इफेक्टिव पीपल' का ज़िक्र मैंने इसलिए किया क्योंकि आपको धनवान बनने के गुर बताने वाली अनेक पुस्तकें बाज़ार में बहुत मिल जाएंगी लेकिन इस रहस्यमयी दुनियाँ में खुद का प्रबंधन कर स्वयं को प्रभावी मनुष्य कैसे बना जाए- यह समझाने वाली पुस्तकें कम मिलती हैं. जब मुझे व्यवहार विज्ञान विषय पर प्रशिक्षण देने के मौके मिलने लगे तब प्रबंधन की अनेक पुस्तकों को पढ़ने का अवसर मिला उनमें से सबसे अधिक प्रभावित करने वाली पुस्तक यही रही. इसे मैंने कई बार पढ़ा, हर बार कुछ नई बात समझ में आती.
          एक कहावत है- 'सिखाने का प्रतिफल सीखना है॰' प्रशिक्षक पहले विषय को पढ़ता है, समझता है फिर उसके बाद समझाता है और समझाते-समझाते ऐसा समझता है जिसे वह केवल पढ़कर नहीं समझ सकता॰ यह ज़रूर हुआ कि इन प्रशिक्षण कार्यक्रमों के चलते इसके कई सूत्र अपने आप मेरे जीवन में जुड़ते गए॰ मुझे मेरी भूलें और कमियां समझ में आने लगी, फिर मेरे जीने का अंदाज़ भी बदलने लगा. 
          सद्गुरु जग्गी वासुदेव कहते हैं- 'पुस्तक में क्या लिखा है वह मायने नहीं रखता, उसे पढ़कर जो आपके दिल में धड़कता है- वह मायने रखता है.'

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          एक दिन माधुरी (जी हां, मेरी पत्नी) के साथ मैं अपने मित्र विवेक जोगलेकर के घर गया. उनकी पत्नी शुभदा उन दिनों गर्भवती थी, प्रसव समय अधिक दूर न था. शुभदा के सामान्य स्वास्थ्य की कुशलक्षेम के पश्चात मैंने विवेक से पूछा- ‘शुभदा का ठीक से ध्यान रखते हो?’
‘हां-हां, बराबर ध्यान रखता हूं.’ विवेक ने बताया.
‘मिठाई वगैरह खिलाते हो?’
‘कभी कभी.’
‘चाट-पकौड़ी?’
‘अक्सर.’
‘कोई ‘डायरी मेन्टेन’ करते हो?’
‘क्या मतलब?’
‘तुम्हारी पत्नी आज से बीस-पच्चीस साल बाद तुमसे शिकायत कर सकती है- ‘मैं जब ‘प्रेग्नेन्ट’ थी तब तुमने मेरा बिल्कुल ख्याल नहीं रखा, एक टुकड़ा मिठाई नहीं खिलाई और न ही कभी चाट.'
‘अरे, खिला-पिला रहा हूँ, ऐसे कैसे भूल जाएगी ?’
‘भूल जाएगी मित्र, देख लेना, जैसा बता रहा हूं, वैसा ही होगा॰ इसीलिए हर समय जेब में डायरी रखा करो, जो भी खिलाओ, उसका पूरा विवरण और तारीख लिखने के बाद उसमें शुभदा के दस्तखत करवा लिया करो.’
‘ऐसा क्या?’
‘हां, अगर अभी चूके तो फिर बाद में बेबुनियाद आरोप सुनने और सहने के लिए तैयार रहना.’
          माधुरी और शुभदा दोनों मुझ पर नाराज़ हो गई और तुरन्त मुझे स्त्री विरोधी घोषित कर दिया- ‘क्या हम लोग झूठ बोलती हैं?’
‘नहीं, ऐसा मैंने ऐसा कब कहा?’
‘तुम्हारे कहने का मतलब तो यही है, तुमने तो, सच में, मुझे कुछ नहीं खिलाया. देखो शुभदा, इनकी इतनी बड़ी मिठाई की दूकान, पूरे शहर में ‘पेन्ड्रावाला’ का नाम, क्या मज़ाल कि कभी मिठाई का एक टुकड़ा लाकर खिलाया हो!’ माधुरी ने शिकायती लहज़े में कहा.
‘अब आज मेरे पास कोई प्रमाण नहीं है कि मैंने तुमको क्या-क्या खिलाया इसीलिए विवेक को यह सावधानी समझा रहा था.’ मैंने कहा.
          ऐसा नहीं है कि पत्नियाँ झूठ बोलती हैं, या भूल जाती हैं. असल में, यह मानवीय सम्प्रेषण की समस्या है. एक मनुष्य दूसरे के हृदय की अनकही बात को सुन नहीं पाता, समझ नहीं पाता. पति-पत्नी एक घर में साथ रहते हैं लेकिन किसी अपरिचित की तरह! दोनों के लिए एक दूसरे को बूझ पाना असम्भव है, असम्भव क्यों? असम्भव इसलिए कि असम्भव को सम्भव करना असम्भव है.
          विवाह करके दो व्यक्ति एक साथ रहने के लिए सहमत होते हैं लेकिन वे दो ही रहते हैं, वे एक कभी नहीं हो पाते. विवाह के शुरुआती मौसम की नज़दीकी कब ऊब में बदल जाती है, पता नहीं चलता. मधुमास या मधुवर्ष में आंखों में आंखे डाले बड़े प्यार से एक दूसरे को भोजन के कौर खिलाते युगल बाद के वर्षों में आंखें नीची कर अपना-अपना पेट भरा करते हैं. तब तक वे दोनों एक दूसरे के बल और छल से परिचित हो जाते हैं और मौन अपेक्षाओं की सीढ़ियां चढ़ते हुए परस्पर व्यवहार को परखते हैं. यदि पत्नी कहे- ‘चाट खिलाओ’, तो पति को खिलाने में क्या असुविधा है- चाहे जितनी खाओ किन्तु पेंच यह है कि पत्नी सोचती है कि- ‘गर्भधारण का असहनीय कष्ट सहकर मैंने तुम्हारी संतान को जन्म दिया और तुम्हें मेरे कहे बिना चाट खिलाने की याद तक नहीं आई?’ उलाहना इस बात का है,  क्या यह अनुचित है ?
          मेरा अनुमान है कि स्त्रियां सबसे अधिक नाखुश अपने पति से रहती हैं. उनकी नाखुशी की वज़ह वज़नदार है- नाराजगी का सबसे बड़ा कारण दोनों में लिंग का अन्तर है जिसके कारण उसे अपना घर छोड़कर दूसरे के घर आना पड़ा. उसके लिए पति नामक व्यक्ति किसी खलनायक की तरह है जिसने उसे उसके मां-बाप के घर से बेदखल कर अपने घर ले आया. वैसे तो समाज लड़कियों को उनके बचपन से सिखाता-समझाता है- ‘एक दिन सपनों का एक राजकुमार आएगा, तुझे डोली में बिठाकर ले जाएगा, बहुत सारी खुशियां देगा, प्यार करेगा, तू वहाँ जाकर राज करेगी’ लेकिन विवाह के बाद स्त्री को समझ में आता है- ‘मैंने तो चांद सितारों की तमन्ना की थी, मुझको रातों की स्याही के सिवाय कुछ न मिला.’
          एक लड़की जिसके सामने खुला आसमान था, अनेक संभावनाएं थी, वह कुछ अपरिचितों के हाथ की मुट्ठियों के अंधेरे में कैद हो गई. विवाह के पश्चात हर गतिविधि के लिए वह ससुरालवालों की इजाज़त की  मोहताज़ हो गई. यहां तक कि उससे यह उम्मीद भी की जाती है कि वह अपने जीवन के स्वर्णिम अतीत के पन्ने फ़ाड़कर फेक दे और मायके वालों को भूल जाए और उनका नाम तक अपने मुंह से न निकाले !
         धीरे-धीरे वह उस जेलखाने की अभ्यस्त हो जाती है, उसी छोटी सी दुनिया में वह अपनी नई दुनियाँ बसाती है, घर के काम में खुद को व्यस्त करके वह इस यातना से अपना ध्यान बँटाने की प्रतिदिन कोशिश करती है. रोज, आँच के सामने खड़े होकर सबके लिए खाना बनाना, जूठे बर्तन उठाना और साफ़ करना, गंदे कपड़े धोना और 'प्रेस' करना और हर रात में वही बेरहम बिस्तर ! कौन है ज़िम्मेदार ?
         फ़्रैंच लेखिका Simone de Beauvoir ने स्त्री-पुरुष संबन्धों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करते हुए अपनी पुस्तक The Second Sex में लिखा है- ‘पति सोचता है कि उसने एक अच्छी पत्नी से विवाह किया है. वह स्वभाव से गुणवती, श्रद्धालु, वफ़ादार, संतुष्ट और पवित्र है. वह भी वही सोचती है जो उसके लिए सोचना उचित है. पुरुष एक लम्बी बीमारी के बाद स्वस्थ होने पर अपने मित्रों, रिश्तेदारों और नर्सों को देखभाल के लिए धन्यवाद देता है पर जो पत्नी छः महीनों तक उसके बिस्तर के पास बैठी रहती है, उससे वह कहता है- ‘मैं तुम्हें धन्यवाद नहीं देता, तुमने तो अपना कर्तव्य निभाया है.’ पति पत्नी की अच्छाइयों को कभी भी विशेष महत्व नहीं देता. समाज भी पत्नी में इस गुण का होना अनिवार्य समझता है. विवाह संस्कार भी यह ज्ञान कराता है कि पत्नी में सद्गुणों का होना अनिवार्य है. पुरुष भूल जाता है कि उसकी पत्नी किसी परम्परा से चली आ रही एक पवित्र रचना मात्र नहीं बल्कि एक जीता-जागता इन्सान भी है.’
           सीमोन द बोउवार के अनुसार- 'स्त्री पैदा नहीं होती, बल्कि उसे बना दिया जाता है.'

