शुक्रवार, 26 सितंबर 2014

12 : ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है


          'लौट के बुद्धू घर को आए'- घर क्या आए, घर बदल न पाए। वैसे भी, समस्या से समाधान की डगर बहुत लंबी होती है, बहुत दूर ! दरअसल, समस्या को समझना बहुत बड़ी समस्या है। जो व्यक्ति समस्याओं से घिरा रहता है वह अपनी परेशानियों में इस तरह फंसा रहता है कि उसका दिमाग ठीक से काम नहीं करता और करता भी है तो नकारात्मक विचार उसके रास्ते में कांटे बिछाते रहते हैं। 'समय खराब चल रहा है'- की सोच उसे प्रत्येक उपलब्ध विकल्प पर आगे बढ़ने से रोकती है। असफल व्यक्ति के आसपास जुड़े लोग भी उसके द्वारा लिए गए निर्णयों से भयभीत रहते हैं।
          तीन दशक चले वे कठिन दिन मेरी पत्नी और बच्चों के सहयोग से कट पाए। कई बार मुझे लगता था कि उनके असुविधापूर्ण जीवन के लिए मैं जिम्मेदार हूँ, उनके साथ बहुत अन्याय हुआ। माधुरी को पहले संयुक्त परिवार की बहू होने के अपार कष्ट रहे। कष्ट का अर्थ 'घर का काम करने का कष्ट' न समझ लीजिएगा, पारिवारिक पृष्ठभूमि पर बनी पुरानी हिन्दी फिल्मों को देख लीजिएगा- वैसे सभी तमाशे ! संयुक्त परिवार से मुक्ति मिली तो भुक्कड़ पति का संग। कोई इस युग की आधुनिका होती तो निश्चय ही मुझ जैसे पति को त्याग देती। 
          मेरा अनुमान था कि शहर बदलने के निर्णय में भी वे मेरा साथ देंगी लेकिन न जाने क्यों, वे अपना मन नहीं बना पाई। उन्होंने पुणे में बसने से साफ़ मना कर दिया, मैं चुप रह गया। मेरे जीवन की यह तीसरी बड़ी भूल थी। तीसरी ? हाँ, तीसरी, पहली भूल- किशोरावस्था में जब मुझे पारिवारिक व्यापार से हटकर कुछ अलग करने का अवसर मिला, मैं उसे चूक गया; दूसरी भूल- मैंने अपनी मूर्खतावश 'पेंड्रावाला' की दूकान अपने छोटे भाई को सौंप दी, साथ में वहाँ की देनदारी अपने सिर पर ले ली; तीसरी भूल- पुणे जाने के निर्णय को मैं अमली जामा न पहना पाया। काश, मनुष्य अपने भविष्य का पूर्वानुमान लगा पाता और उसके अनुसार निर्णय लेकर आगे बढ़ता !
          भविष्य की बात चली तो एक बात बताना तो मैं आपको भूल ही गया- माधुरी की हस्तरेखा विज्ञान में बहुत रुचि थी। 'कीरो' से लेकर अनेक देसी-विदेशी भविष्यवक्ताओं की किताबों का अध्ययन उन्होंने दस-पंद्रह वर्षों तक किया और उस विज्ञान को जानने-समझने की कोशिश की। वे अपने परिचितों के हाथ देखती लेकिन किसी को कुछ बताने में संकोच करती और कहती- 'जब तक इस शास्त्र को गहराई से न जाना जाए, कोई भी भविष्यवाणी करना न्यायोचित नहीं है।' सबसे ज़्यादा वे मेरा 'पाम' झाँकती क्योंकि मेरे उनमें असंख्य रेखाओं का जाल है। पर्वत, त्रिशूल, 'क्रॉस', चतुर्भुज, त्रिभुज, शंख, जुड़ी रेखाएँ, अधूरी रेखाएँ, उलझी रेखाएँ, टूटी रेखाएँ- मतलब यह- कि जो देखना हो, सब हाज़िर है। आम तौर पर रात को सोने के पूर्व उनका अध्ययन चलता था और साथ-साथ मेरे हाथ की रेखाओं का अवलोकन भी। एक बार की बात है, मैंने उनसे कहा- 'तुम अक्सर मेरा हाथ देखती हो लेकिन कुछ बताती नहीं हो।'
'चलो, आज पूछ लो, क्या पूछना है ?' माधुरी ने कहा।
'मेरी कितनी शादियाँ होंगी ?'
'तीन।'
'पर, मेरी तो एक ही हुई है !'
'देखो, तुम्हारी रेखाएँ बता रही हैं कि शादी तुम्हारी एक ही होगी लेकिन जो बीवी आएगी वह तीन के बराबर होगी।' उन्होंने मेरा ज्ञानान्धकार दूर किया।
          पुणे प्रवास के बारे में बताने के चक्कर में कथा भटक गई और हमारे पुत्र कुन्तल की पढ़ाई के बारे में आपको बताना रह गया ! उन्होंने हमसे एक साल का दीर्घकालीन अवकाश लिया था, वह एक वर्ष उनकी निष्ठा और लगन के परीक्षण का काल था. उन्हें जैसे कोई धुन सवार हो गई थी. उन्होने बारहवीं की परीक्षा में अँग्रेजी तथा गणित में 'विशेषयोग्यता' के साथ प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए। कुछ समय बाद मध्यप्रदेश व्यावसायिक मण्डल भोपाल द्वारा आयोजित 'प्री इंजीनियरिंग टेस्ट' के परिणाम आ गए। उस वर्ष 50 हजार से अधिक प्रतियोगियों ने उस प्रतिस्पर्धा में भाग लिया था, कुंतल को 80% अंकों के साथ 72वीं 'रेंक' मिली। हमारा अनुमान था कि देश के किसी प्रतिष्ठित अभियांत्रकी महाविद्यालय में उन्हें प्रवेश मिल जाएगा, जबकि कुन्तल तमिलनाडु के 'त्रिची रीजनल इंजीनियरिंग कालेज' (अब, आई॰आई॰टी॰) में प्रवेश की आस लगाए बैठे थे। 'काउंसिलिंग' के लिए भोपाल बुलाया गया था, यह तय हुआ कि साथ में मैं भी जाऊंगा लेकिन मेरे पास ठीक-ठाक कपड़े नहीं थे। माधुरी ने कहा- 'बाज़ार से दो 'रेडीमेड पेन्ट' ले आओ, वहाँ देश भर के लोग आएंगे, तुम्हें देखेंगे, पुराने कपड़े में अच्छा लगेगा क्या ?'
          अपनी जेब तंग थी लेकिन पत्नी के आदेश के तहत मैंने दो फुलपेंट खरीदे, 'अटैची' लगाई और निर्धारित तिथि को कुन्तल के साथ भोपाल पहुँच गया।

          भोपाल प्रवास के लिए जो फुलपेंट खरीदे थे, उसमें से एक की सिलाई मेरे पहनते ही उधड़ गई। डर के मारे मैंने दूसरे को पहना ही नहीं ताकि उन दोनों को दूकानदार से बदल सकूँ। अपना पुराना 'पेंट' पहनकर ही वहाँ के 'रीजनल इंजीनियरिंग कालेज' में 'काउंसिलिंग' के लिए पहुँच गए। पूरे दिन वहाँ की दौड़-धूप और बदइंतज़ामी से जी हलाकान हो गया। वहाँ पदस्थ सब लोग निहायत बद-तमीज़ थे,  काम न करने या उसे टालने के उस्ताद थे। अगर कुन्तल के प्रवेश का दबाव न होता तो मैं वहाँ 'भिड़' जाता और बात बिगड़ जाती लेकिन अपने देश में रहते-रहते चुप रहने और सहने का अभ्यास वहाँ काम आया। अजीब है हमारी व्यवस्था- घर हो या बाहर, चुप रहो !
          कुन्तल का काम बन गया, उनका मनपसंद कालेज 'त्रिची आर॰ई॰सी॰' उनको मिल गया। हम दोनों ख़ुशी-ख़ुशी बिलासपुर वापस लौट आए। मैं दोनों फुलपेंट लेकर दूकानदार के पास गया और उसका फटा-हाल दिखाया। उसने कहा- 'सिलवा देता हूँ।'
'मैं इस 'ब्रांड' का पेंट नहीं लूँगा, इसकी सिलाई इतनी कमजोर है कि यह पहनते ही खुल गई। मुझे कोई दूसरा ब्रांड दीजिए।' मैंने कहा।
'नहीं, पेन्ट बदले नहीं जाएगे, 'रिपेयरिंग' करवा देता हूँ।'
'बदलेंगे क्यों नहीं ?'
'आपकी साइज़ के हिसाब से इसकी लंबाई कम की गई है, अब इसे किसी को कैसे बेचूंगा ?'
'मेरी ऊंचाई 5'11" है, मैं लंबा हूँ, मुझसे कम ऊंचाई के ग्राहक आपको मिल जाएंगे। दूसरी बात, आप इसे उत्पादक को वापस भेजिए ताकि उसे भी मालूम पड़े कि उसने बाज़ार में कितना घटिया सामान 'सप्लाई' किया है।'
'वे वापस नहीं लेते, न ही शिकायत सुनते, मैं इसे सुधरवा देता हूँ।'
'क्या सुधारवाओगे आप ? उधड़ी हुई सिलाई या पूरा फुलपेन्ट ?'
'उधड़ी हुई सिलाई।'
'जब इसकी सिलाई कमजोर है तो यह फिर उधड़ेगा, मैं आपके पास कितनी बार इसे रिपेयरिंग के लिए लाऊँगा और आप कितनी बार सुधरवाओगे ? मुझे आपने खरीदते वक्त इसकी 'क्वालिटी' अच्छे होने का भरोसा दिलाया था, मैंने आपकी बात पर भरोसा करके इसे लिया था, अब मेरा इस 'प्रॉडक्ट' पर भरोसा नहीं, आप किसी दूसरी 'कंपनी' का दे दीजिए।'
'नहीं, वैसा नहीं हो पाएगा।'
'क्यों ?'
'ऐसा नहीं हो सकता।'
'तो फिर, इन दोनों को आप ही रख लीजिए, नमस्ते।' मैंने कहा और उस दूकान से बाहर निकल गया। बहुत मुश्किल के दिनों में तेरह सौ रुपए की वह खरीदी मुझे अखर गई। इस घटना को बीते पंद्रह वर्ष हो चुके हैं, मैं जब भी इसे याद करता हूँ, मेरा दिल कचोट जाता है।

