शुक्रवार, 18 अप्रैल 2014

7 : आज फ़िर जीने की तमन्ना है :

                                                आज फिर जीने की तमन्ना है :
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          मेरा जन्म छत्तीसगढ़ की धरती में हुआ, यहीं की मिट्टी ने मुझे पाला-पोसा और दिली ख्वाहिश है कि अन्त में इसी मिट्टी में समा जाऊं। ‘धान का कटोरा’ कहलाए जाने वाला यह प्रदेश प्रचुर खनिज संपदा के लिए भी विख्यात है।  यहां के मूल निवासियों के साथ अन्य क्षेत्रों से आए परिवार भी यहां रच-बस गए और वे भी छत्तिसगढ़िया बन गए। प्रत्येक क्षेत्र के अपने गुण-दोष होते हैं, वैसे ही हमारे भी हैं। यदि मौसम की बात करें- उत्तर छत्तीसगढ़ में सरगुजा और दक्षिण में बस्तर का इलाका अपने घने जंगलों के कारण खासा ठंडा रहता है लेकिन मध्य छत्तीसगढ़ अत्यधिक गर्म रहता है। महाकवि कालिदास के गीतिकाव्य ‘ऋतु संहार’ में ऋतु वसंत और वर्षा ऋतु का वर्णन जैसे हू-ब-हू छत्तीसगढ़ का ही साकार चित्रण हो:

             ‘आदीप्तवह्निसदृशैर्मरुतावधूतैः सर्वत्र किंशुकवनैः कु

             सद्यो वसन्तसमयेनि समाचितेयं रक्ताशुंका नववधूरिव भाति भूमिः’॥६॥१९॥


(वसन्त के आते ही पृथ्वी एकदम दहकती हुई, अग्नि जैसे दिखने वाले फूलों के भार से झुके हुए और वायु के झकोरों पर झूलते हुए टेसू के वनों से भर गई है और वह लाल वस्त्र पहनी हुई नई दुल्हन सी सुन्दर मालूम पड़ रही है। )


              ‘स-सीकराम्भोधरमत्तकुन्जरस्तडित्पताकोशनिशब्द्मर्दलः।


               समागतो राजवदुध्दत्द्युतिर्घनागमः कामिजन प्रिये’॥२॥१॥ 
              

(ग्रीष्म ऋतु समाप्त होने के पश्चात जब वर्षाऋतु आती है तो ऐसा लगता है जैसे राजाओं की तड़क-भड़क लेकर वर्षाकाल आया हो। पानी की फुहारों से भरे बादल जैसे उसके मस्त हाथी हों, बिजली जैसे उसकी पताका हो और बादलों के टकराने से पैदा होने वाली गड़गड़ाहट जैसे उसके धौसों की ध्वनि हो........)


           छत्तीसगढ़ की प्राणदायिनी शिवनाथ नदी २९० किलोमीटर की लम्बी यात्रा कर महानदी में विलीन हो जाती है। प्राचीन काल में शिवनाथ नदी के एक ओर १८ गढ़ थे और दूसरी ओर भी १८, इस प्रकार इन दोनों को मिलाकर क्षेत्र का नाम पड़ा- छत्तीसगढ़। अविभाजित मध्यप्रदेश में छत्तीसगढ़ कमाऊ पूत तो था लेकिन उसे खाने के लिए केवल दो मुट्ठी चाँवल मिलता था इसलिए वह पिछड़ेपन का दुख भोगते हुए तब तक सिसकता रहा जब तक कि सन 2000 में पृथक छत्तीसगढ़ नहीं बना।  
          छत्तीसगढ़ के ग्रामीण अपने हाड़तोड़ परिश्रम के लिए संपूर्ण भारत में विख्यात हैं। जम्मू-काश्मीर से कन्याकुमारी और कलकता से भुज तक संपूर्ण भारत में बाँध, नहर, पुल, सड़क या बहुमंजली इमारतों के गारे में छत्तीसगढ़ के श्रमिकों के पसीने की बूंदें अवश्य होंगी। खुले आसमान के नीचे अपना पसीना बहाते हुए वे मेहनत करने के मामले में बिहार और उड़ीसा के श्रमिकों से होड़ लेते हैं। मज़दूरी करने के लिए अन्य प्रदेशों में इनके जाने को उनका ‘पलायन’ कहा जाता है जबकि सच यह है कि वे पलायन नहीं करते बल्कि ‘कमाने-खाने’ जाते हैं और अच्छा-खासा पैसा कमाकर अपने घर वापस आते हैं, कर्ज़ पटाते हैं, धूमधाम से शादी-ब्याह निपटाते हैं, अधूरे शौक पूरे करते हैं और फ़िर अपने खेतों में काम से लग जाते हैं ! इस क्षेत्र में होने वाली धान की पैदावार अपूर्व श्रम चाहती है जिसके लिए वे सपरिवार तपती धूप और बरसते पानी में अहर्निश मेहनत करते हैं।  काम वे अपना ‘पेट भरने के लिए’ करते हैं जबकि उनके काम से संपूर्ण भारत के साथ-साथ विश्व के अनेक देशों के लोगों का पेट भरता है।