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          हमारी बड़ी बिटिया संगीता ‘पीएमटी’की प्रतियोगिता में दूसरी बार असफल हो गई. बहुत समझाने-बुझाने पर बामुश्किल उसने तीसरी बार कोशिश की, उसे ८२.४ % अंक अर्जित किए फिर भी सफल न हो सकी क्योंकि उस वर्ष की परीक्षा में भिंड-मोरेना के परीक्षा केन्द्रों में खुली नक़ल चली जिसका दुष्परिणाम सम्पूर्ण प्रदेश के अन्य प्रतियोगियों को भुगतना पड़ा. पूर्वनियोजित आरक्षण, फिर नक़ल और 'सेटिंग' ने पूरी प्रक्रिया को ऐसे चक्रव्यूह में बदल दिया जिसे भेद पाना सामान्य वर्ग के प्रतियोगियों के लिए बेहद कठिन हो गया. इस असफलता ने संगीता को अन्दर तक आहत और निराश कर दिया. उसने मुझे 'नोटिस' दी- 'पापा, अब मुझसे पीएमटी में बैठने के लिए कभी नहीं कहना और घर में उसका कोई नाम भी नहीं लेगा.' सब चुप हो गए, लेकिन मैं चुप बैठा नहीं. मैं उसकी योग्यता, कर्मठता और लगन को पुरस्कृत होते हुए देखना चाहता था लेकिन आप तो जानते हैं कि किसी की भी तंगहाली उसके बहुत से सपनों को उजाड़कर दूर खड़े होकर चिढ़ाती है और अंगूठा दिखाकर कहती है- ‘ लेल्ले !’
          आपसे अपने एक अज़ीज़ का ज़िक्र अब तक नहीं कर पाया- वे हैं बीके सर. पूरा नाम बृजेन्द्र कुमार श्रीवास्तव, मूल निवासी- कानपुर, शिक्षा- इलाहाबाद, नौकरी- बिलासपुर, हाल मुकाम- मुम्बई. सन १९६२ में वे बिलासपुर के सीएमडी कालेज में अंग्रेजी के प्राध्यापक बन कर आए और लगभग ५५ वर्ष तक यहां रहे फ़िर अपने पुत्र के साथ रहने के लिए मुम्बई चले गए. १९६३ से ६५ तक मैंने अपने ‘ग्रेजुएशन’ के दौरान उनसे अंग्रेजी पढ़ी और उनसे बहुत दुखी रहा क्योंकि वे अंग्रेजी को अंग्रेजी भाषा में पढ़ाते थे. वे जो कुछ पढ़ाते-समझाते थे वह मेरे पल्ले नहीं पड़ता था क्योंकि अपनी अंग्रेजी माशाअल्लाह बर्बाद थी.
          शहर के अन्य गणमान्य नागरिकों की तरह वे भी मेरी मिठाई दूकान के नियमित ग्राहक थे, धीरे-धीरे मन मिल गया तो अंतरंगता बढ़ गई और वे मेरे गुरु-मार्गदर्शक-मित्र बन गए. उनसे नियमित मिलना-जुलना था. उनके घर कोई मेहमान या मित्र आते तो वे मुझसे अवश्य मिलवाते. उनके इलाहाबाद वाले एक मित्र रविन्द्रनाथ गोयल बिलासपुर आए तो वे उन्हें साथ लेकर मेरी दूकान में आए. स्वागत-सत्कार के पश्चात घरेलू चर्चा चल निकली. जब संगीता का पीएमटी प्रकरण मैंने उन्हें बताया, गोयलजी बोले- ‘ये क्या बात हुई, इतना अच्छा ‘स्कोर’ लाने के बाद उसे एक बार और ‘ट्राई’ करना चाहिए.’
‘पर उसे तो पीएमटी के नाम से नफ़रत हो गई है.’ मैंने कहा.
‘मेरी उससे बात करवाइए.’
‘पर जब वह इस विषय पर बात ही नहीं करना चाहती, तो?’
‘मुझसे मिलवाओ, मैं उससे किसी अन्जान की तरह बात करूंगा और फ़िर अपनी तरफ़ से कोशिश करता हूं.’  उन्होंने आग्रहपूर्वक कहा.
          अगले दिन मैं संगीता के साथ बीके सर के घर पहुंचा. गप-शप शुरू हुई. कुछ देर बाद गोयलजी ने संगीता से पूछा- ‘तुम क्या कर रही हो?’
‘बीएससी फ़ायनल में हूं.’ वह धीरे से बोली.
‘आगे क्या इरादा है?’
‘क्या बताऊं?’
‘मतलब?’
‘कुछ सोचा नहीं, अब तक पीएमटी के चक्कर में फ़ंसी रही, उसमें हुआ नहीं.’
‘क्यों नहीं हुआ?’
‘मैंने तीन बार कोशिश की, हर बार आगे बढ़कर भी पिछड़ गई, अंकल.’
‘तुम्हारा आखिरी ‘पर्सेन्टेज’ क्या था?’
‘८२.४.’
‘कट आफ़' क्या था?’
‘८४.२.’
‘फ़िर तो तुम्हारा एक बार और ‘ट्राई’ करना बनता है.’
‘मेरी अब हिम्मत नहीं.’
‘अब जब तुम ‘सिलेक्ट’ होने के एकदम करीब खड़ी हो तो हिम्मत हार गई. यह बात ठीक नहीं. कल से तुम्हारी पढ़ाई फ़िर से शुरू होनी चाहिए. मुझे ऐसा लग रहा है कि इस बार तुम्हारा सफल होना पक्का है.’ गोयल अंकल ने उसका हौसला बढ़ाया. बीके सर के घर से लौटते समय संगीता एकदम चुप रही. अगली सुबह संगीता अपनी ‘मोपेड’ में ‘कोचिंग’ जाने के लिए जब घर से निकल पड़ी तो मुझे उसके निर्णय का पता अपने-आप चल गया और उसके आने वाले कल का पूर्वाभास भी हो गया. वह आभास निराधार नहीं था. चौथी कोशिश में वह ‘सिलेक्ट’ हो गई और उसकी उदासी और नैराश्य का स्थान खुशी और आशा ने ले लिया. हमारे घर में सालों के बाद खुशी की कोई खबर आई. हम हंस भी रहे थे, रो भी रहे थे.
          उसी दिन वह अपने दादाजी और दादीजी को प्रणाम करने गई और उनका आशीर्वाद लिया. दद्दाजी ने पूछताछ की और मुझे बुलवाया. उन्होंने मुझसे पूछा- ‘संगीता ‘डाक्टरी’ पढ़ने इन्दौर जाएगी?’
‘जी’ मैंने मुस्कुराते हुए जवाब दिया.
‘तुम कैसे बाप हो, मेरी समझ में नहीं आता!’   
'क्या हुआ ?'
'संगीता कितने साल की हो गई?'
'बीस की होने वाली है.'
'तुमको उसके शादी-ब्याह की फिकर नहीं है !'
'पढ़-लिख लेगी तब शादी करेंगे.'
'कब तक पढ़ेगी, कब उसकी शादी करोगे ?'
'डाक्टर बन जाएगी तब करेंगे.'
'वह अकेले इंदौर में रहेगी, चार साल तक, लड़की जात, तुमको डर नहीं लगता ?'
'डरने की कोई बात नहीं है, जो बच्चे बाहर पढ़ने जाते हैं वे अकेले ही जाते हैं.'
'अब मैं तुमको कैसे समझाऊं?'
'आप मेरी बात समझने की कोशिश करिए दद्दाजी. हमारे पूरे खानदान में आज तक कोई डॉक्टर नहीं बना, संगीता बन रही है, आपकी पोती संगीता. उसे जाने दीजिए, सब ठीक रहेगा, आप चिंता न करें.' मैंने उन्हें समझाया, 'शायद' वे मान गए और इस प्रकार संगीता के इन्दौर जाकर आगे पढ़ने का मार्ग प्रशस्त हो गया.
          तमिलनाडु के प्रसिद्ध कवि तिरुवल्लुवर ने लिखा था : 'नदी या झील या तालाब की गहराई कितनी ही क्यों न हो और उसका पानी कैसा भी क्यों न हो, कमलिनी खिले बिना नहीं रह सकती.'