          कुन्तल का कॉलेज में प्रवेश कराना था. प्रवेश शुल्क पंद्रह हजार रूपए, हास्टल का दो हजार, हाथ खर्च के दो हजार, त्रिची रुकने, खाने-पीने और राह खर्च के एक हजार, कुल मिलाकर बीस हजार रूपए का इंतज़ाम हो तो काम बने लेकिन प्रश्न यह था कि कैसे ? मैं अपने परिचितों में से किसी ऐसे व्यक्ति की तलाश में था जो इतनी बड़ी रकम की व्यवस्था बना दें लेकिन कुछ समझ में नहीं आ रहा था. त्रिची जाने और वापस लौटने का आरक्षण करवा लिया था लेकिन कॉलेज वाले बिना फीस लिए मानने वाले नहीं थे. जिस शाम हमें त्रिची के लिए निकलना था, धीरे-धीरे वह दिन आ पहुंचा. सुबह की चाय पीते-पीते माधुरी ने पूछा- 'तुम लोग आज शाम को निकलनेवाले हो ?'
'हाँ.'
'पैसे का इंतज़ाम हो गया ?'
'नहीं.'
'नहीं ! फिर ?'
'देखता हूँ, आज दिनभर का समय है.'
'मेरी चूड़ियाँ ले जाओ, बेच दो, देखो शायद इससे काम बन जाए.'
'नहीं, तुम्हारे गहने में हाथ नहीं लगाऊँगा, इतना बुरा समय गुजार लिया, तुमसे मैंने कभी इसके लिए नहीं कहा. इन्हें सुरक्षित रहने दो, तीनों बच्चों के विवाह में काम आएगा, कम से कम ये तो बचे रहें.' मैंने समझाया.  
          हमारे शहर में एक मोहल्ला है- गोंड़पारा, जहाँ एक मंदिर है- सीताराम मंदिर, वहाँ के 'आल-इन-वन' हैं- पं.लक्ष्मणशरण मिश्र, रविशंकर विश्वविद्यालय रायपुर में दर्शनशास्त्र के 'प्रोफेसर' थे, सेवानिवृत होने के बाद वे 'सीता-राम' की सेवा में लीन रहते हैं। उनके पास बैठना, धार्मिक-सामाजिक-राजनैतिक विषयों पर चर्चा करना, सुखद अनुभव होता है। उस दिन मन विचलित था इसलिए मैं उनके पास चला गया ताकि उनके साथ चर्चा करके मन को स्थिर कर सकूँ। नाश्ते में बिना प्याज का पोहा आया, चाय आई और लगभग एक घण्टे विविध विषयों पर बातचीत होती रही। अचानक पंडितजी ने मुझसे कहा- 'क्या बात है द्वारिका भइया, आपका मन खिन्न जैसा लग रहा है, आज आपका ध्यान कहीं और है क्या ?'
'जी, पंडित जी।'
'क्या बात है ?'
'कुन्तल का 'एडमीशन' कराने आज त्रिची के लिए निकलना है, घनघोर अर्थसंकट है, कैसे जुगाड़ करूँ- मेरी बुद्धि काम नहीं कर रही है।'
'क्या बात कर रहे हैं आप ? आपको अर्थसंकट ? सच बोल रहे हैं !'
'जी, उसी उधेड़बुन में लगा हूँ।' मैंने उनको बताया। वे सोफ़े से उठे, आलमारी खोली, चेकबुक निकाली और मुझसे पूछा- 'कितने रुपए की आवश्यकता है ?'
'बीस हजार।' मैंने कहा। उन्होंने चेक तैयार किया और मुझे दे दिया। वे बोले- 'लीजिए बीस हजार का चेक, 'सेल्फ' है, पंजाब बैंक से निकाल लीजिएगा।'
'आप मेरी इतनी मदद कर रहे हैं लेकिन एक समस्या है, मैं इसे कब वापस कर पाऊँगा, मुझे मालूम नहीं।'
'कोई बात नहीं, जब सुविधा हो, दे देंगे, ये मंदिर ट्रस्ट का पैसा है, आपसे कोई तगादा नहीं होगा।' उन्होंने बड़े प्यार से कहा। मैंने उनके चरणस्पर्श किए और दूकान आकर माधुरी को रुपए की व्यवस्था के बारे में बताया।
          उस दिन कृष्ण जन्माष्टमी का पर्व था, रात की ट्रेन से कुन्तल अपने घर से पढ़ाई के लिए निकले, सो निकल गए, आज तक वापस नहीं आए। जी हाँ, वे बाहर के ही रह गए। आप सोच रहे होंगे- 'आखिर ऐसा क्या हुआ जो वापस नहीं आए ?' बताऊंगा, ज़रूर बताऊंगा, उन्हें इंजीनियरिंग करने में चार वर्ष लगेंगे, अभी उन्हें पढ़ाई तो करने दीजिए !  

          काश, हम सब की ज़िन्दगी रोचक होती ! हम सब मज़े से जीना चाहते हैं लेकिन आस-पास के हालात हमारी चमड़ी उधेड़ते रहते हैं और हम अपने बदन को छिला हुआ देखकर भी यह नहीं तय कर पाते कि इस बार हंसें या रोएँ ! पुरानी कहावत है कि एक हाथ से ताली नहीं बजती लेकिन आपको आश्चर्य होगा कि मैंने अपने जीवन में अक्सर एक हाथ से ताली बजाई ! एक मेरा हाथ और दूसरा मेरा गाल ! घर से अलग होने के बाद भी मैं अपने परिवार से कभी अलग नहीं हुआ, अपने माँ-बाप और भाइयों से अलग नहीं हुआ। उनके दुख-सुख को अपना माना, कहा-सुनी-अपमान को दुर्लक्ष्य किया और हर मोड़ पर अपनी औकात से बाहर जाकर उनसे जुडने तथा रिश्तों को सहेजने की कोशिश की लेकिन आप तो जानते हैं कि जब परिवार में समझदारी और तालमेल इकतरफ़ा हो जाते है तो फिर आपस में शोषक और शोषित के रिश्ते बन जाते हैं, 'परिवार' की अवधारणा ध्वस्त हो जाती है।
          सिगमंड फ्रायड ने कहा है- 'आदमी असाध्य है। ज़्यादा से ज़्यादा हम इतनी उम्मीद कर सकते हैं कि वह एक समायोजित व्यक्ति की तरह जी ले, इससे ज़्यादा की कोई आशा नहीं। आदमी सुखी नहीं हो सकता। हम केवल इतना इंतज़ाम कर सकते हैं कि वह बहुत अधिक दुखी न हो।'
          घर-परिवार में कान भरने वाले अपना काम बखूबी अंजाम दे देते हैं, वे तो अपनी दुर्बुद्धि दे जाते हैं, इधर परिवार की आंतरिक व्यवस्था लड़खड़ा जाती है। हमारे घर में भी ऐसा ही हुआ। मैंने आपको बताया था कि छोटे भाई के घर छोडने के बाद दद्दा जी और अम्मा जी के लिए भोजन का 'टिफिन' हमारे घर से जाता था, अनवरत तीन वर्ष तक जाता रहा, वे दोनों भोजन और हमारी देखरेख से संतुष्ट थे, जो कुछ और खाने का मन होता तो वे माधुरी को कह देते तो वह भी बना कर उन्हें अवश्य भेजा जाता। यद्यपि हम लोग अलग घर में रहते थे लेकिन उन्हें अकेला नहीं छोड़ा जा सकता था इसलिए माधुरी अक्सर शाम के वक्त उनके पास पहुँच जाती, उनसे बातें कर लेती, स्वास्थ्य का हाल-चाल पता करके डाक्टर और दवा-दारू का इंतज़ाम करती या उसके लिए मुझसे कहती। इस 'अधिक आने-जाने' के कुछ 'अधिक' अर्थ निकाल लिए गए और कुछ परिवारजनों के पेट में दर्द होने लगा। दद्दा जी के कान सफलतापूर्वक भर दिए गए और वे उनके कहने में आ गए, संभवतया उन्हें भी हमारी भूमिका संदेहास्पद लगने लगी हो, किसी एक छुट्टी में संगीता बिलासपुर आई हुई थी, दद्दा जी को प्रणाम करने गई। बातचीत के दौरान दद्दा जी ने कुछ अज़ीब-ओ-गरीब बातें उनसे कहीं और साथ में यह भी कहा- 'तुम्हारी मम्मी टिफिन भेजती है तो कोई अहसान करती है क्या ? बाजार से दस रुपए में खाना मँगवा सकता हूँ।'
          मैं कहीं बाहर गया हुआ था, जब घर लौटा तब मुझे यह सब मालूम हुआ। मैंने माधुरी को वहाँ टिफिन  भेजने के लिए मना कर दिया। माधुरी मुझसे असहमत थी, बोली- 'दद्दा तो कहते रहते हैं, बोल दिए होंगे, उन दोनों को कौन खाना देगा ?'
'बाज़ार से मंगवाएंगे, उनके पास बहुत पैसे हैं, मैं उनको आज मना कर देता हूँ।' मैंने कहा।
'इस तरह नाराज़ मत हो, उनको बहुत अड़चन हो जाएगी।' उस रात हम दोनों ने निष्कर्ष पर पहुँचने की कोशिश करते रहे लेकिन अनिर्णय की स्थिति बनी रही। अगली सुबह माधुरी बोली- 'तुम इतनी तकलीफ़ में हो, सब मज़े में हैं, किसी को तुम्हारी तकलीफ़ समझ में नहीं आती। सारा बोझ तुम पर डालकर बाकी लोग बे-फिक्र हैं, चलो ठीक है, अब उनको सेवा का अवसर दिया जाए। ठीक है, आज से टिफिन नहीं भेजूँगी।'
          दूकान आकर मैंने दद्दाजी को फोन किया- 'कल का खाना आपको कैसा लगा ?'
'अच्छा था, क्यों ?' दद्दाजी ने पूछा.
'वह मेरे घर से आपके लिए भेजा गया आखिरी खाना था.' मैंने उन्हें बताया और अपने निर्णय की जानकारी दे दी। दद्दाजी ने मुझसे कारण पूछा तो मैंने बताया- 'आपने संगीता से ऐसा कहा है ?' दद्दाजी बोले- 'मैंने ऐसा नहीं कहा।'
'तो फिर ये बात कहाँ से आई ?'
'मुझे नहीं मालूम।'
'हो सकता है आपने ऐसा न कहा हो, संगीता ने मुझे गलत बताया हो लेकिन अब खाना नहीं आएगा। अब उन्हीं से भोजन के लिए कहिए जो लोग आपको हमारे खिलाफ भड़का रहे हैं, वे आपकी व्यवस्था करेंगे। अलग रहने और इतनी तकलीफ में होने के बावजूद हम इतना कर रहे थे फिर भी इस ढंग की बात हमें सुननी पड़ेगी, ऐसा कभी सोचा न था। मैं आपसे बहुत दुखी हो गया हूँ दद्दा जी।' इतना कहकर मैं रो पड़ा, मैंने फोन रख दिया और बहुत देर तक अपनी दूकान में बैठा रोता रहा।
         वह १० मार्च १९९९ का दिन था. उस दिन के बाद मेरी और दद्दा जी के बीच बातचीत बंद हो गई। उस दिन के बाद मैं बहुत दुखी हो गया। उस दिन के बाद दद्दाजी और अम्मा जी की दशा बिगड़ने लगी। उस दिन के बाद दद्दाजी बुरी तरह बीमार पड़ गए, सूखकर हड्डी का ढांचा रह गए। उस दिन के कुछ दिनों बाद हमारे माता-पिता को अपने घर से बेघर होना पड़ा। ये सब मेरे कारण हुआ, जी, मेरे कारण हुआ। मैं दोषी हूँ। मैं ऐसा निर्मम पुत्र हूँ जिसने अहंकार के वशीभूत होकर अपने वृद्ध माता-पिता को असमय भीषण कष्ट की ओर धकेल दिया। धिक्कारिए मुझे। मुझ जैसे दुष्ट के लिए ही गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा था :

