5 : रहने को घर नहीं है
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घर बनवाने के लिए जमीन तो थी लेकिन घर खड़ा करने के लिए मेरे पास धन की व्यवस्था न थी। धंधा कमजोर चल रहा था। घर का किराया, सामान्य घरेलू खर्च, तीन बच्चों की पढ़ाई, बैंक का ब्याज और रिश्तेदारी में आना-जाना इत्यादि मिलाकर किसी प्रकार गाड़ी घिसट रही थी। हम लोग किफायत से रहते थे इसलिए कोई अड़चन न थी लेकिन बचत भी न थी। यक्ष प्रश्न यह था कि धन के अभाव में घर कैसे बने? फिर भी, 'चलो घर बनवाते हैं' का खेल शुरू किया गया। आर्किटेक्ट से घर का एक नक्शा बनवाया गया जिसकी अनुमानित लागत पांच लाख 'प्लस' निकली। जेब में पांच हजार न थे तो मकान कैसे बनता इसलिए मैंने और माधुरी ने आपस में तय किया कि अपनी जमीन के एक कोने में 'स्टाफ क्वाटर' जैसा बनाकर रहेंगे, उसके बाद जब सुविधा होगी तो नक़्शे के हिसाब से घर बनवाएंगे।
'किसी दुर्घटना की कौन जिम्मेदारी लेता है सोनी जी, सब दूसरों पर डाल देते हैं। चलो, वैसे भी, अगर छत गिरी तो हम सब उसी में दबकर दफ़न हो जाएंगे, आपसे शिकायत करने वाला कोई न बचेगा।' मैंने कहा.
अगले दिन हस्ताक्षर किया हुआ पंजाब नेशनल बैंक का एक कोरा चेक उन्होंने मुझे दिया और निर्देश दिया- 'जितनी जरुरत हो, 'अमाउंट' भर लेना और मुझे फोन से बता देना ताकि उतनी व्यवस्था मेरे खाते में रहे। 'इस प्रकार वे अनायास संकटमोचक की तरह प्रगट हुए और मेरी समस्या का तात्कालिक समाधान हो गया। घर में पलस्तर और दाने वाली 'टाइल्स' का काम लग गया। 'ये भी बनवा लो', 'ये भी करवा लो' के चक्कर में तथाकथित 'स्टाफ क्वाटर' एक छोटे से खूबसूरत घर में बदल गया।
'नहीं मिला इसीलिए तो आप अँधेरे में बैठे हैं।'
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घर बनवाने के लिए जमीन तो थी लेकिन घर खड़ा करने के लिए मेरे पास धन की व्यवस्था न थी। धंधा कमजोर चल रहा था। घर का किराया, सामान्य घरेलू खर्च, तीन बच्चों की पढ़ाई, बैंक का ब्याज और रिश्तेदारी में आना-जाना इत्यादि मिलाकर किसी प्रकार गाड़ी घिसट रही थी। हम लोग किफायत से रहते थे इसलिए कोई अड़चन न थी लेकिन बचत भी न थी। यक्ष प्रश्न यह था कि धन के अभाव में घर कैसे बने? फिर भी, 'चलो घर बनवाते हैं' का खेल शुरू किया गया। आर्किटेक्ट से घर का एक नक्शा बनवाया गया जिसकी अनुमानित लागत पांच लाख 'प्लस' निकली। जेब में पांच हजार न थे तो मकान कैसे बनता इसलिए मैंने और माधुरी ने आपस में तय किया कि अपनी जमीन के एक कोने में 'स्टाफ क्वाटर' जैसा बनाकर रहेंगे, उसके बाद जब सुविधा होगी तो नक़्शे के हिसाब से घर बनवाएंगे।
घर की नींव खुद गई, अब उसे भरने के लिए सरिया और सीमेंट की ज़रुरत थी। मेरे एक सुहृद विनोद मिश्रा ने सलाह दी कि हमारे पूर्वज अपने घरों में पत्थर की नींव तैयार करवाते थे, दो-दो मंजिल के मकान बनते थे तो फिर अब ये सरिया-सीमेंट की अनिवार्यता क्यों ? उनका बताया नुस्खा मुझे जंचा, बचत भी समझ में आई, मैंने नींव में पत्थर भरवा कर मुरम से जोड़ाई करवा दी और भरपूर पानी डलवाया ताकि वह भलीभांति 'सेट' हो जाए। उस बीचबारिश का मौसम आ गया, काम तीन महीने रुका रहा, फिर शुरू हुआ। बाजार से निर्माण सामग्री उधार में आती रही और घर बनता रहा। जब घर की छत ढालने का काम सामने आया तो आर्किटेक्ट ने कहा- 'द्वारिका भाई, पांच इंच का 'स्लेब' ढलेगा।'
'भाई मेरे, पांच इंच में बहुत खर्च आएगा, कम करो यार।' मैंने कहा.