          संगीता को इन्दौर के ‘डेन्टल कॉलेज’ में प्रवेश लेना था, मैं उसके साथ गया. इन्दौर में हम दोनों, मेरी भतीजी ममता अग्रवाल की ससुराल साउथ तुकोगंज में रुके थे. प्रवेश की औपचारिकताएं पूरी होने के पश्चात ‘हॉस्टल’ देखने गए. हॉस्टल क्या था- किसी घुड़साल जैसा था. अंग्रेजों के जमाने में बने एक बहुत बड़े बंगले को ईटों की दीवार के खंड बनाकर छोटे-छोटे कई कमरों में तब्दील करके मेडिकल कालेज की लड़कियों का हॉस्टल घोषित कर दिया गया था. उस युग की निर्माण शैली के अनुरूप बंगले की छत काफ़ी ऊंची थी इसलिए  आठ फ़ीट की दीवारें उठा दी गई थी, आधुनिक ‘आफ़िसों’ के ‘पार्टीशन’ की तरह, लिहाज़ा, किसी भी पार्टीशन में आपस में हो रही बातचीत, या मच रहा शोर, या बज रहा टेपरेकार्डर सबको एक साथ सुनाई पड़ता था. हर एक कमरे में आठ-आठ लोहे के पलंग लगे थे जिसमें कुछ पलंग बीच से जमीन की तरफ़ घूम गए थे अर्थात जो उस पर सोए उसे नवजात शिशु के झूले का परमानन्द मिल जाए और रात भर सोने के पश्चात कमर भी टेढ़ी हो जाए. साथ में, 'कॉमन बाथरूम', 'किचन' और ‘बोनस’ में `सीनियर्स' का आतंक. किचन में बजबजाती नाली के पास पकाया जा रहा भोजन, वहां की गंदगी और बदबू ने स्वास्थ्य के समस्त मानकों की धज्जियां उड़ा रखी थी. मुझे वह हॉस्टल तनिक भी न जमा लेकिन मेरी जेब में इतने पैसे न थे कि मैं उसका किसी ‘प्राइवेट हॉस्टल’ में दाखिला करवा सकता, मज़बूरन संगीता को वहीं रोकने का निर्णय लेना पड़ा.
          कॉलेज से लौटकर जब हम ममता के घर वापस आए तो ममता के श्वसुर राधारमण जी ने हमारी दिन भर की गतिविधियों की जानकारी ली. जब मैंने उनसे संगीता के लिए हॉस्टल में रहने के बारे में बताया तो वे मुझ पर नाराज़ हो गए- ‘आपने यह ठीक नहीं किया, हमारा इतना बड़ा घर है, यहां कोई तकलीफ़ नहीं, संगीता यहां रहेगी.’
‘शाहजी साहब, उसको यहां कम से कम पांच साल रहना है, कोई दो-चार दिन की बात तो है नहीं!’ मैंने समझाया.
‘तो क्या हुआ, पांच साल रहे तो भी हमें कोई अड़चन नहीं, सब व्यवस्था हो जाएगी.’
‘यह तो आपकी कृपा है लेकिन बात कुछ और है.’
‘क्या है?’
‘हॉस्टल में सब ‘स्टूडेंट्स’ का साथ रहेगा, पढ़ाई का माहौल रहता है. बस, इसीलिए, और कोई बात नहीं. वह आपके घर नियमित आती-जाती रहेगी और मैं उसे आपकी ही देखरेख में यहां छोड़कर जा रहा हूं॰’
‘आप ठीक कहते हैं लेकिन आपका निर्णय हमें पसन्द नहीं आया.’ उनकी आवाज़ में क्षोभ झलक रहा था. रात को भोजन के समय उन्होंने मुझे फ़िर चेताया- ‘हॉस्टल के बारे में आप फ़िर से विचार कीजिए.’ मैंने कृतज्ञ भाव से उनकी ओर देखा, मन ही मन उनकी सज्जनता और उदारता पर मुग्ध होकर मैं चुपचाप भोजन करता रहा.
          अगली सुबह हम सामान लेकर हॉस्टल गए. जैसी रहने और खाने की व्यवस्था थी, उसे देखकर मेरा मन खिन्न हो गया लेकिन संगीता ने कहा- ‘पापा, आप चिन्ता मत करो, कुछ दिन में मुझे इन सब की आदत पड़ जाएगी.’ संगीता को वहां छोड़कर मैं बहुत भारी मन लेकर वापस लौटा. पर क्या करोगे, कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है.
          संगीता से दो साल छोटी हमारी बेटी संज्ञा ने भी 'पीएमटी' देने का एक प्रयास किया, उसमें असफ़ल हो गई और अपने हाथ खड़े कर दिए- ‘पापा, यह मेरे वश का नहीं.’ हमें समझ में आ गया कि पढ़ने-लिखने और 'कुछ बनने' का उबाऊ काम उन्होंने अपने होनेवाले पति के लिए छोड़ रखा है. उन्होंने स्थानीय विप्र महाविद्यालय में बी.एस.सी. (माइक्रोबायोलोजी) में प्रवेश ले लिया. संज्ञा से दो साल छोटे हमारे पुत्र कुन्तल, सरस्वती शिशु मंदिर में ‘हाई स्कूलिंग’ कर रहे थे. संज्ञा और कुन्तल का पढ़ाई-लिखाई में मन कम लगता था, उन्हें अन्य गतिविधियां अधिक पसंद थी. सच पूछिये तो इन दोनों के भविष्य को लेकर हम लोग बेफ़िक्र हो गए थे. वे जितना पढ़ें ठीक, जो करें ठीक, जो न करें ठीक.
          कुन्तल का मिठाई दूकान में काम करने में बहुत दिल लगता था इसलिए उन्हें जब समय मिलता, दूकान आ जाते या अपने मित्रों के साथ घूमते-फ़िरते. बारहवीं कक्षा में पढ़ाई के दौरान उन्होंने 'पीईटी' की प्रतिस्पर्धा में भाग लिया और अत्यन्त निराशाजनक प्रदर्शन किया. श्रीमानजी के हाल-चाल का एक घटनाक्रम आपके जानने योग्य है- शाला की अर्धवार्षिक परीक्षा में उत्तर-पुस्तिका के एक पृष्ठ में वे अपने ‘आचार्यजी’ का 'कार्टून' बनाते रहे क्योंकि परीक्षाकक्ष में एक घंटा तक रुकना अनिवार्य था! एक घंटा व्यतीत हो जाने के बाद उत्तर-पुस्तिका के उस पृष्ठ को फाड़कर निकाल लिया और कक्ष से बाहर आ गए. घर आकर उन्होंने अपनी करतूत हमें बताई और यह संकेत दिया कि उनका भविष्य कैसा होने जा रहा है!
            कुछ दिनों बाद उनकी शाला से मेरे लिए बुलावा आ गया. प्राचार्या ( प्राचार्य का स्त्रीलिंग- प्राचार्या ! ) ने कुन्तल के बारे में मुझसे शिकायत की और फिर कुन्तल से पूछा- ‘तुमने उत्तर-पुस्तिका कोरी क्यों छोड़ी?’
‘उस दिन मेरी तैयारी नहीं थी, मुझे किसी भी प्रश्न के उत्तर नहीं मालूम थे.’ कुन्तल ने बताया.
‘फ़िर, उसका एक पन्ना क्यों फाड़ा?’
‘एक घंटे का समय बिताना था बहनजी, इसलिए एक रेखाचित्र बना रहा था. उठने के पहले यह समझ में आया कि आचार्यजी चित्र को देखेंगे तो बहुत पिटाई करेंगे इसलिए उस पन्ने को फाड़कर जेब में रख लिया.’
‘क्या यह बड़ी भूल नहीं है?’
‘जी, मुझसे गलती हुई और मैंने आचार्यजी से क्षमायाचना भी कर ली.’ कुन्तल ने कहा. प्राचार्या कुन्तल के कक्षा शिक्षक की ओर मुड़ी और उनसे पूछा- ‘क्यों आचार्यजी, क्या इसने आपको ये सब बताया था?’
‘जी.’ आचार्यजी ने सहमति में अपना सिर हिलाया.
‘आपसे क्षमा मांगी?’
‘जी.’
‘फ़िर आपने अग्रवालजी को क्यों बुलाया?’
‘मैं चाहता था कि यह घटना इन्हें मालूम हो.’ आचार्यजी बोले. तब प्राचार्या ने मुझसे कहा- ‘अब आपको पूरी बात मालूम हो चुकी है, आप बताइए, कुन्तल को क्या दंड दिया जाए?’
‘मेरी सलाह है कि इसे शाला से निष्कासित किया जाए और इसके चरित्र-प्रमाणपत्र पर प्रतिकूल टिप्पणी भी की जाए.’ मैंने कहा.
‘यह आप क्या कह रहे हैं?’
‘बहनजी, शाला नियमों के अनुकूल चलती है. कुन्तल ने अक्षम्य भूल की है. इन्हें अहसास होना चाहिए कि गल्तियों के कैसे परिणाम आते हैं.’
‘आपने तो बहुत कड़क निर्णय बता दिया.’
‘ऐसी बात नहीं है. आप मेरी बात समझिए, ये मेरे घर में इसलिए रहते हैं क्योंकि मेरे पुत्र हैं. इन्हें यदि घर में रहना है तो उसके नियमों और मर्यादाओं का पालन करना पड़ेगा. यदि उनका उल्लंघन होता है तो एक बार समझाऊंगा, फ़िर चेतावनी दूंगा और नहीं माने तो घर से बाहर निकाल दूंगा.’
‘ठीक है, जो हुआ सो हुआ. कुन्तल ने अपनी भूल स्वीकार कर ली और क्षमा मांग ली इसलिए प्रकरण को यहीं समाप्त करते हैं. आपको हमने इसलिए बुलाया था कि यह सब आपको मालूम रहना चाहिए.’
‘मुझे तो यह सब पहले से ही मालूम था.'
‘ऐसा क्या?’ प्राचार्या चौंकी.
‘जी, उसी दिन, जिस दिन पन्ना फाड़ा गया था.’ मैंने कुर्सी से उठते हुए बताया.

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                                                           ये कल की बात है