"मो सम कौन कुटिल खल कामी,
जेहि तन दियो ताहि बिसरायो,
ऐसो नमकहरामी." 

          हमारा घर पहले एक मंदिर था- व्यंकटेश मंदिर, जो सेठ सीताराम राधाकिशन गाड़ोदिया का था। उस मंदिर की मूर्तियों को सन 1943 में सदरबाज़ार में एक नया मंदिर बनाकर स्थानांतरित कर दिया गया और उस खाली जगह को उन्होंने अपने व्यापारिक गोदाम के रूप में परिवर्तित कर दिया। दद्दाजी के वे संघर्ष के दिन थे, किराए के मकान में रहते थे। व्यापार चला, कुछ बचत हुई तो उन्होंने इस जगह को खरीदने का मन बनाया। सेठजी से मिले, उन्होंने इसकी कीमत दस हजार बताई, दद्दाजी के पास उतने नहीं थे इसलिए उस समय नहीं खरीद पाए। एक साल बाद जब दस हजार इकट्ठा हो गए तो उस जगह की कीमत हो गई बारह हजार ! द्वारिका प्रसाद दुबे ने दो हजार उधार दिए तब इसे सन 1945 में खरीदा गया। हल्की-फुल्की मरम्मत करवा कर हमारा परिवार 'अपने घर' में रहने आया। मेरा जन्म इसी घर में सन 1947 में हुआ था।
          इस घर की लंबी दास्तान है, यह घर एक साधारण रिहायशी घर नहीं था. इसमें इतनी रोचक और हृदय -विदारक घटनाएं हुई कि बांग्ला कथाकार शंकर जैसा लेखक 'चौरंगी' जैसा वृहत् उपन्यास लिख सकता है। बब्बाजी (मेरे दादाजी) के जीवनकाल में यह घर भी था और आस-पास के निवासियों के लिए एक धर्मशाला भी, यहां लोग अपने काम-काज के लिए जब बिलासपुर आते तो हमारे घर आकर रुकते, नहाना-धोना करते। उन सबको दोनों समय हमारी अम्मा लकड़ी के धुंआ देते चूल्हे में खाना बनाकर घूँघट डाले सबको परोसती-खिलाती लेकिन चेहरे पर कोई शिकन नहीं। रात को गद्दी पर सोने के पहले सब आगंतुकों को पीतल के गिलास में गरम दूध मिलता। मेहमान बदलते रहते लेकिन सिलसिला कभी न बदलता था। 
          उस युग में 'टेंट हाउस' न थे। परिचितों के घर में होने वाले कार्यक्रमों के लिए हमारे घर के एक कमरे में कई लोहे के कढ़ाव, पीतल के बड़े-छोटे गंज, थालियाँ, गिलास, कटोरे, चौघड़ा, टेनिया, करछुल और तांबे के टोंटी वाले गंगासागर (जग) आदि भोजन बनाने-परोसने के सामान, चांदनी, दरी, पातिया, खुशबू का छिड़काव करने के लिए गुलाब-पाश आदि सामान भरे पड़े थे जो सबके दुःख-सुख के कार्यक्रमों के लिए निःशुल्क उपलब्ध थे. बरात को राजसी 'लुक' देने के लिए दूल्हे को छाया देने वाले सोने की पालिश वाली चांदी से जड़ा हुआ छत्र-चंवर और उसके साथ अन्य शोभायमान वस्तुएँ लोग आकर ले जाते, काम हो जाने के बाद वापस कर जाते और हमारे परिवार को आशीषते थे.
          बब्बाजी के निधन के बाद व्यवस्था में कुछ परिवर्तन हुए, बब्बाजी 'बड़े दिल' वाले थे, वहीं पर दद्दाजी 'बड़े आदमी' थे। दद्दाजी की शहर के धनिकों में गिनती होती थी और सब लोग उन्हें आदरपूर्वक 'सेठजी' कहते थे। वे राजनीति के चतुर खिलाड़ी थे, सफल व्यापारी थे, साफ़गोई से बातें करने वाले दुस्साहसी व्यक्ति थे। सवा छः फुट के दद्दाजी जब धोती-कुर्ता और सफ़ेद टोपी धारण करके किसी समूह में पहुँचते तो सबकी आँखें उनकी ओर टिक जाती। उनसे सब डरते थे, पता नहीं किस बात पर वे किसकी 'परेड' ले लें ! वे कहा करते थे- 'चुप रहना और गम खाना मुझे पसंद नहीं।'
           राजनीति पर चर्चा करने के लिए प्रत्येक शाम घर में बैठक सजती जो रात को ग्यारह-बारह बजे तक चलती। मंत्री हो या पूर्व मंत्री, सांसद हो या विधायक- सब दद्दाजी से बात करने, उनकी राय लेने या डांट खाने आते और खुशी-खुशी लाभान्वित होकर जाते। हमारे शहर में कान्यकुब्ज ब्राह्मणों की बहुतायत है, दद्दाजी बनिया होने के बावजूद उन सभी परिवारों के अघोषित मुखिया थे, सबके काज उनकी सहमति और अनुमति से होते थे। शहर की कोई राजनीतिक उलझन, परिवारिक समस्या, रिश्तेदारी की समस्या, हिस्से-बटवारे की समस्या, लेन-देन की समस्या, स्कूल-कालेज की समस्या यदि उत्पन्न हो जाती तो लोग उनकी शरण में आते और 'दूसरी कक्षा पास' दद्दाजी ऐसे समाधान बताते कि वे संतुष्ट होकर उनकी बैठक से निकलते और उन्हें हृदय से धन्यवाद देकर जाते।
          मुझे याद है, सन 1960 में 'छत्तीसगढ़ राइस मिल एसोसिएशन' का गठन किया गया था, दद्दाजी उसके प्रथम अध्यक्ष मनोनीत किए गए थे। घर में बैठकें होती, गहमागहमी रहती, बड़े-बड़े प्रभावशाली लोग जमीन पर बिछी दरी में बैठे-बैठे मंत्रमुग्ध होकर उनकी बातें सुनते। वे मध्यप्रदेश शासन के खाद्यमंत्रालय की सलाहकार समिति के विशेष आमंत्रित सदस्य भी थे। 
          एक बार की बात है, नई दिल्ली में केंद्र सरकार के तात्कालीन खाद्य मंत्री सदोबा के॰ पाटील ने देश के समस्त राइस मिल एसोसिएशन की बैठक आमंत्रित की जिसमें दद्दाजी छत्तीसगढ़ का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। जब उनकी बोलने की बारी आई तो उन्होंने कहा- 'अभी तक आप लोग अंग्रेजी में जो बातें कर रहे थे, वह तो मुझे समझ में नहीं आई लेकिन एक बात समझ में आई कि जिन्हें अंग्रेजी समझ में आती है उन्हें देश की 'राइस पालिसी' समझ में नहीं आती।' उसके बाद उन्होंने केंद्र सरकार की 'एक राज्य से दूसरे राज्य में चावल भेजने पर पाबंदी' की नीति की जबर्दस्त धुलाई की। खाद्यमंत्री ने अगली सुबह उन्हें अपने घर बुलाया और विस्तार से बात की। दद्दाजी ने उन्हें समझाया- 'छत्तीसगढ़ चावल का कटोरा है जो पूरे देश की जरूरत को पूरा कर सकता है, आप हमें चावल अन्य प्रान्तों में भेजने की अनुमति दीजिए, हम पूरे देश को चावल से भर देंगे।' खाद्य मंत्री को उनकी बात जमी और केंद्र सरकार ने एक से दूसरे राज्य में चावल की आवाजाही पर लगे प्रतिबन्ध को वापस ले लिया परिणामस्वरूप देश में चावल की किल्लत दूर हो गई और साथ ही साथ छत्तीसगढ़ के चावल मिल मालिकों को चावल की अच्छी कीमत मिलने से उनकी तिजोरियाँ भर गई।   
          समय गुजरता गया, भरा-पूरा घर धीरे-धीरे खाली होता गया। छः लड़कियां ब्याह कर चली गई, बड़े भैया सन 1975 में रायपुर चले गए, मुझे 1984 में घर छोड़ना पड़ा और छोटे भाई राजकुमार 1996 में घर से चले गए। अब उस घर में दो लोग बचे, 83 वर्षीय दद्दाजी और 81 वर्षीय अम्माजी। उनको हो रही असुविधा को देखते हुए 2 जुलाई 1999 को दद्दाजी और अम्माजी को बड़े भैया अपने साथ रायपुर ले गए। गोलबाजार का वह चौदह कमरों वाला तीन मंज़िला घर उन्हें सदा के लिए छोड़कर जाना पड़ा. वहां 'गोदरेज' का ताला लटक गया। गहमागहमी से भरपूर उस घर में सन्नाटा पसर गया।  

