शुक्रवार, 18 अप्रैल 2014

3 : पल ये पल

         
                                                            पल ये पल :
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          मनुष्य को सदा भ्रम रहता है कि वह स्वयं अपने जीवन का संचालन कर रहा है लेकिन सच तो यह है कि घटनाएं, स्वयमेव अपने ढंग से होते रहती हैं- मनुष्य उनके आसपास 'जूडो-कराते' जैसी मुद्रा में खुद को बचाते की कोशिश करते रहता है। ज्यादातर उसकी पिटाई ही होती है क्योंकि कोई चाहे जितना शक्तिशाली हो, वह परिस्थितियों के मुक़ाबले कमजोर ही पड़ता है।
          एक घटना बताऊँ ? एक बार मैं अपने एक मित्र के साथ उनकी कार में बिलासपुर से रायपुर जा रहा था। मित्र की दो विशेषताएं थी, एक, वे शहर के धाकड़ और आक्रामक हस्ती माने जाते थे और दो, तेज गति से कार चलाना उनका स्वभाव था। उस समय 'वन-वे' सड़क थी, एक ट्रक ने उनकी कार को दस-बारह किलोमीटर तक 'साइड' नहीं दिया। आपको मेरे मित्र के क्रोध का अनुमान लग गया होगा। भन्नाते हुए किसी प्रकार उन्होंने ट्रक को 'ओवरटेक' कर लिया और कुछ आगे जाकर अपनी कार बीच सड़क में इस तरह खड़ी की कि उस ट्रक को रुकना पड़ा। मित्र का पारा चढ़ा हुआ था, वे ट्रक ड्राइवर के परिवार की महिला सदस्यों का स्मरण करते हुए बड़े तैश में कार से उतरे, हम भी उनके साथ उतरे। उधर ट्रक से भी तीन हट्टे-कट्टे सरदारजी उतरे और हमारी ओर आने लगे। उन तीनों को देखकर मित्र ने हमसे कहा- 'छोड़ो यार, ट्रक वालों के मुंह नहीं लगना चाहिए,... बहुत उजड्ड होते हैं' और तेजी से अपनी कार में वापस आकर 'फुल स्पीड' में रायपुर की ओर बढ़ गए।
         मनुष्य सोचता है कि उसके सामने चाहे जैसी भी स्थिति आएगी, वह निपट लेगा लेकिन जब परिस्थितियों से सामना होता है तो होश हवा हो जाता है। मैंने बहुत बुरे दिन देखे, बहुत बुरे। सच तो यह है बिलासपुर नगर के प्रतिष्ठित 'पेंड्रावाला' के द्वारिकाप्रसाद को वे दिन देखने पड़े इसीलिए तो इस आत्मकथा का जन्म हुआ !
         हम लोग नए घर में आ गए, छोटा सा घर लेकिन क्या करते ? अपनी दोनों अटैची कमरे के एक कोने में रखी और किचन के लिए बर्तन और अनाज आदि की व्यवस्था करने निकल पड़े। रात को लगभग नौ बजे घर आकर सामान रखा और हम सब रात्रि भोजन के लिए अपने 'पुराने' घर पहुँच गए। दद्दाजी हम सबका चेहरा देखते रह गए। दरअसल, घर से निकलते समय अम्मा ने माधुरी से कहा था- 'रात को खाना खाने यहीं आ जाना'। कैसा लगा आपको हमारा घर से निकलना और कुछ ही देर में पुनः जुड़ना ?
         सैंतीस वर्ष का सश्रम कारावास भुगत कर मैं जेल से बाहर आ गया था, मैं स्वतंत्र और तनावमुक्त 'फील' कर रहा था, माधुरी के दिल का हाल मैंने पता नहीं किया- इस कारण कुछ लिखना उचित नहीं लेकिन हमारे तीनों बच्चों और उनके दादी-दादी बहुत दुखी हो गए। हमारे पुत्र- कुंतल उस समय तीन वर्ष के थे, पुत्रियाँ- संज्ञा पांच वर्ष और संगीता आठ वर्ष की। तीनों स्कूल से लौटकर रोज अपने दादा-दादी के घर पहुँच जाते, उनसे बतियाते, मोहल्ले के साथियों के साथ खेलते और रात नौ बजे के पहले घर वापस आ जाते।   
         मेरे कई मित्रों को जब इस घटना का पता चला तो वे हाल-चाल जानने घर आए, वे विस्मित थे, मेरी मदद करना चाहते थे। घर में कुछ भी न था, यहाँ तक कि पलंग, बिस्तर, तकिया भी नहीं, हम सपरिवार जमीन पर दरी बिछाकर सोते थे। मेरे मित्र सुभाष दुबे ने पोर्टेबल कूलर भेज दिया, चन्द्रशेखर जालान तो हमारी व्यवस्था को देख कर नाराज़ हो गए और कहा- 'ये क्या ? तुरंत अपना बैग तैयार करो और मेरे घर चलो, जब तक तुम्हारी सही व्यवस्था नहीं होती तब तक हमारे साथ रहना।' उन्होंने जिद पकड़ ली, किसी प्रकार समझा-बुझा कर उनको विदा किया। 