          सन १९९५ में छोटा भाई राजकुमार भी घर से बेदखल हो गया, इस प्रकार दद्दाजी के तीन मंजिला विशालकाय ‘घर’ में केवल दो प्राणी बच गए; एक उनकी पत्नी याने अम्माजी और दूसरे वे स्वयं. अस्सी 'प्लस’ के दो वृद्ध, नौ जीवित बच्चों के जनक, बिना किसी देखरेख के अपने घरौंदे में सिमट कर अपने जीवन की अंतिम सांसों को लेने और छोड़ने के लिए बच गए. समस्या यह थी कि अब कौन खाना बनाए ? माधुरी ने निर्णय लिया कि उनका दोनों समय का भोजन वे अपनी रसोई में तैयार करके प्रतिदिन भेजेंगी. 
          उन्हीं दिनों मुझे कोरबा जेसीज़ में प्रशिक्षण देने का निमन्त्रण मिला. कार्यक्रम के मुख्य अतिथि श्री आर॰के॰जायसवाल थे जो एन.टी.पी.सी. जमनीपाली (कोरबा) में मानव संसाधन और 'सिमुलेटर' विभाग के उपमहाप्रबन्धक थे. दो घंटे तक चले उस प्रशिक्षण कार्यक्रम का विषय था ‘मना करने की कला’ जिसे उन्होंने पूरे समय बड़े ध्यान से देखा-सुना और मुझसे पूछा- ‘हमारे यहां प्रशिक्षण देंगे?’
‘अवश्य.’ मैंने कहा.
‘किन-किन विषयों में करते हैं?’
‘व्यवहार विज्ञान, प्रबन्धन और व्यक्तित्व विकास पर.’
‘हूँ!’
‘जी.’
‘क्या लेंगे?’
‘एक दिन के कार्यक्रम का दो हजार, ’
‘आपको छः दिन तक लगातार प्रशिक्षण देना होगा, प्रतिदिन सात घंटे.’
‘ठीक है, मंजूर.’
‘एक 'प्रपोजल' मुझे भेज दीजिए, मैं आपको ‘शिड्यूल’ भेजता हूं.’
‘जी.’ मैंने अपनी प्रसन्नता छुपाते हुए गंभीर मुद्रा में कहा. यह छोटा सा वार्तालाप कालान्तर में बहुत उपयोगी सिद्ध हुआ. मुझे उस संस्थान में तेरह वर्षों तक प्रशिक्षण देने का अवसर मिलता रहा. प्रशिक्षण शुल्क दो हजार से अढ़ाई हुआ फ़िर तीन और फ़िर पांच हजार. 'लिखा न पढ़ी- जो मैं कहूं वह सही'- मैंने वहां लगभग दो सौ दिनों तक कार्यक्रम किए होंगे, कोई पचास-साठ विषयों पर प्रशिक्षण दिया और मज़े की बात- मैं वहीं एक नए विषय में पारंगत प्रशिक्षक बन गया- स्वास्थ्य प्रबन्धन!
          वैसे तो, हर प्रशिक्षण कार्यक्रम में कोई-न-कोई ऐसी घटना ज़रूर होती है जिसे बताया जा सकता है॰ उन्हें बताना शुरू करूंगा तो यह कथा प्रशिक्षणकथा बन जाएगी इसलिए एक-दो ऐसी घटनाएं बताऊंगा जिन्होंने मुझे संकट में डाला. अभी, एन.टी.पी.सी. के एक कार्यक्रम का विवरण पढ़िए: स्वास्थ्य प्रबन्धन के विषय पर चर्चा करते समय 'आहार संतुलन' के बारे में समूह को बताया जा रहा था. एक सज्जन ‘ओव्हर-वेट’ दिख रहे थे. मैंने उनसे पूछा- ‘क्या आप मानते हैं कि आपके शरीर का वजन ज़रूरत से अधिक है ?’
‘जी सर.’ उन्होंने उत्तर दिया.
‘उसे कम करने के लिए कुछ किया ?’
‘बहुत कोशिश की पर कम नहीं हुआ.’
‘अच्छा क्या-क्या किया आपने ?’
‘रोज घूमने जाता हूं, तला-भुंजा नहीं खाता, मैंने मांस-मटन तक खाना छोड़ दिया सर, पर मेरा वजन कम नहीं होता.’
‘मेरे पास एक ‘आइडिया’ है.’
‘सर, बताइये सर.’
‘शक्कर और मीठा खाना छोड़ दीजिए, वजन धीरे-धीरे कम हो जाएगा.’
‘सच में !’
‘हां, सच में.’
‘पर सर, शक्कर छोड़ना आसान है क्या ?’ उसने पूछा. मैं जवाब न दे सका और चुप रह गया.
         मिठाई की दूकान में मैंने लगभग तीस वर्षों तक काम किया. वहां मुझे प्रतिदिन स्वाद की जांच करने के लिए बदल-बदल कर मीठा खाना पड़ता था इसलिए चखने के चक्कर में मैं मीठाखोर हो गया. जब मिठाई दूकान हाथ से निकल गई तब भी मीठा खाने की ललक बनी रहती थी. मैं बाज़ार से मीठा खरीदकर ले जाता था और दोनों समय भोजन के बाद उसका प्रेमपूर्वक सेवन करता था. दूसरी दूकान से मिठाई खरीदता देख कई लोग मुझसे पूछते थे- ‘अरे, आप यहां से ले रहे हैं, 'पेन्ड्रावाला’ का मालिक दूसरी दूकान से मीठा खरीद रहा है?’ अब, मैं उन्हें क्या बताऊं कि मैं वहां का मालिक नहीं रहा इसलिए वहां से मीठा प्राप्त करने का अधिकार छिन गया. ठीक है कि छोटा भाई है लेकिन रोज-रोज मांगना याने किसी दिन अपनी बे-इज़्ज़ती करवाना था इसलिए 'बच के रहो रे बाबा, बच के रहो रे !'
          उस प्रशिक्षण कार्यक्रम में मुझसे पूछा गया सवाल- ‘शक्कर छोड़ना आसान है क्या ?’- मेरे पीछे लग गया. उस शाम जब कार्यक्रम खत्म करके मैं 'गेस्टहाउस’ पहुंचा, कई घंटों तक बेचैन रहा और इस अपराधबोध से ग्रस्त रहा कि जो मुझसे नहीं सधता, वैसी सलाह दूसरे को क्यों दी ? शक्कर छोड़ने वाला 'आइडिया' मुझे मोहनदास करमचंद गांधी की पुस्तक ‘Key To Health' से मिला था, मैंने उसे आगे बढ़ा दिया, अब मैं फँस गया था. 
          उसके बाद कई दिनों तक मेरी यह बेचैनी कायम रही. एक दिन मन ही मन मैंने गांधीजी से बात की- 'अच्छा फँसाए बापू, मुझे चैन नहीं, अब क्या करूँ ?' मुझे जैसे गांधीजी की आवाज़ सुनाई पड़ी- 'बच्चू, जब तुम खुद शक्कर खाना बंद करोगे तब ही तुमको चैन आएगा; वैसे भी, तुम्हारा वजन बढ़ा हुआ है, कुछ कम कर लो.' मुझे उपाय मिल गया, मैंने शक्कर छोड़ दी, एकदम बंद. यहाँ तक कि भगवान को चढ़ाया प्रसाद तक नहीं खाया लेकिन मेरी छोटी बेटी संज्ञा के विवाह कार्यक्रम संपन्न होने के बाद जब हम लोग विवाह-भवन से बिलासपुर वापस जाने के लिए निकल रहे थे, तब मेरे समधीजी ने मुझसे कहा- 'मुझे मालूम है कि आप मीठा नहीं खाते लेकिन यह शगुन का मीठा है, इसे ले लीजिए.' मैं धर्मसंकट में पड़ गया, उनका मान रखना ज़रूरी था, उनकी बात कैसे काटूँ ? मैं मान गया, उन्होंने काजू की बर्फी का आधा टुकडा मेरे मुंह में रख दिया. हम सब ने उनसे विदा ली, कार में बैठे और उनसे ओझल होते ही उस मिठाई को मैंने मुंह से बाहर निकाल कर एक छोटे से कागज़ में लपेटकर जेब में रख लिया और पानी से कुल्ला कर लिया ताकि मीठापन मेरे हलक नीचे के उतर न कर सके.
          मेरा यह व्रत तीन वर्षों तक चला, उसके बाद मैं फिर मीठा खाने लगा. आप पूछेंगे- 'अरे ! क्या हुआ ?' यह बताने का समय अभी नहीं आया है, समय आने दीजिए, ज़रूर बताउंगा.

            प्रशिक्षण का काम बढ़ाने में बिलासपुर शहर का नाम मददगार और असरदार नहीं था. उन दिनों, कार्पोरेट सेक्टर में प्रशिक्षण करवाने का चलन बढ़ रहा था लेकिन उन्हें मुंबई, दिल्ली, कोलकाता, चेन्नई, बंगलौर और पुणे जैसे महानगरों के प्रशिक्षक अधिक आकर्षित किया करते थे. एक तो मैं 'मार्केटिंग' में आलसी था और संकोची भी, ऊपर से जब 'बिलासपुर जैसे अन्जान शहर के प्रशिक्षक द्वारिका प्रसाद अग्रवाल' ने कई संयंत्रों को कार्यक्रम के लिए पत्र भेजा तब किसी ने उस पत्र का उत्तर देने का कष्ट भी नहीं किया, लेकिन अपवादस्वरूप हिंदुस्तान एयरोनाटिक्स लिमिटेड नासिक ने उत्तर भी दिया और दो बार बुलवाया भी.
           मुझे अधिक काम न मिलने की एक और वज़ह थी, मेरी प्रशिक्षण-भाषा. मैं हिन्दी में प्रशिक्षण देता था और उन्हें अपने 'एक्ज़ीक्यूटिव' के लिए अंग्रेजी बोलने वाला प्रशिक्षक चाहिए था. अंग्रेजी से मेरी अच्छी दोस्ती हो गई थी क्योंकि सारी पठनीय सामग्री अंग्रेजी में ही उपलब्ध थी. मैं अंग्रेजी भाषा में प्रशिक्षण दे सकता था लेकिन उस पर मेरी पकड़ मजबूत नहीं थी. प्रशिक्षणार्थियों पर जो प्रभाव  मैं हिन्दी में पैदा कर सकता था, वैसा अंग्रेजी में नहीं कर पाता. कामचलाऊ, टरकाऊ या पैसा-बनाऊ काम करना मेरे स्वभाव में नहीं रहा इसलिए जितना भी काम मिला, मैं अपनी मातृभाषा से ही जुड़ा रहा. प्रशिक्षण देने का उद्देश्य केवल प्रशिक्षण देना ही नहीं होता, विषय का प्रभाव स्थापित करना होता है. प्रशिक्षण केवल 'कहना-सुनना' नहीं है, वरन, बड़े जतन से प्रशिक्षु के 'माइंड-सेट' को अपेक्षित दिशा में मोड़ना होता है. 
        बिलासपुर के आशुतोष मिश्र उन दिनों 'लार्सन एन्ड ट्युब्रो सीमेंट्स' (अब अल्ट्रा-टेक सीमेंट) में मानव संसाधन विभाग में प्रशिक्षण के संयोजन अधिकारी थे. उन्होंने मुझे चंद्रपुर (महाराष्ट्र), हिरमी (अब छत्तीसगढ़) और झारसुगुडा (ओडिसा) के संयंत्रों में प्रशिक्षण देने के अनेक अवसर दिए. हिरमी संयंत्र में प्रशिक्षण के दौरान एक प्रतिभागी ने मुझसे बेहद कठिन प्रश्न पूछा- 'सर, क्या आप भगवान को मानते हैं ?'
'इसका उत्तर मैं क्या दूँ ?' मैंने उन्हीं से पूछ लिया.
'मानते हो तो हाँ बोलिए, न मानते हो ना बोलिए.' मैं चुप रहा। मैं कोई जवाब न दे सका तो उन्होंने एक नया प्रश्न मुझ पर फेंका- 'अच्छा यह बताइये, आप अपने घर में भगवान की पूजा करते हैं या नहीं?'  
'हाँ, करता हूँ.' मैंने कहा.
'इसका मतलब साफ़ है कि आप भगवान को मानते हैं.'
'न, न, पूजा करना और भगवान को मानना अलग-अलग बात है.'
'क्या मतलब ?'
'मेरे पूजा करने की वज़ह कुछ और है.'
'क्या है सर ?'
'हुआ यह, जब मेरे माता-पिता बिलासपुर वाला अपना घर छोड़कर रायपुर अपने बड़े बेटे के घर 'शिफ्ट' हो रहे थे तब उनके घर में स्थापित भगवान की मूर्तियाँ उन्होंने हमें दे दी ताकि उनकी नियमित पूजा होती रहे. उन मूर्तियों को हमारे घर में स्थापित कर दिया गया और मेरी पत्नी माधुरी उनकी पूजा किया करती थी. एक दिन माधुरी ने मुझसे कहा- "घर में भगवान विराजे हैं, तुम अगर सिर झुकाकर प्रणाम कर लोगे तो क्या तुम्हारी इज्ज़त चली जाएगी ?"
"ऐसा नहीं है, पर तुम जानती हो मेरा पूजा-पाठ पर से विश्वास उठ चुका है, यह सब अब मुझसे नहीं होता."
"ठीक है, लेकिन यह तो सोचो, हमारे घर में भगवान प्रतिदिन पूजे जाने के लिए भेजे गए हैं लेकिन हर माह के चार दिन बिना पूजे रह जाते हैं ! क्या यह ठीक है ?" माधुरी ने मुझसे पूछा. मैं सोच-विचार में पड़ गया. उनकी बात में दम था. अगले दिन से प्रतिदिन मैं स्नान के बाद ज्ञात-विधि-विधान से भगवान की दिल लगाकर पूजा करने लगा. अन्त में शंख बजाता ताकि माधुरी घर में जहां कहीं हों, उन्हें मालूम पड़ जाए कि मैंने पूजा की !'
'आपने सही किया, सर.' प्रतिभागी ने कहा. 'आखिर आपको आपकी पत्नी ने भगवान से जोड़ दिया, वे कितनी समझदार हैं.'
'आप सही कह रहे हैं लेकिन वह पूजा मैं भगवान को प्रसन्न करने के लिए नहीं, अपनी पत्नी को खुश रखने के लिए करता हूँ.' मैंने उनको बताया.
          यह घटना १९९६-९७ की रही होगी, अब मैं आपको सन २०१० की एक घटना बताता हूँ, इन दोनों घटनाओं को जोड़ेंगे तो बात अधिक पकड़ में आएगी. बिलासपुर के ज्येष्ठ नागरिक संघ के एक कार्यक्रम में मुझे वरिष्ठजनों के (शेष) जीवन को सार्थक दिशा देने हेतु व्याख्यान के लिए बुलाया गया था. उन्हें मैंने कुछ 'टिप्स' दिए लेकिन आप तो जानते हैं कि सूखे पौधे पर पानी देने से कोई खास लाभ नहीं होता बल्कि पानी व्यर्थ चला जाता है किन्तु कुछ अपवाद भी होते हैं.  
          अगले दिन एक सज्जन जिनकी उम्र अस्सी से अधिक रही होगी, लड़खड़ाकर चलते हुए मेरी होटल में मुझसे मिलने पधारे. कार्यक्रम की बातों से प्रभावित होकर वे अपनी पारिवारिक समस्या पर मुझसे सलाह लेने आए थे. वार्तालाप इस तरह था, पढिए :
'मुझे जानते हो, आपके पिताजी जब राईस मिल चलाते थे तब मेरे पास आफिस आया करते थे.' उन्होंने मुस्कुराते हुए बात शुरू की. 
'जी, मैं आपको पहचानता हूँ.' मैंने विनयपूर्वक कहा.
'कल आपने बहुत अच्छा बोला इसलिए मुझे ऐसा लगा कि मैं अपनी एक व्यक्तिगत समस्या पर आपकी राय लूँ.'
'आप मुझसे इतने सीनियर हैं, मैं आपको भला क्या राय दे सकता हूँ !'
'ऐसा मत कहिये.'
'चलिए, बताइए.'
'मेरी पत्नी को स्वर्गवासी हुए बहुत समय बीत गया, मेरे साथ बेटा-बहू रहते हैं. बेटा वकालत करता है और बहू तीस किलोमीटर दूर एक सरकारी स्कूल में 'टीचर' है.'
'जी.'
'बहू रोज सुबह साढ़े नौ बजे हमारे लिए खाना बनाकर नौकरी पर निकल जाती है, बेटा ग्यारह बजे कचहरी चला जाता है. दोपहर एक बजे जब मुझे भूख लगती है तो मैं अपने हाथ से खाना परोसकर खाता हूँ पर ठंडा हो जाने के कारण मुझसे खाया नहीं जाता.'
'तो, गरम कर लिया करें.'
'दाल-सब्जी हो जाती है पर रोटी और चावल दोबारा गरम करने में भाता नहीं.' 
'जी, आप ठीक कह रहे हैं,'
'मैं बहू को समझाता हूँ कि नौकरी छोड़ दे, मेरी पेंशन और बेटे की वकालत से घर चल जाता है परन्तु वह मानती नहीं. बेटा भी अपनी घरवाली की तरफदारी करता है. मैं बहुत दुखी हूँ. असल में मैं शुरू से ही गुस्सैल रहा हूँ, कोई कहना नहीं मानता तो मुझे आग सी लग जाती है.'
'मेरी राय है कि सबसे पहले आप यह बात समझें कि आपकी पत्नी की तरह कोई दूसरा आपकी देखभाल और सेवा नहीं कर सकता.'
'सही है.'
'अब मैं आपसे एक प्रश्न करता हूँ,  घर में आप देवी-देवताओं की पूजा करते हैं या नहीं ?'
'हाँ, प्रतिदिन करता हूँ.'
'लक्ष्मीजी और दुर्गाजी की ?
'हाँ,'
'तो उनके चित्रों के समीप अपनी बहू का भी चित्र रख लीजिए॰'
'क्यों ?'
'क्योंकि वे आपके घर में विराजमान साक्षात देवी अन्नपूर्णा हैं. सुबह-सुबह नौकरी पर निकलने के पहले आपके लिए भोजन तैयार करके जाती हैं, सोचिए, वे आपकी कितनी फ़िक्र करती हैं !'
'अरे, इस बात में मेरा कभी ध्यान नहीं गया लेकिन अब मेरी समझ में आ रहा है; लेकिन मैं क्या करूँ, मुझे गुस्सा बहुत आता है.'
'अब गुस्सा करोगे तो किस पर, अंकल जी ? आपका गुस्सा सहने वाली आपकी पत्नी तो आपको छोड़ कर जा चुकी !' मैंने कहा. 
          सहसा उनके चेहरे की रंगत बदलने लगी, वे उठ खड़े हुए. मैंने उनको प्रणाम किया, उन्होंने मुझे आशीर्वाद दिया. जब वे मेरी होटल से बाहर निकल रहे थे तो उनकी चाल में अज़ब सी मजबूती झलक रही थी। 