          छत्तीसगढ़ का ज़िक्र एक घटना बताने के संदर्भ में आया। पुरानी बात है, सन १९८३ में प्रख्यात पत्रकार सरदार खुशवंत सिंह हमारे निमंत्रण पर 'युगल जूनियर चेम्बर' के शपथ ग्रहण समारोह में विशिष्ट अतिथि के रूप में पधारे थे। करीब ३० घंटे वे बिलासपुर में रहे तब मुझे उनके सत्कार और सानिध्य का सुअवसर मिला। खुशवंत सिंह बेहद खुशमिज़ाज़ और मिलनसार व्यक्ति थे, खाने-पीने के शौक़ीन, बातें करने और सुनने के माहिर। भोजन के दौरान उन्होंने मुझसे पूछा- 'मैंने सुना है- "मथुरा का पेड़ा और बिलासपुर का खेड़ा"- मथुरा का पेड़ा तो मैंने खाया है, यहाँ का 'खेड़ा' क्या होता है ?'

          मेरे सामने विकट समस्या आ गई, उनको कैसे समझाऊँ कि 'खेड़ा' क्या है क्योंकि खेड़ा छत्तीसगढ़ की एक मौसमी सब्जी है जो उनके प्रवास के समय उपलब्ध नहीं थी। 'सीजन' होता तो बनवा कर खिला देता लेकिन 'आउट ऑफ सीजन' होने के कारण कोई उपाय न था। मैंने उन्हें बताने के लिए के लिए शब्द चित्र खींचा- 'सिंह साहब, आपने 'मुनगा' खाया होगा, खेड़ा कुछ वैसा ही होता है। फर्क यह रहता है कि कि मुनगा में बीज होते हैं जबकि खेड़ा में बीज नहीं, सिर्फ गूदा होता है। मुनगा की तरह इसकी भी सब्ज़ी और कढ़ी बनाई जाती है जो अत्यंत स्वादिष्ट होती है।'

          सरदारजी के चेहरे में न समझ पाने के भाव उभर आए। समझते भी कैसे, वे अगर मुझे शब्दों की मदद से समझाते कि फ्रांस की किसी 'वाइन' का स्वाद कैसा है तो मैं बिना चखे भला कैसे समझ पाता ?

         खुशवन्त सिंह गजब के इन्सान थे। वे जब लिखते थे तब साहित्यकार हो जाते लेकिन जब देखते या सुनते तो पत्रकार बन जाते। वे अपनी पीढ़ी के अग्रगामी व्यक्तित्व थे, सौ साल आगे के इन्सान। सोने की चम्मच लिए उनका जन्म हुआ जो किसी साहित्यकार के निर्माण की जमीन नहीं थी, उनके लिए ऐश-ओ-आराम वाली ज़िन्दगी का इन्तज़ाम था लेकिन खुशवन्त सिंह तो अलग मिट्टी के बने हुए थे। कहा जाता है कि प्रभावी लेखक वही बन पाता है जो जिज्ञासु स्वभाव का होता है। वे जब बिलासपुर आए तो उनके सवाल जैसे ख़त्म ही न होते थे, बिल्कुल किसी बच्चे जैसी जिज्ञासा थी उनमें। छत्तीसगढ़ में वे सम्भवतः पहली बार आए थे इसलिए जो कुछ उन्होंने सुन रखा था, वे उसके बारे में विस्तार से सुनना और समझना चाहते थे जिसके लिए वे शहर के कई बुद्धिजीवियों से मिले, बातें की और जब दिल्ली वापस गए तब उन्होंने छत्तीसगढ़ के रीति-रिवाजों के बारे में अपने साप्ताहिक कॉलम में उन बातों को रोचक अंदाज़ में लिखा जो ‘दैनिक नवभारत’ में प्रकाशित हुआ। उस लेख की प्रतिक्रिया में छत्तीसगढ़ में विरोध के स्वर उठे और 'खुशवन्त सिंह मुर्दाबाद' के नारे लग गए। क्या लिखा था उन्होंने?