          रायपुर में दद्दाजी की तबीयत और बिगड़ गई, जांच में मालूम हुआ कि किडनी सही ढंग से काम नहीं कर रही है, उन्हें एक किडनी विशेषज्ञ के अस्पताल में भरती किया गया. मैं उन्हें देखने गया, बहुत देर मैं उनके पास खड़ा रहा, उन्होंने बर्फ़ीली निगाह से एक बार मुझे देखा और दूसरी ओर देखने लगे. कुछ दिनों बाद मुझे खबर लगी कि उन्हें एक प्राकृतिक चिकित्सालय में भर्ती किया गया है, मैं फ़िर उन्हें देखने गया. उनका शरीर सूख कर कांटा हो गया था और आखें दयनीय हो गई थी. उस दिन भी उन्होंने मुझसे बात नहीं की. मेरी उनसे बात करने की हिम्मत नहीं हो रही थी लेकिन उनकी दशा मुझसे देखी भी नहीं जा रही थी. वे अपने जीवन की अंतिम पारी को किसी प्रकार खेलने की कोशिश कर रहे थे.
          कुछ दिनों बाद, मैं अपनी दूकान मधु छाया केन्द्र में बैठा था, फ़ोन की घंटी बजी, आवाज़ दद्दाजी की थी. उनकी आवाज़ भर्राई हुई थी- ‘हम बोल रहे हैं.’
‘जी, प्रणाम दद्दाजी.’ मैंने कहा.
‘तुम नाराज़ हो?’
‘नहीं, ऐसी बात नहीं.’
‘तुमको समझने में हमसे बड़ी भूल हुई, हमको माफ़ करो.’
‘आप कैसी बात कर रहे हैं दद्दाजी ! आप ऐसा मत बोलिए, गलती मेरी है, आप मुझे माफ कर दीजिए.’
‘नहीं तुम्हारी गलती नहीं है, जो हो गया सो हो गया.’
‘लेकिन दद्दाजी एक बात है, आपने मुझे समझने में बहुत देर लगा दी, आपको पता है कि मैं अब बावन वर्ष का हो गया हूं.’ मैं रो पड़ा. कुछ देर वे चुप रहे फ़िर उन्होंने कहा- ‘तुम कल ही रायपुर आ जाओ, तुमसे कुछ ज़रूरी बात करनी है.’
‘जी, आ जाऊंगा.’ मैंने कहा.
          अगले दिन, 15 अक्तूबर 1999 को मैं उनके पास पहुंचा। उनके दोनों घुटने मुड़ गए थे जिसे वे सीधे नहीं कर पा रहे थे, शरीर अशक्त हो गया था, आँखें धंस गई थी। मुझसे धीमी आवाज में बोले- 'आओ छोटे भइया, बैठो।'
'जी।' मैंने उनके चरण स्पर्श किए और उनके बगल में बैठ गया।
'तुमसे सलाह लेनी है।'
'जी।'
'मैं बटवारा करना चाहता हूँ, तुम्हारी क्या राय है ? कैसा किया जाए ?'
'भला मैं क्या सलाह दूँ आपको, जैसा आप उचित समझें, वैसा करें।'
'देखो मैं सिर्फ तुमसे सलाह ले रहा हूँ, और किसी से तो पूछा नहीं।'
'आप तो सबकी समस्या का समाधान करते थे, अब मैं आपको क्या बताऊँ ?'
'अच्छा यह बताओ कि तुम क्या चाहते हो?'
'दूकान, 'पेन्ड्रावाला'।'
'क्यों? उस दूकान के लिए मुन्ना (छोटा भाई ) ज़िद कर रहा है।'
'हमारे परिवार की इज्ज़त उस दूकान से जुड़ी हुई है, वहाँ की दुर्दशा मुझसे देखी नहीं जाती।'
'छोड़ो उसको, तुम लाज ले लो, उसे चलाओ। लाज़ अच्छी चलेगी तो परिवार की इज्ज़त अपने आप बढ़ जाएगी और तुम्हारे सब काम अच्छे से हो जाएंगे, हमारी बात मानो।'
'जैसा आप कहें।'
'कल जाकर लाज़ का ताला खोलो, दो साल से बंद है, साफ-सफाई करवाओ और शुभ मुहूर्त देखकर उसे चालू करो।'
'जी।' मैंने कहा।
          अगली सुबह साफ-सफाई का काम शुरू किया गया। उस दौरान मेरी नज़र पड़ी कि कमरों में लगे उन्नीस 'सीलिंग फेन' गायब हैं तब समझ में आया कि किसी चोर ने मेरे लाज में घुसने के पहले से ही सफाई-अभियान चालू कर रखा था ! यदि मेरे आने में एक-दो दिन की भी देर हो जाती तो वहाँ लगे सभी 45 पंखे चोरित हो जाते। मैं चोरी की इत्तला देने 'सिटी कोतवाली' गया तो उन्होंने 'रिपोर्ट' नहीं लिखी और मुझे आश्वासन दिया- 'आप जाओ, हम पता करते हैं।'
'रिपोर्ट तो लिख लीजिए।' मैंने आग्रह किया।
'आपको रिपोर्ट लिखवाना है या पंखे चाहिए ?'
'पंखे चाहिए।'
'तो अपना काम कीजिए, हम चोर का पता लगाते हैं।' थाना प्रभारी ने कहा। बाद में उनको कई बार याद दिलाता रहा, वे चोर का पता लगाते रहे।  पंद्रह वर्ष बीत चुके हैं, वे अभी तक पता नहीं कर पाएँ हैं। पुलिस के पास काम का बहुत अधिक दबाव रहता है, बेचारे फुर्सत पाएं तो पंखा-चोर खोजें। मैं सोचता हूँ कि उन्नीस पंखों को ढूँढने में उन्हें उन्नीस वर्ष का समय अवश्य दिया जाना चाहिए ! चार वर्ष और प्रतीक्षा करूंगा फिर यदि जीवित रहा तब विचार करूंगा कि आगे क्या किया जाए ?
          31 अक्तूबर 1999 को सर्वार्थ सिद्धि योग का मुहूर्त था, लाज़ में विधि-विधान से पूजन हुआ और मेरे बब्बाजी श्री जगदीश नारायण की याद में 'श्री जगदीश लाज़' का प्रारम्भ हुआ। पूजन के कार्यक्रम में परिवार के अन्य सभी सदस्य उपस्थित रहे लेकिन अत्यंत कमजोर स्वास्थ्य के कारण दद्दाजी नहीं आ पाए। जिस लाज़ को दद्दाजी ने अपनी वृद्धावस्था को दरकिनार कर अपने सामने खड़े होकर बनवाया, पच्चीस वर्ष तक उसके निर्माण में सतत लगे रहे, उस प्रकल्प को आरंभ होते वे अपनी आँखों से नहीं देख पाए। वे कभी नहीं देख पाए।

