फिर ऐसा भी हुआ :
==========
============
निर्माणाधीन लॉज का ‘सिविल वर्क’ पूरा हो चुका था, उसे चालू करने की सारी कोशिशें किसी न किसी बाधा के कारण स्थगित हो जाती थी, सबसे बड़ी बाधा थी- प्रेत बाधा। हाँ, वही भूत-प्रेत वाली बाधा ! मुहल्ले-पड़ोस में सब लोग कहते थे- ‘वहाँ एक जिन्न है।’ निर्माण में हो रहे विलम्ब और अनेक बाधाओं के चलते अफ़वाह को और मज़बूती मिलती गई। विलम्ब और बाधाओं के कारण कुछ और ही थे लेकिन 'क्रेडिट' भूत-प्रेत के खाते में जा रही थी। सवाल यह है कि ये भूत-प्रेत होते भी हैं नहीं ?
मैंने उन्हें देखा नहीं और न ही देखना चाहता। मेरे लिए वे ईश्वर की तरह हैं यानी- मानो तो देवता, न मानो तो पत्थर। जो मानते हैं उनके लिए भगवान है, उसी प्रकार जो डरते हैं उनके लिए भूत होता है। मैं तो व्यापारी की सन्तान हूँ, रक्त में व्यापार प्रवाहित है। स्मशान घाट में बैठूँगा तो वहाँ भी कफ़न और लकड़ी बेच कर आजीविका चला लूँगा, डरूंगा नहीं, भला रोजी-रोटी से कैसा डर ?
मैंने दद्दाजी को समझाया को ये सब बेकार की अफवाहें हैं लेकिन एक दिन उन्होंने मुझे यह बताकर चौंका दिया- 'बड़े भैया ने रायपुर की एक 'पार्टी' से बात कर ली है, कल लॉज का सौदा 'फाइनल' करने के लिए वे लोग आने वाले हैं.'
'ये आप क्या कर रहे हैं ?' मैंने विरोध किया।
'जाने दो, अपन झंझट में क्यों पड़ें ?'
'कोई झंझट नहीं.'
'तो फिर ?'
'मत बेचिए, मैं चलाऊंगा उसे।'
'ज़िद करते हो तुम, भूत-प्रेत से कोई निपट सकता है ?'
'आप मानिए, मैं चला लूंगा और अगर सच में वहाँ भूत होगा तो भी मुझे कोई परेशानी नहीं होगी।'
'कैसे ?'
'भूत-प्रेत अपने से बड़े को मान देंगे कि नहीं?'
लम्बी कहानी है, धीरे-धीरे आगे बढ़ेगी। शायर मुनव्वर राणा की ग़ज़ल है:
"दुनिया सलूक करती है हलवाई की तरह
तुम भी उतारे जाओगे मलाई की तरह।
माँ बाप मुफलिसों की तरह देखते हैं बस
कद बेटियों के बढ़ते हैं महंगाई की तरह।
हम चाहते हैं रक्खे हमें भी ज़माना याद
ग़ालिब के शेर, तुलसी की चौपाई की तरह।
हमसे हमारी पिछली कहानी न पूछिए
हम खुद उधड़ने लगते हैं तुरपाई की तरह।"
==========
बैंक लिमिट बढ़ाने को तैयार नहीं था इसलिए साहूकारों से अधिक दर की ब्याज पर उधार लेना शुरू हुआ लेकिन ब्याज पर ब्याज और तगादे पर तगादा शुरू हो गया और आर्थिक विवशता ने मुझे अपनी बाहों में कस लिया। उसी वक्त मेरे श्वसुरजी को मेरी आर्थिक स्थिति की भनक मिली तो उन्होंने माधुरी के माध्यम से मुझे मदद का प्रस्ताव किया। जब मैं अपने संयुक्त परिवार में रहता था तब मेरे परिवार में यह चर्चा-ए-आम थी कि मैंने ‘पेन्ड्रावाला’ की कमाई चुपचाप अपनी ससुराल में जमा करके रखी है, काश! मैंने