शुक्रवार, 18 अप्रैल 2014

4 : नया दौर

                                                                  नया दौर :
                                                                 ======

          मेरा शहर बिलासपुर, छत्तीसगढ़ के मध्य में स्थित है जहाँ केवल तीन मौसम होते हैं : बारिश, गर्मी और बहुत गर्मी। बारह में से दस माह की गर्मी का प्रचण्ड रूप देखना हो तो मेरे शहर में आपका स्वागत है लेकिन ठण्ड , यूँ ही इठलाती-बलखाती आती और चली जाती है। स्वेटर से ही काम निकल जाता है, सूट और टाई पहनने के काम कम आते हैं, दिखाने के काम अधिक आते हैं। सूट-टाई की बात निकली तो मुझे बिलासपुर के एक कॉलेज के हिंदी विभाग के एक प्रोफ़ेसर की याद आ रही है जिन्हें किसी शहरवासी ने बगैर सूट-टाई के नहीं देखा। यह भी चर्चा थी कि वे सूट पहनकर ही सोया करते थे। खैर, अपुष्ट सूचना पर अधिक जोर देना ठीक नहीं लेकिन यह सच है कि बिलासपुर के मौसम में सूट-टाई धारण करना दुस्साहसिक 'लुकबाजी' हुआ करती थी पर अब तो ज़माना अम्भ से बदल गया है, जिसे देखो अब सूट धारण किए हुए दिखता है। पिछले बीस-पच्चीस वर्षों में अंग्रेजियत इस कदर पुष्पित-पल्लवित हुई कि उसका प्रभाव बोलचाल की भाषा और परिधान पर बहुत तेजी से फैला। अफसर से लेकर सेल्समेन तक और हॉटल मैनेजर से लेकर बेयरा तक, सब सूट धारण किए हुए हैं इसीलिए आज-कल के दूल्हे शर्म के मारे शेरवानी पहनने लगे हैं।
          सन १९७५ में जब मेरी शादी हुई थी तब एक सूट ससुराल के सौजन्य से और दूसरा अपने पैसे से बनवाया था। शादी के वक़्त मैं दुबला-पतला-छरहरा था लेकिन शरीर फ़ैल जाने के कारण मेरे वैवाहिक सूट 'मिसफिट' हो गए थे, हाँ, दूसरे विवाह का योग बनता तो नया सूट सिलवा लेता लेकिन ऐसा सुअवसर् सबको नहीं मिलता इसलिए उसके बाद फिर कभी नया सूट बनवाने की जरूरत नहीं पड़ी।
          इंडियन जूनियर चेम्बर ने सन १९८८ में नागपुर में दो दिवसीय 'ट्रेनर्स समिट' आयोजित की जिसमें देश के सभी राष्ट्रीय प्रशिक्षकों को प्रशिक्षण की आधुनिक शैली और सोच को विकसित करने के उद्देश्य से बुलाया गया। 'ड्रेस कोड' था- सूट और टाई। मेरे पास यह व्यवस्था नहीं थी, मेरे मित्र राष्ट्रीय प्रशिक्षक राजेश दुआ ने मुझसे पूछा- 'फिर, कैसा करेंगे, ड्रेस कोड के अभाव में वे 'एन्ट्री' नहीं देंगे ?'
'चल यार, अपन दोनों बिना सूट के चलते हैं, कोई कुछ नहीं बोलेगा।' मैंने कहा।  
          हम दोनों नागपुर पहुँचे, यथासमय मैं धोती-कुरता पहनकर और राजेश दुआ कुरता-पजामा और जाकेट धारणकर 'हाल' में निःसंकोच घुसे, सब हमें घूरकर देखते रहे पर किसी की हिम्मत नहीं हुई कि 'ड्रेस कोड' का ज़िक्र भी करे। भारतमाता की जय। 

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          हमारी बड़ी बिटिया संगीता अब बड़ी होने लगी थी, चौदह वर्ष की, तब ही एक कष्टदायक सिलसिला शुरू हो गया। कोई बालक हमारी बिटिया पर मोहित हो गया और उसने पत्र और कार्ड के माध्यम से हमारे घर में संदेश भेजने का अनवरत कार्यक्रम आरम्भ कर दिया। किसी दिन बड़ी सुबह वह घर के बाहर छोड़ जाता तो कभी पोस्ट से भेजता। नाम-पता कुछ नहीं। उसका हौसला बढ़ा और राह चलती बिटिया का फ़ोटोग्राफ़ भी भेजने लगा। घर में सब परेशान, कौन है? वह रास्ते में कोई हरकत न करता और फ़ोटो भी कहीं दूर से लेता ताकि उसकी पहचान छुपी रहे। ‘प्लेटोनिक लव्ह’ जानते हैं न आप? बस, कुछ वैसा ही। एक दिन, संगीता ने मुझसे कहा- ‘पापा, प्रिंसिपल मेम ने आपको स्कूल बुलाया है, कुछ गड़बड़ है, वे गुस्से में दिख रही थी।’
          अगली सुबह मैं प्रिन्सिपल सिस्टर ग्रेस से मिलने उनके आफ़िस पहुँचा, मैंने बाहर से ही पूछा- ‘मैं अन्दर आऊं?’