           शहर के बीच स्थित सदरबाज़ार में लाज़ खुल गया लेकिन इक्का-दुक्का ग्राहक आते और हम लोग दिन-रात खाली बैठे रहते। एक दिन माधुरी ने मुझसे पूछा- 'क्या लोगों को अपना लाज़ दिखाई नहीं पड़ता ?'
'दिखाई पड़ने से कुछ नहीं होता, जब लोगों को मालूम पड़ेगा तब चलेगा और उसमें बहुत समय लगेगा।' मैंने बताया। हमारे आर्थिक कष्ट प्रबल थे, ऐसा लगता था कि कब व्यापार चले, कब हालात सुधरें !
          एक माह बाद दद्दाजी ने हमें रायपुर बुलाया। तीनों भाई उनके साथ बैठे। आपसी चर्चा के बाद दद्दाजी ने अपनी समस्त चल-अचल संपत्ति हम तीनों भाइयों में वितरित कर दी। दद्दाजी ने अम्माजी के भविष्य के लिए कोई आर्थिक प्रावधान नहीं किया जो मेरी समझ में उनकी बड़ी भूल थी। इस पारिवारिक बैठक में एक रोचक तथ्य भी उभर कर आया- जिसे कुछ नहीं चाहिए था, उसे सब कुछ चाहिए था।
          उस बैठक के अन्त में दद्दाजी ने मुझसे कहा- 'मुझे तुमसे एक बड़ी शिकायत है।'
'मुझसे शिकायत ? बताइए।' मैंने उनसे पूछा।
'तुमने गाँव के लोगों से उधार मांगा, तुमने हमारी इज्ज़त का ख्याल नहीं किया ?'
'यह सही है कि मैंने उधार लिया लेकिन क्या मेरे उधार का तगादा करने आपके पास कोई आया ?'
'नहीं।'
'क्या किसी से आपने यह सुना कि मैंने किसी की रकम दबा दी, उसे ब्याज नहीं दिया या किसी का रुपया वापस करने से इंकार कर दिया ?'
'नहीं।'
'तो फिर आपकी इज्ज़त कैसे चली गई ?'
'तुम बात तो ठीक कह रहे हो।'
'आज बात निकली तो एक सवाल मैं आपसे पूछना चाहता हूँ.'
'हाँ, पूछो.'
'आपके रहते मुझे गाँव से उधार क्यों मांगना पड़ा ?'
'हाँ, ये हमारी गलती थी।' वे तुरंत बोले और उनके चेहरे पर अफसोस जैसा भाव उभरा।
          27 फरवरी 2000 को रायपुर से मुझे खबर मिली कि दद्दाजी की स्थिति गंभीर है। घर जाने के रास्ते में बस स्टेंड के पास मुझे रायपुर जाती बस दिखी, मैं स्कूटर को रास्ते की एक दूकान के सामने खड़ा करके उस बस में बैठ गया। शाम को छः बजे रायपुर पहुँच गया, बड़े भैया के घर गया, वहाँ से अपने भतीजे तेजप्रकाश के साथ हास्पिटल पहुंचा। दद्दाजी ने मुझे देखा, मैंने अपने दोनों हाथ से उनके दोनों हाथ थामे, हम दोनों के मध्य मौन संभाषण हुआ। अचानक उनकी साँस बहुत तेजी से चलने लगी और हमारे देखते-देखते उखड़ गई, उनकी आंखें पथरा गई। अजातशत्रु जैसा तेजस्वी व्यक्ति मृत्यु से पराजित होकर निस्तेज हो गया।
          उनकी पार्थिव देह को रात में ही बिलासपुर ले आए और उसी घर में लिटा दिया जहां उन्होंने अपने जीवन के स्वर्णिम वर्ष बिताए थे। उस दिन उनका शान्त पड़े रहना बहुत अजीब लग रहा था। ऐसा लगे, ये अभी उठ बैठेंगे और हमें डाँटेंगे- 'तुम लोग क्या मेरी अंतिम विदाई का इंतज़ाम ठीक से नहीं कर सकते ?'
         28 फरवरी को उनकी अंतिम यात्रा निकलने के पूर्व सबने श्रद्धासुमन अर्पित किए, मैंने भी पुष्प चढ़ाए और चरण स्पर्श करते समय बीती शाम से रुके मेरे आँसू फूट पड़े। उस समय मैं अपने पिता को प्रणाम नहीं कर रहा था, मैं अपने गुरु को विदा कर रहा था जिसने मेरा व्यक्तित्व गढ़ा, व्यापार सिखाया, बात करना सिखाया, बोलना सिखाया, समय की कीमत करना सिखाया, अनुशासन, ईमानदारी और स्पष्टवादिता सिखाई।
          उनके अंतिम संस्कार में सम्मिलित नागरिकों ने उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए शोक सभा की जिसमें दद्दाजी के मित्र (अब दिवंगत) श्री रोहिणी कुमार बाजपेई ने कहा- 'शहर का शेर आज चला गया।'

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सोमवार, 1 सितंबर 2014

11 : ऐ मेरे दिल कहीं और चल

       
        जब भी मैं एन.टी.पी.सी.जमनीपाली में प्रशिक्षण देने जाता था तब मुझे वहां के ‘गेस्टहाउस’ से ‘ट्रेनिंग सेन्टर’ जाने की राह में सड़क के किनारे लगे हुए ‘बोर्ड’ पर एक सुभाषित लिखा हुआ पढ़ने को मिलता था- ‘रहिमन चुप व्है बैठिए देख दिनन के फ़ेर, नीकै दिन जब आएंगे बहुरि न लगिहैं देर.’ पढ़कर अच्छा लगता, कुछ ढाढ़स बंध जाता लेकिन अच्छे दिनों की प्रतीक्षा करते-करते मेरी अंखियां थक गई थी. मेरी आर्थिक दशा दिन-ब-दिन दुर्दशा में बदलती जा रही थी. मुझमें कोई बुरी आदत नहीं थी, जुआ नहीं, पान-सिगरेट नहीं, शराब के स्वाद का अता-पता नहीं, फ़िज़ूल खर्च नहीं; लेकिन कर्ज़ पर चढ़ते ब्याज और अनिवार्य घरेलू खर्च का जोड़ मेरे व्यापार की आमदनी से बहुत अधिक था, लिहाज़ा बदहाली बनी रहती. प्रशिक्षण कार्यक्रम भी अधिकतर धन्यवाद-ज्ञापन वाले हुआ करते थे, यदकदा पारिश्रमिक वाले भी परन्तु वे हाथी के मुंह में आइसक्रीम जैसे थे.
          पुरानी कहावतें सचेत करती हैं कि मनुष्य भूखा रह ले लेकिन कर्ज़ न ले; लेकिन ‘जाके पांव न फ़टी बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई ?’ मनुष्य खुद तो भूखा रह लेगा लेकिन अपने परिवार को भूखा कैसे देख सकेगा, घर आए अतिथि को भूखा कैसे वापस करेगा ? एक पढ़ा-लिखा इन्सान अपने बच्चों को पढ़ाने से कैसे इन्कार कर सकेगा ? लोगों ने मेरी भरपूर मदद की लेकिन मदद करने वाले भी आखिर कितनी और कितने बार करते ?
          मेरा घर बनते समय श्वसुरजी और बड़े भैया ने बहुत आर्थिक सहयोग दिया था जो वस्तुतः कर्ज़ था पर वह मदद के रूप में में बदलते जा रहा था क्योंकि कर्ज की वापसी नहीं हो पा रही थी. अकस्मात एक दिन श्वसुरजी हृदयाघात में दिवंगत हो गए और मुझे एक ‘डिफ़ाल्टर’ दामाद की भूमिका में उनके अंतिम संस्कार में सम्मिलित होना पड़ा. उस समय मैं खुद से कितना शर्मिन्दा था, मैं आपको किन शब्दों में बताऊं ? मुझे इस बात का जीवन भर अफ़सोस रहेगा कि मैं उनके जीते-जी मैं उनका उधार उन्हें वापस न कर सका. उन्होंने, बड़े भैया ने और मेरे मित्र रामकिशन खंडेलवाल ने मुझसे कभी रकम का तगादा नहीं किया न किसी को उसके बारे में बताया या मुझे जताया- दस-बीस साल तक भी नहीं !
          आप इसे पढ़कर सोचते होंगे कि आखिर ऐसी परिस्थिति क्यों बनी ? दरअसल स्थिति धीरे-धीरे ऐसी बनती गई कि वैसी परिस्थिति बन गई. मुझे स्वयं आश्चर्य होता है कि मुझमें व्यापार करने के स्वाभाविक गुण थे, प्रबन्धन का छॊटा-मोटा जानकार भी था- फ़िर भी स्थिति पर नियन्त्रण क्यों न कर सका ? भाग्यवादी भाग्य को दोष दे सकते हैं तो कर्मवादी कौशल को लेकिन सच तो यह है कि किसी को मना न कर पाने के संकोची स्वभाव और पारिवारिक जिम्मेदारियों को अपनी औकात से बाहर जाकर निभाने के संस्कार ने मुझे ऐसे संकट में डाल दिया.
          नौकरी-पेशा और व्यापारियों का मनोविज्ञान अलग-अलग होता है॰ घरेलू जिम्मेदारियों के परिप्रेक्ष्य में दोनों की प्रतिक्रिया भिन्न होती हैं॰  जैसे रिश्तेदारी में किसी शादी-ब्याह या गमी में जाना हो तो नौकरी-पेशा व्यक्ति कह सकता है- 'क्या करूँ, छुट्टी नहीं है' या 'महीने का आखिरी चल रहा है' लेकिन व्यापारी ऐसा नहीं कह  सकता॰ खास तौर से संयुक्त परिवार में जो सामने रहता है उसे पारिवारिक कार्यों में बहुत खर्च करना पड़ता है, यह खर्च किसी को दिखाई नहीं पड़ता, कोई यश नहीं मिलता, बस, नेकी कर दरिया में डाल॰
         कर्ज़ लेकर जीवन की गाड़ी चलाने के लिए हुनरमन्द और बेशर्म होना अनिवार्य तत्व है. वैसे तो किसी को रकम उधार देने के लिए कई पैसेवाले उधार बैठे रहते हैं लेकिन वे सुरक्षित कर्ज़ देना पसन्द करते हैं यानी रकम ब्याज सहित समय पर वापस आ जाए. साहूकारी की दुनियां का रिवाज़ यह है कि सुरक्षित कर्ज़ पर ब्याज की दर कम होती है लेकिन सुरक्षा कम समझ आने पर ब्याज की दर उसी अनुपात में बढ़ती जाती है. मुझे अपनी साख बनाए रखने के लिए इधर की टोपी उधर करने का निरन्तर प्रयास करते रहना पड़ता था इसलिए जब किसी भुगतान तिथि का समय-संकट आता- मेरा दिमागी ‘एन्टीना’ किसी नए साहूकार की तलाश में भिड़ जाता. कुछ मेरे स्थाई साहूकार थे, कुछ नियमित, तो कुछ एकबारगी. जिनसे मैंने उधार मांगा उनमें से अधिकतर ने मेरी मदद की लेकिन कुछ ऐसे भी 'अभिन्न मित्र' थे जिन्होंने अपने पुट्ठे पर मुझे हाथ तक नहीं रखने दिया. वे अनुभव सच में बेहद खट्टे-मीठे थे और ‘आई-ओपनर’ भी. कर्ज़ इतना बढ़ गया था कि उससे मुक्त होने के उपाय ही समझ में न आते थे. पत्नी के गहने और घर से लगी जमीन बेचकर कुछ बोझ कम किया जा सकता था लेकिन वैसा करना दिल को गवारा न था॰ आखिर बकरे की मां कब तक खैर मनाती, वह दिन तो किसी दिन आना ही था सो आ गया.
           हुआ यह कि अपने एक मित्र अक्षय से मैंने एक लाख रुपए कर्ज़ में लिए थे जिसका मैं हर महीने ब्याज अदा कर दिया करता था. लगभग दो वर्ष बाद उन्होंने रकम वापस करने के लिए कहा. मेरी स्थिति दयनीय थी, दिमाग काम नहीं कर रहा था कि कहां से जुगाड़ करूं ? मैंने उनसे कहा- ‘कुछ समय दे दो’ लेकिन वे बोले- ‘मुझे अभी रकम की जरूरत है.’ मैंने सोचा- इस मित्र ने मेरी ज़रूरत पर मुझे रकम दी थी, आज इसे ज़रूरत है तो मुझे किसी भी उपाय
 से रकम वापस करनी चाहिए- ऐसा सोचकर मैंने उनके समक्ष अपने घर से जुड़ी खाली जमीन को बेचने का प्रस्ताव रखा जिसे वे प्रचलित बाजार भाव पर लेने के लिए सहमत हो गए. उन्होंने अपनी रकम काटकर शेष राशि मुझे दे दी. जमीन की ‘रजिस्ट्री’ के समय अक्षय ने मुझे एक बात बताई- ‘द्वारिका भाई, इस जमीन की खरीदी के बारे में जब मैंने अपने पिताजी को बताया तो वे मुझ पर बहुत बिगड़े ?’
‘क्यों ?’ मैंने पूछा.
‘वे इस बात से नाराज़ थे कि मैंने अपनी रकम की वसूली के लिए आपके घर से जुड़ी जमीन खरीद ली.’
‘पर जमीन तो मैंने अपनी मर्जी से बेची है, आपके दबाव पर नहीं.’
'पिताजी का कहना था कि क़र्ज़ पटाने के लिए कोई भी अपने घर से जुड़ी जमीन नहीं बेचता. जब मैंने उन्हें सारी बात समझाई तब वे शांत हुए और मुझसे पूछा कि मैं इस जमीन का क्या करूंगा ?’
‘क्या बताया आपने ?’
‘मैंने बताया कि ‘इनवेस्टमेन्ट’ है तब उन्होंने मुझे आदेश दिया कि इस जमीन को मैं कभी भी किसी दूसरे व्यक्ति को न बेचूं, केवल आपको को ही दूँ.’
‘ऐसा क्या ? लेकिन क्या पता, मैं इसे कब खरीद पाऊंगा ?’
‘चाहे जब आपकी व्यवस्था बने, आपकी यह जमीन मेरे पास अमानत जैसी है, मैंने अपने पिता को वचन दिया है.’ अक्षय ने कहा.
           माधुरी को मेरी दयनीय स्थिति मालूम थी लेकिन मुझपर कितना कर्ज़ है, यह मैंने उन्हें कभी नहीं बताया. मैं सोचता था कि कर्ज़ की ज़िन्दगी जीते-जीते मैं तो अभ्यस्त हो चला हूं, रात को बेशर्मी ओढ़कर आराम से सो भी लेता हूं, उन्हें बताऊंगा तो उनकी नींद उड़ जाएगी. उस बेहया तकलीफ़ को मैंने अकेले झेला क्योंकि वह मेरी अतीत की भूलों का, संयुक्त परिवार की अवधारणा पर भरोसा करने का दुष्परिणाम था.
          वैसे भी माधुरी और मेरे तीनों बच्चों ने मुझसे कभी गैरवाज़िब मांगें नहीं की, चारों मितव्ययी थे. संगीता इन्दौर के डेन्टल कालेज में पढ़ती थी तब उसकी फ़ीस का इंतज़ाम करना मेरे लिए दुर्धर्ष कार्य था. जब पूरे साल फ़ीस नहीं जा पाती तब उसका परीक्षा का प्रवेशपत्र अटक जाता तो मुझसे फोन पर कहती- ‘पापा, चौदह हज़ार फ़ीस और बारह सौ ‘लेट फ़ी’, कुल मिलाकर पन्द्रह हज़ार दो सौ रुपए भेजिए तब परीक्षा दे पाऊंगी.’ मैं फ़िर किसी नए सुहृद मित्र की तलाश में निकल पड़ता ताकि उससे उधार मिल सके और संगीता परीक्षा दे सके. बहुत कष्टमय समय था वह. कई बार राशन और साग-सब्ज़ी खरीदने के पैसे भी जेब में न होते पर कोई-न-कोई मुझे खुशी-खुशी उधार दे देता क्योंकि मैं ‘पेन्ड्रावाला’ परिवार का लड़का था, उसे क्या पता कि सेठों के घर के किसी पचास वर्षीय सदस्य की ऐसी दुर्दशा है !
          मेरी तकदीर एकदम खराब भी नहीं थी, हमारे शहर में ‘एल एम एल वेस्पा’ की नई ‘डीलरशिप’ खुली तो उन्होंने ग्राहकों के समूह से बारह माह तक दो हज़ार रुपए प्रति माह जमा करवाने की योजना शुरू की जिसमें प्रत्येक माह एक ‘लक्की ड्रा’ निकाला जाता था. जिसका नाम निकलता उसे स्कूटर मिल जाती और अगली किश्तें माफ़ हो जाती. मेरा नाम पहले ‘ड्रा’ में आ गया, तेईस हज़ार की स्कूटर दो हज़ार में आ गई. उस स्कूटर में हम पाँचों यानी मैं, मेरे आगे संज्ञा, पीछे संगीता, उनके पीछे माधुरी और माधुरी की गोद में कुन्तल, जब ठस्समठस्सा बैठकर सड़कों पर निकलते तो लोग हमें देखकर मुस्कुराते, हम उन्हें देखकर.
            आर्थिक असुविधा का दौर तीस वर्षों तक चला, ध्रुपद गायन के विलम्बित लय की तरह उबाऊ, लेकिन सच मानिए हम लोग मस्ती से जीते थे. तंगी का दबाव हर समय बना रहता था लेकिन तनाव अस्थाई रहता था. जब किसी भुगतान की समस्या सामने होती तो तात्कालिक तनाव उपजता और जैसे ही व्यवस्था बन जाती, तनाव छूमन्तर. तनाव प्रबन्धन की किसी पुस्तक में इसके लिए तीन उपाय सुझाए गए थे जिसका नाम था- AAA ‘फ़ार्मूला’. A=Alter, A=Avoid, A=Accept.
#तनाव हो तो उसके मूल कारण की तलाश कर उसे दूर करने के उपाय किए जाएं : Try to alter the situation; #यदि उपाय सफ़ल न हों तो उन्हें टाला जाए या उनसे बचा जाए : If alteration is not possible, avoid it;
#जब दोनों उपाय सम्भव न हो तो परिस्थिति को स्वीकार कर लिया जाए : If it's no way, accept it.
मैं इन तीनों तरीकों का प्रयोग करता और मज़े में रहता था. इस विधि से मेरी आयु भी बढ़ रही थी क्योंकि जिन्हें मुझसे वसूली करनी थी वे मेरे दीर्घायु होने के लिए अपने ईश्वर से सतत प्रार्थना करते रहते थे.
         असुविधाओं के पहाड़ के नीचे दबे-दबे मेरा दम घुटने लगा था. दूर-दूर तक उम्मीद की कोई किरण नज़र नहीं आती थी फिर भी साहिर लुधियानवी की इस ग़ज़ल को सुनकर अँधेरे के पार देखने की कोशिश मैं किया करता था :