वैसा किया होता तो ससुराल का सहयोग न लेना पड़ता, अपना जमा पैसा मँगवा लेता। ससुराल से उधार लेने की बात मुझे जम नहीं रही थी, संकोच हो रहा था लेकिन यात्री ट्रेन के आसपास भटकने वाले भूखे इन्सान के पास ‘मेनू’ का ‘आप्शन’ नहीं रहता ! बेशरमी ओढ़ कर वहां से भी ले लिया लेकिन इधर गड्ढा इतना अधिक हो चुका था कि किसी चमत्कार के बिना बात बनना असम्भव था और कोई चमत्कार हो नहीं रहा था।
जमीन खरीदना और उस पर घर बनाना- दोनों निर्णय गलत थे। ‘अपना घर बनाना है’- के चक्कर में व्यापार में लगी पूंजी ऋणात्मक दिशा में घूम गई और कई वर्षों तक ‘इसकी टोपी उसके सिर पर’- के तरीके से काम करना पड़ा, परिणामस्वरूप मेरा व्यापार भसकता गया। बाज़ार और बैंक में साख गिरने लगी, उधार देकर मदद करने वाले भी मुझसे आंखें चुराने लगे, आखिर वे कब तक और कितनी बार मेरी सहायता करते ? ‘तेली के पास तेल है तो क्या वह पहाड़ पर चुपड़ देगा?’
आर्थिक चमत्कार भले न हुआ लेकिन एक मनचाहा अवसर मेरे समक्ष आ ही गया। आपको मैंने बताया था कि फ़टेहाली की दशा में विदेश जाकर अंतर्राष्ट्रीय प्रशिक्षक बनने का कोई रास्ता न था लेकिन भारतीय जूनियर चेम्बर से आए एक पत्र से मुझे सूचना मिली कि जूनियर चेम्बर इन्टरनेशनल उस प्रशिक्षण कार्यक्रम का आयोजन भारत में ही कर रहा है। मैंने आवेदन भेजा, चयन हो गया और मैं नियत तिथि पर उस ‘ट्रेन द ट्रेनर’ तीन दिवसीय कार्यक्रम में भाग लेने मुम्बई पहुंच गया। पायलट फ़ेकल्टी थे- न्यू-जीलेन्ड के बिल पॉटर और उनके साथ दो भारतीय सहयोगी प्रशिक्षक।
बिल पॉटर गजब के इन्सान थे। झक्क गुलाबी चेहरा, ऊंचे-पूरे थे। वे अपने देश की फुटबाल टीम के कोच भी थे। वे खुद को ‘ट्रेनर’ कहलाना पसन्द नहीं करते थे क्योंकि उनके अनुसार- ‘ट्रेनर’ तो पशुओं का होता है, मैं ‘कोच’ हूँ, मैं मनुष्यों को सिखाता हूँ।’ मैंने पहली बार किसी प्रशिक्षक को जीन्स और टी शर्ट पहन कर प्रशिक्षण देने के लिए आया देखा। अभी तक तो जितने मिले, इस बात पर बहुत जोर देने वाले मिले- ‘प्रशिक्षक को ‘वेल ड्रेस्ड’ होना चाहिए- सूट, टाई और चमकते जूते पहने हुआ प्रशिक्षक पहली नज़र में अपना जो प्रभाव डालता है वह पूरे सत्र में कायम रहता है।’ शुरूआती दौर में मैंने भी ‘अप-टू-डॆट’ रहने कॆ उन निर्देशों को अपनाया। सूट तो मेरे पास था नहीं इसलिए पैन्ट-शर्ट, टाई पहन कर असर डालने की कोशिश करता लेकिन मुझे ज़ल्दी ही समझ में आ गया कि असर वेशभूषा का नहीं वरन प्रशिक्षक के प्रस्तुतीकरण का होता है इसलिए मैंने अपने गले में टाई लटकाना बन्द कर दिया और साधारण पैन्ट-शर्ट या कुरता-पैजामा पहन कर प्रशिक्षण देने जाने लगा।