          मुझे जब हिन्दुस्तान एयरोनाटिक्स, नाशिक के वरिष्ठ प्रबन्धकों को नेतृत्व कला विकास और संप्रेषण पर प्रशिक्षण देने का निमन्त्रण मिला तो मन प्रसन्न हो गया. प्रथम- इतने महत्वपूर्ण संस्थान में प्रशिक्षण देने का अवसर और द्वितीय- आयुध विमान का निर्माण करने वाले संयंत्र को देखने का सुअवसर. नाशिक से ग्यारह किलोमीटर दूर ओझर में स्थित सुरम्य वादियों के मध्य बसा यह संयंत्र सच में मनमोहक है. प्रथम प्रवास में मेरे सहयोगी प्रशिक्षक डा. भरत शाह (इंदौर) थे और उसके अगले वर्ष के प्रशिक्षण कार्यक्रम में विवेक जोगलेकर (बिलासपुर) मेरे साथ थे. इन दोनों प्रशिक्षकों की प्रशिक्षण शैली का मैं दीवाना रहा हूं. ये दोनों जब प्रशिक्षण देने के लिए खड़े होते हैं तो मुझ पर सम्मोहन सा छा जाता है क्योंकि इन दोनों की विषयवस्तु पर पकड़ और प्रस्तुतीकरण की शैली नायाब है. मैंने अपने जीवन में ऐसे अनेक अद्भुत प्रशिक्षकों को देखा-सुना है जिनके ज्ञान और असरदार शब्दों के प्रयोग के समक्ष मैं सदैव नतमस्तक रहा और उन सबको मैंने मन-ही-मन अपना ‘गुरु’ मान लिया. वे गुरुजन जानते भी नहीं कि कोई शिष्य अदृश्य भाव से उनमें प्रविष्ट हो चुका है. मुझे प्रशिक्षण देते अब पैंतीस वर्ष हो चुके हैं, इस अवधि में उत्तर और मध्यभारत के अनेक राज्यों में हज़ारों प्रशिक्षुओं को शताधिक विषयों पर प्रशिक्षण दे चुका हूं लेकिन अब भी इन प्रशिक्षकों की दक्षता के समक्ष मैं स्वयं को बौना मानता हूं. उनको मेरा प्रणाम.
          हिन्दुस्तान एयरोनाटिक्स का ज़िक्र इसलिए निकला क्योंकि वहां प्रथम दिवस का कार्यक्रम समाप्त होने के पूर्व एक निमन्त्रण पत्र हमें मिला जिसमें संयंत्र के महाप्रबन्धक ने ‘डिनर’ पर सम्मिलित होने का हमसे अनुरोध किया. समय रात्रि ९ बजे, ड्रेस- ‘इन्फ़ार्मल’, स्थान- ‘एच.ए.एल. गेस्टहाउस’. नियत समय पर हम दोनों वहां पहुंच गए. महाप्रबन्धक और सह-महाप्रबन्धक ने हमारा स्वागत किया और हमें ‘गेस्टहाउस’ के बरामदे पर बिछी बेंत से बनी आरामदेह कुर्सियों पर बैठाया. हमारा अनुमान था कि कोई वृहद आयोजन होगा लेकिन ‘डिनर’ में हम चार लोग ही रहे तब समझ में आया कि वह हम लोगों के सम्मान में आयोजित था.
          बाहर की बैठक में ‘सर्विस’ आरम्भ हुई. कांच के खूबसूरत गिलास, दमकती-चमकती शराब की बोतल, साथ में एक के बाद एक परोसा जा रहा ‘चबैना’!  चबैना समझ गए न आप ? शराब की 'सिप' के साथ खाने वाला सहयोगी खाद्य जैसे छिली हुई मूंगफ़ली, मसालेदार मूंगफली, सादा चना, भुना हुआ नमकीन चना, बिस्किट आदि बारह-तेरह किस्म का सामान जिसे थोड़ी-थोड़ी देर के अन्तराल में हमें परोसा गया ! हम दोनों को शराब से परहेज था इसलिए ‘कोक’ से उनका साथ देते रहे और चबैना का लुत्फ़ भी उठाते रहे. लगभग एक घंटे बाद वहां से उठकर ‘डायनिंग टेबल’ तक गए, साथ बैठे, इस बीच ‘डिनर सर्व’ हो गया. हम दोनों को ‘मिले-जुले’ भोजन का पूर्वानुमान था लेकिन संकोचवश पूछताछ नहीं की. मुझे पालक की साग बहुत पसन्द है इसलिए अन्य वस्तुओं के मुकाबले उसे अधिक मात्रा में ले लिया. 
          भोजन भरपूर था, स्वादिष्ट था. अचानक पालक का पनीर मेरे दांतों से टकराया, मैंने सोचा कि पनीर इतना कड़ा तो नहीं होता लेकिन उसे मैं उगल कर देख भी नहीं सकता था क्योंकि वह ‘मेनर्स’ के अनुकूल न होता इसलिए उसे किसी प्रकार चबाकर खा गया और डा. भरत शाह से मैंने फ़ुसफ़ुसाकर पूछा- ‘भरत भाई, पालक का पनीर बहुत कड़क है, आपने खाया क्या?’
‘अरे, आपने पालक खा लिया क्या ? वह ‘नान-वेज’ है, उसमें पनीर नहीं, मटन है.’ वे धीरे से बोले.
‘मर गए.’
‘क्या हुआ?’
‘मैं तो उसे चबा कर निगल गया.’ मैंने अपनी भूल उन्हें बताई. 'मटन' का नाम सुनकर मुझे उबकाई सी आने लगी. ऐसा लगा कि टेबल पर ही उल्टी हो जाएगी लेकिन मैं पानी लगातार तब तक पीता रहा जब तक उबकाई शान्त नहीं हो गई. पेट पानी से ही भर गया और अच्छे-खासे ‘डिनर’ का सत्यानाश हो गया. अचानक महाप्रबन्धक का ध्यान मुझ पर गया, उन्होंने पूछा- ‘आप कुछ खा नहीं रहे हैं अग्रवाल साहब ?’
‘आपने बाहर ही इतना खिला दिया था कि अब जगह नहीं बची॰’ मैंने अपने चेहरे में छद्म संतुष्टि भाव लाकर कहा.
          दूसरे दिन का कार्यक्रम सम्पन्न होने के बाद हमें उच्चाधिकारियों से मिली विशेष अनुमति से संयंत्र दिखाया गया. चूंकि वहां ‘फ़ाइटर प्लेन’ बनते थे, इसलिए सब कुछ वृहद आकार का था. उस संयंत्र को देखना और समझना वाकई बहुत रोचक था. हवाईपट्टी संयंत्र के अन्दर ही थी इसलिए परीक्षण-उड़ान की वज़ह से हर समय शोर होते रहता था. एक बात और, इन विमानों के निर्माण की प्रक्रिया अत्यन्त धीमी होती है, साल भर में उंगलियों में गिनने लायक ही बन पाते हैं, विमान निर्माण अत्यंत धैर्य और तकनीकी तालमेल वाला काम है. गोपनीयता की वज़ह से आपको अधिक नहीं बता सकता लेकिन हाँ, उनका निर्माण अपने देश में होता देख गर्व की जो अनुभूति हुई वह अवर्णनीय है.