'उससे कम में नहीं हो सकता।'
उधर मकान का काम बढ़ रहा था, इधर बाजार की उधारी चढ़ते जा रही थी। नगर में प्रतिष्ठित 'पेंड्रावाला' की औलाद को उधार मिलने में कोई तकलीफ न थी लेकिन देर से ही सही, प्रतिष्ठा बचाने के लिए भुगतान तो करना ही था। इसी चिंता में एक दिन मैं अपनी दूकान 'मधु छाया केंद्र' में गंभीर मुद्रा में बैठा था तब ही दद्दाजी के एक मित्र श्री गोपाल भगत मेरे पास आए और पूछा- 'क्या बात है, क्या सोच रहे हो, द्वारका बाबू ?'
'चाचाजी, घर बनवाने का काम शुरू किया है, पैसे की अड़चन हो रही है। उसी में मेरा दिमाग उलझा हुआ है।'
'कितना चाहिए ?'
'एक लाख।'
'चिंता मत करो, कल इसी वक्त तुम्हारा काम हो जाएगा।' उन्होंने कहा.
घर का काम शुरू करने के पहले मैंने घर का नक्शा नगर पालिका के कार्यालय में जमा कर दिया, बिजली कनेक्शन लगाने का आवेदन विद्युत् मंडल में दे दिया था लेकिन न नक्शा पास हुआ और न बिजली का कनेक्शन मिला क्योंकि दोनों देवस्थानों में काम आगे बढ़ाने के लिए पांच-पांच सौ रूपए के रिजर्व बैंक के गवर्नर के हस्ताक्षरित एवं महात्मा गाँधी के छायाचित्र से युक्त पत्रपुष्प चढ़ाना आवश्यक था। मैं किसी अंधश्रद्धालु की तरह प्रत्येक माह दोनों कार्यालयों में अपना शीश झुकाता रहा, वे मुझे टरकाते रहे। न उन्होंने अपना मुंह खोला और न मैंने अपनी पर्स। दरअसल मैं यह नहीं समझ पा रहा था कि यदि आवेदन नियमानुसार थे तो रिश्वत किस बात की ?
गृहप्रवेश का कार्यक्रम दिन में था, छोटे भाई राजकुमार ने अभ्यागतों के लिए सामान्य भोजन के अतिरिक्त 'महाशिवरात्रि' पर्व को ध्यान में रखते हुए फलाहार की भी व्यवस्था करवाई। सब आए लेकिन हमारे एक मेहमान दिन में न आकर शाम के धुंधलके में सपत्नीक आए, विद्युत् मंडल के मुख्य अभियंता- बी.के.मेहता। वे जमीन पर बिछी दरी पर बैठे, चारों तरफ देखकर आधे-अधूरे घर का मुआयना किया, फिर उन्होंने मुझसे पूछा- 'घर में अन्धेरा क्यों कर रखा है ?'
'घर में अभी तक बिजली का कनेक्शन नहीं लगा है।' मैंने उन्हें बताया।
'क्यों, 'एप्लाई' नहीं किया ?'
'लगभग एक साल हो गया।'
'फिर ?'
'क्या कारण बताया गया ?'
'मैंने 'थ्री फेस कनेक्शन' माँगा है, वे कहते हैं कि कालोनी में 'सिंगल फेस' लाइन है, थ्री फेस लाइन जब होगी तब लगेगा।'
'तो आप चुपचाप प्रतीक्षा कर रहे हैं।'
'मैं और क्या करता ?'
'एक बात बताइये, मैं आपकी दूकान में आपसे मिलने महीने में तीन-चार बार ज़रूर आता हूँ, आपने मुझे कभी बताया नहीं।'
'मेहता जी, इतने छोटे से काम के लिए 'चीफ इजीनियर' को कहा जाए, मुझे उचित नहीं लगा।'
'आप हद करते हैं, अग्रवाल जी।' उन्होंने कहा, नास्ता-चाय लिया, नमस्कार किया और चले गए।
अगले दिन विद्युत मंडल का वाहन ढेर सारा साज-ओ-सामान लेकर मित्रविहार कालोनी में घुसा, दो दिन के अन्दर 'थ्री फेस' लाइन लग गई। उसके बाद हमारे घर में विद्युत् प्रवाह आरंभ हो गया। हम लोग अँधेरे से उजाले में आ गए !
ले-दे कर किसी प्रकार रहने लायक घर बन गया, हमें किराए के घरों से मुक्ति मिली लेकिन नगरपालिका ने हमारे घर का नक्शा 'पास' नहीं किया। भवन अनुज्ञा विभाग के इंजीनियर सुधीर गुप्ता मेरे 'जेसी' मित्र थे, वे मुझे कार्यालय का चक्कर लगाता देख शर्मिन्दा होते और कहते- 'बस, आप अगली बार आएँगे तो आपका नक्शा पास हुआ मिलेगा, आप यहाँ बार-बार आते हैं, मुझे ख़राब लगता है।' पर, मैं आपको बता ही चुका हूँ कि भवसागर से पार उतरने का 'टोल टेक्स' भरे बिना कोई कैसे पार हो सकता था ?
चौहान साहब सकपकाए, मुझसे बैठने के लिए कहा, मेरा नाम पूछा, सहायक को बुलाकर मेरी फ़ाइल मंगवाई और अपने खूबसूरत हस्ताक्षर कर दिए।
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