"रात भर का है मेहमां अंधेरा
किस के रोके रूका है सवेरा.

रात जितनी भी संगीन होगी
सुबह उतनी ही रंगीन होगी,
ग़म ना कर ग़र है बादल घनेरा
किसके रोके रूका है सवेरा.

लब पे शिकवा न ला अश्क पी ले
जिस तरह भी हो कुछ देर जी ले,
अब उखड़ने को है ग़म का डेरा
किसके रोके रूका है सवेरा.

आ कोई मिल के तदबीर सोचे
सुख के सपनों की तासीर सोचे,
जो तेरा है वो ही ग़म है मेरा
किसके रोके रूका है सवेरा.
रात भर का है मेहमान अंधेरा
किसके रोके रूका है सवेरा."

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          जब मैं अपनी दूकान में बैठता तो तगादे वालों को सम्हाल लेता था लेकिन जब मेरे घर के ‘लेंडलाइन’ फ़ोन पर तगादा आता तो बड़ी मुसीबत हो जाती. छोटा सा दो कमरे का घर है, फ़ोन पर हो रही बात सबको सुनाई पड़ती इसलिए मेरे अर्थसंकट के रहस्य उघड़ जाने का भय था. किसी को मालूम न पड़े इसलिए मैं ‘रिसीवर’ को उठाकर बाहर रख देता ताकि फ़ोन ‘हेल्ड’ हो जाए और मैं निश्चिन्त सो सकूं. माधुरी का ध्यान मेरी इस हरकत पर चला गया और जब उन्हॊंने कई बार वैसा होते देखा तो उनका माथा ठनका. उन्होंने मुझसे पूछताछ की तो मैंने स्वीकार किया कि वैसा साहूकारों के तगादे के डर से करता पड़ता है. वे चल रही कमजोर आर्थिक स्थिति को जानती तो थी लेकिन मेरी इस गंभीर लड़ाई से अपरिचित थी. उन्होंने पूछा- ‘ऐसे कैसे चलेगा, कोई उपाय है तुम्हारे पास?’
‘मुझे समझ में नहीं आ रहा है कि क्या करूं ! भरपूर परिश्रम करता हूं, दूकान में भी और प्रशिक्षण में भी लेकिन देनदारी और उसका ब्याज इतना चढ़ा हुआ है कि उससे पार पाना मेरे लिए असम्भव दिखता है.’ मैंने बताया.
‘फ़िर ?’
‘मेरे मन में एक विचार आया है कि अपन यह शहर छोड़ दें.’
‘अरे, तुम हमेशा कुछ बेढब ही सोचते हो॰ जाओगे कहाँ ?’
‘पुणे, पुणे ठीक रहेगा॰'
‘पुणे ही क्यों ?’
‘प्रशिक्षण कार्यक्रम वहां से अच्छा चलेगा और बच्चों की पढाई भी बेहतर हो सकेगी.’ मैंने कहा.
          अपना घर-शहर छोड़कर जाना बहुत कठिन निर्णय था. हमने आपस में बहुत सोच-विचार किया और निर्णय लिया कि पहले पुणे जाकर सर्वेक्षण किया जाए और वहां की संभावनाओं की टोह ली जाए फिर अंतिम निर्णय लिया जाए. मैंने पुणे जाने के लिए रेल आरक्षण करवा लिया, संगीता को खबर की कि वह इन्दौर से सीधे पुणे पहुंच जाए.
          पुणे के लिए निकलने के पहले मैंने बड़े भैया को एक पत्र लिखा था, उन्होंने अवश्य पढ़ा होगा, कुछ अंश आप भी पढिए :