          प्रत्येक क्षेत्र की अपनी परम्पराएं होती हैं, सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और पारिवारिक. इनमें कुछ उपयोगी होती हैं तो कुछ निरर्थक. कुछ दीर्घायु होती हैं तो कुछ अल्पकालीन, समय के साथ इनमें बदलाव होते रहता है। मैं आपको छत्तीसगढ़ की एक ऐसी परम्परा के बारे में बता रहा हूं जो हमारे यहां पुराने जमाने से चलायमान है और आज विश्व के अधिकांश देशों में भी प्रचलित है !
          मुस्लिम जैसे कुछ समुदायों को छोड़कर शेष सभी समूहों में केवल एक विवाह को ही सामाजिक और वैधानिक मान्यता प्राप्त है. छत्तीसगढ़ के आदि-निवासियों ने इसका एक तोड़ निकाला- ‘चूड़ी पहनाना’, वही, जिसे ईर्ष्यालु लोग ‘रखैल’ और आधुनिक लोग ‘लिव-इन रिलेशनशिप’ कहते हैं, अर्थात एक पत्नी के जीवित रहते हुए किसी अन्य या अधिक स्त्रियों से ‘पत्नी जैसा’ संबन्ध रखना. ध्यान देने योग्य बात यह है कि यह इकतरफ़ा सुविधा है- केवल पुरुषों के लिए. 
          छत्तीसगढ़ कृषि और रोजगार प्रधान क्षेत्र है जहां मनुष्य की श्रमशक्ति का बहुत महत्व है. खेतों में काम करने के लिए, मज़दूरी करके आजीविका कमाने के लिए हर परिवार को बड़ी संख्या में काम करने वाले हाथ चाहिए होते हैं. इसी वज़ह से बच्चे पैदा करने का कुटीर उद्योग यहां खूब फ़ल-फ़ूल रहा है. बच्चों के बड़े और काम करने योग्य होने में बहुत समय लगता है, ऐसी स्थिति में त्वरित आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए  निःशुल्क सेवा की अर्थशास्त्रीय सोच के अनुरूप पुरुष किसी अन्य जाति की स्त्री को ‘चूड़ी पहना कर’ अपने घर लाकर रख लेता है, इस प्रकार उसे केवल ‘खाने-कपड़े’ के भुगतान में एक अतिरिक्त स्थाई श्रमिक और मनोरंजन- दोनों मिल जाता है. घर में ‘चुड़िहाई’ पत्नी को लाकर रखने के लिए पहली पत्नी की सहमति ‘ले ली’ जाती है,
          मैंने पुरुषों के लिए उपयोगी एवं आकर्षक इस प्रथा की गहराई में जाकर उस मूल को जानने की कोशिश की तो यह समझ में आया कि आम तौर पर निम्न परिस्थितियों के कारण 'चुड़िहाई' प्रथा चलन में आई  : 
* पत्नी का संतानहीन होना.
* पत्नी द्वारा केवल लड़कियों को जन्म देना यानी लड़का पैदा न करना.
* पत्नी का लगातार बीमार रहना और ‘काम लायक’ न रहना.
* पत्नी से अनबन होना. लगातार मायके वापस जाने का दबाव डालने पर भी उसका घर छोड़कर न जाना.
* पत्नी के मायके वापस चले जाने के पश्चात भी सामाजिक रूप से ‘छोड़-छुट्टी’ न हो पाना.
* पति का विधुर हो जाना.
* पति का किसी अन्य स्त्री पर दिल आ जाना. ( टिप्पणी : यह सबसे अधिक कारगर स्थिति हुआ करती थी ) आदि.
            ‘चुड़िहाई’ प्रथा बीसवीं शताब्दी तक पर्याप्त लोकप्रिय थी लेकिन अब शिक्षा के प्रसार और महिला जागृतिकरण के कारण चुड़िहाई पत्नी को घर में लाना कठिन हो गया है, फ़िर भी सुदूर अंचलों में आदि-निवासियों के बीच यह प्रथा आज भी कायम है. छत्तीसगढ़ के बारे में एक और महत्व की बात बताने लायक है- यहाँ की स्त्रियाँ बेहद परिश्रमी होती हैं, सम्भवतः पुरुषों से अधिक ! कुछ समुदायों में स्त्रियों की सक्रियता इतनी अधिक रहती है कि उनके पति घर की `रखवाली' करते हैं, छक कर दारू सेवन करते हैं और अपने सौभाग्य पर  गर्व करते हैं और कहते हैं- 'कमाई-धमाई ओखर काम हे, मैं तो घरेच म रथों।' शराबखोरी के राक्षस ने अब छत्तीसगढ़ को अपनी बाहों में इस क़दर कस लिया है कि पुरुषों की मानसिकता और ख़ुशहाली, उनका स्वास्थ्य, शारीरिक सामर्थ्य - सब कुछ तेजी से बर्बादी के रसातल में डूबता जा रहा है. केवल छत्तीसगढ़ ही नहीं, पूरे देश में, बड़ी संख्या में वर्तमान पीढ़ी जिस तरह नशे की गिरफ्त में फँस रही है और जिस दुर्दशा की ओर जा रही है वह चिंतनीय है. जो चिंतनीय है वह परिवर्तनीय है किन्तु अब कौन सुनता है, कौन समझता है, कौन खुद को बदलना चाहता है ?  
          खुशवन्त सिंह का वह तीस वर्ष पुराना लेख तो अब उपलब्ध नहीं है किन्तु उन्होंने इन्हीं दोनों विषयों पर अपने व्यंग्यात्मक लहज़े में टिप्पणी की थी परिणामस्वरूप छत्तीसगढ़ में बवाल मच गया था. ऐसा ही विरोध कथालेखक बिमल मित्र की कहानी 'सुरसतिया' को लेकर भी हुआ था. क्या हम इतने असहिष्णु हो गए हैं कि यदि कोई हमारी कमियों को बताए तो हमें बर्दाश्त नहीं होता और हम उसे पढ़ना - समझना भी नहीं चाहते ?