बिल पॉटर का मानना था कि प्रशिक्षण सुविधाजनक होना चाहिए तब ही प्रशिक्षु पर प्रभाव पड़ता है। माहौल तनाव रहित हो, प्रशिक्षु ‘रिलेक्स’ हों और प्रशिक्षक मज़े में अपनी बात प्रस्तुत करनेवाला, तब बात बनती है। वे कुशल रेखाचित्रकार थे जिसका उपयोग वे अपनी बात समझाने के लिए किया करते थे। उनके प्रस्तुतीकरण के दौरान थकान और तनाव का कोई काम न था, परिणामस्वरूप सीखना एकदम आसान हो जाता था। उन तीन दिनों में वे मेरे गुरू बन गए, मैंने उनसे जो सूत्र सीखे वे आजीवन मेरे काम आए। उस कार्यक्रम में सहभागिता के पश्चात मैं ‘प्राइम’ ट्रेनर बन गया और अन्तर्राष्ट्रीय प्रशिक्षक बनने की पहली पायदान पर खड़ा हो गया। यही मेरी आखिरी पायदान सिद्ध हुई क्योंकि उसके बाद की दो सीढ़ियां- ‘ए़क्सेल’ और ‘ओम्नी’ मुझे नसीब नहीं हुई क्योंकि उनके लिए विदेश जाना अनिवार्य था और आपको तो मालूम ही है कि उन दिनों विष्णुप्रिया लक्ष्मी जी मुझसे रूठी हुई थी|
मुम्बई में हमारा प्रशिक्षण जिस सभागार में था उसके पास में ही 'फ़िल्म सिटी’ थी। कार्यक्रम समाप्त होने के बाद हम लोग वहां घूमने गए। फ़िल्म ‘शरारा’ की शूटिंग चल रही थी जिसमें एक 'डांस सीक्वेंस' फिल्माया जा रहा था, बेहद 'बोरिंग' था। निर्माता निर्देशक थी- हेमामालिनी, वही हेमामालिनी, ‘शोले’ वाली- ‘यूं तो, हम सीख रहे थे गोली चलाना लेकिन हमें कुछ दाल में काला नज़र आता है’- उन्हें आमने-सामने देखना सुखद अनुभूति थी, मेरी नज़रें बार-बार घूम कर उन्हीं की ओर टिक जाती थी, सुंदरता और सौम्यता की प्रतिमूर्ति...वाह... हेमा जी... वाह !
==========
जूनियर चेम्बर इन्टरनेशनल का ‘प्राइम ट्रेनर’ बनने के बाद जब मैं अपने शहर वापस आया, मेरे जेसी मित्रों ने एक कार्यक्रम आयोजित कर मुझे सम्मानित किया जो मुझे आज तक याद है. याद क्यों है ? याद इसलिए है कि इन्सान कितना भी बड़ा तीरन्दाज़ हो जाए, उसकी अपने शहर में इज़्ज़त नहीं हुआ करती, यहां तक कि घर के लोग भी प्रभावित नहीं होते। जब मेरे द्वारा किए गए प्रशिक्षण कार्यक्रमों की चर्चा मेरे पिता यानी दद्दाजी तक पहुंची तो उन्होंने टिप्पणी की- ‘दस-बीस मूर्ख उसकी बातों को सुनकर ताली बजा देते हैं और हमारे पुत्र अपना काम-धन्धा छोड़ कर भाषण देने का काम करने लगे हैं।’ आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि मुझे इन कार्यक्रमों को करते अब वर्षों बीत चुके हैं, देश के सभी हिंदी भाषी राज्यों के विभिन्न शहरों और अपने शहर में भी सैकड़ों कार्यक्रम कर चुका हूं लेकिन आज तक मेरे पिता या भाइयों ने कभी मेरे प्रशिक्षण कार्यक्रम में पधारने का कष्ट नहीं किया, न उन्हें कभी यह उत्सुकता हुई- ‘चल कर देखें, आखिर यह कर क्या रहा है ?’