‘आइये।’ उन्होंने कहा और अपना टेबल ड्राअर खोला और बीस-पच्चीस कार्ड का एक बन्डल मेरी ओर पटकते हुए बढ़ाया और कहा- ‘ये देखिए, आपकी बेटी की करतूत।’ मैंने उन पत्रों को सरसरी निगाह से देखा, वे उसी पागल प्रेमी के लिखे गए कार्ड थे जो हमारे घर में भी साल भर से लगातार भेज रहा था। मैंने प्रिन्सिपल से पूछा- ‘ कोई इसे लिख रहा है इसमें मेरी बेटी की क्या गलती है मैडम, क्या मेरी बेटी ने किसी को लिखा?’
‘नहीं, लेकिन उसके नाम से स्कूल में ये सब आ रहा है।’
‘तो मैं क्या करूँ, ऐसे कार्ड हमारे घर में भी साल भर से आ रहे हैं लेकिन भेजने वाला न तो अपना नाम लिख रहा है, न ही सामने आ रहा है।’
‘ऐसा है क्या?'
'जी|' 
'मान लीजिए, आपको उसका पता लग जाए तो आप क्या करेंगे?’
‘बहुत आसान है मैडम।’
‘क्या।’
‘उसके घर के पते पर मैं उसकी माँ को प्रेमपत्र भेजना शुरू कर दूंगा, पूरे परिवार का दिमाग ठिकाने आ जाएगा।’ मैंने उपाय बताया। प्रिन्सिपल जोर से हँसी और मुझे गरम चाय पिलाकर विदा किया। 

          एक दिन हमारे घर में एक रजिस्टर्ड लिफाफा आया, साइज बड़ा, अन्दर हमारी बिटिया संगीता का गणतंत्र दिवस की परेड का नेतृत्व करते हुए एक 'एनलार्ज' फोटोग्राफ था। आप तो जानते हैं कि रजिस्टर्ड लिफ़ाफ़े में भेजनेवाले का पता लिखना ज़रूरी होता है, उसमें एक नाम था (जो फर्जी था) और पता लिखा था- 'सरस्वती शिशु मंदिर, बिलासपुर'। घर में आए समस्त 'प्रणय निवेदन पत्र' लेकर मैं सरस्वती शिशु मंदिर पहुँच गया और प्राचार्य को सम्पूर्ण घटना की जानकारी दी। प्राचार्य ने शिकायत को गंभीरता से लिया। उन दिनों शिशु मंदिर में अर्धवार्षिक परीक्षा चल रही थी इसलिए उत्तर पुस्तिकाओं से हस्तलिपि का मिलान आसानी से हो गया, पत्रप्रेषक दसवीं कक्षा का छात्र था, वह विद्युत मंडल के एक अधिकारी का पुत्र था। प्राचार्य ने उस छात्र के अभिभावक को शाला में तलब किया, उन पत्रों को देखकर उन्होंने अपने पुत्र की हस्तलिपि को पहचाना तब प्राचार्य ने उनसे ही पूछा- 'आप ही बताइये, आपके पुत्र पर क्या 'एक्शन' लिया जाए?' माता-पिता रो पड़े। उन्होंने क्षमा करने का निवेदन कर भरोसा दिलाया- 'यदि फिर शिकायत आए तो हमारे बेटे को 'रेस्टिकेट' कर दिया जाए'। प्राचार्य ने मुझसे पूछा, मुझे उतना 'स्पेस' देना उचित लगा। इस प्रकार, बड़ी मुश्किल से वह कष्टदायक सिलसिला बंद हो पाया।

          जिन घरों में कमउम्र लड़कियां बड़ी हो रही हैं वे परिवार बड़े अजीब हालातों से गुजरते हैं। लड़की को घर में ताले में बंद करके रखें तो वह पढ़ेगी कैसे ? अपने व्यक्तित्व को कैसे निखारेगी ? आजकल, लड़की के   ससुराल वालों का हाल भी अजीब दिखता है- बहू पसंद नहीं आई तो सास-ससुर कह देते हैं- 'भगाओ इसे, इसके माँ-बाप के घर'; पत्नी पसंद नहीं आई तो पतिदेव 'सुहागरात मनाने के पश्चात' कह देते हैं- 'मुझे तुम पसंद नहीं, मैंने तो अपने मम्मी-पापा का मन रखने के लिए तुमसे शादी की थी, तुम या तो मेरे मम्मी-पापा के साथ रहो या अपने मम्मी-पापा के पास, मैं अपने साथ नहीं रखूँगा।' अब, ऐसे अजब-ग़जब माहौल में लड़की को पढ़ाना-लिखाना और उसे मजबूत करना अभिभावक के लिए अनिवार्य हो गया है लेकिन घर के बाहर लड़कियों को खतरे ही खतरे। लड़की की शादी के पहले और उसकी शादी के बाद भी माँ-बाप का दिल हर समय धुक-धुक होते रहता है, न जाने कब क्या हो जाए ?
          जब किसी घर में लड़की का जन्म होता है तो लोग कहते हैं- 'बधाई, घर में लक्ष्मी आई', लेकिन नवागत 'लक्ष्मीजी' का भविष्य सुनिश्चित करने के लिए बेले गए पापड़ के स्वाद कई बार बेस्वाद हो जाते है, कई बार कडुवे तो कई बार जहरीले भी। इस घटिया सामाजिक व्यवस्था की सड़ांध में न जाने कैसे लड़कियाँ और लड़कियों के माँ-बाप जीते हैं और उसे सहते भी हैं! हमें भी दो बेटियों के लालन-पोषण का सुअवसर मिला, अत्यंत विपरीत सामाजिक, पारिवारिक और आर्थिक परिस्थितियों में उन्हें बड़ा किया, पढ़ाया लिखाया, उनका ब्याह किया। इस दायित्व निर्वहन में अनेक सुहृद मिले तो कुछ हृदयविहीन भी लेकिन वह सब बताने का समय अभी नहीं है, अभी तो आप उस दौर की वे घटनाएं पढ़ें जो भारत का अभिनव स्वरुप बना रही थी।
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           इधर, किराए के घर में एक अजीब घटना हो गई। हमारे बगल वाले घर में मकान मालिक के छोटे भाई रहते थे। दोनों भाइयों के बीच मनमुटाव था, मालिकाना हक को लेकर विवाद भी था इसलिए वे मेरी किराएदारी से रुष्ट रहा करते थे, हम लोगों से बातचीत भी नहीं करते थे परन्तु बच्चे आते-जाते थे क्योंकि वे हमउम्र थे।  उनका छोटा बेटा गरम मिजाज़ था और कई बार हमारे पुत्र कुंतल की अकारण पिटाई कर देता था। कुंतल स्वभाव का सीधा था, पिट कर रोते हुए घर आता और शिकायत करता तो मैं उसको समझाता- 'चलो कोई बात नहीं, गुस्सैल है, मार दिया होगा।' उसके माता-पिता से उसकी शिकायत करने का मतलब बच्चों की लड़ाई में बड़ों का बीच में पड़ना जैसा हो जाता, फिर, वह मकानमालिक के भाई का बेटा था, इसलिए हम लोग चुप रहते।  
          दोनों घरों का प्रवेश द्वार एक था जिसके बाहर मैंने अपनी 'नेमप्लेट' टांग दी ताकि मेरे परिचितों को घर खोजने में असुविधा न हो। एक दिन मकानमालिक के भाई ने मेरी नेमप्लेट वहां से निकाल कर फेंक दी। मुझे कुछ समझ न आया। एक सूत्र से मुझे मालूम पड़ा कि किसी व्यक्ति ने उनसे पूछ लिया- 'क्या तुम 'पेंड्रावाले' के घर में किराए से रहते हो?" 
'नहीं, वो तो मेरा किराएदार है.' 
'झूठ क्यों बोलते हो, 'पेंड्रावाला' और तुम्हारा किराएदार? हो ही नहीं सकता, नेमप्लेट तो उसी की लगी है।'
          बस, इस बात से आहत होकर उसने मेरी नेमप्लेट हटा दी और हमें वहां से निर्वासित करने की योजना बनाने में सन्नद्ध हो गया। उसकी योजना सफल हो गई और एक रात ग्यारह बजे स्वयं मकानमालिक अपने छोटे भाई के घर से भोजन करने के पश्चात मेरे घर आए और मकान खाली करने की 'नोटिस' दे गए।  मैं किराए का पांचवा घर खोजने निकला, एक मिल भी गया। इधर, माधुरी ने भी मुझे नोटिस दे दिया - 'अब किराए के घर में नहीं जाती, खुद के घर में जाऊँगी।'
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          बच्चों की किशोरावस्था की मानसिकता को समझना ज़रा कठिन काम है. सीखने का काम वे खुद करना चाहते हैं लेकिन उनके माता-पिता उन्हें बच्चा ही समझते रहते हैं और उनके पीछे लगे रहते हैं. परिणामस्वरूप एक अदृश्य दूरी विकसित होने लगती है और किशोर वय उन्हें अनसुना करने लगता है. वे सोचते हैं- ‘इनकी तो बड़-बड़ करने की आदत है’, इस कारण अनेक महत्वपूर्ण बातें भी दर-किनार हो जाती हैं. सामान्यतया, परिवार में अभिभावकों का एक-तरफ़ा भाषण चलता है जो संप्रेषण नहीं बन पाता क्योंकि संप्रेषण के लिए यह ज़रूरी है कि जो कुछ कहा जा रहा है उसे सुना जाए, समझा जाए और कहने वाले को वापस मालूम पड़े कि सुननेवाले ने क्या सुना और समझा? परिवार में आपसी संवाद बना रहे तब ही दोनों पीढ़ियां एक-दूसरे को बखूबी समझ पाती हैं अन्यथा गलतफ़हमियों की संभावना बढ़्ती जाती है. 
          हर उम्र अपने निष्कर्ष निकालती है और समय के अनुरूप खुद को ढालती है. पुराने ‘फंडे’ चाहे जितने उपयोगी रहे हों लेकिन मौज़ूदा समय में काम नहीं आते. उदाहरण के लिए- हमने किताबों में पढ़ा है- ‘सदा सच बोलना चाहिए’. अब इस युग में सदा सच बोलने वाले की क्या दशा-दुर्दशा बनेगी, जरा सोचिए! हमारे पुत्र कुंतल ने एक दिन पूछा- ‘पापा, क्या सदा सच बोलना चाहिए?’ 
‘नहीं.’ मैंने उत्तर दिया.
‘पर हमें तो यही बताया जाता है.’
‘उसमें सुधार की जरूरत है.’
‘क्या?’
‘उसमें से ‘सदा’ शब्द को निकाल देना चाहिए.’
‘क्यों?’
‘ये दुनियां ऐसी ही है, सच को लोग पसन्द करते हैं लेकिन बर्दाश्त नहीं कर सकते.’
‘मैं समझा नहीं.’
‘देखो, सच बोलना एक रणनीति होती है जो मनुष्य की प्रगति में बहुत सहायक है. वही व्यक्ति तरक्की करता है जिसकी विश्वसनीयता होती है और वह सच बोलने और दिया गया वचन निभाने से बनती है इसलिए सच बोलना उपयोगी है लेकिन यदि सच बोलने से खुद को या किसी और को नुकसान की सम्भावना हो तब या तो चुप रह जाना चाहिए या झूठ को इस तरह बोलना चाहिए कि वह सच लगे.’
‘मैं ठीक से नहीं समझ पा रहा हूं.’
‘उसे तुम्हारी ज़िंदगी के अनुभव समझाएंगे.’ मैंने उसे समझाया.
           हमारे बच्चे हमसे अधिक जानकार हैं और समझदार भी. अभिभावक की भूमिका में हम उन्हें ‘अन्डर-असेस’ करते हैं, मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि उनका बुद्धिचातुर्य विलक्षण है. एक बार की बात है, हमारी बड़ी बिटिया संगीता जब दसवीं कक्षा में पढ़ रही थी, उसने मुझसे पूछा- ‘पापा, हमारी स्कूल का ‘ट्रिप’ अमरकंटक जा रहा है तो क्या मैं आपका कैमरा ले जाऊं?’ मैं चुप रहा तो उसने वही प्रश्न फ़िर से किया. मैंने जवाब दिया- ‘जब अमरकंटक जाने का निर्णय तुमने खुद ले लिया तो कैमरा ले जाने का निर्णय भी ले लो.’
‘नहीं पापा, ऐसा नहीं है, मुझे मालूम है कि आप अमरकंटक जाने के लिए कभी मना नहीं करेंगे, हाँ, कैमरा के लिए मना कर सकते हैं.’ संगीता ने मुझे समझाया.
          इस पिता-पुत्री संवाद में संगीता की बातों में छुपी चतुराई को आप समझ गए होंगे. कई बार जो कुछ कहा जा रहा है उन शब्दों के पीछे भी कई अन्य बातें छुपी रहती हैं जिस पर ध्यान देने से ही असल बात समझ में आती है. किसी बात को सही ढंग से समझने के लिए सुनने का धैर्य विकसित करना बेहद जरूरी है. चुप रहकर सुनना बहुत कठिन होता है क्योंकि हमारे बोलने का उतावलापन बाधक बन जाता है. चुप रहकर सुनने वाले को हम लोग उपहास में ‘मौनी बाबा’ कहा करते हैं जबकि सच तो यह है कि मौन ही वह साधन है जिसकी सहायता से हम सामनेवाले की बात को सही ढंग से समझ सकते हैं. यही मौन स्वयं को जानने का भी साधन है. संत गुरु नानकदेव ने अपनी अपूर्व वाणी ‘जपुजी’ में श्रवण के महत्व पर चार पौढ़ियां में गंभीर चर्चा की है. 
          आचार्य रजनीश (ओशो) कहते हैं- ‘तुम बोलते वक्त सजग होते हो, सुनते वक्त नहीं होते...जब भी कोई दूसरा तुमसे बोलता है तुम सजग नहीं होते क्योंकि एक ‘इंटरनल डायलाग’ है- एक भीतर चलने वाला वार्तालाप है, जिसमें तुम दबे रहते हो. दूसरा बोले चला जाता है, तुम ऐसा भाव भी प्रकट करते हो कि तुम सुन रहे हो लेकिन वह (केवल) तुम्हारी भावभंगिमा है, भीतर तुम बोले चले जा रहे हो. जब तुम भीतर बोल रहे हो तो किसकी सुनोगे? तुम भीतर जो बोल रहा है उसको ही सुनोगे क्योंकि बाहर बोलनेवाले की आवाज तो तुम्हारे तक पहुँच ही न पाएगी.’
          मेरे मित्र बी.के.मेहता, जब वे मध्यप्रदेश विद्युत मंडल बिलासपुर के मुख्य अभियंता थे, एक दिन उनके कार्यालयीन समय में मैं उनसे मिलने गया. लगभग आधे घंटे मैं वहां बैठा. उस बीच दो नागरिक अपनी समस्या लेकर उनके पास आए. मैंने गौर किया कि उन दोनों की समस्या उन्होंने ध्यान से सुनी, बीच में छोटे-छोटे प्रश्न किए ताकि सारे विवरण उभर कर सामने आ जाएं. उनकी बात पूरी होने पर उन्हीं से पूछा- ‘तो आप क्या चाहते हैं?’ उनका समाधान सुनकर उनसे शालीनता से कहा- ‘आप जाइये, आपका काम हो जाएगा.’ उनके जाने के बाद मैंने मेहता जी से पूछा- ‘आपने उनकी समस्या का समाधान इतनी आसानी से कर दिया?’
‘मैं यह जानता हूं कि कोई व्यक्ति यदि मुझ तक अपनी समस्या लेकर आया है तो वह मेरे अधीनस्थों से निराश होकर सुनवाई की उम्मीद लेकर आता है. मेरा काम उनको यह संतोष दिलाना है कि उनकी बात सुनी गई, मैंने वही किया. दूसरी बात यह है कि जिस व्यक्ति कि समस्या होती है- उसी के पास समाधान भी होता है. इन दोनों की व्यक्तियों की समस्याओं के समाधान नियमों के अनुकूल थे इसलिए मुझे निर्णय लेने में कोई परेशानी नहीं हुई.’ उन्होंने कहा.
‘और, अगर वे समाधान नियमों के प्रतिकूल होते तो?’             
‘पहले तो, वे यहां तक आने की हिम्मत ही न करते, फ़िर भी यदि नियम की जानकारी न होने के कारण कोई मेरे पास आता है तो उसे समझाना और संतुष्ट करना मेरी जिम्मेदारी बनती है.’ 
'इसके लिए तो आपको उससे बहुत सी बातें करनी पड़ेगी लेकिन मैंने देखा कि आप बोलने में बहुत कंजूसी करते हैं.'
'असल बात यह है कि मैं बोलूंगा तो सुनूंगा कैसे? सुनना पहली प्राथमिकता होती है, उसके बाद समझना और फिर समझाना। वैसे किसी भी बात को कम शब्दों में भी समझाया जा सकता है.' उन्होंने बताया.                               पुरानी कहावत है- ‘बातहिं हाथी पाइये, बातहिं हाथी पाँव’, अर्थात, मीठी बातों से हाथी इनाम में मिल सकता है और बकवास करने से हाथी के पैर से कुचले जाने की सज़ा. बोलने और सुनने के बीच संतुलन बनाने का हुनर प्रयास से विकसित किया जा सकता है, इसके लिए तनिक जागरूकता और सतर्कता की जरूरत होती है. हमारे वाणी संयम में सबसे बड़ी अड़चन हमारा स्वभाव है. बहिर्मुखी व्यक्ति के लिए चुप रहना कठिन काम होता है; कब बोलना, कितना बोलना, कैसे बोलना- इसमें उससे अक्सर चूक होती है जिसके परिणाम घातक भी हो जाते हैं.
          कई बार कही गई बात रास्ता भटक जाती है, किसी दूसरी जगह टकरा जाती है और अनर्थ हो जाता है. एक घटना आपको सतर्क रहने के लिए बता रहा हूँ; मेरे मित्र सुधीर की पत्नी शशि खंडेलवाल ने हमें अपने घर ‘डिनर’ पर आमंत्रित किया. रात को हम सपरिवार उनके घर पहुंचे. भोजन में हमें परोसा गया- पराठा, करेले का साग और आम का अचार. करेला को देखकर मेरे रोंगटे खड़े हो गए. करेला मुझसे नहीं खाया जाता क्योंकि उसका कड़ुआपन मुझे सख्त नापसन्द था लेकिन आम का अचार देखकर हिम्मत वापस आई. करेले को मैंने छुआ भी नहीं, वह उपेक्षित सा पड़ा रहा. जब शशि भाभी मुझे दूसरा पराठा परोसने आई तो उन्होंने पूछा- ‘भाई साहब आपने तो करेला खाया नहीं?’        
‘मुझे बिलकुल पसन्द नहीं, मेरे समझ नहीं आता कि लोग इसे कैसे खा लेते हैं?’
‘थोड़ा सा खाकर तो देखिये.’ उनके आग्रह पर मैंने खाया, करेला अत्यन्त स्वादिष्ट था. फ़िर तो उसके बाद दूसरा और तीसरा भी. जब भाभी चौथा करेला परोसने लगी तो मैंने उनसे कहा- ‘बस अब नहीं लूंगा, पेट भर गया.’
‘कैसा लगा आपको करेला?’
‘शानदार भाभी, ऐसा स्वादिष्ट करेला तो मैंने अपनी ज़िंदगी में कभी नहीं खाया.’
‘फ़िर आपको एक और लेना चाहिए.’
‘नहीं, अब और नहीं, हाँ, सबके खाने के बाद यदि बच जाए तो ‘पैक’ करके दे दीजिएगा, मैं कल सुबह नास्ते में ले लूंगा.’ मैंने कहा. उसके बाद रात को बारह-साढ़े बारह बजे तक गप-शप होती रही, वहां से लौटते समय बचे हुए करेले भी घर आ गए, अगली सुबह माधुरी ने पराठा बनाकर परोसा और साथ में रात वाले करेले भी. 
          घर में साग-भाजी बाजार से लाने का काम मेरा है, भले ही मुझे पसन्द न था लेकिन अन्य सब्जियों के साथ करेला भी घर आता था लेकिन मैंने गौर किया कि कई दिनों से वह नहीं बन रहा था. एक दिन, खाना खाते समय मैंने माधुरी से पूछा- 'आजकल करेला नहीं बनता जबकि मैं लाते रहता हूं?’
‘मैंने उसे बनाना बंद कर दिया, तुम जो करेला लाते हो उसे मैं फ़ेक देती हूँ.’
‘ऐसा क्यों?’
‘हमको तो बनाना आता नहीं, तुम्हारी ज़िन्दगी का सबसे अच्छा करेला शशि भाभी ने बनाया था. अब तुमको जब खाना रहे तो अपनी उसी भाभी के पास जाकर खा लिया करो.’ 
          अब आप समझ गए होंगे कि कहे गए शब्द भी फ़िसल कर कैसे रास्ता भटक जाते हैं!

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