         बड़े भैया को जब खबर लगी तो वे बिलासपुर आए, पहले दद्दाजी और अम्मा से बात की, उसके बाद हमें मनाने नए घर पहुंचे। उस समय मैं घर में नहीं था, उन्होंने माधुरी से कुछ देर बात की और सारी परिस्थितियों को समझने के बाद निर्णय दिया- 'ठीक है, यहीं रहो, उस घर में वापस जाने की ज़रूरत नहीं।' कुछ दिनों बाद, शायद उनकी पहल पर, हमारे कमरे का सामान जैसे, पलंग, बिस्तर, आलमारी आदि नए घर में पहुंचा दिया गया।
          ओफ़.... मैं तो आपको अपने गृह निष्कासन की घटना बताने लग गया लेकिन उसके पहले कुछ और महत्वपूर्ण घटनाएं भी हुई जिनका ज़िक्र छूट गया।
          मैंने प्रशिक्षण कार्यक्रम के अपने रुझान के बारे में आपको बताया था, वह सिलसिला आगे बढ़ा और मेरी प्रशिक्षण शैली की सुगंध आसपास बिखरने लगी। जेसीज़ अध्यायों में विभिन्न विषयों पर प्रशिक्षक के रूप में आमंत्रण आने लगे, मैं जाने लगा, प्रशंसा होने लगी, उत्साह बढ़ने लगा। प्रसिद्धि कुछ अधिक फैली और मुझे रायपुर, दुर्ग, भोपाल, इंदौर और ग्वालियर जैसे  महत्वपूर्ण अध्यायों में प्रशिक्षण देने के अवसर मिले। सन 1984 में भारतीय जूनियर चेंबर ने राज्य स्तर पर नए प्रशिक्षकों को विकसित करने की एक योजना बनाई जिसमें मध्यप्रदेश के समस्त अध्यायों से उन सदस्यों के आवेदन बुलाए गए जो प्रशिक्षक बनने की अभिलाषा रखते हों। उन्हें प्रशिक्षित करने के लिए इंदौर में दो दिवसीय 'राज्य प्रशिक्षक प्रशिक्षण सेमीनार' आयोजित किया गया जिसमें मुझे 'पायलट फेकल्टी' नियुक्त किया गया। आप समझ गए होंगे कि मेरी 'ट्रेनिंग एक्सप्रेस' ने कैसी 'स्पीड' पकड़ी ?
          आपको बता चुका हूँ कि मुझे तम्बाखू वाले पान खाने का बहुत शौक था, 'बाबा 160' से शुरू हुआ पान का स्वाद तब तक देशी पत्ती वाली तम्बाखू तक पहुँच चुका था। लगभग हर समय मेरे मुँह में पान भरा रहता था और मैं उसी स्थिति में बातचीत कर लेता था, आप हँसिएगा नहीं, प्रशिक्षण भी दे लेता था।
         इंदौर के सेमीनार में राज्य से चयनित कोई बीस प्रतिभागी रहे होंगे, हम तीन लोगों ने उन्हें प्रशिक्षण दिया। अंत में, उनसे 'फीडबेक' लिया गया, सम्पूर्ण कार्यक्रम और प्रशिक्षकों के बारे में उनके मूल्यांकन पर नज़र घुमाते समय मुझ पर किए गए एक 'कमेन्ट' को पढ़कर मैं चौंक गया- 'बहुत अच्छा प्रशिक्षण देते हैं लेकिन मुँह में आपका पान दबाकर प्रशिक्षण देना बहुत अजीब लगा, मेरी राय है कि आप पान खाना छोड़ दें या प्रशिक्षण देना।' 
         जिन्हें भी किसी नशे की लत है, वे जानते है कि इनकी गिरफ्त से निकलना कितना मुश्किल है ! मैं पान खाना छोड़ने की कोशिश, अनेक तरीक़ों से कर चुका और हार मान चुका था। मेरे मुँह में 'फ़ाइब्रोसिस' हो चुका था, मुँह कम खुलता था। डेंटिस्ट डा.पी.एन. गुलाटी ने मुझे समझाया- 'तुम धीरे-धीरे 'कैन्सर' की तरफ बढ़ रहे हो', मेरे मित्र डा.महेश कासलीवाल अक्सर कहते थे- 'देखना तू 'कैन्सर' से मरेगा' लेकिन मैं अनेक प्रयासों की बावज़ूद उस व्यसन से स्वयं को मुक्त नहीं कर पा रहा था। इंदौर से वापस आकर उस प्रशिक्षु के वे शब्द मेरे माथे पर जैसे चिपक गए- 'आप पान खाना छोड़ दें या प्रशिक्षण', ये चोट गहरी थी, निर्णय लेना ज़रूरी हो गया।
          मुझे समय ज़रूर लगा, एक दिन प्रशिक्षण जीत गया और पान, तम्बाखू, सुपारी हार गए। शैलेन्द्र अग्रवाल (इंदौर), धन्यवाद, आई लव यू। 
          एक और बुरी आदत मुझसे चिपकी हुई थी, 'रमी' खेलने की, संगत ऐसी थी कि मेरे पैर उस ओर बढ़ ही जाते थे। ये ज़रूर है कि हमारे दांव कमजोर रहते थे, हम लोग हार-जीत के लिए नहीं वरन मनोरंजन के लिए खेलते थे लेकिन बेशक़, आदत खराब थी। उससे व्यापार की एकाग्रता भंग होती थी और समय की बर्बादी भी होती थी लेकिन..लेकिन..और लेकिन। उसे याद कर अब शर्म महसूस होती है लेकिन जब शर्म आनी चाहिए थी तब नहीं आई, अब आई तो क्या आई ?