          ‘नान-वेज’ की बात चली तो एक और घटना याद हो आई- हमारे पुत्र  कुन्तल उन दिनों बारहवीं कक्षा के छात्र थे, एक रात को लगभग नौ बजे मैं अपनी दूकान से वापस लौटकर आया, मुंह-हाथ धोकर भोजन की टेबल पर बैठा, मेरे साथ कुन्तल भी बैठे थे, मुझसे बोले- ‘पापा, मेरा दोस्त कह रहा था कि ‘चिकन’ बहुत स्वादिष्ट होता है, मेरा खाने का बहुत दिल है.’
‘ठीक है, खा लो.’ मैंने कहा.
‘खा लूँ ?’
‘हां, हां, दिल कर रहा है तो ज़रूर ‘टेस्ट’ करना चाहिए.’
‘पैसे दीजिए न.’ उन्होंने कहा. मैंने ‘पर्स’ से एक सौ रुपए का नोट निकालकर दिया और पूछा- ‘अपने 'उस' दोस्त को भी साथ लेते जाना, तुम दोनों खाना और देखो, जिस दूकान में सबसे अच्छा बनता हो, वहीं जाना.’
          आपको आश्चर्य हो रहा होगा कि एक सौ रुपए में दो लोगों का ‘नान-वेज डिनर’ कैसे होगा ! आज से बीस वर्ष पूर्व एक सौ रुपए की शक्ति आज के मुकाबले बहुत अच्छी थी. फ़िलहाल, कुन्तल बड़ी तेजी से खड़े हुए और मुदित-भाव से चल पड़े. इधर घर में बवन्डर उठ खड़ा हुआ, सब मुझसे नाराज- ‘उसने कहा कि ‘चिकन’ खाऊंगा तो मना करने की जगह जेब से रुपए निकालकर दे दिए- ‘जाओ बेटा खा आओ.’ दोनों लड़कियों ने समवेत स्वर में मुझसे पूछा- ‘आप कैसे पापा हो ?’
‘मैं मना कर सकता था लेकिन जब उसका ‘चिकन’ खाने का दिल हो रहा है तो वह खाएगा अवश्य. मैं मना करता तो वह बाद में मेरी गैर-जानकारी में खाता. यह अच्छा है कि उसने अपने दिल की बात मुझसे ‘शेयर’ की. उसे जाने दो, खा लेने दो. मैंने सबको समझाया.’ सबने मुझे घूरकर देखा, सबके चेहरों पर किस्म-किस्म के नाराज़गी वाले भाव उभरने लगे.
          रात को करीब ग्यारह बजे श्रीमानजी घर लौटे और चटखारे लेकर ‘चिकन’ के स्वाद के बारे में सबको बताया. दोनों बहनें चिढ़ गई और बोली- ‘हट यहां से, तेरे मुंह से बदबू आ रही है, जाकर ‘ब्रश-पेस्ट’ करके आ, घिनहा कहीं का.’ खैर, कुछ देर बाद सब अपने बिस्तरों पर सोने चले गए. 
          रात को कोई दो बजे का समय रहा होगा. मेरे कमरे के दरवाजे पर खटखटाहट हुई, मैंने दरवाजा खोलकर देखा, कुन्तल मेरे सामने थे. मैंने पूछा- ‘क्या हुआ बेटा?’
‘बहुत खराब लग रहा है, पापा. अजीब बेचैनी हो रही है. मुझे नींद भी नहीं आ रही है.’ कुन्तल ने बताया.
‘क्यों ?’ मैंने पूछा॰ 
‘ऐसा लगता है कि मुझे 'चिकन’ नहीं खाना था॰ आज खाया तो उसमें कोई खास स्वाद भी नहीं था, मुझे समझ नहीं आता कि लोग क्यों खाते हैं ?’
‘अब मैं क्या बताऊं, मैंने तो कभी खाया नहीं लेकिन दुनियां की अधिकांश आबादी इसे खाती है तो ज़रूर कुछ-न-कुछ बात होगी. स्वाद खाते-खाते बनता है.’
‘आप यह बताइए कि अभी मैं क्या करूं?’
‘मुंह में उंगली डालकर उल्टी करो, पेट खाली हो जाएगा तो अच्छा लगेगा.’ मैंने सुझाव दिया. ‘बेसिन’ में जाकर उन्होंने उल्टी की, पानी पिया और तनिक शांत होकर बोले- ‘कान पकड़ता हूं, अब कभी नहीं खाऊंगा.’ फ़िर वे आराम से सो गए॰ 

          आपको पहले ही बता चुका हूँ कि कुन्तल का पढ़ाई-लिखाई में दिल नहीं लगता था॰ स्कूल जाकर वे देवी-सरस्वती पर कृपा करते थे॰ घरवालों के दबाव डालने पर उन्होंने 'पी॰ई॰टी॰' का 'फार्म' भर दिया लेकिन जब उसकी परीक्षा का दिन आया तो वे चादर ओढ़कर घर में सो रहे थे ! मम्मी ने डपट कर जगाया और कहा- 'जाओ 'टेस्ट' देने, दो सौ रुपए लगे हैं उसमें॰'  
'पर मेरी तैयारी नहीं है, मैं वहाँ जाकर क्या करूंगा ?' उन्होंने ऊँघते हुए उत्तर दिया॰
'जो बने करो, पर जाओ यहाँ से॰' माँ की डांट पड़ी तो बड़ी अनिच्छा से उठे, कुल्ला किया और मुँह लटकाए चले गए॰ परिणाम आया तो उसमें अत्यन्त निराशाजनक वरीयताक्रम मिला॰ हम सब समझ गए- 'गई भैंस पानी में !'
          उनके कुछ सहपाठियों ने बहुत अच्छा प्रदर्शन किया परिणामस्वरूप देश के नामीगिरामी संस्थानों में उन्हें प्रवेश मिल गया, किसी को आई.आई.टी. तो किसी को आर.ई.सी., आपस में ‘पार्टियों’ के दौर चलने लगे. चयनित साथियों को बधाइयां मिलने लगी और शाबासी भी. बधाई के उस दौर का उनके ऊपर कुछ अजब सा असर हुआ, संभवतः उनके मष्तिस्क में आत्मविश्लेषण की प्रक्रिया आरंभ हुई.
          एक दिन हम सब साथ में भोजन कर रहे थे, कुन्तल सोच-विचार में थे. अनायास बोले- ‘पापा, मेरे ये जो चार दोस्त देश के शानदार संस्थानों में 'सिलेक्ट' होकर जा रहे हैं, इन सबसे मैं ज़्यादा होशियार हूं. ये ‘हीरो’ बन  गए, मैं उनके लिए बैठकर तालियां बजा रहा हूं !’
‘हूं, तो फ़िर ?’ मैंने उसे घूरते हुए पूछा.
‘मुझे आप लोग एक साल की छुट्टी देंगे क्या ? समझ लीजिए कम्मू ( उनका घरेलू नाम ) घर में नहीं है.’
‘क्या करोगे ?’
‘अगले साल पी.ई.टी. दूंगा, उसकी तैयारी करूंगा.’
‘एक साल की छुट्टी ‘ग्रान्टेड’.’ हम सबने एक साथ कहा. उस समय उनके चेहरे पर अपूर्व आत्मविश्वास दमक रहा था और हमारा घर अवर्णनीय ऊर्जा से ओतप्रोत हो गया. वह वाक्य- ‘मुझे आप लोग एक साल की छुट्टी देंगे क्या?’- ने उनका ऐसा भविष्य निर्मित किया जिसकी हमें कल्पना भी न थी.