बिलासपुर
6 जून 1998

आदरणीय भैया,
   
          आज यह पत्र लिखना मुझे कितना अजीब लग रहा है, मैं क्या बताऊँ ? यद्यपि मुझे जन्म आपने नहीं दिया है लेकिन सदा से आपको अभिभावक मानता रहा हूँ- शायद पिता से ज़्यादा, इसलिए मन में आया कि अपने विचार, अपना हृदय और अपनी भावनाएं आपके सामने व्यक्त करूँ. ऐसा भी लगता है कि मुझे अपने जीवन का शेष भविष्य कैसा बनाना है, आपसे कुछ बता-समझ लूँ , तो शायद निर्णय बेहतर हो सकेगा. इस पत्र को लिखते समय यद्यपि मैं भावुक हूँ, तथापि मेरी सोच का आधार व्यवहारिक है. मैंने पचास साल का जीवन यथासंभव पवित्रता और ईमानदारी से जिया है इसलिए मुझमें पर्याप्त साहस है, मुझे किसी का डर नहीं है क्योंकि मनुष्य सबसे ज़्यादा खुद से डरता है जबकि मैंने कुछ ऐसा किया नहीं जिसे मेरी अन्तरात्मा गलत मानती हो.
          मुझे याद आता है जब मेरे 'ग्रेजुएशन' के बाद आपने मेरी 'आइ.ए.एस. कोचिंग' के लिए दिल्ली भेजने की व्यवस्था की थी. दद्दाजी के द्वारा पारिवारिक दायित्वों के प्रवचन से प्रभावित होकर जब मैंने दिल्ली नहीं जाने का निर्णय लिया था तब आपने मुझे बुरी तरह झिड़का था और समझाया था- 'इस घर को छोड़कर जा और अपनी ज़िन्दगी जी अन्यथा पछताएगा.' और भी बहुत सी बातें याद आ रही हैं लेकिन क्या बताऊँ, मुझसे गलत निर्णय हो गया. संभवतः हीन भावना से ग्रस्त होकर मैं साहस न कर पाया और सच में मैं ऐसी अंधेरी गुफा में फंस गया जहां न तो प्रकाश है और न ही पर्याप्त हवा.
          जीवन का एक लंबा समय बीत गया. पचास साल बीत गए, अब जीवन की संध्या-बेला निकट आ गई है, मन बेचैन हो उठा है. शेष जीवन को मैं साहस और स्वाभिमान के साथ जीना चाहता हूँ. आप ये न समझें कि मेरा बीता समय दुखपूर्ण था. मैंने उपलब्ध परिस्थितियों को समझा, स्वयं को उसके अनुरूप बनाया और टुकड़ों में ही सही- सुख को चुन-चुन कर इकट्ठा किया और आनंदित होता रहा लेकिन जबसे होश सम्हाला तब से आज तक आर्थिक विषमताओं और तनाव के पहाड़ ढोते-ढोते अब मैं थक गया. मृत्यु के लिए सामान जोड़ते-जोड़ते मेरी हिम्मत हार गई है, अब मैं जीना चाहता हूँ. यह पत्र मैं आपको इसीलिए लिख रहा हूँ.
          .....मैंने अपने और दूसरों के जीवन का बहुत अध्ययन किया है, दो-चार किताबें भी पढ़ी हैं इसलिए मुझे अपनी असलियत समझना ज़्यादा कठिन नहीं लगा. मुझे आपको यह बताते हुए कोई हिचकिचाहट नहीं है कि मैं पर्याप्त क्षमतावान, योग्य और व्यवहारकुशल व्यक्ति हूँ लेकिन अपने दोषों के प्रति भी सजग हूँ जैसे- आज के व्यवारिक जगत के अनुकूल न होना, सहज ही दूसरों पर भरोसा कर लेना, अपने मन को मार लेना, अपनी तकलीफें सामान्यतया न कहना.
          मैं पचास वर्ष बाद आज जो कुछ हूँ वह मेरा स्वयं का निर्माण है जिससे मैं संतुष्ट हूँ. मुझे स्वयं से या किसी दूसरे से कुछ शिकायत भी नहीं है, परन्तु अब मुझे अपना शेष जीवन शांति से व्यतीत करना है, बच्चे बड़े हो गए हैं- उनको व्यवस्थित करना है ताकि उनके भविष्य पर मेरे अपने जीवन के हास्यास्पद पारिवारिक प्रयोगों की काली छाया न पड़े.
          मैं बिलासपुर छोड़ना चाहता हूँ. यह भावुकता से लिया गया निर्णय नहीं है, मैंने शुरू में ही लिखा कि इस पत्र का व्यवहारिक आधार भी है. यह न समझें कि मैं भगोड़ा हूँ क्योंकि मैंने इस वीभत्स पारिवारिक वातावरण को लंबे समय तक भोगा है, अब हार गया हूँ. हिम्मत जवाब दे गई. जिनके आस-पास मैं हूँ- उनको मेरी आँखें देखें- मेरा मन यह भी नहीं चाहता इसलिए दूर जाना चाहता हूँ. यदि कुछ समय यहां और रह गया तो संभव है कि आपको मुझे किसी मानसिक रोग के चिकित्सालय में ले जाने का कष्ट उठाना पड़े. आप सोच रहे होंगे कि ऐसी क्या बात है ? मुझसे कुछ न पूछें क्योंकि किसी की मैं क्या शिकायत करूँ, क्यों स्वयं को छोटा बनाऊँ ?
          .....मुझे समझ में आ गया की आशाएँ नदी की रेत में कुछ लिखने जैसा भ्रम है, सब छलावा है. मैं अपने सारे प्रयासों के बाद भी संयुक्त कुटुम्ब के प्रति अपने उत्तरदायित्व को नहीं निभा पाया.
          एक धन्यवाद आपको दे दूँ, छोटे-मोटे तो बहुत से हैं लेकिन एक बड़ा उपकार आपने मुझपर किया जो आपने मेरी पत्नी के रूप में माधुरी का चयन किया. अपनी यूनिट में हम लोग अत्यंत प्रसन्न और संतुष्ट हैं. इसका पूरा श्रेय आपको है.
          एक उपकार और करें, आप पहल करके मुझे इस शहर से विदा करने में मेरी सहायता करें. मित्रविहार का घर यदि बाजार में बेचूंगा तो परिवार की बदनामी होगी, बेहतर है इसे आप ले लें. देनदारी चुकाने के बाद जो कुछ बचेगा उससे मैं अपना भविष्य बना लूंगा, चला लूँगा. बस, मुझे मुक्ति दिलवा दीजिए. तीनों बच्चों में अच्छी सम्भावनाएँ हैं, आपके आशीर्वाद से वहाँ सब व्यवस्थित हो जाएगा, कहीं कोई तकलीफ़ महसूस हुई तो मैं आपका पुत्र जैसा हूँ- आपको याद कर लूंगा.
          प्लीज़, मुझे इस अन्धी गुफ़ा से मुक्त करवाइए.