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          बिलासपुर के सदरबाजार में एक भूखंड हम तीनों भाइयों के नाम से कई वर्ष पूर्व खरीदा गया था जिस पर सन 1983 में 'लॉज' बनाने का निर्णय दद्दाजी ने लिया। उस समय तक दद्दाजी और बड़े भैया का शीतयुद्ध ठंडा पड़ चुका था, दोनों का मिलना-जुलना आरम्भ हो चुका था। बड़े भैया लॉज का नक्शा तैयार करने के लिए रायपुर से आर्किटेक्ट लेकर आए। योजना की चर्चा के दौरान मैं भी दर्शक दीर्घा में था, मैंने अपनी राय दी- 'कार पार्किंग' का प्रावधान होना चाहिए।' बिना पूछे राय देने का जो हाल हुआ करता है, वही हुआ, प्रस्ताव ध्वस्त। मैंने गौर किया कि कई बार बिना बोले रहा नहीं जाता और यदि बोल पड़ो तो अपमानित होना पड़ता है, खास तौर से 'बंधुवा मजदूर' को तो अपना पद हमेशा याद रखना ही चाहिए। खैर, ये सब होते रहता था, लॉज के निर्माण का कार्य आरम्भ होने के पूर्व सुबह पांच बजे भूमिपूजन हुआ, पूजन का सुअवसर मुझे नहीं मिला क्योंकि दद्दाजी ने कहा- 'मंझले से पूजा नहीं करवाई जाती'। मैंने यह तो सुना था कि मंझले लड़के अन्तिम संस्कार नहीं करते लेकिन मेरी जानकारी में एक और वृद्धि हुई कि उसे पूजन का अधिकार भी नहीं होता। हे प्रभो ! मंझलों के लिए भी कुछ उत्साहवर्धक नियम इस भारतवर्ष में भेजो।
           दद्दाजी का मैं 'दौडू' था, उनके काम, जैसे, लॉज निर्माण से जुड़े कार्य करना, उनके खाता-बही लिखना, रिश्तेदारी में दुःख-सुख में बाहर जाना, पत्र व्यवहार करना, बैंक, खाद्य विभाग, बिजली विभाग और आयकर विभाग आदि का काम करना। आयकर विभाग की बात निकली तो उससे जुड़ा एक किस्सा बताऊँ ?
          दद्दाजी अपने हिसाब-किताब और लेन-देन में बहुत मुस्तैद थे। रोज का काम रोज करना, समय पर अग्रिम आयकर जमा करना और अनुशासित जीवन जीना- उनकी स्थायी आदत थी। गलत काम करना नहीं, गलत बात करना नहीं, गलत बात सहना नहीं। हर वर्ष आयकर का 'रिटर्न' भरने के बाद 'रिफंड' की स्थिति बन जाती और आप तो जानते हैं कि भारतवर्ष में बिना रिश्वत के 'रिफंड ऑर्डर' करदाता को मिलते नहीं और दद्दाजी किसी को घूस दें, ये संभव न था। तीन साल के 'रिफंड ऑर्डर' ऑफिस में अटक गए थे, एक दिन दद्दाजी आयकर कार्यालय पहुँचे और 'डीलिंग क्लर्क' से बात की तो उसने टरका दिया, दद्दाजी भड़क गए और पूछा- 'कहाँ है तुम्हारा साहब ?' 
वे आयकर अधिकारी नरसिम्हन के कमरे में धड़धड़ाते घुस गए और उनकी अच्छी खबर ली। विभाग में तहलका मच गया। किसी व्यापारी की ऐसी हिम्मत ? साहब ने पता किया तो उनको मालूम हुआ कि वह 'पेंड्रावाला' है, नाम रामप्रसाद अग्रवाल।
          आयकर अधिकारी नरसिम्हन साहब मेरी दूकान के नियमित ग्राहक थे, उसी शाम वे आए और मुझसे पूछा- 'ये राम परसाद कौन है ?'
'मेरे पिता जी, आप उनको जानते हैं क्या ? मैंने उनसे पूछा।
'मइ आज इ उसको जाना।'
'आप उनसे मिले क्या, सर ?'
'आज हमारा ऑफिस आया था, भोत हल्ला किया।' 
'सॉरी सर, उनका आवाज़ ज़रा तेज है।'
'जरा तेज है ? भोत तेज है।'
'सॉरी सर, आप उनकी बात को ध्यान मत दीजिए।'
'ठीक है, अब से ऑफिस का कोई काम होगा तो तुमको आना, उसको भेजने का नइ, समज गया।'
'जी, समझ गया, सर।' मैंने हाथ जोड़कर उनको विदा किया।

          ब्रजेश कृष्ण की यह कविता दद्दाजी के स्वभाव पर लिखी गई लगती है :

''जब हर कहीं देखी जा रही हो
विरुदावली गायकों की जमात
या ठकुर-सुहाती के प्रवीणों का काफ़िला
तब बीते हुए काल के
मुंहफट आदमी को याद करना
हिमाक़त नहीं तो और क्या है ?