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                                                      ऐ मेरे दिल कहीं और चल      

        जब भी मैं एन.टी.पी.सी.जमनीपाली में प्रशिक्षण देने जाता था तब मुझे वहां के ‘गेस्टहाउस’ से ‘ट्रेनिंग सेन्टर’ जाने की राह में सड़क के किनारे लगे हुए ‘बोर्ड’ पर एक सुभाषित लिखा हुआ पढ़ने को मिलता था- ‘रहिमन चुप व्है बैठिए देख दिनन के फ़ेर, नीकै दिन जब आएंगे बहुरि न लगिहैं देर.’ पढ़कर अच्छा लगता, कुछ ढाढ़स बंध जाता लेकिन अच्छे दिनों की प्रतीक्षा करते-करते मेरी अंखियां थक गई थी. मेरी आर्थिक दशा दिन-ब-दिन दुर्दशा में बदलती जा रही थी. मुझमें कोई बुरी आदत नहीं थी, जुआ नहीं, पान-सिगरेट नहीं, शराब के स्वाद का अता-पता नहीं, फ़िज़ूल खर्च नहीं; लेकिन कर्ज़ पर चढ़ते ब्याज और अनिवार्य घरेलू खर्च का जोड़ मेरे व्यापार की आमदनी से बहुत अधिक था, लिहाज़ा बदहाली बनी रहती. प्रशिक्षण कार्यक्रम भी अधिकतर धन्यवाद-ज्ञापन वाले हुआ करते थे, यदकदा पारिश्रमिक वाले भी परन्तु वे हाथी के मुंह में आइसक्रीम जैसे थे.
          पुरानी कहावतें सचेत करती हैं कि मनुष्य भूखा रह ले लेकिन कर्ज़ न ले; लेकिन ‘जाके पांव न फ़टी बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई ?’ मनुष्य खुद तो भूखा रह लेगा लेकिन अपने परिवार को भूखा कैसे देख सकेगा, घर आए अतिथि को भूखा कैसे वापस करेगा ? एक पढ़ा-लिखा इन्सान अपने बच्चों को पढ़ाने से कैसे इन्कार कर सकेगा ? लोगों ने मेरी भरपूर मदद की लेकिन मदद करने वाले भी आखिर कितनी और कितने बार करते ?
          मेरा घर बनते समय श्वसुरजी और बड़े भैया ने बहुत आर्थिक सहयोग दिया था जो वस्तुतः कर्ज़ था पर वह मदद के रूप में में बदलते जा रहा था क्योंकि कर्ज की वापसी नहीं हो पा रही थी. अकस्मात एक दिन श्वसुरजी हृदयाघात में दिवंगत हो गए और मुझे एक ‘डिफ़ाल्टर’ दामाद की भूमिका में उनके अंतिम संस्कार में सम्मिलित होना पड़ा. उस समय मैं खुद से कितना शर्मिन्दा था, मैं आपको किन शब्दों में बताऊं ? मुझे इस बात का जीवन भर अफ़सोस रहेगा कि मैं उनके जीते-जी मैं उनका उधार उन्हें वापस न कर सका. उन्होंने, बड़े भैया ने और मेरे मित्र रामकिशन खंडेलवाल ने मुझसे कभी रकम का तगादा नहीं किया न किसी को उसके बारे में बताया या मुझे जताया- दस-बीस साल तक भी नहीं !
          आप इसे पढ़कर सोचते होंगे कि आखिर ऐसी परिस्थिति क्यों बनी ? दरअसल स्थिति धीरे-धीरे ऐसी बनती गई कि वैसी परिस्थिति बन गई. मुझे स्वयं आश्चर्य होता है कि मुझमें व्यापार करने के स्वाभाविक गुण थे, प्रबन्धन का छॊटा-मोटा जानकार भी था- फ़िर भी स्थिति पर नियन्त्रण क्यों न कर सका ? भाग्यवादी भाग्य को दोष दे सकते हैं तो कर्मवादी कौशल को लेकिन सच तो यह है कि किसी को मना न कर पाने के संकोची स्वभाव और पारिवारिक जिम्मेदारियों को अपनी औकात से बाहर जाकर निभाने के संस्कार ने मुझे ऐसे संकट में डाल दिया.
          नौकरी-पेशा और व्यापारियों का मनोविज्ञान अलग-अलग होता है॰ घरेलू जिम्मेदारियों के परिप्रेक्ष्य में दोनों की प्रतिक्रिया भिन्न होती हैं॰  जैसे रिश्तेदारी में किसी शादी-ब्याह या गमी में जाना हो तो नौकरी-पेशा व्यक्ति कह सकता है- 'क्या करूँ, छुट्टी नहीं है' या 'महीने का आखिरी चल रहा है' लेकिन व्यापारी ऐसा नहीं कह  सकता॰ खास तौर से संयुक्त परिवार में जो सामने रहता है उसे पारिवारिक कार्यों में बहुत खर्च करना पड़ता है, यह खर्च किसी को दिखाई नहीं पड़ता, कोई यश नहीं मिलता, बस, नेकी कर दरिया में डाल॰
         कर्ज़ लेकर जीवन की गाड़ी चलाने के लिए हुनरमन्द और बेशर्म होना अनिवार्य तत्व है. वैसे तो किसी को रकम उधार देने के लिए कई पैसेवाले उधार बैठे रहते हैं लेकिन वे सुरक्षित कर्ज़ देना पसन्द करते हैं यानी रकम ब्याज सहित समय पर वापस आ जाए. साहूकारी की दुनियां का रिवाज़ यह है कि सुरक्षित कर्ज़ पर ब्याज की दर कम होती है लेकिन सुरक्षा कम समझ आने पर ब्याज की दर उसी अनुपात में बढ़ती जाती है. मुझे अपनी साख बनाए रखने के लिए इधर की टोपी उधर करने का निरन्तर प्रयास करते रहना पड़ता था इसलिए जब किसी भुगतान तिथि का समय-संकट आता- मेरा दिमागी ‘एन्टीना’ किसी नए साहूकार की तलाश में भिड़ जाता. कुछ मेरे स्थाई साहूकार थे, कुछ नियमित, तो कुछ एकबारगी. जिनसे मैंने उधार मांगा उनमें से अधिकतर ने मेरी मदद की लेकिन कुछ ऐसे भी 'अभिन्न मित्र' थे जिन्होंने अपने पुट्ठे पर मुझे हाथ तक नहीं रखने दिया. वे अनुभव सच में बेहद खट्टे-मीठे थे और ‘आई-ओपनर’ भी. कर्ज़ इतना बढ़ गया था कि उससे मुक्त होने के उपाय ही समझ में न आते थे. पत्नी के गहने और घर से लगी जमीन बेचकर कुछ बोझ कम किया जा सकता था लेकिन वैसा करना दिल को गवारा न था॰ आखिर बकरे की मां कब तक खैर मनाती, वह दिन तो किसी दिन आना ही था सो आ गया.
           हुआ यह कि अपने एक मित्र अक्षय से मैंने एक लाख रुपए कर्ज़ में लिए थे जिसका मैं हर महीने ब्याज अदा कर दिया करता था. लगभग दो वर्ष बाद उन्होंने रकम वापस करने के लिए कहा. मेरी स्थिति दयनीय थी, दिमाग काम नहीं कर रहा था कि कहां से जुगाड़ करूं ? मैंने उनसे कहा- ‘कुछ समय दे दो’ लेकिन वे बोले- ‘मुझे अभी रकम की जरूरत है.’ मैंने सोचा- इस मित्र ने मेरी ज़रूरत पर मुझे रकम दी थी, आज इसे ज़रूरत है तो मुझे किसी भी उपाय
 से रकम वापस करनी चाहिए- ऐसा सोचकर मैंने उनके समक्ष अपने घर से जुड़ी खाली जमीन को बेचने का प्रस्ताव रखा जिसे वे प्रचलित बाजार भाव पर लेने के लिए सहमत हो गए. उन्होंने अपनी रकम काटकर शेष राशि मुझे दे दी. जमीन की ‘रजिस्ट्री’ के समय अक्षय ने मुझे एक बात बताई- ‘द्वारिका भाई, इस जमीन की खरीदी के बारे में जब मैंने अपने पिताजी को बताया तो वे मुझ पर बहुत बिगड़े ?’
‘क्यों ?’ मैंने पूछा.
‘वे इस बात से नाराज़ थे कि मैंने अपनी रकम की वसूली के लिए आपके घर से जुड़ी जमीन खरीद ली.’
‘पर जमीन तो मैंने अपनी मर्जी से बेची है, आपके दबाव पर नहीं.’
'पिताजी का कहना था कि क़र्ज़ पटाने के लिए कोई भी अपने घर से जुड़ी जमीन नहीं बेचता. जब मैंने उन्हें सारी बात समझाई तब वे शांत हुए और मुझसे पूछा कि मैं इस जमीन का क्या करूंगा ?’
‘क्या बताया आपने ?’
‘मैंने बताया कि ‘इनवेस्टमेन्ट’ है तब उन्होंने मुझे आदेश दिया कि इस जमीन को मैं कभी भी किसी दूसरे व्यक्ति को न बेचूं, केवल आपको को ही दूँ.’
‘ऐसा क्या ? लेकिन क्या पता, मैं इसे कब खरीद पाऊंगा ?’
‘चाहे जब आपकी व्यवस्था बने, आपकी यह जमीन मेरे पास अमानत जैसी है, मैंने अपने पिता को वचन दिया है.’ अक्षय ने कहा.
           माधुरी को मेरी दयनीय स्थिति मालूम थी लेकिन मुझपर कितना कर्ज़ है, यह मैंने उन्हें कभी नहीं बताया. मैं सोचता था कि कर्ज़ की ज़िन्दगी जीते-जीते मैं तो अभ्यस्त हो चला हूं, रात को बेशर्मी ओढ़कर आराम से सो भी लेता हूं, उन्हें बताऊंगा तो उनकी नींद उड़ जाएगी. उस बेहया तकलीफ़ को मैंने अकेले झेला क्योंकि वह मेरी अतीत की भूलों का, संयुक्त परिवार की अवधारणा पर भरोसा करने का दुष्परिणाम था.
          वैसे भी माधुरी और मेरे तीनों बच्चों ने मुझसे कभी गैरवाज़िब मांगें नहीं की, चारों मितव्ययी थे. संगीता इन्दौर के डेन्टल कालेज में पढ़ती थी तब उसकी फ़ीस का इंतज़ाम करना मेरे लिए दुर्धर्ष कार्य था. जब पूरे साल फ़ीस नहीं जा पाती तब उसका परीक्षा का प्रवेशपत्र अटक जाता तो मुझसे फोन पर कहती- ‘पापा, चौदह हज़ार फ़ीस और बारह सौ ‘लेट फ़ी’, कुल मिलाकर पन्द्रह हज़ार दो सौ रुपए भेजिए तब परीक्षा दे पाऊंगी.’ मैं फ़िर किसी नए सुहृद मित्र की तलाश में निकल पड़ता ताकि उससे उधार मिल सके और संगीता परीक्षा दे सके. बहुत कष्टमय समय था वह. कई बार राशन और साग-सब्ज़ी खरीदने के पैसे भी जेब में न होते पर कोई-न-कोई मुझे खुशी-खुशी उधार दे देता क्योंकि मैं ‘पेन्ड्रावाला’ परिवार का लड़का था, उसे क्या पता कि सेठों के घर के किसी पचास वर्षीय सदस्य की ऐसी दुर्दशा है !
          मेरी तकदीर एकदम खराब भी नहीं थी, हमारे शहर में ‘एल एम एल वेस्पा’ की नई ‘डीलरशिप’ खुली तो उन्होंने ग्राहकों के समूह से बारह माह तक दो हज़ार रुपए प्रति माह जमा करवाने की योजना शुरू की जिसमें प्रत्येक माह एक ‘लक्की ड्रा’ निकाला जाता था. जिसका नाम निकलता उसे स्कूटर मिल जाती और अगली किश्तें माफ़ हो जाती. मेरा नाम पहले ‘ड्रा’ में आ गया, तेईस हज़ार की स्कूटर दो हज़ार में आ गई. उस स्कूटर में हम पाँचों यानी मैं, मेरे आगे संज्ञा, पीछे संगीता, उनके पीछे माधुरी और माधुरी की गोद में कुन्तल, जब ठस्समठस्सा बैठकर सड़कों पर निकलते तो लोग हमें देखकर मुस्कुराते, हम उन्हें देखकर.
            आर्थिक असुविधा का दौर तीस वर्षों तक चला, ध्रुपद गायन के विलम्बित लय की तरह उबाऊ, लेकिन सच मानिए हम लोग मस्ती से जीते थे. तंगी का दबाव हर समय बना रहता था लेकिन तनाव अस्थाई रहता था. जब किसी भुगतान की समस्या सामने होती तो तात्कालिक तनाव उपजता और जैसे ही व्यवस्था बन जाती, तनाव छूमन्तर. तनाव प्रबन्धन की किसी पुस्तक में इसके लिए तीन उपाय सुझाए गए थे जिसका नाम था- AAA ‘फ़ार्मूला’. A=Alter, A=Avoid, A=Accept.
#तनाव हो तो उसके मूल कारण की तलाश कर उसे दूर करने के उपाय किए जाएं : Try to alter the situation; #यदि उपाय सफ़ल न हों तो उन्हें टाला जाए या उनसे बचा जाए : If alteration is not possible, avoid it;
#जब दोनों उपाय सम्भव न हो तो परिस्थिति को स्वीकार कर लिया जाए : If it's no way, accept it.
मैं इन तीनों तरीकों का प्रयोग करता और मज़े में रहता था. इस विधि से मेरी आयु भी बढ़ रही थी क्योंकि जिन्हें मुझसे वसूली करनी थी वे मेरे दीर्घायु होने के लिए अपने ईश्वर से सतत प्रार्थना करते रहते थे.
         असुविधाओं के पहाड़ के नीचे दबे-दबे मेरा दम घुटने लगा था. दूर-दूर तक उम्मीद की कोई किरण नज़र नहीं आती थी फिर भी साहिर लुधियानवी की इस ग़ज़ल को सुनकर अँधेरे के पार देखने की कोशिश मैं किया करता था :