एक दिन बिलासपुर के ग्रामीण बैंक के प्रशिक्षण केन्द्र से फ़ोन आया कि वे अपने अधिकारियों के लिए आयोजित प्रशिक्षण कार्यक्रम में मेरी सेवाएं चाहते हैं। बहुत अरसे से मुझे ऐसी किसी खबर का इन्तज़ार था। अब परेशानी यह थी कि अब तक मैं जेसीज में आंतरिक प्रशिक्षण दिया करता था जिसके ‘टिप्स’ मुझे जेसीज के ‘मेन्युअल’ में मिल जाते थे लेकिन यहां बैंक के अधिकारियों को प्रशिक्षित करना था, उन्हें कैसे किया जाए ? मेरे एक मित्र विवेक जोगलेकर उसी संस्थान में नियमित प्रशिक्षक थे, मैंने उनसे अपनी समस्या बताई। उन्होंने मुझे विषय से सम्बन्धित कई बातें विस्तार से समझाई और पढ़कर तैयारी करने के लिए अनेक लिखित प्रपत्र भी दिए। अगले दिन मैं गया और मुझसे जैसा बन पड़ा- मैंने चार ‘सेशन’ लिए और राम-राम करते घर वापस आया। बात आई-गई हो गई लेकिन उसके कुछ दिनों बाद एक अज़ूबा हो गया, क्या हुआ ? बाद में बताऊंगा।
==========
कुछ स्त्रियां खूबसूरत होती हैं, कुछ खूबसूरत दिखती हैं, कुछ खूबसूरत दिखाई पड़ती हैं. ‘खूबसूरत होती हैं’- वे जो कुदरती खूबसूरत होती हैं जैसे- किसी स्त्री के त्वचा का आकर्षक रंग, आनुपातिक देहयष्टि, प्रभावोत्पादक अंग-प्रत्यंग, मोहक चितवन और मादक मुस्कान आदि.
‘खूबसूरत दिखती हैं’- वे जो सबको खूबसूरत लगे न लगे परन्तु किसी को भा जाए जैसे मजनू को लैला. आपको वह किस्सा पता है? अरब देश की एक सल्तनत में कैस नामक युवक और लैला नाम की लड़की एक-दूसरे के इश्क में पड़ गए. लैला के अब्बा सल्तनत के वज़ीर थे जो इस मामले से बेहद खफ़ा थे लेकिन उनकी दोनों को समझाने-बुझाने की सारी कोशिशें नाकाम हो गई. लैला के अब्बा ने सुल्तान से शिकायत की और दखल की गुजारिश की. सुल्तान ने कैस को तलब किया और कहा- ‘कैस, तुम हमारे हरम में जाओ और जो लड़की तुम्हें सबसे ज़्यादा खूबसूरत लगे, उसे छांट लो, हम उससे तुम्हारा निकाह करा देंगे पर तुम लैला का पीछा छोड़ दो.’
‘नामुमकिन हुज़ूर, मैं उससे दूर नहीं हो सकता.’ कैस ने जवाब दिया.
‘क्यों? आखिर उस कलूटी लैला में क्या दिखा जो तुमने हमारे हरम की खूबसूरती को ठुकरा दिया?’
‘हुजूर, लैला की खूबसूरती को देखने के लिए मज़नू की आंखें चाहिए.’
‘खूबसूरत दिखाई पड़ती हैं’- वे जो ‘ब्यूटी पार्लर’ की कृपा से ‘ब्यूटीफ़ुल’ बन गई हैं. आज, अब सब खूबसूरत दिखाई पड़ती हैं. लिपे-पुते चेहरे में किसी की सुन्दरता का आकलन अत्यन्त चुनौतीपूर्ण काम हो गया है.