आपका,
द्वारिका

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          कोई मनुष्य जब सफलता के आसमान में उड़ते रहता है तो उसे हर असफल व्यक्ति मूर्ख और कामचोर समझ में आता है॰ उसे लगता है- 'बताओ, सफलता कितनी आसान बात है, कोई भला असफल क्यों है ? यह ज़रूर कमअक्ल या आलसी है.' पंजाब की एक कहावत है- 'ज़िंदे घर दाणें, वे कमले बी स्याणें' अर्थात जिनके घर में दाणे यानी धन है वहाँ के कम अक्ल भी सयाने (समझदार) हैं॰ मैंने अनेक मूर्खों को सफलता के पायदान में चढ़ते देखा है॰ लोग उन्हें हुनरमंद और होशियार मानते हैं. आप गौर करिएगा, किसी भी सफल व्यक्ति में आत्ममुग्धता भरपूर रहती है, उसका आत्मविश्वास हर समय शिखर पर रहता है, आवाज़ में दम रहता है, उसके बीवी-बच्चों की लोग बड़ी इज्ज़त करते हैं वहीं पर असफल व्यक्ति आत्महीनता का शिकार रहता है, आवाज कमजोर रहती है, उसकी बीवी 'सबकी भौजाई' होती है, उसके बच्चों के साथ लोग घटिया हरकतें करते हैं. समर्थ लोग असमर्थों का बहुमुखी शोषण करना अपना स्वयंसिद्ध अधिकार समझते हैं. यह सुनी-सुनाई नहीं, आपको आपबीती बता रहा हूँ.
          जो धनवान है, बलवान है या पद-वान है, परिवार में उसी का दबदबा रहता है. उसकी पसंद या नापसंद का ध्यान रखा जाता है, 'किसी बात पर वे नाराज़ न हो जाएं, कहीं बुरा न मान जाएं'- ऐसी सतर्कता बरती जाती है. मुद्दा अधिक महत्व का हो या कम महत्व का- उसकी राय ली जाती है और निर्णय लेते समय उसकी राय को प्राथमिकता भी दी जाती है जबकि धनहीन, बलहीन और पदहीन व्यक्ति 'दो कौड़ी का आदमी' माना जाता है. कुछ पूछना दूर की बात है, उसे बताना भी ज़रूरी नहीं समझा जाता. यदि परिवार की किसी चर्चा में वह चुपचाप सुनते रहता है तो उससे कहा जाता है- 'यहाँ क्यों खड़े हो !'
          मैंने 'सफलता के सूत्र' विषय पर अनेक प्रशिक्षण कार्यक्रम किए हैं, उन सूत्रों को मैं जानता हूँ, सबको बताता-समझाता भी हूँ लेकिन अपने और अन्य परिचितों के जीवन का अध्ययन करने पर मैंने यह पाया कि किसी को भी चौतरफ़ा सफलता नहीं मिलती॰ मनुष्य जब किसी एक क्षेत्र में सफल होता है तो अन्य क्षेत्र उसकी पकड़ से फिसल जाते हैं॰ अड़चन यह है कि सबको सब कुछ चाहिए लेकिन ऐसा नहीं होता है॰ आप ध्यान दीजिए, पैसे और राजनीति के पीछे दौड़ने वाला व्यक्ति पारिवारिक सुख से वंचित हो जाता है, परिवार का ध्यान रखने वाला व्यक्ति सांसारिक विफलताओं का शिकार बन जाता है॰ जिसकी रुचि साहित्य और कला की ओर विकसित हो जाती है वह अपनी काल्पनिक दुनिया से भटककर यश और प्रसिद्धि की जंजीरों में कैद हो जाता है, वहीं पर जिसकी रुचि आध्यात्म या भक्तिभाव से जुड़ जाती है वह स्वयं की या भगवान की खोज में अपना जीवन समर्पित कर देता है॰ हाँ, कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो सभी क्षेत्रों में हाथ आजमाते हैं- वे कहीं के नहीं रह जाते॰ मैं इसी आखिरी 'डिजाइन' का इन्सान हूँ॰ यह भी कर लूँ, वह भी कर लूँ- के चक्कर में मुझे न खुदा मिला न विसाल-ए-यार॰
         'असुविधा' कम समय का कष्ट होता है; जब असुविधा लंबे समय तक चलती है तो उस स्थिति को बोल-चाल में कहते हैं- 'तकलीफ चल रही है'; उससे भी अधिक समय लगने पर वह स्थिति 'संकट' कहलाती है और जब संकट की गंभीरता बढ़ जाती है तो उसे 'विपत्ति' कहते हैं॰ विपत्ति भी जब व्यापक रूप धारण कर लेती है तो वह 'आपदा' हो जाती है॰ मेरी पारिवारिक इकाई में आपदा तब आती जब मैं अनुपस्थित हो जाता यानी मेरी स्वाभाविक मृत्यु हो जाती या मैं आत्महत्या करके चुपचाप निकल लेता लेकिन मृत्यु आई नहीं और आत्महत्या करने वालों में से मैं था नहीं ! उस समय मेरी उम्र 52 वर्ष की हो चुकी थी लेकिन हौसले जवान थे॰
          बिलासपुर में चल रहे टीवी और फर्नीचर के व्यापार से हो रही आय मेरे तालाब को चुल्लू भर पानी से भर देने जैसा उपक्रम था॰ उस विपत्ति से निकलने का उपाय यही था कि घर बेचकर कर्ज़ पटाया जाए और प्रशिक्षण के क्षेत्र में आगे बढ़ा जाए क्योंकि उस व्यवसाय में मुझे अच्छी संभावनाएं समझ में आ रही थी॰ प्रशिक्षण का व्यवसाय हमारे भविष्य को सँवार देता और महानगर में बच्चों को पढ़ाई के लिए बेहतर माहौल मिलता॰ इसके लिए ज़रूरी था कि राष्ट्रीय स्तर पर काम करने के लिए किसी प्रसिद्ध नगर में ठिकाना बनाया जाए ताकि 'कारपोरेट सेक्टर' में 'बड़े शहर' के नाम का प्रभाव डाला जा सके॰ इन बड़े शहर के अनेक नामी प्रशिक्षकों का काम मैं इधर-उधर देखते रहता था, उन्हें सिर्फ़ उनके शहर के नाम के कारण दाम मिलता था॰ उनमें से लखनऊ के सत्तर वर्षीय राजेंद्र प्रसाद ने अपनी प्रशिक्षण शैली से मुझे बहुत प्रभावित किया, उनका समझने का तरीका और विषयवस्तु सच में मोहक थी लेकिन उनके अतिरिक्त मैंने कई नामी शहर के प्रशिक्षकों के प्रस्तुतीकरण देखे-सुने, वे मुझे प्रशिक्षण का व्यापार करते समझ आए॰ 'पावर पाइंट' पर लिखे गए शब्दों को अंधेरे में पढ़ना और उसे दो-चार वाक्यों में बढ़ाकर बता देना- प्रशिक्षण देना नहीं, सामने वाले को मूर्ख समझना है॰ प्रशिक्षण का अभिप्राय मात्र जानकारी बढ़ाना नहीं वरन प्रशिक्षु को प्रभावित करना होता है ताकि उसमें अपेक्षित परिवर्तन आ सके॰
          मेरी इस बात को 'अपने मुंह मियाँ मिट्ठू' मत समझिएगा, मैं उन लोगों के काम से काफी आगे था॰ किसी नई जगह बसने के हिसाब से पुणे हर कोण से मुझे सर्वाधिक सही समझ आया इसलिए एक दिन हम दोनों सात-आठ सौ रुपए का जुगाड़ करके पुणे का चक्कर लगाने पहुँच गए॰
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         हम दोनों पुणे पहुँच गए। स्टेशन के सामने बनी धर्मशाला में रुक गए जो केवल इलाज़ करवाने आए मरीजों के लिए थी। किराया ६५/- प्रतिदिन था। यह अच्छा हुआ कि प्रबन्धक ने हमसे बीमारी का नाम नहीं पूछा और हम झूठ बोलने से बच गए। छः-सात घण्टे बाद हमारी बेटी संगीता भी इंदौर से बस द्वारा पुणे पहुँच गई। वहाँ हमारी पूर्व परिचित श्रीमति सुमन रवीन्द्रनाथ ने हमें पुणे के अनेक व्यापारिक और आवासीय स्थल दिखाए और भरपूर साथ दिया। मुझे वह शहर भा गया। खुला-खुला माहौल, मनमोहक मौसम, नियमित सांस्कृतिक- साहित्यिक गतिविधियां और पढ़ाई-लिखाई की उत्कृष्ट व्यवस्था देखकर दिल हो रहा था कि तुरन्त बोरिया-बिस्तर ले आऊँ और यहीं बस जाऊँ। माधुरी हिचक रही थी, नई जगह, मराठी भाषा न समझ पाने की परेशानी और 'इतने बड़े शहर में अपने पैर कैसे जमाओगे !'- का डर। मुझे कोई डर न था। यह संभव था कि प्रशिक्षण का व्यवसाय जमने में साल-दो-साल लगता, तब तक वहाँ किसी ठेले में पकौड़े-चाय बेच लेते और समय बिता लेते। पुणे में मुझे कौन जानता है कि यह ठेलेवाला द्वारिकाप्रसाद अग्रवाल 'सर्टिफाइड ट्रेनर जे॰सी॰आई॰' है जो देश के कारपोरेट सेक्टर में प्रबन्धकों को प्रबंधन सिखाता है या; यहाँ मेरे पिता सेठ रामप्रसाद को कौन जानता है जो इस बात का डर हो कि कोई क्या कहेगा, इतने बड़े आदमी का बेटा चाय-पकौड़े बेच रहा है ? मेरा अनुमान था कि 'पुणे' का नाम अपना असर दिखाएगा और प्रशिक्षण का काम जल्द ही जम जाएगा फिर ठेले से मुक्ति मिल जाएगी।
           मेरे भीतर से आवाज आ रही थी कि शहर बदलने में ही कल्याण है लेकिन माधुरी 'फिफ़्टी-फिफ़्टी' चल रही थी। संगीता ने कोई प्रतिक्रिया नहीं की, वह घूमती-फिरती चुपचाप सब देखती रही। तीन दिन के प्रवास के पश्चात हम लोग बिलासपुर के लिए आज़ाद-हिन्द एक्स्प्रेस से शाम को रवाना हो गए। रास्ते में एक स्टेशन आया, दौड़, जहाँ से लोगों की भीड़ का एक रेला चढ़ा। उन्होने हमें धक्का दिया, बेअदबी की और हमारी बर्थ में बलात घुस गए। उन्होंने हम सबको सिकुड़कर कोने में बैठने और रात भर जागने के लिए के लिए मजबूर कर दिया। ये लोग हमारे ही देशवासी थे, बिना टिकट थे, बाबासाहब अंबेडकर के अनुयायी थे जो नागपुर में आयोजित होनेवाले भगवान बुद्ध की स्मृति में होने वाले किसी कार्यक्रम में भाग लेने जा रहे थे। वे सब 'कोच' में इतनी बड़ी संख्या में आकर घुस गए कि 'बर्थ' के मायने बदल गए, नीचे पैर रखने की जगह न रही और अगले दिन १२ बजे दोपहर तक, जब तक नागपुर न आया, 'तालाबंदी' की दशा में बैठे-बैठे हम इस अराजक देश में जन्म लेने को मन-ही मन कोसते रहे। चाय और पानी तक न पी सके क्योंकि सुबह का नित्यकर्म ही न हो पाया था, चाय-पानी लेने से संकट और प्रगाढ़ हो जाता।
         नागपुर आया, हम सब 'टायलेट' भागे तब  जान-पे-जान आई। टायलेट से वापस आकर 'टावेल' से चेहरा पोछते हुए माधुरी ने अपना निर्णय सुनाया- 'नहीं आना हमें इधर, अपना बिलासपुर ही अच्छा है।' इस प्रकार डेरा बदलने का अर्धविकसित प्रयास निष्फल हो गया और हम लोग बिलासपुर में ही चिपके रह गए। हमारा घर भी नहीं बिक पाया क्योंकि बड़े भैया ने मेरे पत्र का कोई उत्तर ही नहीं दिया, मैंने उनसे कभी पूछा भी नहीं। श्रीकांत वर्मा की इस कविता को पढिए :

"मैं तो तक्षशिला जा रहा हूँ
तुम कहाँ जा रहे हो ?
नालन्दा। 
नहीं,
यह रास्ता नालन्दा नहीं जाता
कभी जाता था नालन्दा,
अब नहीं।

नालन्दा ने अपना रास्ता बदल दिया
अब इस रास्ते से नालन्दा नहीं
तक्षशिला पहुंचोगे तुम
चलना है तक्षशिला ?

नालन्दा जानेवाले मित्रों,
प्रायः
यही होता है,
बताए गए रास्ते
वहाँ नहीं जाते
जहाँ
हम पहुँचना चाहते हैं -
जैसे
नालन्दा। "
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