"रात भर का है मेहमां अंधेरा
किस के रोके रूका है सवेरा.

रात जितनी भी संगीन होगी
सुबह उतनी ही रंगीन होगी,
ग़म ना कर ग़र है बादल घनेरा
किसके रोके रूका है सवेरा.

लब पे शिकवा न ला अश्क पी ले
जिस तरह भी हो कुछ देर जी ले,
अब उखड़ने को है ग़म का डेरा
किसके रोके रूका है सवेरा.

आ कोई मिल के तदबीर सोचे
सुख के सपनों की तासीर सोचे,
जो तेरा है वो ही ग़म है मेरा
किसके रोके रूका है सवेरा.
रात भर का है मेहमान अंधेरा
किसके रोके रूका है सवेरा."

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          जब मैं अपनी दूकान में बैठता तो तगादे वालों को सम्हाल लेता था लेकिन जब मेरे घर के ‘लेंडलाइन’ फ़ोन पर तगादा आता तो बड़ी मुसीबत हो जाती. छोटा सा दो कमरे का घर है, फ़ोन पर हो रही बात सबको सुनाई पड़ती इसलिए मेरे अर्थसंकट के रहस्य उघड़ जाने का भय था. किसी को मालूम न पड़े इसलिए मैं ‘रिसीवर’ को उठाकर बाहर रख देता ताकि फ़ोन ‘हेल्ड’ हो जाए और मैं निश्चिन्त सो सकूं. माधुरी का ध्यान मेरी इस हरकत पर चला गया और जब उन्हॊंने कई बार वैसा होते देखा तो उनका माथा ठनका. उन्होंने मुझसे पूछताछ की तो मैंने स्वीकार किया कि वैसा साहूकारों के तगादे के डर से करता पड़ता है. वे चल रही कमजोर आर्थिक स्थिति को जानती तो थी लेकिन मेरी इस गंभीर लड़ाई से अपरिचित थी. उन्होंने पूछा- ‘ऐसे कैसे चलेगा, कोई उपाय है तुम्हारे पास?’
‘मुझे समझ में नहीं आ रहा है कि क्या करूं ! भरपूर परिश्रम करता हूं, दूकान में भी और प्रशिक्षण में भी लेकिन देनदारी और उसका ब्याज इतना चढ़ा हुआ है कि उससे पार पाना मेरे लिए असम्भव दिखता है.’ मैंने बताया.
‘फ़िर ?’
‘मेरे मन में एक विचार आया है कि अपन यह शहर छोड़ दें.’
‘अरे, तुम हमेशा कुछ बेढब ही सोचते हो॰ जाओगे कहाँ ?’
‘पुणे, पुणे ठीक रहेगा॰'
‘पुणे ही क्यों ?’
‘प्रशिक्षण कार्यक्रम वहां से अच्छा चलेगा और बच्चों की पढाई भी बेहतर हो सकेगी.’ मैंने कहा.
          अपना घर-शहर छोड़कर जाना बहुत कठिन निर्णय था. हमने आपस में बहुत सोच-विचार किया और निर्णय लिया कि पहले पुणे जाकर सर्वेक्षण किया जाए और वहां की संभावनाओं की टोह ली जाए फिर अंतिम निर्णय लिया जाए. मैंने पुणे जाने के लिए रेल आरक्षण करवा लिया, संगीता को खबर की कि वह इन्दौर से सीधे पुणे पहुंच जाए.
          पुणे के लिए निकलने के पहले मैंने बड़े भैया को एक पत्र लिखा था, उन्होंने अवश्य पढ़ा होगा, कुछ अंश आप भी पढिए :

बिलासपुर
6 जून 1998

आदरणीय भैया,
 
          आज यह पत्र लिखना मुझे कितना अजीब लग रहा है, मैं क्या बताऊँ ? यद्यपि मुझे जन्म आपने नहीं दिया है लेकिन सदा से आपको अभिभावक मानता रहा हूँ- शायद पिता से ज़्यादा, इसलिए मन में आया कि अपने विचार, अपना हृदय और अपनी भावनाएं आपके सामने व्यक्त करूँ. ऐसा भी लगता है कि मुझे अपने जीवन का शेष भविष्य कैसा बनाना है, आपसे कुछ बता-समझ लूँ , तो शायद निर्णय बेहतर हो सकेगा. इस पत्र को लिखते समय यद्यपि मैं भावुक हूँ, तथापि मेरी सोच का आधार व्यवहारिक है. मैंने पचास साल का जीवन यथासंभव पवित्रता और ईमानदारी से जिया है इसलिए मुझमें पर्याप्त साहस है, मुझे किसी का डर नहीं है क्योंकि मनुष्य सबसे ज़्यादा खुद से डरता है जबकि मैंने कुछ ऐसा किया नहीं जिसे मेरी अन्तरात्मा गलत मानती हो.
          मुझे याद आता है जब मेरे 'ग्रेजुएशन' के बाद आपने मेरी 'आइ.ए.एस. कोचिंग' के लिए दिल्ली भेजने की व्यवस्था की थी. दद्दाजी के द्वारा पारिवारिक दायित्वों के प्रवचन से प्रभावित होकर जब मैंने दिल्ली नहीं जाने का निर्णय लिया था तब आपने मुझे बुरी तरह झिड़का था और समझाया था- 'इस घर को छोड़कर जा और अपनी ज़िन्दगी जी अन्यथा पछताएगा.' और भी बहुत सी बातें याद आ रही हैं लेकिन क्या बताऊँ, मुझसे गलत निर्णय हो गया. संभवतः हीन भावना से ग्रस्त होकर मैं साहस न कर पाया और सच में मैं ऐसी अंधेरी गुफा में फंस गया जहां न तो प्रकाश है और न ही पर्याप्त हवा.
          जीवन का एक लंबा समय बीत गया. पचास साल बीत गए, अब जीवन की संध्या-बेला निकट आ गई है, मन बेचैन हो उठा है. शेष जीवन को मैं साहस और स्वाभिमान के साथ जीना चाहता हूँ. आप ये न समझें कि मेरा बीता समय दुखपूर्ण था. मैंने उपलब्ध परिस्थितियों को समझा, स्वयं को उसके अनुरूप बनाया और टुकड़ों में ही सही- सुख को चुन-चुन कर इकट्ठा किया और आनंदित होता रहा लेकिन जबसे होश सम्हाला तब से आज तक आर्थिक विषमताओं और तनाव के पहाड़ ढोते-ढोते अब मैं थक गया. मृत्यु के लिए सामान जोड़ते-जोड़ते मेरी हिम्मत हार गई है, अब मैं जीना चाहता हूँ. यह पत्र मैं आपको इसीलिए लिख रहा हूँ.
          .....मैंने अपने और दूसरों के जीवन का बहुत अध्ययन किया है, दो-चार किताबें भी पढ़ी हैं इसलिए मुझे अपनी असलियत समझना ज़्यादा कठिन नहीं लगा. मुझे आपको यह बताते हुए कोई हिचकिचाहट नहीं है कि मैं पर्याप्त क्षमतावान, योग्य और व्यवहारकुशल व्यक्ति हूँ लेकिन अपने दोषों के प्रति भी सजग हूँ जैसे- आज के व्यवारिक जगत के अनुकूल न होना, सहज ही दूसरों पर भरोसा कर लेना, अपने मन को मार लेना, अपनी तकलीफें सामान्यतया न कहना.
          मैं पचास वर्ष बाद आज जो कुछ हूँ वह मेरा स्वयं का निर्माण है जिससे मैं संतुष्ट हूँ. मुझे स्वयं से या किसी दूसरे से कुछ शिकायत भी नहीं है, परन्तु अब मुझे अपना शेष जीवन शांति से व्यतीत करना है, बच्चे बड़े हो गए हैं- उनको व्यवस्थित करना है ताकि उनके भविष्य पर मेरे अपने जीवन के हास्यास्पद पारिवारिक प्रयोगों की काली छाया न पड़े.
          मैं बिलासपुर छोड़ना चाहता हूँ. यह भावुकत