खूबसूरती की बात चली तो मेरा दिल कर रहा है कि मैं आपको अपनी पत्नी माधुरी से जुड़ी एक ऐसी घटना बताऊं जिसमें उपरोक्त तीनों परिभाषाओं का सम्मिश्रण बन कर सामने आया. दसेक साल पहले की बात है, हम पति-पत्नी ट्रेन से भिलाई जा रहे थे. गाल फ़ुलाकर सफ़र करना हमें पसन्द नहीं इसलिए सहयात्रियों से अल्पकालिक मित्रता बनाकर बातचीत कर लिया करते हैं ताकि समय आसानी से कट जाए. हमारे साथ दुर्ग के एक सराफ़ा व्यापारी भी सफ़र कर रहे थे, गपशप शुरू हो गई. उन्होंने मुझसे पूछा- ‘भिलाई किस काम से जा रहे हैं?’
‘अपनी छोटी बेटी के विवाह संबंध की चर्चा करने के लिए.’ मैंने बताया.
‘ये आपकी बड़ी बेटी हैं?’ उसने माधुरी की ओर देखकर पूछा.
‘नहीं, ये मेरी दोनों बेटियों की मां हैं.’ मैंने उसे बताया. वह स्तब्ध रह गया, उसकी मुखाकृति में घोर आश्चर्य उभर आया और शेष यात्रा में वह मौन साधे अविश्वास के साथ माधुरी की ओर थोड़ी-थोड़ी देर में देखता रहा.
देखिए, अब, उम्र की सीमा का बन्धन भी टूट कर ध्वस्त हो गया है !
सन १९९३ की घटना है, ‘मिस बिलासपुर’ की प्रतियोगिता में मुझे निर्णायक के रूप में बुलाया गया था. मेरे अतिरिक्त तात्कालीन पुलिस अधीक्षक एवं आबकारी अधिकारी की पत्नियां भी निर्णायक मंडल में सम्मिलित थी. कार्यक्रम बिलासपुर के राघवेन्द्रराव सभा भवन में आयोजित हुआ था जिसमें पुरुषों को प्रवेश वर्जित था. उस कार्यक्रम में मैं अपनी पत्नी माधुरी के साथ गया था. सभागार के मंच के सामने हम तीनों निर्णायक बैठे थे, हमारे पीछे और मंच के दाएं-बाएं ‘v शेप’ में लड़कियों का हुज़ूम था. उस महकते-चमकते माहौल में मैं सर्वथा अकेला पुरुष था जिसने युवतियों की हुल्लड़ का वह अभूतपूर्व दृश्य देखा और उनकी मस्तिष्कभेदी सीटियों की आवाज सुनी. उस भीड़ में माधुरी कहां बैठी थी- मुझे मालूम नहीं लेकिन कार्यक्रम समाप्त होने के बाद उन्होंने मुझे बताया कि वे ऐसे कोण में बैठी थी कि तिरछी नज़र से मुझे देख पा रही थी. घर आकर माधुरी ने मुझसे कहा- ‘क्यों, लड़कियों को ऐसे देखते हैं क्या?
उस भीड़ में माधुरी कहां बैठी थी- मुझे मालूम नहीं लेकिन कार्यक्रम समाप्त होने के बाद उन्होंने मुझे बताया कि वे ऐसे कोण में बैठी थी कि तिरछी नज़र से मुझे देख पा रही थी. घर आकर माधुरी ने मुझसे कहा- ‘क्यों, लड़कियों को ऐसे देखते हैं क्या?’
‘क्या हुआ?’ मैंने पूछा.
‘ऐसे बन रहे हो, जैसे कुछ नहीं हुआ.’
‘मैं नहीं समझा, खुलकर बोलो.’