बड़े लोगों और उनके दरबार की बात छोड़ो
गौर करो अपने आसपास
दोस्तों की सहज और मामूली बातों पर
तुम पाओगे कि
साफ़गोई से बोलना
और कहना अपनी बात बिना डरे
पुरानी अठन्नी और चवन्नी की तरह
चलन से बाहर हो चुका है।

इस चौकन्ने समय में
सावधानी से बोलते हुए हम
पहले भांपते हैं सामनेवाले का चेहरा
और फिर बुरा न बनने की क़वायद में कुछ कहते हुए
छिपाते हैं ख़ुद को अपनी ही ओट में।

कठिन और शातिर लड़ाई में
पराजित योद्धा की तरह
समय से बाहर कर दिए गए
मुंहफट लोग अब इतने कम बचे हैं
कि उन्हें एक दुर्लभ प्रजाति की तरह
बचाने की ज़रुरत है।" 

          मेरे गृह निष्कासन के बाद जब मेरी सक्रियता कम हो गई तब दद्दाजी अपनी ही शक्ति से सारा कार्य संपादित करने लगे। उस समय वे लगभग सत्तर वर्ष के थे किन्तु उनकी मानसिक और शारीरिक सक्रियता प्रशंसनीय थी। वे गजब के जीवट इन्सान थे। एक दिन उन्होंने मुझसे कहा था- 'देखो, हम टूट जाएंगे लेकिन झुकने वालों में से नहीं हैं।'

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           28 जुलाई 1984 को संयुक्त राज्य अमेरिका के लास एंजिलिस में ओलिम्पिक खेल आरंभ हुए और उसी दिन से बिलासपुर में दूरदर्शन का 'रिले सेंटर' भी। बहुत दिनों से मैं 'हलवाई' की प्रतिष्ठा से मुक्ति लिए छटपटा रहा था। उन्हीं दिनों मेरा ध्यान टेलीविजन विक्रय की संभावना पर गया और मैंने उसी दूकान में बाजार से चार 'ब्लेक-एंड-व्हाईट' टीवी मंगवा कर रख लिए, दूकान चालू हो गई। इस प्रकार मैं एक नए व्यापार में प्रविष्ट हो गया, 'पेंड्रावाला' के एक तिहाई हिस्से में एक नया 'शोरूम' बन गया 'मधु छाया केंद्र'। शमशाद बेग़म का एक गीत आपको याद होगा- 'बड़ी मुश्किल से दिल की बेक़रारी को क़रार आया।' 
          एक शाम मेरे मित्र चन्द्रशेखर जालान दूकान आए और मुझसे पूछा- 'क्या हाल है ?'
'ठीक है।' मैंने बताया।
'क्या ठीक है ?'
'क्या मतलब ?'
'रिले सेंटर शुरू हो गया है, ये चार टीवी सजाकर क्या धंधा करेगा ?'
'यार, अपने पास पूँजी है नहीं, तकलीफ़ चल रही है, बस ऐसे ही चलेगा।'
           कुछ देर वे यूँ ही हंसी-मज़ाक़ करते रहे, फिर चले गए। अगले दिन दोपहर को लगभग एक बजे वे अपनी पत्नी सरिता के साथ कार में आए। मैं अपनी दूकान में बैठा था। मुझसे बोले- 'चल, मेरे साथ चल।'
'कहाँ जाना है ?' मैंने पूछा।
'सवाल बहुत करता है तू, तेरे से एक काम है।'
'मेरा कोई 'रिलीवर' नहीं है, कैसे जाऊं ?' 
'किसी 'स्टाफ' को बिठा दे, कौवे।'  'कौवे' शब्द का वही अर्थ था जो आप जानते हैं- काले रंग का चालाक पक्षी।              उन्होंने जिद पकड़ ली, मुझे वैसा ही करना पड़ा। मैं भी उनके साथ कार में बैठ गया। कार 'सिंडिकेट बैंक' में रुकी, हम तीनों अन्दर गए। शाखा प्रबंधक, जालान को आते देख खड़े हो गए, हम सबको आदरपूर्वक बैठाया और पूछा- 'जालान साहब, आपने कैसे तकलीफ़ की ?' चन्द्रशेखर जालान बिलासपुर के उद्योग 'एम.पी.अलॉय' के जनरल मैनेजर थे, उसी बैंक से उनका कारोबार था, पूरे शहर में उनकी बहुत प्रतिष्ठा थी।
'ये साढ़े पाँच लाख की एफ.डी.और एन.एस.सी. हैं, इसे अपने पास रख लीजिए, ये मेरे मित्र हैं इन्हें 'ओवर ड्राफ्ट एडवांस' कर दीजिए।' जालान ने मेरी और संकेत करते हुए कहा।
'आपको कितना चाहिए ?' प्रबंधक ने मुझसे पूछा।
'एक लाख में हो जाएगा।'
'बस, एक लाख, क्या करेंगे ?'
'टीवी और उससे सम्बन्धित सामान लेना है।'
'ठीक है, आप 'पार्टी' का नाम बताइये, मैं आपको एक लाख का 'ड्राफ्ट' बनवाकर देता हूँ।'
'आपकी 'फार्मेलिटी' ?'
'वह सब बाद में हो जाएगा, पहले आप खरीदी कर लीजिए। जालान जी, ये 'पेपर्स' आप रख लीजिए, इसकी ज़रुरत नहीं है, आपने कह दिया, उतना ही काफी है।' शाखा प्रबंधक राजा  नरसैय्या ने कहा।
           कहते हैं, 'जिसका कोई न हो, उसका खुदा होता है', आप बताइये, चंद्रशेखर जालान जैसा मित्र क्या ख़ुदा से कम होता है ?