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          पति-पत्नि के रिश्ते महीन धागे से लिपटे रहते हैं। नज़दीकियां रहती हैं इसलिये गलतफ़हमियां भी हो जाती हैं, गलतफ़हमियां होती हैं इसलिये टकराहट भी हो जाती है, टकराहट होती है तो अनबोला भी हो जाता है, अनबोला हो जाता है तो उसके बाद लम्बी चुप्पी और गाल फ़ुलाना चलता है लेकिन कुछ दिनों बाद आपस में मान-मनव्वल चालू हो जाता है और फ़िर एक-दूसरे के साथ प्यार भरी मुक्केबाजी के बाद पत्नी कहेगी- ‘तुम बड़े खराब हो’; या पति रिझाएगा- ‘जानेमन, तुम तो ज़रा सी बात में नाराज़ हो जाती हो’- जैसे बचकाने किन्तु असरकारी संवादों के आदान-प्रदान के पश्चात प्रकरण का पटाक्षेप हो जाया करता है।  

          मनोचिकित्सक डा. सावित्री देवी वर्मा ने अपनी पुस्तक ‘सुनो कान में’ में एक टिप्पणी की है- ‘दाम्पत्य जीवन फूलों की सेज नहीं, कांटों का ताज है।’ सामान्य ताज में हीरे-जवाहरात बाहर जड़े हुए होते हैं जबकि इस ताज में काटें अन्दर गुथे रहते हैं।
          मैं अपने दाम्पत्य जीवन में झांकता हूं तो मुझे ऐसा लगता है कि सामाजिक रीतियों के सहयोग से बना यह रिश्ता किसी ‘सर्कस’ की तरह है जिसमें जरा सा भी संतुलन बिगड़ा और बात बिगड़ जाती है। 'एक दूसरे को वश में रखने' का यह चुनौतीपूर्ण खेल पति-पत्नी के बीच आजीवन चलता है जिसमें खेल जीतने की कोशिश में आखिरकार दोनों हारते हैं। सवाल यह है कि आखिर कौन जीतता है? जीतता है- एक दूसरे पर भरोसा.
          गौर करने की बात यह होती है कि कठिन समय आने पर दोनों एक दूसरे का साथ कैसा निभाते हैं ? मेरी आर्थिक तकलीफ़ें तो तीस-पैंतीस साल चली, धीरे-धीरे आपको सब बताउंगा लेकिन अभी एक बात बता रहा हूं कि मेरे जैसे अज़ीब व्यक्ति की माधुरी अद्भुत पत्नी हैं। वे ‘खाते पीते’ घर की लड़की थी, उनके मायके में सोने-चाँदी के आभूषणों का बड़ा व्यापार था। उनके पिता ने अपनी लड़की मुझे और मेरे परिवार को देख-समझ कर सौंपी थी। उन्होंने कल्पना भी नहीं की होगी कि हम लोग कभी ऐसी दशा को प्राप्त हो जाएंगे कि कई बार इनकी जेब में सब्जी खरीदने के पैसे भी न होंगे ! 
          मैंने अपने विवाह के दिन से ही अपनी पत्नी को उनके माता-पिता के द्वारा मुझे सौंपी अमानत माना और वैसा ही व्यवहार किया। बदले में माधुरी ने भी मेरे परिवार को अपना माना, संभवतः मेरे प्रति अपनत्व से कुछ अधिक ही। एक ज़िम्मेदार गृहणी की भूमिका में मैंने उन्हें सदा सतर्क और तत्पर पाया। मुझे कई बार ऐसा समझ आता है कि पुरानी कहावत- ‘जोड़ियाँ स्वर्ग में तय होती हैं’- सही है। ज़्यादातर मुद्दों में हम दोनों की राय एक जैसी हुआ करती है, हाँ, बच्चों के मामले में हम दोनों की सोच में सदा विरोधाभास रहा। उनका मुझ पर स्थायी आरोप रहा कि हमारे बच्चों में जो भी दोष हैं, उसका कारण बच्चों के साथ मेरे द्वारा किया गया ‘साफ़्ट ट्रीटमेन्ट’था। बच्चों के प्रति वे उनके बचपन से ही कड़क रही, भरपूर देखरेख, डांट-डपट और ज़रूरतन पिटाई के साथ उन्होंने बच्चों को बड़ा किया। कड़ाई की अधिकता समझ आने पर मुझे बीच-बचाव करना पड़ता था या माधुरी को समझाना करना पड़ता था, बस, यहीं हम दोनों में ठन जाती। वे कहती- ‘बच्चे तुम्हारे कारण बिगड़ रहे हैं, तुमको मेरा साथ देना चाहिये, तुम उनकी तरफ बोल कर मेरे किए-धरे को मिटा देते हो।’ अब आप बताइये, एक पिटाई या डांट-डपट कर रहा हो तो दूसरे को पुचकारना ही पड़ता है, घर में दोनों कड़क हो जाएंगे तो कैसे बनेगा ?   
         माधुरी को मेरी आर्थिक परिस्थिति का थोड़ा-बहुत अनुमान था लेकिन अपनी गंभीर होती जा रही स्थिति से मैंने उन्हें अनभिज्ञ सा रखा था क्योंकि मैं सोचता था- ‘मैं तो परेशान हूं ही, उसे क्यों परेशान करूं ?’ हम पुरुष, बाहर की बेरहम दुनियाँ में रहते-सीखते काफी मज़बूत हो जाते हैं, कुछ बेशर्म भी; जबकि घरेलू महिलाएं अपने सीमित संसार में अपेक्षाकृत भावुक होती हैं इसलिए प्रतिकूल परिस्थितियों पर उन पर प्रतिक्रिया सघन हो जाती है, कई बार असह्य। मेरे बड़े भैया रूपनारायण ने एक बार दिल्ली के चावड़ीबाज़ार में कुछ खरीदी के दौरान मेरी 'ऑन रोड परेड' लेते हुए मुझसे पूछा था- 'मेरी समझ नहीं आता कि इस दशा में तुम्हें रात को नींद कैसे आ जाती है ?' आपको बताऊँ ? सच तो यह है कि मुझे नींद की कभी समस्या न रही, तकिये में सिर रखा और दो-तीन मिनट बाद ही इस जीवन की आपा-धापी से कहीं बहुत दूर चला जाता हूँ। मैंने अपने जीवन में कभी नींद की दवा नहीं खाई फिर भी हमेशा घोड़े बेचकर सोया। बहुत ही कठिन दिन देखे जो वर्षों चले लेकिन हर रात यह सोचकर आँखें बंद करता था- ' जो मैं कर सकता था, आज मैंने किया; कल की कल देखेंगे।' 
          कभी मेरी जेब में कुछ अधिक पैसे होते तो मैं माधुरी को साड़ी खरीदने के रुपए देता और कहता- ‘ये लो, एक हजार हैं, एक अच्छी सी साड़ी खरीद लो।’ वे बाजार से साड़ियाँ खरीदकर लाती और बताती- ‘देखो, उतने में चार साड़ियाँ आ गई।’
‘तुमसे कहा था, ज़रा मंहगी साड़ी लेना, तुम ये क्या ले आई ?’ मैं उलाहना देता।
‘जिस औरत में साड़ी पहनने का सलीका होता है, उसकी पहनी हुई सस्ती साड़ी भी महंगी दिखती है, समझे ?’ वे मुस्कुराते हुए कहती।

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          मेरा व्यापार दिनों-दिन कम होता जा रहा था, उधार की रकम का ब्याज बढ़ता जा रहा था, हालत यह हो गई कि ब्याज पटाने के लिए नए उधार का जुगाड़ करना पड़ता था। मेरे एक मित्र थे मुकेश खण्डेलवाल (अब दिवंगत) मुझसे कहा करते थे- 'भाई साहब, आप भी गज़ब हो, मध्यप्रदेश शासन के केबिनेट मंत्री, साउथ-ईस्टर्न कोलफील्ड्स के चेयरमेन, इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड के चीफ इंजीनियर, नगरनिगम के कमिश्नर जैसे ओहदेदार आपसे मिलने आपकी दूकान में आते हैं, आपके पास बैठकर घंटों बातचीत करते हैं, आप यह छोटा सा धंधा लिए बैठे हो ? आपकी जगह अगर मैं होता तो करोड़ों में खेलता।' मैं उसकी बात सुनता, मुस्कुराता और उसे समझाता- 'हर काम हर कोई नहीं कर सकता. अधाधुंध पैसा बनाने और बढ़ाने का खेल मैं नहीं जानता।'
‘आपको कुछ नहीं करना है, लोगों का काम करवाइये और अपना ‘शेयर’ ले लीजिए.’
‘तुम्हारा मतलब, दलाली ?’
‘नहीं भाई साहब, इसको ‘लाइजिनिंग’ कहते हैं.’
‘अरे, नाम अंग्रेजी में हो गया तो क्या मायने बदल गए ?’
‘आप जैसा चाहे समझिए, पर यह काम तो हींग लगे न फ़िटकरी, रंग चोखा है.’
‘आखिर बेईमानी के काम में साझेदारी तो है न ?’
‘अब आपको कैसे समझाऊं?’
‘मत समझा मेरे भाई, मेरे बाबा और पिता ने मुझे ईमानदारी से जीना सिखाया है, मुझे वही ठीक लगा. मैं नहीं चाहता कि मेरे परिवार में किसी के भी रक्त में बेईमानी का कण हो.’ मैंने उसे समझाया. वह चुप रह गया.
         एक घटना आपको बताता हूँ जिसे पढ़कर आप मेरी बात आसानी से समझ जाएंगे : अपनी दूकान 'मधु छाया केंद्र' में टीवी के साथ मैंने स्टील और फाइबर के फर्नीचर भी बेचना शुरू कर दिया था। एक दिन की बात है, बिलासपुर नगरनिगम के आयुक्त श्री कमलेश तिवारी मुलाक़ात के लिए आए, उनकी नज़र शो रूम में सजी 'नीलकमल' की फाइबर कुर्सी पर पड़ी, उन्होने मुझसे उसकी कीमत पूछी। मैंने बताया- '450/-'
'अरे, कीमत में इतना फर्क ? निगम को 80 कुर्सियों की ज़रूरत है, आज मैं फाइल देख रहा था उसमे इसी कंपनी की कुर्सी के तीन कोटेशन हैं और उसमें 'लोएस्ट' था- 760/-!'
'मेरे पास नीलकमल की यह सबसे मंहगी रेंज है और यही विक्रय मूल्य है।'
`आप इस कीमत में निगम को सप्लाई करेंगे?'
`क्यों नहीं, 20/- डिस्काउंट के साथ !'
'तो मुझे एक कोटेशन बनाकर दे दीजिए।' आयुक्त ने कहा। मुझे उस आपूर्ति का आदेश मिल गया, मैंने कर दी।
          कुछ दिनों बाद वह दूकानदार जिन्होंने 'लोएस्ट 760/-' का कोटेशन भेजा था, मेरे पास आए और शिकायत के लहज़े में कहा- 'क्या अंकल, न आपने कमाया और न मुझे कमाने दिया ?'
'क्या हुआ?' मैंने पूछा।
'आफ़िसों की सप्लाई ऐसे नहीं होती जैसे आपने नगर निगम में कर दी, सबको पैसा बांटना पड़ता है।'
'पर मेरे पास भुगतान का चेक आ गया, मुझसे किसी ने पैसे नहीं मांगे !'
'आपसे कोई क्यों माँगेगा ? पर इस तरह तो आप पूरा सिस्टम बिगाड़ देंगे।' वह दुखी था और मेरी मूर्खता पर चिंतित भी।
          आप समझ गए होंगे कि केवल जान-पहचान से कुछ नहीं होता, भरपूर पैसा कमाने के लिए होशियारी अनिवार्य तत्व होता है ! संसार में धन, बल, यश, मान- सबको 'सब' नहीं मिलता॰ इसे आप असफलता और अक्षमता भी कह सकते हैं॰ आज नहीं, सदा से ही इस दुनियां में आर्थिक सफलता को ही 'सफलता' माना जाता है, लेकिन उस सफलता के लिए मैं खुद को उतना 'बेरहम' नहीं बना पाया - क्या करूं, मुझसे नहीं बना !          
          अनेक तकलीफ़ों के बावज़ूद भी मैं कहीं-न-कहीं अपना दिल लगाए रखता जैसे अपने शहर के टेलीविजन नेटवर्क ‘हलो बिलासपुर’ में चर्चा के कार्यक्रम में प्रस्तोता का कार्य, सामयिक घटनाओं पर समूह चर्चा हेतु ‘विचार मंच’ का गठन एवं संचालन, शहर में ‘धूल हटाओ अभियान’, व्यक्तित्व विकास और प्रबन्धन के प्रशिक्षण कार्यक्रम आदि.
         
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          हाँ, प्रशिक्षण की बात चली तो याद आया, आपको मैं ग्रामीण बैंक के प्रशिक्षण कार्यक्रम के बाद की एक घटना के बारे में बताने वाला था. हुआ यह, एक दिन शिवपुरी-गुना ग्रामीण बैंक के अध्यक्ष श्री बडवेलकर का पत्र आया जिसमें उन्होंने मुझसे अपने अधिकारियों को शिवपुरी में प्रशिक्षण देने का आग्रह किया. उनसे फ़ोन पर बात करने पर मालूम हुआ कि स्टेट बैंक द्वारा नियोजित ग्रामीण बैंक की लगभग ७० शाखाएं शिवपुरी और गुना जिले के ग्रामीण क्षेत्रों में कार्यरत हैं जो घाटे में चल रही हैं, उनकी हालत चिन्ताजनक है और बैंक के पास स्टाफ़ को केवल दो माह तक सेलरी देने लायक ही गुंजाइश बची है !
‘मेरा प्रशिक्षण पर बहुत भरोसा है, मैं अपने क्षेत्र के सभी अधिकारियों को प्रशिक्षित करवाना चाहता हूं। मुझे विश्वास है कि इस तरीके से हम इस डूबते जहाज को बचा सकेंगे। बिलासपुर के प्रशिक्षण केन्द्र में एक साथ सबको नहीं भेजा जा सकता इसलिए अलग से प्रशिक्षण करवाने का प्रावधान न होने के बावजूद हमने आपको यहाँ बुलाने का निर्णय लिया है, आप आ जाइए.’ उन्होंने कहा.
‘जी, लेकिन आप मुझे क्यों बुला रहें हैं ?’
‘बिलासपुर के प्रशिक्षण केन्द्र से प्रशिक्षण लेकर आए हमारे दोनों अधिकारियों से आपके बारे में मुझे जो 'फीडबैक' मिला है उसने मेरी उम्मीद बढ़ा दी है, यह बताइये, आप ‘कितना’ लेंगे ?’
‘जो आप देंगे.’ मैंने उत्तर दिया.
          शिवपुरी में ग्रामीण बैंक के अधिकारियों का प्रशिक्षण दो दिनों तक नगरपालिका के सभागार में चला जिसमें उन्हें उत्साहित करने के लिए नेतृत्व क्षमता विकास, संप्रेषण, समूह में मिल-जुल कर कार्य करने के रहस्य और उत्प्रेरणा जैसे विषयों पर गहन चर्चा हुई. पहले ग्रामीण बैंक ‘कमर्शियल’ लेन-देन के लिए अधिकृत नहीं थे, उन्हें केवल ग्रामीणों को बैंक से जुड़ने, नकद जमा करने और ॠण लेने के लिए प्रोत्साहित करने का कार्य करना था लिहाज़ा लाभप्रद लेन-देन के अभाव में वे घाटे से उबर नहीं पा रहे थे. इसके अतिरिक्त बैंक के अधिकारियों और उनके अधीनस्थों की निष्क्रियता भी बड़ी समस्या थी.
        दूसरे दिन की एक घटना यादगार बन गई, हुआ यह, ‘लंच’ के बाद शिवपुरी के कलेक्टर श्री सार्खेल समूह को संबोधित करने के लिए आमंत्रित किए गए थे. दरअस्ल ग्रामीण बैंक की गतिविधियां राज्य शासन की देखरेख में संचालित होती हैं इसलिए उस क्षेत्र के कलेक्टर की निगाह-ए-करम जरूरी हुआ करती है. भाषण आदि औपचारिकताओं के पश्चात जब कलेक्टर वापस जाने लगे तो मैंने उनसे अनुरोध किया- ‘दस-पन्द्रह मिनट रुकिए और प्रशिक्षण देख लीजिए.’ वे हिचकिचाए और कहा- ‘दस मिनट के लिए रुक जाता हूं.’ उनकी उपस्थिति में ‘अभिप्रेरणा’ विषय पर प्रशिक्षण शुरू हुआ.
         मैं अभिप्रेरणा के आन्तरिक स्रोत के बारे में प्रतिभागियों को समझा रहा था- ‘ यह सच है कि आप लोग अत्यन्त प्रतिकूल परिस्थितियों में काम कर रहे हैं. अशिक्षित ग्रामीणों को समझाना और उन्हें बैंक तक लाना मुश्किल काम है, आपके पास तरीके का आफ़िस नहीं है, बिजली नहीं है, गांव की कीचड़ भरी सड़कों और खेतों पर आपको भटकना पड़ता है पर आपके पास ऐसे ‘पावर’ हैं जो कलेक्टर साहब के पास भी नहीं है.’ इसे सुनकर समूह उत्सुक सा हो गया. मैंने कलेक्टर की ओर देखा और उनसे पूछा- ‘सर, एक बात बताइए, आप यदि किसी व्यक्ति की पांच हजार रुपए की मदद करना चाहते हैं तो आपके पास कोई ‘डायरेक्ट पावर’ है क्या?’
‘नहीं, डायरेक्ट तो नहीं है.’ तनिक असहज होकर उन्होंने उत्तर दिया.
‘परन्तु सर, इस सभागार में जो लोग बैठे हुए हैं वे किसी भी ग्रामीण को पांच हजार से लेकर बीस लाख रुपए की मदद ॠण के माध्यम से तुरन्त देकर उनकी ज़िन्दगी में बदलाव ला सकते हैं, अब आप बताइए, आप ज़्यादा ‘पावरफ़ुल’ हैं या ये लोग?’  प्रश्न सुनकर कलेक्टर मुस्कुराए और दोनों हाथ समूह की ओर बढ़ाते हुए कहा- ‘ये लोग.’ सभागार में एक विद्युत शक्ति सी चमकी जो सबके मन-मष्तिस्क में प्रवेश कर गई, सबके चेहरे एक अनोखी ज्योति से दैदीप्यमान हो उठे. हमारे दो दिनों का परिश्रम जैसे एक उदाहरण में समाहित हो गया. सत्र डेढ़ घंटे चला, पूरे समय कलेक्टर उत्सुकता से देखते-सुनते रहे. जाते समय उन्होंने मुझसे कहा- ‘किसी दिन हमारे अधिकारियों के लिए भी एक प्रशिक्षण कर दीजिए.’
‘जब आप बुलाएंगे, आ जाऊंगा.’ मैंने उन्हें आश्वस्त किया.
          कार्यक्रम सम्पन्न होने के बाद मुझे बतौर पारिश्रमिक एक लिफ़ाफ़ा मिला, साथ में अध्यक्ष की ओर से आभार और खेद प्रकटन भी- ‘सर, आपने हमारे लिए जो किया, हम उसका यथोचित मूल्य नहीं दे पा रहे हैं, कृपया इसे ही हमारी ओर से भेंट मानकर स्वीकार करिए.’ मैंने सहज भाव से उसे रख लिया और उनसे विदा ली. शिवपुरी के शानदार ‘रिसोर्ट’ में, जहां मुझे ठहराया गया था, मैंने अपने कमरे में लिफ़ाफ़ा खोलकर देखा, उसमें बारह हजार रुपए थे. यह कार्यक्रम सितम्बर १९९३ में हुआ था, उस समय के हिसाब से बारह हजार बड़ी रकम थी. मैं अवाक रह गया क्योंकि अब तक एक प्रस्तुतीकरण के दो-ढाई सौ रुपए ‘मानदेय’ पाकर ही मन प्रसन्न हो जाया करता था. खुशी इस बात की थी कि प्रशिक्षण कार्यक्रम प्रभावी रहा और काम की कद्र भी हुई.
          अक्टूबर १९९३ में गुना के आस-पास पदस्थ अधिकारियों और कार्मिकों के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम गुना में आयोजित हुआ. उसके बाद उनके लिए स्थाई प्रशिक्षक तैयार करने हेतु जनवरी १९९४ में भी एक कार्यक्रम हुआ जिसमें मेरे मित्र प्रशिक्षक श्री राजेश दुआ भी साथ में गए. यानी, पांच माह में तीन कार्यक्रम, बल्ले-बल्ले !          अप्रैल १९९४ में भोपाल में मध्यप्रदेश के सभी ग्रामीण बैंकों के अध्यक्षों का सम्मेलन हुआ जिसमें वर्ष भर की गतिविधियां और स्थिति-विवरण प्रस्तुत हुए. शिवपुरी-गुना ग्रामीण बैंक के अध्यक्ष ने वहां बताया- ‘इस वित्त वर्ष में हमें दो करोड़ से अधिक लाभ हुआ है.’ शेष अध्यक्षों के चेहरे आश्चर्य से भर गए, एक ने प्रश्न किया- ‘मि. बडवेलकर, अगस्त-सितम्बर में अफ़वाह थी कि आप स्टाफ़ को सेलरी नहीं दे पा रहे हैं, अभी आप दो करोड़ की प्राफ़िट बता रहे हैं, कोई जादू किया क्या?’
‘जादूगर बिलासपुर में रहता है.’ श्री बडवेलकर ने बताया.

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