‘प्रतियोगियों को किस ढंग से देख रहे थे?’
‘किस ढंग से देख रहा था?’
‘उनको सिर से लेकर पैर तक बार-बार घूर रहे थे. मैं सब देख रही थी, मेरी नज़र तुम्हारे चेहरे पर थी, समझे.’
‘मैं निर्णायक था इसलिए गहराई से देखना-समझना था, नज़रें झुकाकर तो नहीं देख पाता.’ मैंने उन्हें समझाने का असफ़ल प्रयास किया. फ़िर मुझे खुद ही अपनी गलती समझ में आ गई. उस घटना ने मुझे सिखाया कि किस जगह अपनी पत्नी को अपने साथ ले जाना और कहां नहीं.
उस कार्यक्रम में एक और तमाशा हुआ. सौन्दर्य प्रदर्शन पूर्ण होने के पश्चात हम तीनों निर्णायकों के द्वारा दिए गए अंकों को जोड़कर अंतिम परिणाम तैयार करने का काम मुझे सौंपा गया. विजेता, प्रथम उप-विजेता और द्वितीय उप-विजेता के नाम मैंने आयोजक को दे दिए. आयोजकों में से एक आयोजिका, जिनका नाम हमारे शहर में 'सक्रिय समाज सेविका’ के रूप में प्रतिष्ठित है, अंतिम परिणाम को देखकर चौंकी और मुझसे कहा- ‘द्वारिका भाई, ये तो गड़बड़ हो गया.’
‘क्या हुआ?’ मैंने पूछा.
‘प्रथम उप-विजेता वाली लड़की को ‘मिस बिलासपुर’ बनाना है.’
‘जब आपने पहले से ही सब कुछ तय कर रखा था तो हमें क्यों बुलाया था, दिखावा करने के लिए?’
‘अब उस बात को छोड़िए, नम्बर ऊपर-नीचे कीजिए और 'नई फ़ाइनल लिस्ट’ बना दीजिए, प्लीज़.’ उन्होंने आग्रह किया. मैं उठ खड़ा हुआ और मैंने कहा- ‘मैं आपकी बात नहीं मानूंगा, ये गलत है, अन्याय है.’
‘ये जरूरी है.’ आयोजिका ने कहा.
‘तो, मैं जा रहा हूं.’ मैं सभागार से बाहर निकल गया. मेरे जाने के बाद जो कुछ हुआ, वह अगले दिन के समाचारपत्र में छपा. जिसे हमने प्रथम उप-विजेता बनाया था उसके मस्तक पर ‘मिस बिलासपुर’ का ताज कुशोभित हो चुका था.
मैंने फ़णीश्वरनाथ रेणु के उपन्यास ‘मारे गए गुलफ़ाम’ के नायक हीरामन की तरह कसम खाई- ‘अब कभी किसी ‘ब्यूटी कान्टेस्ट’ में निर्णायक नहीं बनूंगा.’
==========
पुरानी यादों की दुनियां अब भी अपनी लगती है। जिस जमीन पर हमारे कदम पड़े थे, उसके निशान भले ही मिट गए हों, खुशियों और तकलीफों के असर अब भले न दिखाई पड़ते हों लेकिन उनकी उपस्थिति मौके-ब-मौके उभरती रहती है, खास तौर से तकलीफें। ये तकलीफें खट्टे दही की तरह होती हैं जिसे खाना अरुचिकर हुआ करता है लेकिन उस दही की कढ़ी बनाकर उसके मज़े भी लिए जा सकते हैं. मेरी यह आत्मकथा उसी 'खट्टे दही की कढ़ी उबाल कर खाओ और आनंद मनाओ' जैसी है। वैसे तो यह बेशर्मी की हद है लेकिन क्या करूं ?