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          मुझे ऐसा लगता है कि जीवन में कुछ भी निश्चित नहीं है, चाहे जितना अपना माथा फ़ोड़ो, कोशिशें करो, जैसा होना है, वैसे हालात बन जाएंगे। इसका मतलब आप यह न निकालें कि ऊपर आसमान में बैठा कोई इसे संचालित कर रहा है बल्कि ऐसा समझें कि धनुष में बाण चढ़ा कर संधान करते रहें, कभी न कभी वह लक्ष्य पर सटीक जा लगेगा। सफ़लता अपनी कीमत वसूल करती है, जो उस कीमत को चुकाने के लिये तैयार है उसे निराश होने की ज़रूरत नहीं। 
          सन 1984 में भारतीय जूनियर चेम्बर ने वृंदावन में ’राष्ट्रीय प्रशिक्षक प्रशिक्षण सेमिनार’ आयोजित किया जिसमें भाग लेने के लिये मैंने अपना पंजीयन करवाया और वहां पहुंच गया। दुर्भाग्य से ट्रेन पांच घंटे विलंब पहुची और मैं सेमिनार स्थल में दो घंटे देर से पहुंचा। ’पायलट फ़ेकल्टी’ सुब्रतो घोषाल ने प्रवेश देने से मना कर दिया। मैंने बहुतेरा समझाया कि गलती मेरी नहीं, ट्रेन की है लेकिन वे टस से मस न हुए। उनका तर्क था कि कार्यक्रम स्थल पर समय पर आने की अनिवार्यता को ध्यान में रखते हुए एक दिन पहले आना था। मैं समझ गया कि वे नियम से बंधे थे और मैं अपने प्रारब्ध से। एकबारगी मैं निराश हो गया लेकिन मैंने उनसे निवेदन किया- 'बहुत दूर से बीस घंटे की यात्रा करके आया हूं, तीन दिन बाद का वापसी ’रिजर्वेशन’ है, मेरे संकट को समझिये, सर।' उनके चेहरे पर दया का भाव उभरा और विलीन भी हो गया। याद है आपको फ़िल्म 'मुग़ल-ए-आज़म’ का संवाद- 'खुदा गवाह है, हम मोहब्बत के दुश्मन नहीं, उसूलों के गुलाम हैं’– मेरी प्रार्थना अस्वीकृत हो गई। मैंने फ़िर से कहा- 'आप मुझे भले ही भाग न लेने दें लेकिन दर्शक दीर्घा में प्रवेश दे दें।’ तीनों प्रशिक्षकों ने आपस में चर्चा करके अनुमति दे दी। 

          किसी अभिनेता को नाटक के मंच पर उतरने के पहले ’रिहर्सल’ करने का जो लाभ मिला करता है वह मुझे उन तीन दिनों की दर्शक दीर्घा में बैठने से मिल गया। प्रशिक्षण की बारीकियां, समझने-समझाने का तरीका, प्रस्तुतीकरण और उसमें होने वाली गलतियां- ये सब मेरे भविष्य के लिए बड़े उपयोगी सूत्र थे। अगले वर्ष पुनः अवसर मिला, भोपाल में, मैं वहां पहुंच गया लेकिन आप तो जानते ही हैं कि मेरे हर काम में विघ्नहर्ता निद्रालीन रहते हैं और राहु-केतु सक्रिय रहते हैं। यहां भी नई झंझट। पायलट फ़ेकल्टी सरदार रुपिन्दर सिंह सूरी ने मेरे प्रपत्र की जांच की और मेरा प्रवेश बाधित कर दिया। उनकी आपत्ति थी कि नियमानुसार राष्ट्रीय प्रशिक्षक बनने के लिए प्रतिभागी का राज्य प्रशिक्षक होना अनिवार्य था जबकि मैं राज्य प्रशिक्षक नहीं था। उन्होने मुझसे कहा- 'नो, मिस्टर अग्रवाल, यू आर नाट एलिजिबल।’
'सर, आप तो मुझे बहुत परेशानी में डाल रहे हैं।’ मैंने हिंदी में कहा।
'परेशानी ? क्या आपने नियम नहीं पढ़े?’
'सर, पिछ्ले दो वर्षों से मैं 'राज्य प्रशिक्षक प्रशिक्षण सेमिनार' का पायलट फ़ेकल्टी रहा हूं, क्या अब मुझे प्रशिक्षु बनना पड़ेगा?’
'अरे, ऐसा क्या?’ वे चौंके। उनके सहयोगी प्रशिक्षक डा. मो.अबसार फ़ारुकी ने मेरे कथन की पुष्टि की तब उन्होंने कहा- 'ओ.के. मिस्टर अग्रवाल, यू आर इन।’
          उसके बाद शुरू हुआ, हम प्रशिक्षुओं पर अंग्रेजी भाषा में भाषण का भीषण आक्रमण। प्रशिक्षण के उद्देश्य, वयस्कों में सीखने की बाधाएं, प्रशिक्षण की तैयारी और उसका प्रस्तुतीकरण, इसके अलावा और न जाने क्या-क्या ! सच कह रहा हूं, मेरा भेजा पक गया। ऐसा लगे, कहां मैं इन अंग्रेज की औलादों के बीच फ़ंस गया ?  प्रशिक्षण के दौरान हमारी कड़ी परीक्षा ली गई,  जैसे कोई फ़ौजी कार्यक्रम हो। सुबह साढ़े सात से रात साढ़े नौ बजे तक 'मैराथन लेक्चर’- जैसे गद्दा बनाने वाला कपड़े की खोल में ठूंस कर रुई भरता है फ़िर उसे सिलने के बाद गद्दे की डंडे से पिटाई करता है, बाप रे बाप ! अत्याचार की हद तब पार हो गई जब दूसरे दिवस की रात आठ बजे उन्होंने हम छ्ब्बीस प्रतिभागियों को एक-एक चिट उठवाकर अलग-अलग विषय देकर आदेश दिया- 'रात को अपना 'कोर्स डिजाइन’ करो और अगली सुबह 'प्रेजेन्टेशन’ दो।'

          दो दिनों तक बारह-बारह घन्टे चले 'इनपुट सेशन’ ने थका डाला था, दिमाग सुन्न पड़ गया था, आंखें नींद से बोझल थी, ऊपर से ’प्रेजेन्टेशन’ की रातों-रात तैयारी !  हड़बड़ी में 'डिनर’ लिया और काम में भिड़ गए । मेरी चिट निकली थी- 'बी योरसेल्फ़’ अर्थात ’अपने जैसा बनो’। रात में ग्यारह बजे के आस-पास मेरी तैयारी पूरी हो गई तब मैं अपने कमरे से बाहर निकला । आसपास के सभी कमरे खुले थे, सब अपने काम में लगे थे । सबको अलग-अलग विषय मिले थे पर अधिकांश लोग जानकारी और आवश्यक प्रशिक्षण सामग्री के अभाव में अपना प्रेजेन्टेशन 'डिजाइन’ नहीं कर पा रहे थे । मेरे पास भरपूर सामग्री थी और किन्चित अनुभव भी, मैं उनके साथ देर रात तक लगा रहा । लगभग सवा दो बजे वे तीनों अत्याचारी प्रशिक्षक 'सरप्राइज़ चेक’ में निकले और उस कमरे में पहुंच गए जहां मैं भी उनके साथ लगा था । सरदारजी भड़क गए- 'ये आपका कमरा तो नहीं है, आप यहां क्या कर रहे हैं ?' 
'सर....वो..।’
'क्या वो।’
'ज़रा घूमने आ गया था।’
'इतनी रात घूमने?  हम सब सुन चुके हैं।’
'सारी सर?’
'इतना काम्पिटीशन है, तुम्हें डर नहीं लगता?’
'जो होगा सो होगा पर मुझे इनकी सहायता करना ज़रूरी लगा ।’
'इसका मतलब है कि इस कारस्तानी का फ़ायदा आप और लोगों को भी दे चुके हैं।’
'जी, सारी सर।’
'जाइए अपने कमरे में।’ पायलट फ़ेकल्टी ने मुझे घुड़काया, मैं वहां से भागा और कमरे में जाकर सो गया।
         अगले दिन प्रेजेंटेशन हुए। प्रत्येक प्रेजेंटेशन के बाद तीनों प्रशिक्षक बारी-बारी से प्रस्तुति का मूल्यांकन करते थे। जब मेरी बारी आई तो मूल्यांकन पायलट फ़ेकल्टी रुपिन्दर सिंह सूरी को करना था। मुझे बीती रात की याद आई, सरदार जी का चेहरा तना हुआ सा दिखा। वे मुझे सिंह की तरह देख रहे थे और मैं हिरण के शावक की तरह सरपट भागने की मन:स्थिति में था। दिल धक-धक करने लगा किन्तु जैसे ही मेरी प्रस्तुति आरम्भ हुई, मुझमें ऐसी ऊर्जा का संचार हुआ कि मेरे सामने सब बौने थे और मैं केवल प्रशिक्षक था जिसे अपना प्रभावी प्रस्तुतीकरण करना था।
           समय पर मैंने प्रस्तुति समाप्त की और शान्त भाव से अपनी जगह पर जाकर बैठ गया। पायलट फ़ेकल्टी ने मेरा मूल्यांकन शुरू किया- 'लेट मी इन्ट्रोड्यूस , द अमिताभ बच्चन आफ़ इंडियन जूनियर चेम्बर, मिस्टर द्वारिका प्रसाद अग्रवाल।’
          मेरी सांस रुक सी गई, गला रुंध गया। छ्ब्बीस में से छः राष्ट्रीय प्रशिक्षक चुने गए उनमें मेरा नाम था या नहीं ? आप 'गेस’ कीजिए।

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          भारत में टेलीविजन का आगमन भारतवासियों के लिए एक चमत्कारिक घटना थी। संपूर्ण देश की धड़कन जैसे उसमें प्रसारित होनेवाले कार्यक्रमों से जुड़ गई थी। आधे घंटे के फ़िल्मी गीतों के कार्यक्रम 'चित्रहार’ और 'रंगोली’; धारावाहिक 'हम लोग’, 'बुनियाद’, 'ये जो है ज़िदगी’; रविवार की शाम को हिंदी फ़ीचर फ़िल्म; हिन्दी तथा अंग्रेजी में समाचार आदि के आकर्षण ने हर भारतवासी को अपने समीप बुलाकर बैठा लिया। । घर-घर सिनेमा आ गया, नाटक आ गया, गीत-संगीत आ गया, देश-विदेश की आंखों-देखी घटनाओं के समाचार, 'लाइव क्रिकेट मैच’ आदि बहुत कुछ आ गया और सबसे बड़ी बात- बहुत बड़ी आबादी के हाथ में 'जेन्युइन टाइम पास’ आ गया जो कालांतर में 'टाइम किलर’ बन गया। आज यह बात समझ में शायद ही आए कि वह कैसा पागलपन था लेकिन जिन्होंने उस युग को देखा है, उनसे पता कीजिए कि पूरा देश किस कदर टीवी-मय था, सब ओर एक ही चर्चा- टीवी का यह कार्यक्रम, वह कार्यक्रम; सीरियल का यह पात्र, वह पात्र। तब ही 'आंखें’ और 'आरजू’ जैसी सफ़ल फ़िल्मों के निर्माता रामानंद सागर ने भारतवर्ष के अत्यन्त लोकप्रिय ग्रन्थ पर एक 'सीरियल’ बनाया- 'रामायण’ जिसके प्रदर्शन ने प्रत्येक रविवार की सुबह 9 से 10 बजे तक का समय देश की बहुत बड़ी आबादी का अपने लिए आरक्षित कर लिया। उस एक घन्टे के लिए जैसे पूरे देश का रक्तप्रवाह थम सा जाता, समस्त गतिविधियां और आवागमन स्थगित हो जाते, टीवी के सामने असंख्य दर्शक तल्लीन होकर उस प्रदर्शन में खो जाते। 'तल्लीन' शब्द का असली अर्थ मैंने उस दर्शक समूह को देखकर जाना।
          बहुत कम लोगों के घर में टेलीविजन हुआ करते थे इसलिए उनके घर 'मिनी थियेटर’ जैसे हो गए थे। मोहल्ले-पड़ोस के स्त्री-पुरुष, बड़े-बूढ़े और बच्चे नियत समय पर पहुंच जाते, सबके बैठने की व्यवस्था बनाई जाती, कई बार भीड़ इतनी बढ़ जाती कि टीवी मालिक के परिवारजन खड़े-खड़े कार्यक्रम देखते क्योंकि उनके बैठने की जगह ही न बचती ! शुरुआती दिनों में तो शिष्टाचार चला फ़िर टालना शुरू हुआ और फ़िर भगाना। जिसे भगाया गया वह अपमानित हुआ और किसी प्रकार टीवी खरीदने की जुगत बिठाने लगा। उन दिनों ब्लेक-व्हाइट टीवी ही उपलब्ध थे जो तीन से चार हजार के बीच आ जाते थे लेकिन निम्न मध्यम वर्ग के लिए उतने पैसे की व्यवस्था आसान बात नहीं थी इसलिए बच्चों की ज़िद के आगे मां-बाप येन-केन-प्रकारेण घर में टीवी लाने के प्रयास करते जिनमें घरखर्च में कटौती, रिश्तेदारों से उधार और जेवर बेचने जैसे उपाय शामिल थे। गरीब तो उस समय टीवी से कोसों दूर था। फ़िर, 14'' के 'पोर्टेबल’ टीवी बाज़ार में आए, वे दो हजार के अन्दर आ जाते थे तब अनेक परिवारों का शौक सध गया। 
          व्यापार में सफ़लता के लिए ग्राहक की जरूरत समझना अत्यावश्यक है। ग्राहक को आज क्या चाहिए, उस वस्तु की आपूर्ति कैसी है? कल किस वस्तु की मांग आने वाली है, क्या संभावनाएं हैं? किसी नई वस्तु को ग्राहक की मांग के रूप में कैसे विकसित किया जाए? इन बातों को सफ़ल व्यापारी समय से पूर्व ताड़ कर उस पर काम करना शुरू कर देते हैं। उन दिनों टीवी की मांग का अनुमान लगाकर देश में बड़े पैमाने पर उत्पादन शुरू हुआ, सबसे अधिक ख्याति भारत सरकार के उपक्रम 'ई.सी.’ टीवी की थी जैसे, किसी जमाने में 'एच.एम.टी.’ घड़ियों की हुआ करती थी। उसी प्रकार उड़ीसा सरकार का 'कोणार्क’, उत्तरप्रदेश का 'अप्ट्रान’, केरल का 'केल्ट्रान’ आदि की उनके अपने प्रदेशों के अतिरिक्त अन्य राज्यों में भी अच्छी मांग थी। कुछ गैरसरकारी निर्माता भी बाज़ार में अपनी उपस्थिति दर्ज़ कर रहे थे जैसे- 'वेस्टन’, 'टेलीविस्टा’, 'डायनोरा’ आदि। किसी टीवी कंपनी की ’डीलरशिप’ लेना हे्मामालिनी से विवाह करने की इच्छा जैसा कठिन काम था। मैं 'अप्ट्रान’ की डीलरशिप लेने लखनऊ गया, मेरे एक स्कूली सहपाठी वहां इंजीनियर थे लेकिन वे मुझे प्रयास कर भी नहीं दिला पाए। वहां से दिल्ली गया, जहां मैंने 'वेस्टन’ और 'टेलीविस्टा’ के लिए कोशिश की लेकिन आप ऐसा समझिए कि उन्होंने मुझे भगाया भर नहीं। 
          नई 'टेक्नालाजी’ थी, टेलीविजन बहुत बिगड़ा करते थे, कुछ-न-कुछ गड़्बड़ होते रहता था। कम्पनियां न तो इन्जीनियर मुहैया कराती, न ही उनके सर्विस सेन्टर थे। टीवी सुधारने वाले शहर में मुश्किल से दो-चार होते थे, उनका दिमाग आसमान में रहता था और वे खूबसूरत युवतियों की तरह भाव खाते थे।  मुश्किलें बहुत थी पर मैने भरपूर टीवी बेचे, सबसे ज्यादा 'कोणार्क’।
         टेलीविजन का मेरा काम चल निकला यद्यपि जितने तेजी से ग्राहक बढ़े, उतनी ही तेजी से टीवी की दूकानें भी बढ़ी। प्रतिस्पर्धा तगड़ी थी इसलिए मज़ा भी आता था। मेरे लिए दोनों दूकानों का काम सम्हालना कठिन हो रहा था इसलिए 'पेन्ड्रावाला’ मैंने छोटे भाई को सौंप दी और मैं पूर्णकालिक रूप से 'मधु छाया केन्द्र’ में बैठने लगा। इस बीच, नए घर में हम लोग धीरे-धीरे व्यवस्थित होने लगे तब ही एक दिन माधुरी ने मुझसे कहा- 'ये घर बदलो।’
'क्या हुआ?’ मैने पूछा।
'कम्मू (हमारा पुत्र कुन्तल) आज बाहर से मां की गाली सीखकर आया, ये मोहल्ला मुझे ठीक नहीं लगता।’
'ठीक है, कहीं और देखता हूं।’ मैंने आश्वस्त किया। उसी सप्ताह हम लोग नेहरूनगर स्थित एक मित्र के घर में 'शिफ़्ट’ हो गए। जिस पुराने घर को हमने छोड़ा था वह मेरे मित्र भागवत दुबे का था, उन्होने मुझसे घर का किराया नहीं लिया। वही मुसीबत नए घर में भी पीछे लग गई, मकान मालिक एम.जी.तापस से किराया पूछा तो वे बोले- 'नहीं यार, मेरा ट्रान्सफ़र हो गया है, तुम मेरे घर की देखरेख करो, वही किराया है।’ अब आप बताओ कि किसी के घर में कितने दिन 'फ़्री’ में रहा जा सकता है? 
          अब आप इसे पढ़्कर मकानमालिकों के बारे में उम्दा राय न बना लें, भले लोग कम ही मिलते हैं। अपना घर छोड़ने के बाद मैंने चार मकान बदले तब यह समझ में आया कि मकानमालिक और उसकी घरवाली को सहना बहुत कठिन काम होता है। यदि वे अगल-बगल या ऊपर-नीचे रहते हैं तो उनकी सतर्क निगाहें आपके आने-जाने के समय पर, आपके घर आने-जाने वाले आगन्तुकों के सबब पर; उनके कान आपके घर से प्रसारित होने वाली प्रत्येक ध्वनि जैसे- हंसी, रुदन और बातचीत का पूरा ब्यौरा 'रेकार्ड’ करते रहते हैं। उनका लाडला पुत्र यदि आपके बच्चे की पिटाई कर दे तब भी आप मौन धारण करें या 'तुरन्त मकान खाली कर दें’- जैसी कठिन परिस्थिति भी सामने आ सकती है। एक बात और, क्या अच्छा हो कि आपको किरायेदार बनने की नौबत न आए लेकिन आ जाए तो ध्यान रखना कि किराए के घर की दीवार पर कभी कील न ठोकें, वह मकानमालिक के सीने में भाले जैसी चुभती है।
      
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