मनुष्य के साथ परेशानी यह है कि वह अपने अतीत से सबक नहीं लेता, बार-बार गलती करता है, पछताता है, कान पकड़ता है और फ़िर वैसी ही कोई दूसरी गलती करने के लिए तत्पर हो जाता है. वह ज्ञानी-ध्यानी हो या सांसारिक, सब का जीवन कुछ पाने या पकड़ने या समझने में बीतता है. ये लालसा समय मांगती है और निरन्तर प्रयत्न भी. प्रबन्धन के विद्वान सलाह देते हैं- ‘लगे रहो.’ यह ‘लगे रहो’ का पागलपन हमें लगाए रखता है. इसे आप सफ़लता प्राप्ति का माध्यम मानें या विशुद्ध मूर्खता- दोनों के पक्ष में तर्क दिए जा सकते हैं.
मुझमें ढेर सारा ‘पैसा’ कमाने की ललक कभी न थी, हाँ, कुछ ऐसा सीखने-करने का दिल होता था कि ‘कुछ किया जैसा’ लगे और जीवन सार्थक लगे. कई बार कुछ रचनात्मक करने का दिल होता था लेकिन परिवार का व्यापारिक माहौल मेरी दोनों आंखों में तांगा खींचने वाले घोड़े की तरह आड़ लगाए रखता था ताकि मैं अगल-बगल न देख सकूं. मैं `बुकसेलर' बनना चाहता था, `फोटोग्राफर' बनना चाहता था, प्रशासनिक सेवाओं में जाना चाहता था, वकालत करना चाहता था, उद्योगपति बनना चाहता था लेकिन चाहने से क्या होता है मित्र ? बहुत हाथ-पैर मारे लेकिन एक अदना व्यापारी से अधिक कुछ न बन पाया। क्या ये सब मेरे भाग्य में न था ?
न, ऐसा नहीं है, दरअसल, 'लगे रहो' वाला सूत्र अपने जीवन में अंगीकार न कर पाया। कभी-कभी अपनी असफलताओं पर बहुत अफ़सोस होता है लेकिन डॉ. हरिवंशराय बच्चन की यह कविता बेहद सुकून देती है :
"जीवन में एक सितारा था
माना वह बेहद प्यारा था
वह डूब गया तो डूब गया.
अम्बर के आनन को देखो
कितने इसके तारे टूटे
कितने इसके प्यारे छूटे
जो छूट गए फिर कहाँ मिले ?
पर बोलो टूटे तारों पर
कब अम्बर शोक मनाता है ?
जो बीत गई सो बात गई.
जीवन में वह था एक कुसुम
थे उस पर नित्य निछावर तुम
वह सूख गया तो सूख गया.
मधुवन की छाती को देखो
सूखी कितनी इसकी कलियाँ
मुर्झाई कितनी वल्लरियाँ
जो मुर्झाई फिर कहाँ खिली ?
पर बोलो सूखे फूलों पर
कब मधुवन शोर मचाता है ?
जो बीत गई सो बात गई.
जीवन में मधु का प्याला था
तुमने तन मन दे डाला था
वह टूट गया तो टूट गया.
मदिरालय का आँगन देखो
कितने प्याले हिल जाते हैं ?
गिर मिट्टी में मिल जाते हैं
जो गिरते हैं कब उठते हैं ?
पर बोलो टूटे प्यालों पर
कब मदिरालय पछताता है ?
जो बीत गई सो बात गई.
मृदु मिट्टी के हैं बने हुए
मधु घट फूटा ही करते हैं
लघु जीवन लेकर आए हैं
प्याले टूटा ही करते हैं.
फिर भी मदिरालय के अन्दर
मधु के घट हैं मधु प्याले हैं
जो मादकता के मारे हैं
वे मधु लूटा ही करते हैं
वह कच्चा पीने वाला है
जिसकी ममता घट प्यालों पर
जो सच्चे मधु से जला हुआ
कब रोता है चिल्लाता है ?
जो बीत गई सो बात गई."
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें